उपन्यास

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रघुवंश

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    हिंदी के कथापरक रचना-विधान का एक रूप उपन्यास विकसित हुआ है। अँग्रेज़ी के नॉवेल के रूप में इसका प्रयोग किया गया है। इस नॉवेल का अर्थ नया है और इसका प्रयोग कल्पना प्रधान कथात्मक रचनाओं के लिए तैयार किया गया। जीवन के यथार्थ पर आधारित रचनाओं के आंदोलन के क्रम से यह नाम प्रचलित हुआ। इस दृष्टि से स्टील ने कहा कि “हमारी भावशीलता केवल रोमांस द्वारा ही परितृप्त नहीं हो सकती, अब नॉवेल उसका प्रतिरूप बनेगा।” इस कथा-रूप का रोमांस के क्रम में विकास माना जा सकता है। रोमांस कथानकों में असंभव तथा दुर्लभ, अद्भुत तथा वैचित्र्यपरक कार्यों का आधार रहा है, जबकि उपन्यास संभव, सहज, यथार्थ जीवन के आधार पर नियोजित हुआ है। 'उपन्यास' शब्द इस दृष्टि से इस कथा-रूप के लिए प्रचलित हुआ है। इसके अर्थ में समीप स्थिति का भाव है और इस दृष्टि से यह कथात्मक रचना-विधान हमारी ही कथा का हमारी ही भाषा में संयोजित होना है। इसमें हमको अपने जीवन का प्रतिबिंब मिलता है। अँग्रेज़ी में नॉवेल शब्द का प्रयोग यूरोप के फ़्रांस तथा इटली आदि के समांतर हुआ है। उपन्यास रचना-विधान का विकास जिस प्रकार विविध रूपों तथा शैलियों में हुआ है, उसके देखते हुए उसके परिभाषित कर पाना संभव नहीं है। परिभाषाओं की सीमाओं में रचना-रूप निश्चित और विजड़ित होता है, पर उपन्यास की रचना का क्रम अधिक गति तथा विविधता के साथ विकसित हुआ है। कुछ महत्त्वपूर्ण चिंतकों की परिभाषाओं से ही यह स्पष्ट हो जाता है। फील्डिंग उपन्यास को एक ‘मनोरंजनपूर्ण महाकाव्य' मानते हैं, तो फ़्रांसिस बेकन उसे 'कल्पित इतिहास' कहते हैं।

    क्लारा रीव उपन्यास को ऐसी विधा मानते हैं, जिसमें समकालीन युग के सामाजिक यथार्थ और उसमें प्रचलित रीति-रिवाजों का चित्र होता है। बेकर के अनुसार यह कल्पित गद्य-कथा मानव-जीवन की व्याख्या का रूप है। रिचर्ड बर्टन अपनी व्याख्या में 'उपन्यास को समसामयिक समाज और उसके मंगलकारी तत्त्वों का अध्ययन, प्रेम-तत्त्व की प्रेरक शक्ति से अनुप्रेरित' मानते हैं। व्यापक रूप से स्वीकार किया जा सकता है कि इस रचना-विधान में व्यक्ति और समाज के नानाविध संबंधों अनुभवों-भावों, विकसित होने वाले चरित्रों, अनेक स्तर पर विकसित होने वाले मनोभावों तथा मानसिक स्तर पर घटित होने वाली नानाविध मनःस्थितियों के यथार्थ की अभिव्यक्ति होती है। और इसके अनुसार उसकी अनेकानेक शैलियों का प्रयोग हुआ है।

    मानवीय जीवन को संपूर्ण वैविध्य तथा व्यापकता से कथावस्तु में संयोजित करने के कारण उपन्यास का रचना-विधान एक रूप अथवा निश्चित नहीं होता। इस कारण उसको स्पष्ट रूप से परिभाषित करना संभव नहीं है। उसकी कथावस्तु के विभिन्न उपकरणों में मुख्य दृष्टि, विचार, आधारभूत विषय या कार्य अथवा संवेदना के रूप में कथासूत्र कहा गया है क्योंकि संपूर्ण औपन्यासिक विधान उसी पर आधारित रहता है और विकसित होता है। इस सूत्र को जीवन के व्यावहारिक परिवेश में विकसित करने के लिए प्रत्यक्ष घटनाक्रमों, कार्य-व्यापारों से लेकर मन की अंत:प्रक्रियाओं तक का वर्णन किया जाता है। इस योजनाक्रम को मुख्य कथानक कहा जाता है। फिर कथावस्तु का ताना-बाना अनेक कथाओं, घटनाओं वृत्तों से निर्मित होता है। इनमें केंद्रीय कथा मुख्य होती है और अन्य शेष उसकी सहायक लघुकथाएँ या वृत्त होते हैं। इन सबके संयोजन से उपन्यास का रचनात्मक रूप विकसित होता है। बड़े उपन्यासों में मुख्य कथानक के साथ दूसरे समानांतर कथानक का भी उपयोग किया जाता है। पर रचना के स्वरूप के समुचित संयोजन तथा विकास के लिए सार्थक प्रयोग आवश्यक है। इसके अलावा कथावस्तु में कथानक के अनुसार तथा उसके विकास की दृष्टि से अनेक वस्तुओं, स्थितियों, समाचारों, लेखों, पत्रों, अभिलेखों, कथोपकथनों, अधिकार-पत्रों, न्यायालयों के निर्णयों, डायरी के पृष्ठों आदि का उपयोग किया जाता है। अनेक स्तर के संबंधों के नानाविध रूपों का उपयोग भी इस दृष्टि से मिलता है।

    उपन्यास की रचना में यथार्थ जीवन के अनुभव का व्यापक आधार रहता है। परंतु रचनाकार अपनी कल्पना द्वारा कथानक का ढाँचा निर्मित करता है। यह वस्तु-योजना यथार्थ का यथातथ्य प्रस्तुतीकरण नहीं होता क्योंकि इस प्रकार का विवरण सूचनार्थ पत्रकारिता के स्तर का होगा। उसमें अनुभव तथा संवेदन का रचनात्मक बोध व्यक्त नहीं होता और रचना के लिए आवश्यक है कि वह आकर्षक रूप में पाठक के मन को प्रभावित करे, अस्वादनीय रहे और विशिष्ट अनुभव प्रदान करे। सामान्य जीवन-क्रम में घटनाएँ तथा परिस्थितियाँ सीमित होती हैं, बार-बार दोहराई भी जाती हैं। इसी प्रकार पात्र के चरित्र और व्यवहार स्पष्ट और सरल होते हैं, उनमें सामान्य रूप में विविधता और जटिलता कम होती है। विशिष्ट कार्य-व्यापार को व्यक्ति करने वाली घटनाएँ जीवन-क्रम में कम देखी जाती हैं, उसी प्रकार विशिष्ट तथा विषम चरित्र सीमित ही मिलते हैं। उपन्यासकार रचना का संयोजन इस सारे यथार्थ के विस्तार से कल्पना के रूप-विधान में करता है। इस क्रम में वह चयन करता है, विशिष्ट तथा प्रभावी रूप में कथानक विधान करता है। अपने कौशल से एक ही भाव और स्थिति को अनेकविध रूपों में रचता है, प्रस्तुत करता है। चयन की प्रक्रिया से कल्पना में घटनाओं-स्थितियों-पात्रों का विशेष प्रकार का कथा-क्रम निर्मित करता है। यह वस्तु काल्पनिक होकर भी यथार्थ के तत्त्वों से संयोजित होती है। जैसा कहा गया है, उपन्यास के वस्तु-विन्यास का एक केंद्रीय तत्त्व होता है और वह पूरे कथानक को धारण तथा विकसित करने वाला होता है। यह कथानक का केंद्रीयरूप प्रभाव को सघन और गतिशील रखता है। समानांतर कथा यदि इस रूप में रचना के स्तर पर संयोजित नहीं हो पाती तो रचना के केंद्रीय भाव को बाधित करती है। इसी प्रकार अवांतर घटनाओं और प्रसंगों के प्रयोग का रचनात्मक रूप ही स्वीकार्य माना गया है।

    उपन्यास के वस्तु-विन्यास में कार्य-कारण संबंध 'मनोवैज्ञानिक क्षण' के रूप में पाठक के मन में घटना संबंधी उत्कट आशा और अपेक्षा को जाग्रत रखता है और तत्क्षण उसके घटित होने का क्रम चलता रहता है। पाठक की रुचि को केंद्रित रखने के लिए और भावों को जाग्रत करने के लिए इसका प्रयोग करना अपेक्षित है। कथानक के विकास के साथ पाठक की उत्सुकता को जाग्रत रखने की दृष्टि से घटनाओं के क्रम के बारे में उसकी संभावनाओं को लेकर स्वयं विविध कल्पनाओं के लिए रचना में अंतराल का विधान भी होता है। पाठक को कई बार आसन्न विपत्ति, दुर्घटना, संकट का बोध हो जाता है, जबकि पात्र उससे अनभिज्ञ रहते हैं। रचना विधान के अनुसार कथानक में घात-प्रतिघात से संघर्ष की स्थिति उत्पन्न होती है, घटना-क्रम पराकाष्ठा की ओर अग्रसर होता है और चरमोत्कर्ष में समाप्त होता है। परंतु अनेक प्रकार के भिन्न रचना विधान भी हैं, जिनमें वर्णन-क्रम भिन्न स्तरों पर, भिन्न रूपों में तथा विविध शैलियों में चलता है। भविष्य संकेतों से पाठक के कौतूहल को बढ़ाया जाता है। इस प्रकार कथावस्तु की संपूर्ण रचना जिज्ञासा, उत्सुकता, आकर्षण, प्रभावशीलता (जिसमें रोचक तथा मनोरंजक होने की बात शामिल है।) सौंदर्यबोध के आधार पर संयोजित होती है। आधुनिक प्रयोगों में कथानक के विधान में घटना, परिस्थिति पात्र (चरित्र) आदि परंपरित तत्त्वों को उस स्तर पर स्वीकार नहीं किया जाता है। मनोविश्लेषण आदि पर आधारित चेतना-प्रवाह के रूप में लिखे गए उपन्यासों में कथानक का यह रूप नहीं मिलता। परंतु व्यापक अर्थ में कथानक उसमें निहित रहता है।

    उपन्यास का रचना-विधान इतने व्यापक स्तर पर संयोजित तथा विकसित होता है कि उसमें परंपरित वस्तु तथा चरित्र जैसे तत्त्वों के उपयोग को निर्धारित कर पाना संभव नहीं है। उनका उपयोग एवं प्रयोग नानाविध रूपों में होता है, निरंतर किया जाता रहा है। आधुनिक उपन्यासों में पात्रों के चरित्र कथावस्तु से अधिक महत्त्वपूर्ण तत्त्व स्वीकार किया गया है। सामान्यतः पात्रों के कार्य-व्यापारों, क्रियाकलापों, आचरण-व्यवहारों से उपन्यास की कथावस्तु का संयोजन होता है। यथार्थ के स्तर पर पात्रों की सप्राणता, सजीवता और उनके सामाजिक संदर्भ उपन्यास की विश्वसनीयता और प्रभावशीलता के आधार हैं। इसके लिए लेखक में कल्पना-शक्ति व्यापक अध्ययन तथा अनुभव, मानव चरित्र और मन के गहन ज्ञान तथा रचनात्मक क्षमता की अपेक्षा है। चरित्र को विविध स्तरों एवं रूपों में प्रस्तुत-अंकित करने के लिए तत्त्वों का प्रयोग ही साधन है। रचनाकार प्रभावगत उद्देश्यों के अंतर्गत मूल्य-दृष्टियों को भी व्यंजित करता है। चरित्रों के अंकन की सफलता इस बात में मानी जाती है कि पाठक चरित्रों के साथ किस स्तर पर और किस सीमा तक तादात्म्य स्थापित कर पाता है। चित्रण चिंतन में मानव मन के विभिन्न स्तरों को किस रूप में प्रस्तुत किया जाता है और जिन संकेतों और संदर्भो में उसकी आंतरिक अनुभूतियों-संवेदनाओं को व्यंजित किया जाता है, उनसे उसकी विशेषता को जाना-परखा जा सकता है। उच्च स्तरीय उपन्यासों में देश-काल की सीमाओं में पात्रों के चरित्र को इस रचनात्मक प्रतिभा से अंकित किया जाता है कि उनका स्वरूप सार्वभौम तथा सार्वजनिक व्यंजित होता है।

    चरित्र की योजना अनेक विधियों से की जाती है। बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि उपन्यास की कथावस्तु की योजना किस रूप में की गई है अथवा उपन्यास का पूरा रचना-विधान किस शैली में हुआ है। सामान्यतः वर्णनात्मक पद्धति से लेखक स्वयं पात्रों के आचरण व्यवहार के वर्णन से चरित्रगत विशेषताओं को व्यक्त करता है। दूसरे रूप में वह नाटकीय शैली का प्रयोग करता है। इस स्तर पर पात्रों के वार्तालाप, उनके हाव-भाव, उनके कार्य-व्यापारों में व्यक्त होने वाले हाव-भाव के अंकन में चरित्र की विशिष्टताओं को व्यक्त किया जाता है। पात्र स्वयं अपने आत्मकथनों में चरित्र को व्यक्त करता है। इस शैली में अपने भावों, विचारों, अनुभवों तथा चित्रवृत्तियों को आत्मकथा तथा पत्र आदि के रूप में पात्र व्यक्त करता है। इसी प्रकार पात्र के चरित्र के स्तर असीम प्रकार के होते हैं, परंतु दो मुख्य भेदों में वर्णगत तथा व्यक्तिगत पात्र माने जा सकते हैं। लेखक जिस प्रकार के जीवन की कल्पना करता है, उसके अंतर्गत पात्रों की सृष्टि करता है। वस्तु योजना के अनुकूल चरित्रों की उद्भावना भी की जाती है। उनमें एक प्रकार के पात्रों का चरित्र विशिष्ट होकर सामान्य रूप में अंकित होता है और दूसरे प्रकार के पात्रों की व्यक्तिगत अस्मिता को निजता तथा विशिष्टता के साथ प्रस्तुत किया गया है।

    उपन्यास की कथावस्तु का विकास देश-काल की सीमाओं में होता है। अपने व्यापक स्वरूप एवं विस्तार के कारण देश-काल तथा वातावरण का समुचित उपयोग उसमें होता है। पात्र के रूप में व्यक्ति का संपूर्ण व्यक्तित्व, उसके कार्य-व्यापार, उसकी क्रिया-प्रतिक्रियाएँ उसके देश-काल के परिवेश के प्रभाव के अंतर्गत रूपायित-व्यक्त होती हैं। इस दृष्टि से कथावस्तु के यथार्थ के विश्वसनीय तथा प्रभावी संयोजन के लिए पात्रों के जीवन अंकन के लिए आवश्यक है कि उसको उपयुक्त वातावरण परिवेश की पृष्ठभूमि प्रदान की जाए। उपन्यास की घटनाएँ और पात्र अपने परिवेश में प्रस्तुत होते हैं। ये पात्र अपने ग्राम-नगर के संपूर्ण परिवेश में प्रस्तुत होते हैं, पूरे सामाजिक, राजनीतिक तथा सांस्कृतिक वातावरण में जीवनयापन करते हैं और अपने पूरे रीति-रिवाज व्यवहार और भाषा-बोली की यथार्थ भूमिका पर विकसित होकर सजीव रूप में पाठक के देखे-समझे जाते हैं। कुछ उपन्यासों में देश-काल और वातावरण की स्थानीय स्थिति, उसका रंगरूप अधिक महत्त्वपूर्ण हो जाते हैं। इनमें कथानक और चरित्रों की अपेक्षा वातावरण प्रधान केंद्र बन जाता है और इन्हें आंचलिक माना गया है।

    उपन्यास में बाह्य प्रकृति को भी अनेक बार अधिक महत्त्वपूर्ण ढंग से अंकित किया गया है। यह देश-काल और वातावरण का रूप-विधान समस्त मानवीय परिस्थिति को यथार्थ में प्रस्तुत

    करने के लिए किया गया है। परंतु उसके माध्यम से भाव-व्यंजना और सांकेतिक अर्थ-ग्रहण करने का उपक्रम भी रहा है। पृष्ठभूमि के रूप में प्रकृति बाह्य वातावरण का अंग है। चरित्रों के भावों के साथ उपस्थित होकर उनको सघन करती है, व्यंजक बनाती है। रचनाकार कभी मानवीय भावना और बाह्य प्रकृति को विपरीत अथवा विलोम स्थिति में प्रस्तुत कर परिवेश का ऐसा निर्माण करता है जो पात्रों की चरित्रगत विशेषताओं को अधिक भाषिक तथा सघन स्तर पर व्यक्त करने में सहायक होता है। ऐतिहासिक उपन्यासों में देश-काल और वातावरण

    का चित्रण उस दृष्टि से प्रामाणिक, विश्वसनीय और मान्यताओं के अनुसार होना अपेक्षित है और इस बात का बहुत महत्त्व है कि इसका संयोजन रचनात्मक कल्पना के स्तर पर किया गया है क्योंकि उपन्यासकार का लक्ष्य परिचय देना, ज्ञान प्रदान करना होकर अनुभव के स्तर पर वस्तु को संवेदनीय बनाना है। भौगोलिक, सामाजिक, ऐतिहासिक तथा सांस्कृतिक जीवन के यथार्थ को रचनाकार इसी मूल दृष्टि से अपने उपन्यास के रचना-विधान में योजित करता है। इस कारण उसकी यथातथ्यता की अपेक्षा विश्वसनीयता का अधिक महत्त्व माना गया है क्योंकि रचना में दृश्य या स्थिति का महत्त्व नहीं होता।

    रचना का उद्देश्य, उसमें निहित विचार उसके हर विधान में निहित माना गया है और केंद्रीय तत्त्व है। रचना-विधान के स्तर पर उपन्यास या उद्देश्य के रूप में मनोरंजन, रसानुभव, आनंद, विशिष्ट बोध, उदात्तीकरण को स्वीकार किया गया है। साहित्य के परिवेश में सर्जन-कर्म के सामान्य उद्देश्य के रूप में मनोरंजन, रसानुभव, आनंद, विशिष्ट बोध, उदात्तीकरण को स्वीकार किया गया है, जो विशिष्ट अनुभव के स्तर पर सामाजिक को भावसंपन्न करने में सहायक होते हैं। कलाकार, रचनाकार अपने सौंदर्य-बोध को विशेष स्तर के अनुभव को, संवेदना को सामाजिक, दर्शक-पाठक के लिए संप्रेषित करने के लिए प्रेरित होता है। इसके अतिरिक्त इस अनुभव को अभिव्यक्त करने के क्रम में वह आपने पाठकों को किसी जीवन-दर्शन, संदेश, मूल्य-बोध से संवेदित-प्रेरित करना भी चाहता है और उसकी यह दृष्टि रचना के सारे विधान में व्यंजित रहती है। उसके अनुसार उपन्यास अपना रचना-विधान संयोजित करता है, पात्रों का नियोजन करता है, घटनाओं का विकास करता है, मनःस्थितियों-मनोभावों को व्यंजित करता है। उपन्यास की रचनात्मक श्रेष्ठता के मूल्यांकन में इस प्रकार के जीवन-दर्शन की रचनात्मक उपलब्धि को महत्त्व दिया जाता है। पर यह भी स्पष्टतः उसकी अभिव्यक्ति, रचना में निहित होनी चाहिए क्योंकि आरोपित होने पर वह उपन्यास को असफल रचना भी सिद्ध करता है।

    उपन्यास की भाषा-शैली भी वैविध्यपूर्ण रही है क्योंकि उसकी अभिव्यक्ति के रूप-विधान के अनुसार उसका उपयोग होना अनिवार्य है। उपन्यास का यह विधान, भाषा के गद्य-रूप से संयोजित होता है, अतः उसमें काव्य की अलंकृत, व्यंजक, चित्रात्मक तथा अनेकार्थी भाषा का उपयोग नहीं मिलता है, अथवा केवल विशेष दृष्टि से सीमित रूप किया जाता है। परंतु रचनात्मक स्तर पर उसकी सरल-सहज भाषा और सामान्य जीवन के स्तर से ग्रहण की गई भाषा में चरित्रों, परिस्थितियों, भावों मानसिक ऊहापोहों हो तथा जटिलताओं को व्यक्त करने की क्षमता अपेक्षित होती है। अगर उसकी भाषा-शैली सामान्य व्यावहारिक जीवन का विवरण-परिचय मात्र विस्तार से दे पाएगी, तो वह उपन्यास सफल रचना नहीं स्वीकार किया जा सकता। यह अवश्य है कि उपन्यासकार जीवन के विभिन्न क्षेत्रों, समाज के विविध स्तरों तथा वर्गों के नानाविध कार्यों-व्यापार में लगे व्यक्तियों की भाषा का उपयोग इस रचनात्मक स्तर पर करता है और उस परिवेश और चरित्र की विशेषताओं को व्यंजित करने का उपक्रम करता है। विभिन्न स्थितियों को अभिव्यक्त करने के लिए भाषा के मुहावरों, लोकोक्तियों, कहावतों का उपयोग किया जाता है। और आधुनिक उपन्यासों में मानसिक द्वंद्वों, चेतना-प्रवाह आदि का वर्णन भाषा के उसी स्तर के रूप-विधान में किया गया है।

    औपन्यासिक रूप-विधान के प्रकार-भेद व्यक्ति और समाज के नानाविध संबंध के आधार पर किए गए हैं। इस प्रकार व्यक्ति के आंतरिक मन की प्रक्रिया और उस संबंधित रचना-प्रक्रिया के अंतर्वर्ती संबंध की दृष्टि से भी उसके रूप-विधान स्वीकार किए गए हैं। इसी प्रकार व्यक्ति के आंतरिक मन की प्रक्रिया और उस संबंधित रचना-प्रक्रिया के अंतर्वती संबंध की दृष्टि से भी उसके रूप विधान स्वीकार किए गए हैं। पूर्ण रचनात्मक स्तर अपनी अभिव्यक्ति का रूप विकसित कर पाने के पहले उपन्यास साहसिक रोमांसपरक प्रेम कथाओं के रूप में लिखे गए हैं। इस प्रकार रहस्य-कल्पना के आधार पर भी प्रचलित रहे हैं। एक दृष्टि उपन्यासों के वर्गीकरण की, तत्त्व के आधार की रही है। घटना-प्रधान, चरित्र प्रधान, वातावरण प्रधान आदि इतिहास के इतिवृत्तों के आधार पर रचे उपन्यास ऐतिहासिक माने गए हैं और इसी प्रकार की व्यापक समस्याओं अथवा सामाजिक जीवन-क्रम पर आधारित सामाजिक उपन्यास स्वीकार किए गए, क्षेत्र विशेष के जीवन को अंकित करने वाले आँचलिक उपन्यास हैं। जिन उपन्यासों के विधान में पात्रों के चरित्र का विकास और चित्रण उनकी मानसिक स्थितियों और सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक भाव-स्थितियों के आधार पर किया गया है। उन्हें मनोवैज्ञानिक कहते हैं। इन उपन्यासों में एक ऐसा प्रकार भी है, जिनमें मनुष्य के दमित भावनाओं, इच्छाओं, वासनाओं के आधार पर अंतश्चेतना का उद्घाटन किया जाता है। इनमें भी काम-वासनाओं को प्रधानता देने वाले उपन्यास फ्रायड के यौन-सिद्धांत और एडलर युग के मनोविश्लेषण के सिद्धांत के आधार पर रचना-विधान संयोजित करते हैं। दूसरे प्रकार के मनोविश्लेषणवादी उपन्यास दमित वासनाओं को उभार कर मानस-ग्रंथियों को खोलने की प्रक्रिया में अपना रचना विधान संयोजित करते हैं। स्पष्ट इनमें जिस प्रकार के जो भी उपन्यास रचना के स्तर पर भावों-संवेदनाओं को, अनुभव आयामों, विशिष्ट अनुभव रूपों को अभिव्यक्त करते हैं, उनको सफल रचना माना जाएगा।

    ('साहित्य चिंतन रचनात्मक आयाम' नामक पुस्तक से)

    स्रोत :
    • रचनाकार : रघुवंश

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