उपन्यास और नीति

upanyas aur niti

गुलाब राय

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    वैसे तो उपन्यास और नीति का प्रश्न कला और नीति या आचार के व्यापक प्रश्न का ही अंग है, किंतु उपन्यास के संबंध में यह प्रश्न कुछ उग्र रूप धारण कर लेता है। इसका कारण यह है कि अधिकांश लोग उपन्यास को मनोरंजन की वस्तु समझ लेते हैं। उनके लिए नीति की अपेक्षा मन को रमाने के गुण की अधिक खोज होती है, किंतु उपन्यास अपने विकास में उस श्रेणी को पार कर चुका है जहाँ वह केवल कुतूहल की तृप्ति और मनोरंजन का साधन था। अब यह विचार के प्रचार में निबंध के निकट आता जा रहा है।

    हमारे देश में तो साहित्य या काव्य को 'आह्लादैकमयी' और 'नियतिकृत नियम रहिता' कहा अवश्य है और ये गुण उसमें किसी अंश में घटते भी हैं, किंतु काव्य के प्रयोजनों में ‘कांता-सम्मिततयोपदेशयुजे' अर्थात् कांता का-सा प्रेमपूर्ण उपदेश देना भी काव्य के प्रयोजनों में आता है। जो बातें काव्य के लिए व्यापक रूप से कही जाती हैं वे उपन्यास पर भी काव्य के अंग होने के कारण लागू होती हैं। प्रश्न यह होता है, उपदेश और नीति के लिए हम नीति और धर्मशास्त्र के ग्रंथ ही क्यों न पढ़ें, उपन्यास या काव्य क्यों पढ़ें? इसका उत्तर हमारे यहाँ के साहित्य-शास्त्रियों ने इस प्रकार दिया है, वेदादि का उपदेश तो प्रभु के आदेश-सा होता है, उसमें विधि-निषेध की आज्ञा-मात्र रहती है। पुराणों का उपदेश सुदृढ़ का-सा होता है, उसमें ऊँच-नीच समझाकर बात को उदाहरण द्वारा पुष्ट किया जाता है किंतु काव्य का उपदेश स्त्री के उपदेश की भाँति प्रेम का आग्रह और हित-चिंतन की भावना लेकर आता है। उपन्यास के द्वारा जो बातें कही जाती हैं वे सीधी उपदेश के रूप में नहीं वरन् एक सरस और हृदयग्राही ढंग से कही जाती हैं।

    उपन्यास भी एक प्रकार से गद्य का प्रबंध-काव्य है। सीधा उपदेश तो प्रबंध-काव्य में भी ग्राह्य नहीं होता। वह तभी काव्य होता है जब प्रबंध के अंतर्गत किसी उपयुक्त पात्र द्वारा, जैसे 'रामचरितमानस' में सती अनसूया द्वारा पतिव्रत धर्म का उपदेश दिलाया गया है, द्वारा अभिव्यक्ति प्राप्त करता है। ‘परीक्षा गुरु' आदि में नीति का उपदेश कुछ अधिक मात्रा में और प्रायः इसी ढंग से दिया गया है। उसने ‘हितोपदेश' का ढंग अपनाया है, जिसमें बीच-बीच में उपदेशात्मक पद्यों का समावेश होता गया है। आजकल का उपन्यासकार गद्य की शक्तियों में अधिक विश्वास करता है और उपन्यास रंगमंच की भाँति विचारों के प्रचार का माध्यम बनता जाता है। हिंदी उपन्यास के माध्यम से गाँधीवाद (जैसे प्रेमचंद्र और सियारामशरण के उपन्यासों में) और मार्क्सवाद (जैसे यशपाल, नागर और राहुल के उपन्यासों में) दोनों ही विचारधाराओं का प्रचार हुआ है। इन विचारों का प्रचार उपन्यास के उद्देश्य या जीवन-दर्शन के अंतर्गत आता है।

    यद्यपि गाँधीवादी विचारधारा समाज में प्रतिष्ठित नैतिक मानों में अनुकूल पड़ती है, फिर भी यह नहीं कहा जा सकता कि मार्क्सवादी विचारधारा नितांत अनैतिक है। उद्देश्य तो उसका भी शोषितों का उद्धार है, जो सर्वथा नैतिक है किंतु वह साधनों की नैतिकता की परवाह नहीं करता है और न वह हिंसा-अहिंसा का ही इतना ध्यान रखता है।

    नीति के व्यापक अर्थ में हमारे जीवन को आगे बढ़ाने वाली जितनी चीजें हैं वे सब उसके अंतर्गत आती हैं। मालिक-नौकर, अधिकारी-अधिकृत, अवर्ण-सवर्ण, साहूकार और कर्ज़दार, पूँजीपति और मज़दूर, पिता-पुत्र, पति-पत्नी और सास-बहू आदि के जितने संबंध हैं वे सब नीति के ही अंतर्गत आते हैं और प्रेमचंद्र, कौशिक एवं सुदर्शन आदि के उपन्यासों में इस मानवता-संबंधी नीति का अच्छा उद्घाटन हुआ है।

    नीति का एक संकुचित अर्थ भी है और उसमें अधिकांशतः यौन संबंध आते हैं। लोकमत में नीति से मतलब प्रायः यौन-नीति से होता है। किसी वस्तु को नैतिक या अनैतिक कहने का आधार या तो शास्त्र होता है, या अंत:करण या लोकमत। आजकल शास्त्र की बात भी लोकमत में ही अभिव्यक्त हुआ करती हैं। अंत:करण का संबंध व्यक्ति से रहता है और समाज का संबंध अधिकांश में लोकमत से रहता है। लोकमत से यदि कोई वस्तु ऊपर आती है तो वह बौद्धिक विवेचन। श्री भगवतीचरण वर्मा ने अपनी 'चित्रलेखा' में इसी का आश्रय लिया है। कुछ उपन्यासों में यथार्थवाद के नाम पर मनोविश्लेषण और कुछ में स्वतंत्रता के नाम पर नीति की अवहेलना की गई है।

    उग्र, ऋषभचरण जैन और चतुरसेन शास्त्री आदि के उपन्यासों में वासना के नग्न रूप का चित्रण हुआ है। उनका मुक्त-कंठ से यही उद्घोष है, वे चुनौती देते हैं कि कोई माई का लाल उनको झूठा प्रमाणित कर दे। यदि समाज बुरा है तो उसकी उपन्यासों में जो छाया पड़ेगी, बुरी ही पड़ेगी। यह तो हम मानते हैं संसार सितासित तन्तुओं के ताने-बाने से बुना हुआ है, 'गुणदोषमय विश्व कीन्ह करतार’ लेकिन गुण और दोष, पाप और पुण्य का भी एक अनुपात होता है। यदि उपन्यासकार पाठकों की इंद्रिय-लोलुप मनोवृत्ति की उत्तेजना और तुष्टि के लिए पाप-पक्ष को अतिरंजित करके दिखावे, तो यह उसका ही उत्तरदायित्व है। मनुष्य भलाई की अपेक्षा बुराई को जल्दी ग्रहण करता है क्योंकि उसको प्रलोभनों का एक काल्पनिक सुख मिलता है। पहले तो काल्पनिक सुख कल्पना में ही सीमित रहता है, किंतु जब मनुष्य उस कल्पना को वास्तविकता में परिणत करने का प्रयत्न करता है तब या तो नैराश्य का सामना करना पड़ता है और मनुष्य मानसिक विकृतियों का शिकार बनता है, या वह घर-फूँक तमाशा देखकर अभावों और दारिद्रय का भागीदार बनता है। यथार्थवाद के नाम पर विलास और वासनामय जीवन के अतिरंजन चित्र अंकित किए जाते हैं। नारकीय जीवन को उभार में लाया जाता है और कल्पना के निर्बाध और निरावरण नृत्य के लिए निमंत्रण दिया जाता है। तथाकथित यथार्थवादी उपन्यासकारों की दूसरी युक्ति यह है कि वे समाज को उन गहन गर्गों से बचाते हैं, जिनमें वे लोग प्रायः पड़ जाते हैं। इसके बहाने वे वास्तव में उन गहन गर्तों और भीषण अंधकारमय कंदराओं का पथ प्रदर्शन कर देते हैं।

    उपन्यासकारों का एक दूसरा वर्ग वह है कि जो लोक-प्रतिष्ठित आचार-संबंधी विचारों की सापेक्षता दिखाकर उनकी निस्सारता व्यंजित करते हैं और सिद्धांतों का व्यावहारिक असंयम या उनकी दुर्बलता को दिखाकर इस व्यंजना को पुष्ट करते हैं। भगवतीचरण वर्मा की 'चित्रलेखा' इसी कोटि में आती है। लेखक परिस्थितियों के वात्य-चक्र में डालकर सिद्धांती कुमारगिरि का पतन करा देता है। अपने सिद्धांतों की अभिव्यक्ति वर्मा जी, रत्नांबर जी महाराज द्वारा कराते हैं... “जो मनुष्य कुछ करता है, वह उसके स्वभाव के अनुकूल होता है, और स्वभाव प्राकृतिक है। मनुष्य अपना स्वामी नहीं, वह परिस्थितियों का दास है, विवश है। वह कर्ता नहीं है, केवल साधन है, फिर पुण्य और पाप कैसा?

    यह दृष्टिकोण एक प्रकार से मनुष्य के संकल्प-स्वातंत्र्य (फ्रीडम ऑफ़ विल) का विरोधी है। मनुष्य किसी अंश तक परिस्थितियों का दास अवश्य है, किंतु उसकी मनुष्यता और पुरुषार्थ परिस्थितियों से ऊँचा उठाने में है। परिस्थितियों का शिकार बनते हुए या किसी अंश में मनुष्य का सहयोग नहीं तो निष्क्रिय सहयोग अवश्य रहता है। इसी निष्क्रिय सहयोग के लिए मनुष्य उत्तरदायी ठहराया जाता है। मनुष्य प्रकृति के ऊपर जाता है, प्रकृतिरेषा भूतानां निवृत्तिस्तु महाफलाः। प्रकृति को गीता में बलवती कहा है, किंतु मनुष्य का संकल्प उसको प्रकृति से ऊँचा उठाता रहा है। यही मनुष्य और पशु का भेद है, प्रकृति से ऊँचे उठने के प्रयत्न ही सभ्यता की श्रेणियाँ हैं।

    वर्मा जी का यह विवेचन नितांत निष्फल नहीं है। यह पापी के प्रति सहानुभूति उत्पन्न करने में सहायक होगा किंतु प्रकृति की सीमाएँ स्वीकार करनी होंगी। पतित के प्रति सहानुभूति करना धर्म है किंतु प्रकृति का सहारा लेकर गिरना मानव-श्रेष्ठता का तिरस्कार है। मनोविश्लेषण के नाम पर नीति की अवहेलना करने वालों में इलाचंद्र जोशी, नरोत्तम नागर एवं वात्स्यायन प्रभृति मुख्य हैं।

    मनोविश्लेषण भी परिस्थिति और प्रकृतिवाद का एक मनौवैज्ञानिक रूप है। इनके उपन्यासों से मनोविज्ञान के सिद्धांत के उदाहरण तो उपस्थित कर दिए जाते हैं किंतु कहीं-कहीं तो रीतिकाल की भाँति उदाहरण के लिए ही होते हैं। हर एक देश की परंपराएँ और नैतिक मान्यताएँ अलग-अलग होती हैं। यूरोप द्वारा प्रतिपादित सिद्धांत शुद्ध विज्ञान के सिद्धांतों की भाँति मनुष्य-मात्र पर लागू नहीं होते। मानव-विज्ञानों में मनुष्य की स्वतंत्रता का एक बड़ा अंश रहता है इसलिए कार्य-कारण शृंखला भी पूरी तौर से नहीं लग सकती। अभी फ्रायड के सिद्धांतों को भारतीय जीवन की कसौटी पर कसने की आवश्यकता है, तब उनका उपन्यास में उतारना वांछनीय होगा। अस्तु, उन सिद्धांतों का प्रवृत्ति-मात्र का मूल्य हो सकता है किंतु दुनिया के लोग पाप-प्रवृत्ति को ही सिद्धांत मान बैठते हैं। हमारे नवीन उपन्यासों में उन्नयन (सिब्लिमेशन) के मार्गों पर कम प्रकाश डाला गया है। फ्रायड भी अनैतिक नहीं है। उसने उन्नयन को माना है। मनोविश्लेषण संबंधी उपन्यास मनोवैज्ञानिक के सिद्धांतों को उदाहृत तो करते ही हैं, उनका नैतिक मूल्य भी होता है। (यद्यपि मैं भी इलाचंद्र जोशी से इस बात में सहमत नहीं हूँ कि मनोविश्लेषण अमृतधारा की भाँति सब समस्याओं का हल है।) जोशी जी के 'प्रेत और छाया' में एक नैतिक तथ्य है, वह यह कि यदि किसी में अपने जन्म आदि के संबंध में झूठी भी हीनता-ग्रंथि उत्पन्न हो जाए, तो कभी-कभी वह अपने नीच जन्म को सार्थक करने के लिए बड़े-बड़े नीचता के काम कर बैठता है। इसीलिए हमें दूसरे में हीनता के भाव उत्पन्न करने में अत्यंत सचेत रहना चाहिए। इसका नायक पारसनाथ ऐसी ही ग्रंथि का शिकार हुआ है, किंतु इसमें कहीं-कहीं पतन के चित्र अधिक वासनामय और आकर्षक हैं। 'मैं भूखा हूँ, तुम भी भूखी होगी' की व्यंजना विशेष परिस्थितियों के कारण स्पष्ट से ही अधिक स्पष्ट है।

    श्री जैनेंद्र जी ने तो अपनी ‘सुनीता' में गाँधीवाद के एक चरम सीमा वाले प्रयोग में सुनीता को निरावरण करा दिया है। इसका फल बुरा नहीं हुआ, किंतु ऐसे अतिमानवीय उदाहरण संसार में मिलते ही कम हैं और उनके उज्ज्वल पक्ष की ओर सहज में निगाह भी नहीं जा सकती। जैनेंद्र जी ने इसमें जो घर और बाहर का साम्य उपस्थित कराया है, वह भी ठीक नहीं। हरिप्रसन्न भी श्रीकांत जी का मित्र होने के कारण पूर्णतया 'पर' नहीं है। इसको 'स्व' और 'पर' का समझौता नहीं कह सकते। हरिप्रसन्न सुनीता के लिए 'पर' हो सकता है, किंतु श्रीकांत के नाते वह 'स्व' बन जाता है।

    सामाजिक अत्याचार के उद्घाटन और कभी-कभी स्वतंत्रता के नाम पर अश्लीलता को प्रश्रय दिया जाता है। ऐसे लोगों के बंधनों के सामाजिक मूल्य पर भी ध्यान रखना चाहिए। मैं यह नहीं कहता कि सामाजिक बंधन लचीले न बनाए जाएँ, किंतु वे केवल स्वतंत्रता के प्रदर्शन के लिए तोड़े न जाएँ। उपन्यास-लेखकों का उत्तरदायित्व महान है। जहाँ उनका कर्तव्य है कि वे जीवन के शुक्ल और कृष्ण पक्ष दोनों पक्षों का चित्रण करें क्योंकि जीवन की पूर्णता दोनों में है, वहाँ उनका यह भी कर्तव्य हो जाता है कि कृष्ण पक्ष की आकर्षक अतिरंजना न करें। दूसरी बात यह है कि यह मानते हुए भी कि उपन्यास सामाजिक प्रयोग-शाला है, प्रयोगों को सिद्धांत का मूल्य न दे दें। वे वकील न बनें, कम से कम संदिग्ध मामलों में। अपनी वकालत में न्यायाधीश के लिए भी स्थान रखें, वे स्वयं न्यायधीश न बन जाएँ। पाठकों को भी यह चाहिए कि प्रवृत्तियों को सिद्धांत न समझें। उपन्यासकार जहाँ तक हो असाधारणता की ओर न जाएँ। वे स्वस्थ जीवन का चित्रण करें और ऐसे समाज के निर्माण का प्रयत्न करें जिसमें विविधता में एकता और साम्य हो। पाठकों को चाहिए कि वे उपन्यास के आलोक से जीवन को समझने की कोशिश अवश्य करें, किंतु उपन्यासों द्वारा चित्रित जीवन को सत्य की चरम स्थिति को न समझें। उसे एक सामाजिक प्रयोग का ही महत्त्व दें।

    स्रोत :
    • पुस्तक : आलोचना (पृष्ठ 48)
    • रचनाकार : गुलाबराय
    • संस्करण : अक्टूबर 1954

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