उपन्यास की भारतीय विधा

upanyaas ki bhartiya vidha

अज्ञेय

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    साहित्य के 'राष्ट्रीय' रूप में मेरी कोई दिलचस्पी नहीं है। क्यों हो? राष्ट्रीयतापरक साहित्य हो सकता है, विभिन्न समयों पर उसकी ज़रुरत भी हो सकती है और यह भी हो सकता है कि समूचे देश-समाज की मुख्य संवेदना का प्रतिबिंबन और वहन करते हुए साहित्य राष्ट्रीयता की भावना से अनुप्राणित हो। जिस देश-समाज में राष्ट्रीयता की भावना प्रबल हो, जो राष्ट्रत्व के लिए छटपटा रहा हो, उसका साहित्य इस अकुलाहट को व्यक्त करे, इससे अधिक स्वाभाविक क्या होगा? पर क्या वैसा होने से ही हम कह सकेंगे कि वह राष्ट्रीय साहित्य है?

    भारतीय साहित्य, हाँ! क्योंकि वह एक भारतीय संवेदना का वाहक को सकता है, ऐसी संवेदना, जिसके में वैसे मूल्य हैं जो भारत के सांस्कृतिक इतिहास और अनुभव की उपलब्धियाँ हैं, ऐसी संवेदना, जिसकी अभिव्यक्ति मिलने पर हर भारतीय अनुभव करेगा कि उसी को अभिव्यक्ति मिली है।

    साहित्य-विधाएँ : क्या उनके साथ ही हम देशवाची विशेषण लगा सकते हैं? इस अर्थ में क्या 'भारतीय उपन्यास' की बात कर सकते हैं?

    प्रश्न पूछता हूँ और सोचने के लिए रुक जाता हूँ।

    भारतीय भाषाओं के बहुत से उपन्यासों का अध्ययन-विश्लेषण करके हम कुछ सामान्य धारणाएँ उनके गुण-दोष या विशिष्ट प्रवृत्तियों के बारे में बना लें और कहें कि अमुक-अमुक बातें भारतीय उपन्यास में पाई जाती हैं या इसी बात को उलट कर कहें कि जिस उपन्यास में अमुक-अमुक हों वह भारतीय उपन्यास है, तो वह कहना संगत हो सकता है उससे भारतीय उपन्यास के अध्ययन के लिए कुछ प्रकाश भी मिल सकता है।

    पर यह कहने में कि 'भारतीय उपन्यास' नाम सार्थक हो सकता है, और यह कहने में कि उपन्यास-विधा में एक विशेष रूप-संघटना है जिसे भारतीय उपन्यास-रूप कहा जा सकता है, काफ़ी अंतर है। विधा और रूप में भेद करना चाहिए। रूपाकार के साथ कोई देश अथवा जातिवाचक विशेषण लग सकता है या नहीं यह सोचने की बात है। अगर रूपाकार एक सौंदर्य-तत्त्व है तो उसे राष्ट्रीयता का अतिक्रमण करना चाहिए, अतिराष्ट्रीय होना चाहिए। किसी कृति-उपन्यास-कृति में या तो रूपाकार है या नहीं; जातिवाचक विशेषण से वह कलावस्तु नहीं बन जाएगी और अगर कला-कृति है तो ऐसे बिल्ले की उसे जरुरत क्या है?

    शैलियाँ, पद्धतियाँ, शिल्प, तंत्र-रूपाकार को रूपायित और रूप बोध का संप्रेषण करने के लिए इनके विभेद हो सकते हैं, पर तंत्र स्वयं रूपाकार नहीं है।

    तंत्र के साथ भी विशेषण की क्या आवश्यकता है, क्या किसी आत्यांतिक महत्त्व है? केवल ऐतिहासिक मूल्यांकन की दृष्टि से उसकी सार्थकता या प्रयोजनीयता हो सकती है, कोई विशेष तंत्र किसी विशेष देश-काल की उपज हो सकता है, किसी युग या समाज विशेष की संवेदना का वहन करने का विशेष सामर्थ्य रख सकता है।

    भारतीय उपन्यास की चर्चा इसी संदर्भ में सार्थक हो सकती है।

    उपन्यास मूलतः एक कालबद्ध रचना है। काल में घटित का ही रूपयुक्त वृत्तांत उपन्यास है। इसलिए अगर काल-बोध भिन्न है तो उपन्यास का रूप भी भिन्न होगा, अगर उपन्यास-रूप विशिष्ट है तो काल-बोध भी विशिष्ट होगा।

    इस परिप्रेक्ष्य में आख्यान का अगर कोई विशिष्ट रूपाकार है जिसे भारतीय प्रतिभा का अनन्य उपज माना जा सके तो वह शृंखलाबद्ध कथा या कहानी के भीतर कहानी ही है। हितोपदेश-पंचतंत्र इसके प्राक्तन रूप हैं। कथा-सरित्सागर, ईसप की कहानियाँ, अलिफ़ लैला, बैताल-पचीसी और सिंहासन बत्तीसी, डेकामेरॉन और तोता-मैना उसी शृंखला की कड़ियाँ हैं। संबद्ध वृत्तों-दृष्टांतों के द्वारा ठोस व्यावहारिक ज्ञान-दर्शन की परंपरा के रक्षण, प्रचार और प्रसार की ऐसी कथाएँ तो सारे संसार में मिलती हैं, पर यह मानना संगत है कि एक सुष्ठु और परिपक्व, परिमार्जित साहित्यिक विधा के रूप में इसका विकास विशिष्टतः भारतीय है। मैं समझता हूँ कि आख्यान या उपन्यास-साहित्य में किसी रूपाकार को हम वास्तव में भारतीय कह सकते हैं तो वह यही है।

    आधुनिक उपन्यास वास्तव में पश्चिमी उपन्यास है। हर भारतीय भाषा में उपन्यास का आविर्भाव पश्चिम के संपर्क का परिणाम है और इस बात को आगे तक बढ़ाकर भी कह सकते हैं। आधुनिक काल भी पश्चिमी काल है। ऐतिहासिक काल के साथ ऐतिहासिक उपन्यास का विकास हुआ, फिर कालबोध के खंडित, कालाणुपरक, निर्वैयक्तिक होने के साथ-साथ उपन्यास में भी वही चीज़ प्रकट हुई। खंडित बोध के, क्षण-गत जीवन के निर्वैयक्तिक 'अनुभूति' के उपन्यास अत्याधुनिक (पश्चिमी) काल-बोध के साथ अनिवार्यतः बँधे हैं।

    यह दूसरी बात है कि पश्चिम से जो हमने पाया है, उसमें हम दोबारा ऐसे भी तत्त्व पहचानें जो हमारे अपने थे। जो हमने दिए, पर मूर्ख दाता होने के कारण देने में गँवा दिए; देकर संपन्नतर नहीं हुए।

    शृंखलित कथा की जड़ें दो हैं :

    पहली तो यह है कि वह व्यवहार और व्यावहारिक ज्ञान की भूमि लोक-जीवन में खोजती और पाती है; उस ठोस, ‘सयाने' सफलतापरक (प्रैग्मैटिक) ‘चलती का नाम गाड़ी’ कोटि के व्यावहारिक ज्ञान की, जिसके सहारे हमारा दैनंदिन जीवन चलता रहता है उस समय भी जब हम उच्चतर क्षेत्रों के सपने देख रहे होते हैं या गहनतर विषयों की थाह ले रहे होते हैं।

    दूसरी यह है कि उसका काल-बोध पश्चिम से केवल पृथक है बल्कि अभी कुछ काल पहले तक पश्चिम के लिए दुर्बोध और अगम्य रहा है। पश्चिमी नाटकीय संदर्भ की काल की एकता का भारतीय संदर्भ में कोई अर्थ नहीं रहा क्योंकि भारतीय दृष्टि में सब काल सहवर्ती हो सकते थे।

    पश्चिमी शॉर्ट-स्टोरी और भारतीय कथा में ये दो अलग-अलग कालबोध प्रतिबिंबित और परिलक्षित होते हैं। उसका काल-बोध ऐतिहासिक, ऋजुरेखानुसारी, अप्रत्यावर्त्य है। ‘हो चुके' पर ‘हो रहा' वरीयता पाता है, और हर घटना का एक अंत होता है, परिणति होती है, भारतीय कथाकार या किस्सागो इत्मीनान में है, मजे-मजे चलता है, उसकी दृष्टि संग्राहक है; उसका काल-बोध सांस्कृतिक और वृत्तानुसारी है। उसमें आना और जाना तो है, पर अंत या चुक जाना नहीं है। जो हो चुका है, वह घटित के नाते ही निरंतर घटमान है। कोई आदि है, अंत है।

    मैं तो भारतीय लेखक हूँ न? न्यूनाधिक भारतीय, जैसा कि मेरा देश ही न्यूनाधिक भारत है! और मैं न्यूनाधिक आधुनिक लेखक भी हूँ जिसका अभिप्राय यह है कि मैं उन नाना प्रभावों के प्रति खुला हूँ जो राष्ट्रीय सीमाओं का अतिक्रमण करते हुए आते हैं।

    इस प्रकार मैं आधुनिक विधाओं में रचना करता हूँ, पर उसी रूप में जिसमें एक भारतीय वैसा कर सकता है।

    तो मैं कह सकता हूँ कि मेरा काल-बोध भी दोहरा है, बल्कि दोहरे से कुछ अधिक क्योंकि मैं दो प्रकार का काल-बोध स्वीकार करके उनका परस्पर विरोध निराकृत करना चाहता हूँ।

    इस विशेष परिस्थिति का भी प्रतिबिंब आज भारत के उपन्यास में हो सकता है। उसके लिए विशिष्ट तंत्र का आविष्कार या विकास हो सकता है। होगा, तो जिस सीमा तक होगा या जिस मात्रा में होगा उसी में या उसी तक हम एक भारतीय रूपाकार की बात कर सकेंगे। पर वैसा करके भी हम उसे किसी दूसरे राष्ट्रीय या जातीय रूपाकार की प्रतिस्पर्धा में नहीं रखेंगे, यही कहना होगा कि वह उपन्यास मात्र को एक देन है। उपन्यास मात्र की श्रीवृद्धि उससे होती है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : सर्जना और संदर्भ (पृष्ठ 124)
    • रचनाकार : अज्ञेय

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