संस्कृत नाटकों का उद्भव और विकास

sanskrit natkon ka udbhaw aur wikas

भोलाशंकर व्यास

भोलाशंकर व्यास

संस्कृत नाटकों का उद्भव और विकास

भोलाशंकर व्यास

और अधिकभोलाशंकर व्यास

    नृतत्व-विशारदों ने संगीत, काव्य एवं नाटक के आदिम वीज आदिम जातियों की उन कर्मकांडीय पद्धत्तियों में ढूँढे हैं, जिन्हें वे 'टोटेम' के नाम से अभिहित करते हैं। अफ्रीका, पोलिनेशिया न्यूज़ीलैंड आदि की आदिम जातियाँ समय-समय पर एकत्रित होकर सामूहिक गान, नृत्य तथा अभिनय करती आज भी देखी जाती हैं—यही गान और नृत्य धीरे-धीरे सम्य जातियों में परिष्कृत होकर एक ओर संगीत, दूसरी ओर काव्य, तीसरी ओर नाटक (रूपक) का स्वरूप धारण करते हैं। 'नाटक' शब्द का प्रयोग यहाँ हम 'नाटक साहित्य’ के अर्थ में कर उसकी प्रायोगिक या अभिनयात्मक पद्धति के लिए कर रहे हैं। जहाँ तक 'साहित्य'-विशेष के अर्थ में 'नाटक' के प्रयोग की बात है, उसे एक प्रकार से 'काव्य' का ही अंग मानना होगा। आदिम जातियों का समाज ज्यों-ज्यों विकास की ओर बढ़ता जाता है, त्यों-त्यों उनका 'जादू' भी 'धर्म' के रूप में विकसित होने लगता है। द्वंद्वात्मक भौतिकवादी विद्वानों ने इसका कारण आर्थिक परिस्थिति का विकास माना है। जब यायावर तथा अव्यवस्थित आदिम समाज कृषि के अन्वेषण से व्यवस्थित जीवन व्यतीत करने लगता है, तो उसके जीवन में एक अपूर्व गुणात्मक परिवर्तन हो आता है और वह आदिमयुगीन जादू, जिसमें मूलतः धर्म के बीज विद्यमान थे, धर्म का रूप धारण कर लेता है। इस तरह संगीत और नृत्य धर्म के भी अंग बन बैठते हैं। जब आर्यों ने भारत में प्रवेश किया, उस काल में वे आदिम सभ्यता को बहुत पीछे छोड़ चुके थे। यद्यपि आरंभ में वे घुमक्कड़ तथा पशुचारण-जीवन का यापन करते थे, किंतु सप्तसिंघु प्रदेश में आकर वे क्रमशः कृषि से जीवन-निर्वाह करने लगे। इसी समय आर्यों ने एक निश्चित धार्मिक संगठन को जन्म दिया। वैदिक कर्मकांड में संगीत एवं नृत्य का समुचित विनियोग होता था। संगीत ने ही एक ओर वैदिक काव्य तथा दूसरी ओर साम-गान की पद्धति को विकसित किया, तथा नृत्य एवं अभिनय ने नाट्य को। नृत्य का उल्लेख वैदिक साहित्य में बहुत मिलता है। ऋग्वेद में ही वैदिक कवि ने उषा का वर्णन करते समय उसे उस 'नृत्य' (नर्तकी) के रूप में देखा था, जो अपने अधखुले लावण्य को प्रकाशित करती है। इस प्रकार मूलत: संस्कृत या भारतीय नाटकों का बीज इसी वैदिककालीन नृत्य में माना जा सकता है, जो वैदिक धर्म तथा कर्मकाण्ड का एक अंग था।

    यद्यपि संस्कृत नाटकों की अखंड परंपरा ईसा की प्रथम शताब्दी के पूर्व से नहीं मिलती, तथापि यह निश्चित है कि अश्वघोष के बहुत पहले से जनता का रंगमंच अवश्य विकसित हो गया होगा, तभी तो वह 'साहित्य के रूप में ढल पाया। यही कारण है, संस्कृत नाटकों के उद्भव के लिए हमें अश्वघोष से कई शताब्दियों पूर्व वैदिक साहित्य तक में बिखरे उन बीजों की छानबीन करनी पड़ती है, जो समय पाकर संस्कृत नाट्य-साहित्य के रूप में पल्लवित हुए। वैसे संस्कृत नाटकों के विकास के विषय में एक परंपरावादी मत भी है, जो इसकी दैवी उत्पत्ति का संकेत करता है। इस मत का उल्लेख भरत के नाट्य-शास्त्र के प्रथम अध्याय में हुआ है। इसके अनुसार त्रेता-युग में देवताओं की प्रार्थना पर पितामह ब्रह्मा ने शूद्रादि के लिए नाट्यवेद नामक पंचम वेद की रचना इसीलिए की थी कि उनके मोक्ष का कोई साधन था। नाट्यवेद की रचना में ब्रह्मा ने ऋग्वेद से पाठ्य, यजुर्वेद से अभिनय, सामवेद से गीत तथा अथर्ववेद से रस को ग्रहण किया तथा इस पंचम वेद की रचना कर इसे भरत मुनि को प्रयोगार्थ सौंप दिया। भरत ने सौ शिष्यों तथा सौ अप्सराओं को नाट्य-कला की व्यावहारिक शिक्षा दी तथा उनकी सहायता से सर्वप्रथम अभिनय किया, जिसमें भगवान शंकर तथा भगवती पार्वती ने भी योग दिया। किंतु इस दैवी उत्पत्ति को निश्चित प्रामाणिकता नहीं दी जा सकती। हाँ, वैसे इसमें भी एक तथ्य अवश्य है कि नाट्य के उदय में शूद्रों का खास हाथ रहा है तथा प्रो. जागीरदार ने इस तथ्य पर विशेष ज़ोर देते हुए अपनी अलग मत-सरणि स्थापित की है, जिसका संकेत हम यथावसर करेंगे।

    हम देखते हैं कि नाट्य-कला में प्रमुखतया दो तत्त्व पाए जाते हैं—संवाद तथा अभिनय। इन दोनों तत्वों में से प्रथम तत्त्व (संवाद) ऋग्वेद में ढूँढा जा सकता है। ऋग्वेद के कई सूक्त संवादपरक हैं। इन संवाद-परक सूक्तों में इंद्रमरुत् संवाद (1165, 1170), विश्वमित्र-नादी-संवाद (333), पुरूरवस्-उर्वशी संवाद (1056), यम-यमी संवाद (1010) का खासतौर पर उल्लेख किया जा सकता है। इन्हीं संवादों को देखकर प्रो. मैक्समूलर ने यह स्थापना की थी कि इन संवादात्मक सूक्तों का यज्ञ के समय इस ढंग से पाठ किया जाता रहा होगा कि प्रत्येक पात्र के लिए एक एक ऋत्विक रहता होगा, जो तत्तत् पात्र की उक्ति वाली ऋचा का शसन करता होगा। प्रो. मैक्समूलर के इस मत की पुष्टि अन्य पाश्चात्य विद्वानों ने भी की है। प्रो. सिलवन लेवी ने ऋग्वेद काल में अभिनय की स्थिति मानी है। उनका कहना है कि वैदिक काल में संगीत अत्यधिक विकसित हो चुका था इसकी पुष्टि सामवेद से होती है। साथ ही ऋग्वेद में उन नर्तकियों का उल्लेख है, जो सुंदर वेशभूषा में सुसज्जित हो नृत्य करती हैं तथा युवकों को अपनी ओर आकृष्ट करती हैं। इसके साथ ही अथर्ववेद में लोगों के नाचने-गाने का उल्लेख है। अतः इस निष्कर्ष पर पहुँचने में कोई विरोध नहीं दिखाई देता कि ऋग्वेद के काल में नाट्यात्मक अभिनय का प्रचार था। यह नाट्यात्मक अभिनय धार्मिक प्रकृति का था, तथा पुरोहित-वर्ग देवताओं तथा ऋषियों की भूमिका में आकार उनका अभिनय करते थे। लेबो तथा मैक्समूलर की भाँति हॉल ने भी ऋग्वेद के सूक्तों में नाटकों के बीज माने हैं। पर इन विद्वानों के मतों में यह त्रुटि है कि वे इन संवाद-सूक्तों को नाटक के स्थानापन्न ही समझ बैठते हैं इसीलिए डॉ. ए. बी. कीथ को इनके मत का प्रथम अंश तो ब्राह्य है कि ऋग्वेद में नाटकों के बीज अवश्य विद्यमान हैं, किंतु उक्त संवादों को नाटकीय संवाद मानने से वे सहमत नहीं, उनके मत से ये केवल पौरोहित्य कर्म के संवाद हैं। इस तरह इन सभी विद्वानों ने संस्कृत नाटकों का उद्गम-स्रोत भी यूनानी नाटकों की भाँति धार्मिक क्रिया-कलाप में ढूँढा है।

    इसी से मिलता-जुलता एक दूसरा मत है, जो संस्कृत-नाटकों के बीज धार्मिक उत्सवों में ढूँढता है। यूनान में धार्मिक उत्सवों के समय लोग उन दुखांतकियों का अभिनय करते थे, जो किन्हीं वीरों की जीवनियों से संबद्ध होती थी। इस प्रकार ग्रीक 'रगमंच' तथा नाटकों का उद्गम वीर-पूजात्मक उत्सवों में ढूँढा गया है। प्रो. वेवर जैसे विद्वानों ने ठीक यही सिद्धांत संस्कृत नाटकों पर भी लागू किया है। उनके मत से इंद्रध्वज आदि उत्सवों के समय होने वाले अभिनयों से ही संस्कृत-नाटकों का विकास हुआ है। किंतु हम देखते हैं कि संस्कृत में अधिकांश नाटक वीररसात्मक नहीं है, अतः उन्हें वीर-पूजात्मक उत्सवों से जनित कैसे माना जा सकता है?

    एक अन्य मत नाटकों का संबंध 'नृत्य' से जोड़ता है। प्रो. मैकडोनन ने नृत्य को ही नाटक का पूर्वरूप माना है। जहाँ तक विकास का प्रश्न है नाच का नाटकों के रूप में विकास मानने में कोई आपत्ति नहीं होती, किंतु ऐसा जान पड़ता है कि एक मात्र नृत्य ही नाटकों का जन्मदाता नहीं। नृत्य, वैदिक मंत्रों के संवाद तथा सामवेद का संगीत तीनों ने मिलकर नाटकों को जन्म दिया होगा।

    प्रो. विशेल ने पुत्तलिका-नृत्य तथा छाया-नाटकों से भी संस्कृत-नाटकों का उद्भव माना है। छाया-नाटकों वाले मत की पुष्टि स्टेनकोनो ने भी की है। पिसेन के प्रथम मत के अनुमार भारत में पुतनिका-नृत्य का प्रचार बहुत पुराना है। महाभारत में पुतलियों का वर्णन मिलता है। इन पुतलियों को नचाने वाला व्यक्ति उनके ढ़ेरो को पीछे से पकड़े रहना था, इसलिए वह 'सूत्रधार' कहताता था। यही पुत्तलिका-नृत्य का सूत्रधार नाटकों का 'सूत्रधार' बन बैठा है। किंतु प्रो. पिन की इस स्थापना का यथेष्ट गठन हो चुका है। इसके बाद विशेल ने छाया-नाटकों वाले मत का प्रकाशन किया। छाया नाटकों में पर्दे के पीछे मूर्तियों या अभिनेताओं का अभिनय प्रदर्शित किया जाता है, तथा सामाजिक केवल उनकी छाया के अभिनय को देखता है। पिशेल को अपने मत की पुष्टि के लिए संस्कृत नाटकों में एक छाया-नाटक भी मिल गया। किंतु पिशेल ने अपने मत की पुष्टि के लिए जिस छाया-नाटक—सुभट्ट कृत 'दूतागद' का हवाला दिया है, वह बहुत बाद की रचना है, अतः संस्कृत-नाटकों को छाया-नाटकों से विकसित मानने में उसे प्रमाण-स्वरूप नहीं माना जा सकता।

    नाटकों के अभिनय का सर्वप्रथम स्पष्ट उल्लेख यदि हमें कहीं मिलता है, तो वह महाभारत के हरिवंश वाले अंश में है, जो महाभारत के बहुत बाद की (कीथ के मतानुसार ईसा की दूसरी या तीसरी शती की) रचना मानी जाती है। इसमें बताया गया है कि वज्रनाभ नामक दैत्य का वध करने के लिए यादवों ने कपट-नटों के वेश में उसकी पुरी में प्रवेश किय तथा वहाँ रामायण तथा कौवेररभाभिसार नामक दो नाटकों का अभिनय किया। इनके सुंदर अभिनय को देखकर दैत्य उनकी पत्नियाँ अत्यधिक प्रसन्न हुईं। यदि हरिवंश महाभारत के बहुत बाद की रचना है, तो उसके इस प्रकरण को अधिक महत्व नहीं दिया जा सकता। वैसे, नाटक शब्द का उल्लेख तो रामायण में भी मिलता है। आरंभ में ही अयोध्या के वर्णन में उसे 'वघूनाटकसधैश्चसयुक्ता' बताया है, तथा राम के अभिषेक के समय नटों, नर्तकों, गायकों आदि का उपस्थित होना वर्णित है।

    महाभारतोत्तर काल के साहित्य में सबसे पहले हम पाणिनि का संकेत कर सकते हैं। पाणिनि के एक सूत्र में शिलालिन् नामक आचार्य तथा अपर सूत्र में कृशाश्व नामक आचार्य के नटसूत्रों का संकेत मिलता है—'पाराशर्यशिलालिभ्या भिक्षुनट-सूत्रयो' (4 3 110), 'कर्मन्द कृशाश्वदिनि' (4 3 11)। पाश्चात्य विद्वानों ने इस बात पर ज़ोर दिया है कि पाणिनि में कहीं भी 'नाटक' शब्द का प्रयोग नहीं मिलता, उक्त 'नट' शब्द संभवत उस काल में पुत्तलिका-नृत्य की पुष्टि करता है। पाणिनि-सूत्रों में 'नाटक' शब्द उसके अन्य-वाचक पद का प्रयोग होना इस बात की पुष्टि करता है कि उस समय (कीथ के मतानुसार 400 ई. पू.) तक संस्कृत नाटकों का निश्चित विकास हो पाया था।

    पाणिनि के बाद कौटिल्य के अर्थशास्त्र में 'कुशीलवों' (नटों) तथा उनके द्वारा नागरिकों को प्रेक्षणक (नाटक) दिखाए जाने का उल्लेख है। (कौ. अर्थशास्त्र 14, 28, 31) इसके बाद पतंजलि के महाभाष्य में तो 'कंसवध' तथा 'बलिवधन' इन दो कथाओं से संबद्ध नाटकों का स्पष्ट उल्लेख है। (महाभाष्य 3 1 26)। ईसा की प्रथम शताब्दी से तो हमें संस्कृत नाटकों को परिपक्व अवस्था दृष्टिगोचर होने लगती है।

    इस सारे विवेचन में हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि संस्कृत नाटकों की उत्पत्ति के विषय में शुद्ध भारतीय परंपरावादी मत दैवी उत्पत्ति में विश्वास करता है, जिसे आज का विद्यार्थी किसी भी तरह स्वीकार करने को प्रस्तुत होगा। पाश्चात्य विद्वानों में अधिकांश इनकी उत्पत्ति वैदिक-कालीन धार्मिक-कर्मकाण्ड या पौरोहित्य कर्म से मानते हैं। अबतक प्रायः सभी पाश्चात्य तथा भारतीय विद्वान संस्कृत नाटकों का धार्मिक उद्भव ही मानते हैं। प्रो. आर. वी. जागीरदार ने ही सर्वप्रथम इस मत का खंडन कर एक नए मत की उद्भावना भी है। अपने ग्रंथ 'दि ड्रामा इन संस्कृत लिटरेचर' के पंचम परिच्छेद में उन्होंने डॉ. कीथ आदि पाश्चात्य विद्वानों के इस मत का खंडन किया है कि संस्कृत नाटकों का उद्गम-त्रोत धार्मिक है। उन्होंने इस बात की स्थापना की है, कि संस्कृत नाटकों का उद्गम-स्रोत धार्मिक नहीं है।

    प्रो. जागीरदार के मत के दो अंश हैं। प्रथम अंश में उन्होंने भरत तथा भारतीय नाट्य-कला के परस्पर संबंध का विवेचन करते हुए, भारतीय नाट्य-कला के उद्भव पर नया प्रकाश डाला है। जैसा कि स्पष्ट है, भारत की परंपरा नाटक का संबंध भरत नामक मुनि से जोड़ती है, तथा इस किवदंती का प्रचार कालिदास से भी पहले पाया जाता है। स्वयं कालिदास ने ही 'विक्रमोर्वंशीय' प्रथम अंक में भरत को नाट्याचार्य के रूप में माना है, तथा उनके द्वारा इंद्र की सभा में एक नाटक खेले जाने का संकेत मिलता है। नाट्य-शास्त्र तथा नदिकेश्वर के अभिनय-दर्पण में भी प्रस्तावना भाग में भरत का नाट्याचार्य के रूप में उल्लेख है। क्या भरत कोई वास्तविक व्यक्ति थे, या इनका पौराणिक व्यक्तिव्य रहा है? प्रो. जागीरदार ने इस प्रश्न को दूसरे ढंग सुलझाया है। उनके मतानुसार नाट्य-कला के आचार्य भरत का संबंध वैदिक साहित्य की आर्य जाति की एक शाखा 'भरत' से जोड़ा जा सकता है। वैदिक साहित्य में 'भूत' आर्यों की प्रमुख जाति के रूप में प्रसिद्ध रही है। किंतु उत्तर वैदिक-काल में आकर 'भरत' जाति का यह गौरव नहीं रहा है। इसी भूत जाति ने सर्वप्रथम नाट्य-कला का पल्लवन किया था। वैदिक कर्मकाण्ड के प्रति चिपके रहने वाले पुरोहित वर्ग ने नाट्य-कला को हेय दृष्टि से देखा था। वे इसे कुत्सित कार्य—नीच कर्म—संबंधित थे। फलतः ‘भरतों’ में सन्मुख नाट्य-कला को छोड़कर अपने सामाजिक सम्मान की रक्षा करने या नाट्य-कला को छोड़ने पर शूद्रों में परिगणित होने का विकल्प सामने आया। 'भरत' जाति ने सूद्र बनना स्वीकार किया पर नाट्य-कला छोड़ी। प्रो. जागीरदार ने नाट्य-शास्त्र से ही इस बात की पुष्टि की है कि भरत के सौ पुत्रों को ब्राह्मणों ने रुष्ट होकर यह शाप दे दिया था कि वे शूद्र हो जाएँ तथा उनका वंश भी शूद्र रहे। (नाट्य-शास्त्र 36 34-36)। वैदिक कर्मकांडीय पद्धति के प्रेमी आर्यों ने नाट्य-कला को कोई आश्रय नहीं दिया, फलतः 'भरतो' को सप्तसिंधु प्रदेश छोड़कर दक्षिण की ओर जाना पड़ेगा। संभवत ये राजपूताना की ओर से दक्षिण गए और वहाँ एक अवैदिक (अथवा अनार्य) राजा ने इनकी कला का आदर किया। नाटय-शास्त्र में ही इस बात का संकेत मिलता है कि 'नहुष' नामक राजा ने 'भूतों' को आश्रय दिया (वही 36 48 तथा परवर्ती श्लोक) यह 'नहुष' जैसा कि स्पष्ट है, कोई अनार्य राजा था जो इसके 'न-हुट्' (यज्ञ करने वाला) नाम से ही सिद्ध है, तथा पुराणों में देवता तथा ब्राह्मणों से इसके विरोध की कथाएँ पाई जाती हैं। इस प्रकार प्रो. जागीरदार ने संस्कृत नाटकों का विकास धार्मिक (वैदिक) क्रियाकलापों में मानकर वेद-विरोधी प्रवृत्ति में माना है।

    प्रो. जागीरदार की स्थापना का दूसरा अंश 'सूत्रधार' शब्द की व्युत्पत्ति से तथा संस्कृत नाटकों के विकास में सूत्रधार का क्या हाथ रहा है—इस मीमांसा से संबद्ध है। हम देख चुके हैं कि पिशेल ने 'सूत्रधार' शब्द को लेकर संस्कृत नाटकों का विकास पुत्तलिका-नृत्य से माना था। जागीरदार के मतानुसार 'सूत्रधार’ मूलतः पुतलियों की डोर को पकड़कर पीछे से नचाने वाला होकर वैदिक क्रियाकलाप के लिए वेदी आदि को नापने वाला शिल्पी है। इसी से नाटकों से 'सूत्रधार’ का संबंध जोड़ा गया है। वैदिक काल में संभवत 'सूत्रधार' के कई कार्य थे। वह शिल्पागमवेत्ता था तथा इसके साथ वशावली आदि सुनाने का भी कार्य करता होगा। पुराणों के 'सूत' से 'सूत्रधार' का संबंध जोड़कर इस बात को सिद्ध किया गया है कि 'सूत्रधार' शब्द का प्रयोग बंदीजन के अर्थ में किया जाता होगा। महाभारत के आदिपर्व में ही 'सूत' को 'सूत्रधार' भी कहा गया है। (इत्यव्रवीत् सूत्रधारों सूत पौराणिकस्तया- आदिपर्व. 51-15)। सूत्रधार को 'स्थपति' भी कहा जाता है तथा इस आधार को लेकर यह भी कल्पना की गई है कि नाटक के प्रस्तावना भाग का 'स्थापना' नाम इसी 'स्थपति' के सादृश्य पर रखा गया है। इस तरह 'सूत' (या सूत्रधार) का काम इधर-उधर घूमकर वीर-गीतों और लोक-कथाओं का गान करना तथा उसके द्वारा जनरंजन करना था। इस कार्य में धीरे-धीरे उसने अपने साथ संगीत का भी प्रबंध कर लिया होगा और इस प्रकार 'सूत' तथा 'कुशीलवो' (गायकों) का गठबंधन हो गया होगा। इतना ही नहीं आगे जाकर इसमें स्त्री नटी या नर्तकी का भी समायोग हुआ होगा, प्रो. जागीरदार ने महाकाव्योत्तर (पोस्ट-एपिक)-रामायण, महाभारत काल के परवर्ती—सूत को ही संस्कृत नाटकों का जन्मदाता माना है। इस तरह उन्होंने महाकाव्यों से संस्कृत नाटकों का घनिष्ठ संबंध घोषित किया है।

    इस नाट्य-कला का जन्मदाता महाकाव्योत्तर सूत ही है, पुत्तलिका-नृत्यों का सूत्रधार नहीं, महाकाव्यों का पाठ ही भारती वृत्ति है, धार्मिक मंत्रों का नहीं; सूत तथा कुशीलयों का गान ही सात्वती वृत्ति है; कैशिकी वृत्ति में नटी (नर्तकी) का समायोग किया गया; आरभटी वृत्ति नाटक को परिपूर्ण रूप में आरंभ से अंत तक अभिनीत करना है, संस्कृत नाटक ने अपना नायक सूत से तथा उन महाकाव्यों से लिया है, जिसका वह पाठ करता था, धार्मिक साहित्य अथवा वैदिक देव-समूह से नहीं, कदापि नहीं।

    (दि ड्रामा इन संस्कृत लिटरेटर, पृ. 41)

    संस्कृत नाटक-साहित्य की सर्वप्रथम रचनाएँ, जो हमें उपलब्ध हैं, तुफ़नि से मिले तीन नाटकों के खंडित रूप हैं। इनमें एक नाटक शारिपुत्र प्रकरण है, अन्य दो कृतियाँ क्रमशः 'अन्यापदेशी रूपक' तथा 'गणिका-रूपक' हैं। प्रथम कृति नौ ग्रहो का एक प्रकरण है, शेष दो कृतियों के कलेवर के विषय में पूरी तौर पर कुछ नहीं कहा जा सकता। इन तीनों नाटकों की शैली को देखकर प्रो. ल्यूडर्स ने इन्हें अश्वघोष की कृतियाँ घोषित किया है। शारिपुत्र-प्रकरण में मौद्गल्पायन तथा शारिपुत्र बुद्ध के द्वारा शिष्य बनाए जाने की कथा है। इसमें विदूषक का भी प्रयोग है, जो अन्य 'गणिका-रूपक' में भी पाया जाता है। शारिपुत्र की कथा श्रृंगार से शांति की ओर बहती दिखाई गई है, और इससे यह स्पष्ट है कि सौंदरानंद की भाँति अश्वघोष की यह नाट्य-कृति भी 'मोक्षार्थ-गर्भी' हैं, तथा इसका लक्ष्य 'रतये' (मनोरंजनार्थ) होकर 'कुपशान्तये' (धार्मिक उपदेशार्ध) है। अन्यापदेशी रूपक (एलेगरिकल ड्रामा) में बुद्धि, कीर्ति, धृति आदि को मानवीय परिवेश में उपस्थित किया है। इसके एक पात्र स्वयं बुद्ध भी हैं इस प्रकार यह नाटक—जिसके शीर्षक का पता नहीं है—श्रीकृष्णमिश्र के प्रबोधचन्द्रोदय को अन्यापदेशी शैली का अग्रदूत कहा जा सकता है। तृतीय कृति एक 'गणिका-रूपक' है, जिसमें सोमदत्त नामका नायक तथा वेदया के प्रेम की कथा जान पड़ती है। इसके पात्र मृच्छकटिक को भाँति समाज के उच्च तथा निम्न दोनों स्तरों से लिए गए हैं---राजकुमार, दास, दासी, दुष्ट आदि। साथ ही इसमें भी विदूषक का समावेश पाया जाता है। यदि ये नाटक अश्वघोष के ही हैं---क्योंकि विद्वानों का एक दल इन्हें अश्वघोष की कृतियाँ नहीं मानता तथा इन्हें कालिदास के बाद के नाटक मानता है—तो हम कह सकते हैं कि अश्वघोष से पहले ही किसी कलाकार के हाथों ने भारतीय नाट्य-कला को सँवार दिया था, उसने नाटकों में 'विदूषक’ का समावेश कर एक नवीन कौशल भारतीय नाटकों को दिया था। यह नाटककार कौन था? इसके विषय में हमारा इतिहास मौन है और हम उस अज्ञात- नामा नाटककार का ध्यान आते ही श्रद्धानत हो जाते हैं, जिसने संस्कृत नाटकों की अखंड परंपरा को जन्म दिया। यह तो निश्चित है कि अश्वघोष संस्कृत नाटकों के आदिम कलाकार नहीं है।

    अश्वघोष से कालिदास तक आने के पूर्व हम एक और नाटककार से परिचित होते हैं—भास। भास का नाम आज से 42-43 वर्ष पूर्व तक संस्कृत साहित्य के इतिहास में एक समस्या बना हुआ था। कालिदास, बाण तथा राजशेखर ने भास की कला की संस्तुति की थी और प्रसन्नराघवकार जयदेव ने उसे कविताकामिनी का 'हास' बताया था। पंडितों कवियों में एक किंवदन्ती प्रचलित थी कि भास की एक नाट्य-कृति—स्वप्नवासवदत्तम्को— भाग में डाल देने पर अग्नि भी जला सकी। संभवत यह पार्थिव अग्नि होकर आलोचकों की आलोचनाग्नि थी, जिसमें तपकर भास की कृति और अधिक प्रभा-भास्वर हो उठी थी और इसी तथ्य को राजशेखर ने लाक्षणिक शैली में व्यंजित किया था। सन् 1913 में म. म. गणपति शास्त्री ने सर्वप्रथम विद्वानों का ध्यान तेरह नाटकों की ओर आकृष्ट किया तथा उन्हें भास की कृतियाँ घोषित किया। त्रिवेंद्रम से प्रकाशित नाटकों के विषय में विद्वानों के तीन मत हैं :

    (1) प्रथम मत के अनुसार ये नाटक निश्चित रूप से भास के ही हैं। इन नाटकों की प्रक्रिया, शैली, भाषा आदि को देखने पर पता चलता है कि ये सब एक ही कवि की कृति हैं, तथा इनका रचनाकार कालिदास से पूर्ववर्ती है। स्वप्नवासवदत्तम् के आधार पर इन सभी कृतियों को भास की ही मानना ठीक जान पड़ता है।

    (2) दूसरे मत के अनुसार ये रचनाएँ भास की नहीं। इनका रचयिता सातवीं आठवीं शती का कोई दाक्षिणात्य कवि जान पड़ता है।

    (3) तीसरे मत के अनुसार ये नाटक मूलत भास की रचनाएँ हैं, किंतु जिस रूप में आज ये उपलब्ध हैं, वह उनका रंगमंचोपयुक्त संक्षिप्त रूप है।

    इन तीन प्रसिद्ध मतों के अतिरिक्त एक चौथे मत का भी संकेत किया जा सकता है, जिसके अनुसार इन नाटकों को दो वर्गों में बाँटा जा सकता है, एक वे नाटक, जिनमें अनुष्टुप पद्यों की संख्या अधिक है। ये नाटक भास की प्रामाणिक रचनाएँ जान पड़ती हैं। दूसरी कोटि के नाटक जिनमें अनुष्टुप पद्यों की संख्या बहुत कम है, भास की प्रामाणिक रचनाएँ नहीं हैं। इस मत के पोषक विद्वान् 'दरिद्रचारदत्त' को भास की कृति नहीं मानते।

    भास के तेरह नाटकों को तीन वर्गों में बाँटा जा सकता है :

    1. रामायण नाटक (प्रतिमा तया अभिपेक) 2. महाभारत नाटक (पंचरात्र, मध्यम व्यायोग, दूतवाक्य, दूतघटोत्कच, कर्णभार, उरुभग तथा बालचरित), 3. अन्य नाटक (स्वप्नवासवदत्तम, प्रतिज्ञायोगन्धरायणम्, अविभारक, दरिद्रचारुदत्त)। इस विवरण से यह स्पष्ट है कि भास के नाटकों की कथावस्तु का स्त्रोत विविध है। एक ओर वह रामायण-महाभारत जैसे महाकाव्यों से अपनी कथा चुनता है, दूसरी ओर तत्कालीन लोक-कथाओं को भी अपनी कला के साँचे में ढालता है। यह विविधता भास की प्रतिभा की मौलिकता को व्यक्त करती है। इतना होते हुए भी भास के सभी नाटकों में एक-सी नाट्य-कुशलता नहीं मिलती। रामायण वाले दोनों नाटकों का कथा- संविधान शिथिल है। यहाँ नाटकीय कुतूहल का अभाव है। प्रतिमा नाटक में एक स्थान पर जहाँ ननिहाल से लौटते भरत देवकुल में दशरथ की प्रतिमा देखकर उनकी मृत्यु से अवगत होते हैं—नाटकीयता लाने का प्रयत्न किया गया है, पर वहाँ कवि सफल नहीं हो सका है। वस्तुत: रामायण के दोनों नाटक रामायण की कथा का शुष्क संक्षेप हैं, जिन्हें मंच के उपयुक्त बना दिया गया है। महाभारत वाले नाटकों में फ़िर भी कवि ने अधिक कौशल से काम लिया है। वैसे यहाँ भी कलाकार का परिपपत्र कात्तित्व नहीं दिखाई देता। भास की सच्ची कुशलता का परिचय स्वप्नवासवदत्तम् तथा प्रतिज्ञायोगंधरामण से मिलता है। स्वप्नवासवदत्तम् का घटना-चक्र विशेष कुशलता से निबद्ध किया गया है। इसमें व्यापारान्विति का पूर्ण ध्यान रखा गया है। कवि ने लोक-कथा को लेकर अपने ढंग से सजाया है। नाटक की दोनों नायिकाओं—वासवदत्ता और पद्मावती—के चरित्रों को स्पष्ट रूप से निजी व्यक्तित्व दिया गया है। हर्ष की नाटिकाओं का विलासी उदयन भास के नाटक में अधिक गंभीर रूप लेकर आता है। वासवदत्ता के चरित्र को चित्रित करने में कवि ने बड़ी सावधानी और कुशलता बरती है। वासवदत्ता अपनी वास्तविकता को छिपाकर अपने पति के पराक्रम के लिए अपूर्व त्याग करती है। वैसे आरंभ में ही वासवदत्ता के जीवित रहने का संकेत कर देना नाटकीय कौतूहल को कुछ समाप्त कर देता है। किंतु ऐसा जान पड़ता है कि कवि यहाँ 'नाटकीय अपेक्षा' (ड्रेमेटिक एक्सप्लेटेशन) की योजना कर रहा है। कवि के रूप में भास को प्रथम श्रेणी में स्थान नहीं दिया जा सकता, किंतु भास का लक्ष्य कविता करना होकर नाटकीय योजना करना था। वैसे भास के नाटकों में नाट्य-कला का वह पौढ़ रूप भी मिले, जो हमें कालिदास के नाटकों में मिलता है, किंतु भास की नाट्य-कला उस कृत्रिमता से मुक्त है, जिसने बाद के संस्कृत नाटक-साहित्य को दबोच लिया है। भास के नाटक मंचीय विनियोग को ध्यान में रखते जान पड़ते हैं और उन्होंने कालिदास के नाटकों की सफलता के लिए पृष्ठभूमि तैयार की है।

    कालिदास के हाथों में नाट्य-कला उस समय आई, जब वह समृद्ध हो रही थी और उसे किसी महान कलाकार के अंतिम स्पर्श की आवश्यकता थी। भास के नाटक—यदि वे मूलतः इसी रूप में थे, तो शेक्सपियर के पूर्व के आग्ल मोरेलिटी तथा मिरेकिल नाटकों की भाँति कलात्मक रमणीयता से रहित हैं, उनमें कथा-वस्तु की नाटकीय सज्जा का प्रौढ़ संविधान मिलता है, पात्रों का मनोवैज्ञानिक चित्रण, काव्य की अतीय उदात्त महिमा ही। कालिदास ने नाट्य-कला के इन अभावों की पूर्ति की यद्यपि कालिदास अंतम् से कवि हैं, तथापि उनके नाटकों को देखकर कहा जा सकता है कि विश्व के चोटी के नाटककारों में उनका भी नाम लिया जा सकता है और यह उनके कवित्व के आधार पर नहीं, अपितु उनकी नाट्य-कला के आधार पर। कालिदास के विक्रमोर्वंशीय तथा अभिज्ञानशाकुतल की कथा-वस्तु का विनियोग, इस बात का प्रमाण है कि वे जीवन के गत्यात्मक चित्र का निर्वाह करने में भी उतने ही कुशल थे, जितने कि कवि-कल्पना में। परवर्ती नाटककारों की भाँति जो मूलतः कोरे कवि हैं—कालिदास ने अपने कवित्व के भार से नाटकीय कथा-वस्तु को कहीं भी आक्रांत नहीं किया है। कालिदास की नाट्य-कला का इससे बढ़कर क्या प्रमाण चाहिए?

    कालिदास के तीन नाटक हमें उपलब्ध हैं—मालविकाग्निमित्र, विक्रमोर्वंशीय तथा अभिज्ञानशाकु तल। अभिज्ञानशाकु तल कवि की अंतिम कृति है, किंतु प्रथम कृति के विषय में विद्वानों में ऐकमत्य नहीं है। कुछ लोग विक्रमोर्वंशीय को प्रथम कृति घोषित करते हैं, किंतु हमें मालविकाग्निमित्र ही पहली कृति दिखाई देती है। मालविकाग्निमित्र में अग्निमित्र तथा मालविका के प्रणय की कथा पाँच अंकों में निबद्ध की गई है। यद्यपि शास्त्रीय पद्धति के अनुसार यह नाटक है, किंतु प्रकृत्या यह 'नाटिका' उपरूपकों के ढंग का दिखाई देता है। इसे इस दृष्टि से हर्ष की नाटिकाओं के विशेष समीप माना जा सकता है। राजप्रासाद तथा प्रमदवन से सीमित क्षेत्र में घटित प्रणय-कथा ही इसका प्रमुख प्रतिपाद्य है, जीवन की विशेषता के दर्शन यहाँ नहीं होते। राजा अग्निमित्र अपनी बड़ी रानी धारिणी तथा छोटी रानी इरावती से छिप-छिपकर मालविका से प्रेम करता है। इस तरह शास्त्रीय पद्धति से चाहे अग्निमित्र 'धीरोदात्त' माना जाए, हमें तो वह 'धीरललित' ही जान पड़ता है। कालिदास का दूसरा नाटक पुरुरवा तथा उर्वशी की प्रसिद्ध प्रणय कथा को आधार बनाकर आया है। इसकी कथा-वस्तु में निश्चित रूप से मालविकाग्निमित्र से प्रौढ़ता दिखाई पड़ती है। मालविकाग्निमित्र की अपेक्षा विक्रमोर्वंशीय का संसार अधिक विस्तृत है, वह राजाप्रसाद की चहारदीवारी से सीमित नहीं। साथ ही विक्रमोर्वंशीय का पुरुरवा अग्निमित्र की तरह केवल विलासी होकर पौरुष से संपन्न है। नाटक का आरंभ तथा अंत उसके पौरुष की उदात्त एवं गरिमामय झाँकी से समन्वित है। यह सच्चे शब्दों में धीरोदात्त है। वह दानवों के द्वारा अपहृत उर्वशी को युद्ध करके छुड़ा लाता है। यही पौरुष उर्वशी के आकर्षण का कारण बनता है और उसके मुँह से कवि ने स्वगत उक्ति कहलवा ही दी है—'उपकृत खलु दानवेंद्रनग्भेण' (विक्रमोर्वंशीय प्रथम अंक)। विक्रमोर्वंशीय में प्रणय का बीज सर्वप्रथम नायिका ही के हृदय में उद्धिव होता है, वही नायक से मिलने का प्रयास करती है। उर्वशी के अप्सरात्व को देखते हुए यह बात ठीक प्रतीत होती है। किंतु मालविकाग्निमित्र की भाँति विक्रमोर्वंशीय का प्रणय लौकिक तथा विलासमय नहीं है। विक्रमोर्वंशीय में कवि ने प्रेम को एक 'दिव्य' स्वरूप दिया है, संभवतः दैवी पात्र उर्वशी को सुनने का यह भी कारण हो, साथ ही इसकी चरम परिणति भी दिव्य वातावरण—इंद्र की कृपा—में प्रदर्शित की गई है। दूसरे पुरुरवा तथा उर्वशी का प्रणय तबतक सफल नहीं समझा जबतक कि वह पुत्रोत्पत्ति का कारण नहीं बनता। इस प्रकार कवि ने अफल प्रणय को वासना घोषित करने का संकेत किया है। कालिदास के दोनों परवर्ती नाटकों का उपसंहार नायक नायिका के प्रणय की मूर्त सफलता—एक में आयुष् के रस में, अन्य में भरत के रूप में—में परिणत होता है। यह कालिदास के रघुवंश की प्रसिद्ध उक्त्ति 'प्रजायै गृहमेधिनाम्' का निदर्शन दिखाई पड़ता है।

    अभिज्ञानशाकु तल में कवि ने विशेष कलाकृतित्व की व्यंजना की है। अभिज्ञानशाकु तल दुष्यंत तथा शकुंतला की प्रसिद्ध प्रणय-कथा पर निबद्ध सात अंकों का नाटक है। यद्यपि इस प्रणय-कथा का मूल स्त्रोत महाभारत तथा पद्मपुराण हैं, तथापि कालिदास ने इसे नाटकीय परिवेश में उपस्थित किया है। इतिहास-पुराणों का दुष्यंत कामुक दिखाई पड़ता है, जो अकारण शकुंतला को विस्मृत कर देता है। कालिदास ने दो स्थानों पर दुष्यंत के कामुकत्व को बचाकर उसे खरा 'धीरोदात्त' बनाने की पूरी कोशिश की है। कालिदास का पहला प्रयास वहाँ दिखाई देता है, जहाँ दुष्यंत में शकुंतला की पहली झाँकी देखते ही मोहित हो जाता है। एक राजा का तपोयन-वासिनी के प्रति मुग्ध होना राजधर्म ही नहीं, आचार के भी विरुद्ध है। और इस आचार-विरोध को कवि ने 'सता हि संदेह देषु वस्तुपु प्रमाणमन्त रगप्रनय' कहलवा कर मिटा दिया है। आखिर दुष्यंत जैसे पवित्र-हृदय व्यक्ति का अंतः करण इस बात का साक्षी है कि शकुंतला 'क्षत्रपरिरक्षमा' है। उसी तरह शकुंतला की भूलने के कारण के रूप में दुर्वासा-शाप की कल्पना करना भी कालिदास की नायक के चरित्र की अकलुषता बनाए रखने का प्रयत्न है। कालिदास के चरित्रों का अध्ययन करते समय हमें इस बात का ध्यान रखना होगा कि उसकी नाट्य-कला का प्रमुख लक्ष्य चरित्र-चित्रण होकर रस-व्यंजना है। यही कारण है शेक्सपियर जैसी चरित्रों की मनोवैज्ञानिक स्थिति, उनके अंतर्द्वंद्व का संघर्ष यहाँ नहीं मिलेगा फ़िर भी कालिदास के चरित्र कहीं बाहर के जीव होकर, इसी ज़मीन के खाद-पानी से पनपे हुए हैं। यह दूसरी बात है कि वे यथार्थ के मर्त्यलोक और आदर्श के स्वर्ग को जोड़कर इतने सुंदर ताने-बाने में बुन दिए जाते हैं कि गेटे के शब्दों में हम उन्हें भी 'हैवन अर्थ कम्बाइंड' कह सकते हैं। कालिदास के नाटककार ने उनको यथार्थ की रेखाओं में आलिखित किया है और कालिदास के कवि ने उनमें आदर्श का रंग भरकर भावना तथा कल्पना की 'लाइट और शेड' वाली द्वाभा झलका-दी है। दुष्यंत जहाँ एक ओर रसिक-शिरोमणि है, वहाँ आदर्श राजा भी। जो दुष्टों को शिक्षा देता है, प्रजा के विवाद को शांत करता है, तथा प्रजा का सच्चा बंधु है, वह तपोवन की रक्षा के लिए, देवताओं की सहायता के लिए आततायी दानवों से सदा लोहा लेने को प्रस्तुत है। दुष्यंत के उदात्त चरित्र की पराकाष्ठा में कालिदास अग्निमित्र जैसे कोरे श्रृंगारी नायक का चित्र उपस्थित नहीं करना चाहता, अपितु वर्णाश्रमधर्म के व्यवस्थापक राजा का आदर्श भी उपस्थित करना चाहता है। खेद है, आज के नाटककार इस आदर्श को भूल से गए। हर्ष का 'उदयन' अग्निमित्र का ही 'प्रोटोटाइप' है। हाँ, भवभूति के राम में हमें फ़िर एक आदर्श नायक के दर्शन होते हैं। नायिकाओं के चित्रण में भी कालिदास की तूलिका अति पटु है। उनके सौकुमार्य, लावण्य तथा स्वाभाविक लीला का अकन करने में उसकी लेखनी संभवत अपना सानी नहीं रखती। हर्ष की प्रियदर्शिका, रत्नावली, यहाँ तक कि मलयवती भी मालविका की ही नकल है। शूद्रक की वसंतसेना निस्संदेह संस्कृत नाटकों की अनन्य नायिकाओं में से है, किंतु उसपर भी थोड़ी-बहुत उर्वशी की छाया पड़ी दिखाई पड़ती है। भवभूति की सीता का अपना निजी व्यक्तित्व है, पर वह सौकुमार्य जो कालिदास की नायिकाओं में है, वहाँ नहीं मिलता, वह गंभीर प्रकृति की नायिका है, जिसे जीवन के समस्त हास-विषाद, सुख-दुख के अनुभवों ने अधिक प्रौढ़ बना दिया है तथा उसमें 'रोमानी' नायिका-सुलभ चंचलता समाप्त हो गई है। मालाविकाग्निमित्र की नायिका पारिणी की सेविका बनी प्रणय- लीलानभिज्ञ राजकुमारी है, तो विक्रमोर्वंशीय की नायिका रति-विशारदा उर्वशी। शाकुंतल की नायिका एक ऐसे वातावरण में पली है, जहाँ विलास और काम-कला से दूर तपस्वी संयम का जीवन व्यतीत करते हैं, किंतु इतना होने पर भी भोली शकुंतला आरंभ के तीन अंकों में जिस तेजी से प्रणय-व्यापार करती है, उस दोष को तपस्या की आँच में तपाकर कालिदास ने उसके स्वर्णिम चरित्र की भास्वरता को स्पष्ट कर दिया है।

    कालिदास की काव्य-कला के विषय में यहाँ कुछ कहना आवश्यक होगा, किंतु इतना संकेत कर दिया जाए कि कालिदास के नाटकों की सफलता एक अंश तक उनकी काव्यात्मकता पर भी निर्भर करती है। कालिदास मूलतः श्रृंगार के कवि हैं तथा श्रृंगार के विविध पात्रों का जिस बारीकी से उन्होंने चित्रण किया है, वह संस्कृत साहित्य में अन्यत्र कहीं नहीं मिलता। इसके अतिरिक्त कालिदास की नैसर्गिक अलंकार-योजना उनकी रस-व्यंजना में उपस्कारक सिद्ध होती है। कालिदास के नाटक इसी काव्यात्माता के कारण भावनावादी अधिक हैं, काव्य की भौतिचे आदर्शवादी वातावरण की सृष्टि करते हैं, किंतु यथार्थ से अछूते नहीं हैं भले ही मृच्छकटिक जैसी कठोर यथार्थता वहाँ मिले।

    संस्कृत के नाटकों में मृच्छकटिक का अपना महत्व है। यह अपने ढंग का अकेला नाटक है जिसमें एक साथ प्रणयकथात्मक प्रकरण, घूर्त्त सकुल भाण, हास्य-मिश्रित प्रहसन तथा राजनीतिक नाटक के विचित्र वातावरण का समन्वय दिखाई देता है। संपूर्ण संस्कृत नाटक-साहित्य में यही अकेला ऐसा नाटक है, जो उस काल के मध्यवर्ग की सामाजिक स्थिति का पूर्ण प्रतिबिंब कहा जा सकता है। मृच्छकटिक को पंडित-परंपरा शूद्रक की रचना मानती चली रही है और इसका आधार स्वयं मृच्छकटिक का ही प्रस्तावना-भाग है। किंतु शूद्रक केवल एक अर्ध-ऐतिहासिक या 'रोमेंटिक’ व्यक्तित्व जान पड़ता है तथा किसी आज्ञातनामा कवि ने अपने नाम को प्रकाश में लाकर इसे शूद्रक के नाम से प्रसिद्ध कर दिया है। मृच्छकटिक की रचना-तिथि के विषय में भी निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता है। वैसे विद्वानों का बहुमत इसे ईसा की दूसरी शती की रचना मानता है, तथा इस मत के मानने वालों में वे दोनों तरह के विद्वान हैं, जो कालिदास को ईसा-पूर्व प्रथम शती तथा ईसा की चौथी शती में मानते हैं। इस तरह एक मृच्छकटिककार को कालिदास का ऋणी बताते हैं, अन्य कालिदास पर मृच्छाटिककार का प्रभाव मानते हैं। नए विद्वान् इस मत से सहमत नहीं कि मृच्छकटिक ईसा की दूसरी शती की रचना है। यह तो निश्चित है कि मृच्छकटिक कालिदासोत्तर रचना है, किंतु स्वयं कालिदास ही इसमें पुराने नहीं जान पड़ते कि उन्हें ईसा पूर्व प्रथम शती का माना जा सके। फलतः मृच्छकटिका की शैली, उसमें वर्णित सामाजिक तथा राजनीतिक स्थिति को देखते हुए हम कह सकते हैं कि यह कालिदास (चौथी शती ईसवीं) के परवर्ती—संभवतः गुप्त साम्राज्य के ह्रास तथा हर्षवर्धन के उदय ने बीच के काल की रचना है। हमने इस विषय का अधिक विवेचन अन्यत्र किया है, वह यहाँ अनावश्यक होगा।

    मृच्छकटिक 10 अंकों का एक संकीर्ण-कोटि का प्रकारण है। प्रकरण रूपक में 10 भेदों में से एक है तथा नाटक में इसमें यह भेद है कि जहाँ नाटक में इतिवृत्त प्रस्ताव होता है, यहाँ वह कल्पित होता है। नाटक का नायक सदा धीरोदत्त—राजन्य, दिव्य या दिव्यादिव्य व्यक्ति---होता है, जबकि प्रकरण का नायक धीरशांत—ब्राह्मण या वैश्य होता है। नाटक का रस वीर अथवा श्रृंगार ही होता है। मृच्छकटिक में अवती के ब्राह्मण सार्थवाह चारुदत्त तथा वसंतसेना के प्रेम की कथा है, जिसके बीच में कवि ने प्रासंगिक कथा के रूप में गोपालदारक आर्यक की राजनीतिक क्रांति वाली कथा को बुन दिया है। यह कथा मूल प्रणय-कथा से इतनी संश्लिष्ट है कि वह संपूर्ण रूपक में अनुस्यूत दिखाई पड़ती है। इतना ही नहीं, यह उप-कथावस्तु उस काल की सामाजिक अस्तव्यस्तता के वातावरण की सृष्टि करने में भी पूरा योग देती है।

    मृच्छकटिक की सबसे बड़ी विशेषता इसका घटना-चक्र, जीवन के विविध गत्यात्मक चित्रों का अंकन तथा पात्रों का चरित्र-चित्रण है। समस्त संस्कृत नाट्य-साहित्य पर सरसरी निगाह दौड़ाने पर पता चलता है कि अधिकाश संस्कृत रूपकों का घटना-चक्र बड़ा कच्चा रहता है। इस दृष्टि से कालिदास, मृच्छकटिककार (शूद्रक ?) तथा विशाखदत्त को ही अपवाद कहा जा सकता है। नाटक की सफलता असफलता की कसौटी उसका काव्यत्व होकर नाटकीय गतिमत्ता या व्यापार है। नाटक की कथावस्तु-व्यापार के द्वारा जितनी ही अग्रसर होगी, नाटक उतना ही खरा उतरेगा। मृच्छकटिक में व्यापार-योजना में बड़ी सतर्कता बरती गई है। दूसरे मृच्छकटिक कवि ने सर्व-प्रथम राजन्य-वर्ग को छोड़कर मध्यवर्ग के जीवन से अपनी कहानी चुनी है। उज्जयिनी के मध्यवर्ग समाज की दैनदिन चर्चा को रूपक का आधार बनाकर कवि ने इसमें यथार्थता के प्राण डाल दिए हैं। इस दृष्टि से यह संस्कृत का एक मात्र यथार्थवादी नाटक है तथा इसकी तुलना संस्कृत के समस्त साहित्य में दंडी के दशकुमारचरित को छोड़कर अन्य किसी कृति से नहीं की जा सकती। दशकुमारचरित की तरह ही मृच्छकटिक भी तात्कालिक समाज पर एक करारा व्यंग्य है। मृच्छकटिक के पात्र समाज के प्राय सभी तरह के वर्गों से चुने गए हैं—अत्यधिक सभ्य ब्राह्मण और पतित चोर, पतिव्रता पली और गणिका, पवित्र भिक्षु और पापी शकार, न्याय और व्यवस्था के रक्षक अधिकरणिक तथा रक्षक (सिपाही), जुआरी और लफंगे। और सबसे बड़ी विशेषता तो यह कि ये सभी पात्र संस्कृत-नाटकों के अन्य पात्रों की भाँति 'टाइप' होकर व्यक्ति हैं। पवित्र-हृदय विट, जिसे पेट के लिए नीच और भूखे शकार का नौकर बनकर अपमान करना पड़ता है, लोगों के घरों तथा युवतियों के हृदय में सेंघ लगाने की कला में पटु शर्विलक, जिसे प्रेम के लिए चाहते हुए भी चोरी करनी पड़ती है, जुए के कुत्सित कर्म के प्रायश्चित्त रूप में बौद्ध भिक्षुत्व धारण करने वाला सवाहक—ऐसे छोटे-छोटे पात्र भी अपना निजी व्यक्तित्व लेकर हमारे समक्ष अवतरित होते हैं। मृच्छकटिक का नायक चारुदत्त तो महार्ष गुणों से संपन्न व्यक्ति है, जिसने समस्त उज्जयिनी के मन को जीत लिया है। वह कुलीन, सभ्य, सच्चरित्र तथा त्यागी युवा है, जो अपनी त्यागशीलता के ही कारण समृद्ध सार्थवाह से दरिद्र बन गया है। वसंतसेना का चरित्र-दृढ़, सत्य और विशुद्ध सात्विक प्रेम, अपूर्ण त्याग और गुणम्पृहा की आँच में तपकर, गणिका-वृत्ति की कालिमा का परित्याग कर, शुद्ध भास्वर स्वर्ण के समान उपस्थित होता है। गणिका होते हुए भी वह राजवल्लभ संस्थानक (शकार) तथा उसकी सुवर्णराशि को ठुकराकर अपने शुद्ध एवं गंभीर प्रेम का परिचय देती है। मृच्छकटिक का तीसरा महत्त्वपूर्ण पात्र राजश्याल संस्थानक है। कवि ने शकार के व्यक्तित्व में एक साथ बेवकूफ़ी, कायरपन, हठधर्मिता, दंभ, क्रूरता तथा विलासिता के विविध उपादानों को सँजोया है। वह केवल नाटक का ‘प्रति-नायक' है, अपितु सामाजिकों में अपने ‘विद्रूप' से हास्य की सृष्टि करता है। हास्य-सृष्टि के लिए विदूषक मैत्रेय भी महत्वपूर्ण पात्र है, पर शकार और मैनेय के हास्य में बड़ा अंतर है। शकार का हास्य बेवकूफ़ी से भरा तथा विद्रूप है, विदूषक का हास्य प्रत्युत्पन्नमतित्व तथा बुद्धिमत्ता का परिचय देता है। जीवन की विविध चित्रमत्ता, यथार्थ वातावरण, धूमकुलत्य, विद्रूप तथा शिष्ट हास्य के समायोग ने ही मृच्छकटिक को ग्रीक 'कॉमेडी' के समान स्तर पर खड़ा कर दिया है। किंतु खेद है, मृच्छकटिक का यह गुण बाद के किसी भी संस्कृत नाटकों में दिखाई नहीं देता। जैसा कि हमने अन्यत्र लिखा है—मृच्छकटिक प्रकरण ने जो परंपरा संस्कृत-साहित्य को दी, उस अनुपम दाय को संभालने वाला कोई मिला। मृच्छकटिक के लावारिस रचयिता की विरासत कुछ लोगों ने अपनानी चाही, पर वे मृच्छकटिक के रचयिता की अमूल्य निधि का दुरुपयोग करने वाले निकले। भवभूति ने मालती-माधव प्रकरण के द्वारा संभवत इसी तरह की वातावरण सृष्टि करनी चाही थी, पर भवभूति की गंभीर प्रकृति धूर्तसकुल प्रकरण के उपयुक्त होने से उसने हाम्य और व्यंग्य के पुट को छोड़ दिया। फ्लतः भवभूति का प्रकरण 'कॉमेडी' के उस वातावरण तक उठ सका। ...प्रहसनों और भाणों ने मृच्छकटिका की एक विशेषता को अवश्य आगे बढ़ाने का भार लिया, किंतु आगे जाकर भाण केवल गणिकाओं और विटो, वेश्यापणों और कोठों के इर्द-गिर्द ही घूमते रहे, मध्यवर्ग के जीवन को विविधता का दिग्दर्शन हो सका, और संस्कृत के विपुन नाटक-साहित्य में मृच्छकटिका आज भी गर्वोन्नत स्थिति में खड़ा जैसे संस्कृत नाटक-साहित्य की जीवन रस से अछूती कृतियों की विडंबना कर रहा है।”

    जब साहित्य के क्षेत्र में कोई महान व्यक्तित्व किसी भी कलात्मक कृति को जन्म देता है, अभिनव मौलिकता का सनिवेश करता है तो परवर्ती साहित्यिक उसकी कृतियों को 'आदर्श' मानकर उनकी नकल करना शुरू कर देते हैं। कालिदास तथा मृच्छकटिककार ऐसे ही क्रातदर्शी कलाकार थे, जिन्होंने संस्कृत नाटकों में नई पद्धति को जन्म दिया था और अपनी कृतियों में जीवन का प्रतिबिंब उतारकर 'नाटक मानव प्रकृति का दर्पण है’, इस उक्ति की पुष्टि की थी, किंतु बाद के नाटककारों ने कालिदास को ही आदर्श मानकर नाट्य-शास्त्र के नियमों का आलेखन आवश्यक समझा और इस प्रकार बाद के नाटककारों के लिए शास्त्रीय सिद्धातों का बंधन बना दिया गया। श्रव्य काव्य की तरह अब दृश्य काव्य भी कला-कौशल तथा पांडित्य-प्रदर्शन का क्षेत्र माना जाने लगा। नाटक की सफलता-असफलता की कसौटी सैद्धांतिक 'टेकनीक' का पालन ही समझी जाने लगी, भले ही उनमें जीवन के गत्यात्मक चित्रों का प्रभाव ही क्यों हो? नाटककार के लिए नाटक में अर्थ-प्रकृति, अवस्था, सघि, तत्तत् सन्ध्यग आदि का विनियोग करना काफ़ी था, भले ही रंगमंच की प्रायोगिक शिक्षा का ‘क ग’ भी उसने नहीं सीखा हो। भरत के नाट्य-सिद्धातों की लीक पर कदम-ब-कदम चलने की इस प्रवृत्ति ने जिन दो नाटककारों को जन्म दिया, वे हैं—हर्षवर्धन तथा भट्टनारायण।

    कान्यकुब्जाधीश्वर महाराज हर्षवर्धन के नाम से तीन रूपक प्राप्त होते हैं, इनमें एक नाटक है, दो नाटिकाएँ। कुछ लोगों ने इन्हें हर्षवर्धन की कृतियाँ मानकर हर्ष के किसी दरबारी कवि की रचना माना है, पर प्रमाणाभाव में इन्हें हर्षवर्धन की ही कृतियाँ मान लेने के सिवाय कोई दूसरा चारा नज़र नहीं आता। हर्ष कृतियाँ प्रियदर्शिका, रत्नावली तथा नागानद हैं। प्रियदर्शिका तथा रत्नावली दोनों की कथा वत्सराज उदयन के अंत पुर-प्रणय से संबद्ध हैं तथा ये दोनों नाटिकाएँ मालविकाग्निमित्र की साफ़ तौर पर नकल जान पड़ती हैं। प्रियदर्शिका तो पूर्णतया असफल नाटिका है। संभवत प्रियदर्शिका की असफलता ने ही कवि को उसी प्रकार की वस्तु से संबद्ध अन्य नाटिका-रत्नावली की रचना करने को उत्तेजित किया हो। रत्नावली की कथा-वस्तु अधिक चुस्त तथा गठी हुई है। घटना में गतिशीलता है, किंतु जब हम हर्ष की तुलना कालिदास तथा मृच्छकटिककार से करते हैं तो वह मध्यम श्रेणी का कलाकार ही दिखाई पड़ता है। नागानद बोधिसत्व जीमूतवाहन के अपूर्व त्याग की कहानी पर पाधृत पाँच अंकों का नाटक है। इसकी योजना देखकर ऐसा जान पड़ता है कि यह प्रियदर्शिका तथा रत्नावली के मध्य-काल की रचना है। यद्यपि यहाँ जीमूतवाहन की अपूर्व दानशीलता तथा त्याग की झाँकी दिखाना ही कवि का प्रमुख लक्ष्य है, तथापि ऐसा जान पड़ता है, कवि अपनी 'रोमानी' प्रकृति को नहीं भुला सका है। नागानद के प्रथम तीन अंकों के प्रणय व्यापार—जीमूतवाहन तथा मलयवती के प्रणय—को देखते हुए इसे भी नाटिका रूपकों की प्रवृत्ति से अत्यधिक प्रभावित कहना होगा। संभवत: हर्ष अपनी प्रणयाभिरुचि को नहीं छोड़ पाया है तथा प्रियदर्शिका के प्रभाव से उसने नागानद में भी उसका समावेश कर दिया है। यदि नामानद कहीं तीसरे अंक पर ही समाप्त हो जाता, तो यह प्रियदर्शिका रत्नावली के समान प्रणय-रूपक (लव कॉमेडी) होता। आगे के दो अंकों को इन तीन अंकों से जिस सूक्ष्म सूत्र से जोड़ा गया है, वह कवि की असफलता का व्यंजक है। कुल मिलाकर यह नाटक असफल कृति है, यदि इसमें विशेषता है तो वह जीमूतवाहन के त्यागशील चरित्र की झाँकी कही जा सकती है। इस प्रकार स्पष्ट है, हर्ष की सारी कीर्ति केवल एक ही कृति रत्नावली के बूते पर टिकी है। नाट्य-शास्त्र के परवर्ती ग्रंथों ने तो उसे एक आदर्श नाट्य-कृति माना है तथा घनिक एवं विश्वनाथ ने दशरूपकावलोक तथा साहित्यदर्पण में तत्तत् नाटकीय टेकनीक के उदाहरण इसी कृति से या भट्टनारायण के वेणीसहार से उद्धृत किए हैं।

    हर्ष के मूल्यांकन के विषय में विद्वानों के दो मत हैं। एक मत के अनुसार हर्ष कालिदास के ही मार्ग के पथिक हैं तथा रत्नावली की रचना उसने सैद्धांतिक टेकनीक को ध्यान में रखकर कभी नहीं की है, यद्यपि बाद के शास्त्रकारों ने उसकी एक कृति को आदर्श नाट्य-कृति मान लिया है। काव्य-कला की दृष्टि से भी हर्ष संयोग श्रृंगार के कुशल चित्रकार हैं। अन्य मत के अनुसार हर्ष की कृतियाँ मानव-जीवन के रस से सर्वथा अछूती हैं। हर्ष ने नाटक के क्षेत्र में सैद्धांतिक 'टेकनीक' को बढ़ावा दिया है। वह नाटककार बनने के योग्य नहीं था। उसने अपनी कथा-वस्तु दूसरों से ली है तथा दूसरे नाटककारों की नकल की है। कथा-वस्तु की नाटकीय योजना में वह असफल सिद्ध हुआ है तथा उसके पात्र चेतनताशून्य हैं, वे केवल कवि के हाथ की कठपुतली दिखाई देते हैं। यह निश्चित है कि हर्ष एक कुशल कवि है, किंतु नाटककार के रूप में वह पूर्णतः असफल हुआ है। प्रो. जागीरदार के शब्दों में, हर्ष के लिए कविता केवल विनोद का साधन मात्र थी, स्वाभाविक स्फ़ूर्ति नहीं; साथ ही नाटक भी उसके लिए मानव-जीवन की झाँकी होकर नाट्य-शास्त्र के अध्ययन का फल था। प्रो. जागीरदार यहीं नहीं रुकते, वे जन-समाज की मानसिक एवं सामाजिक क्रांति के प्रधान अस्य नाटक को एक राजा के हाथ पड़े देखकर दुखी होते हैं और कह उठते हैं—यद्यपि हर्ष ने अपनी नाट्य-कला की सफलता के केवल 25 प्रतिशत श्रेय का भागी अपने आपको घोषित किया है, तथापि साहित्य के लिए वह एक कुसमय था जब साहित्य के प्रमुख जनवादी अंगों में से एक (नाटक) एक राजा के हाथों जा पड़ा। न्याय और व्यवस्था का नियम साहित्य के क्षेत्र में भी लागू हो गया। कौन जानता है कि हर्ष ने बुद्धिवादी जनतांत्रिकों तथा निरंकुश कलाकारों को निर्वासित करते हुए कुछ रूढ़िवादी पंडितों को स्वयं उसी के नाटकों के संबंध में इन नए सिद्धांतों (नियमों) का विधान बनाने को प्रोत्साहित किया हो और इस तरह उस काल की स्त्रियमाण संस्कृत भाषा में रचना कर उनपर अपनी राजकीय सम्मति दी हो।

    नाट्य-शास्त्र के सिद्धांतों को ध्यान में रखकर लिखा गया अन्य नाटक भट्टनारायण का वेणीसहार है, जो हर्ष के कुछ ही दिनों के बाद की रचना है। भट्टनारायण आदिसूर आदित्यसेन (राज्यकाल 671 ई. तक) के समय में विद्यमान थे। वेणीसहार महाभारत की कथा पर लिखा गया 6 अंकों का नाटक है। इसका अंगी रस वीर है। वेणीसहार रत्नावली की भाँति नाट्य-शास्त्र के सिद्धांतों के निदर्शन के लिए प्रसिद्ध है तथा धनिक और विश्वनाथ ने इससे भी कई उदाहरण प्रस्तुत किए हैं। इतना होने पर भी वेणीसहार नाटकीय दृष्टि से एक असफल कृति है। वेणीसहार की कथा-वस्तु गठी हुई नहीं है, इसमें व्यापारान्विति का अभाव है, यद्यपि नाटक में अत्यधिक व्यापार पाया जाता है। कवि व्यापार को नाटकीय ढंग से सजाने में असफल हुआ है। इसका प्रमुख कारण यह है कि उसने समस्त महाभारत-युद्ध को नाटक में वर्णित करने की चेष्टा की है, यह प्रयत्न नाटक की अन्विति में बाधक हुआ है। वैसे वेणीसहार में कुछ छटपुट दृश्य ऐसे हैं, जिनमें प्रभावोत्पादकता हैं, किंतु कुल मिलाकर समग्र नाटक की प्रभावात्मकता में वे योग नहीं देते। इतना होने पर भी वेणीसहार में दो-तीन गुण हैं। पहला गुण उसका चरित्र-चित्रण है। यद्यपि वेणीसहार के पात्र 'व्यक्ति' नहीं हैं, फ़िर भी परवर्ती नाटकों की तरह वे चेतनाशून्य होकर सजीवता से समवेत हैं। कृष्ण, युधिष्ठिर, भीम तथा दुर्योधन के चरित्रों को कवि की तूलिका ने सुंदर चित्रित किया है। दूसरा गुण, इसके संवाद हैं। तृतीय अंक का कर्ण तथा अश्वत्थामा का संवाद अपना विशेष महत्व रखता है। भट्टनारायण ने इस संवाद के द्वारा वाक्-युद्ध की जो परंपरा दी है, वह भवभूति के महावीर-चरित, मुरारि के अनर्घराघव तथा जयदेव के प्रसन्नराघव तक चली आई है और यहीं से उसे तुलसी ने परशुराम-लक्ष्मण संवाद के रूप में तथा केशव ने रावण-बाणासुर संवाद के रूप में अपनाया है। काव्य की दृष्टि से भी भट्टनारायण का नाटक विशेष प्रसिद्ध है, पर कवि के रूप में भट्टनारायण गौडीय मार्ग के ही पथिक हैं, तथा कृत्रिम एवं अलंकृत शैली के शौकीन हैं। इतना सब होते हुए भी संस्कृत नाटकों का इतिहासकार भट्टनारायण की संस्तुति करते समय सतर्कता ही बरतेगा क्योंकि नाटक के रूप में उसकी कृति कालिदास, शूद्रक, विशाखदत्त या भवभूति के नाटकों के समकक्ष नहीं रक्खी जा सकती और यहाँ तक कि पुराने आलोचकों ने भी भट्टनारायण को एक दोष के लिए कोसा था कि उन्होंने व्यर्थ ही वीर रस के नाटक में (द्वितीय अंक में) भानुमती तथा दुर्योधन के प्रेमालाप का चित्रण किया था, जो सर्वथा अस्वाभाविक तथा अनुपयुक्त है। भट्टनारायण पर निर्णय देते समय आलोचक डॉ. दे के स्वर में यही कहेगा—यह कहा जा सकता है कि पद्यपि भट्टनारायण की कृति निम्न कोटि का नाटक है तथापि उसके नाटक में सुंदर कविता विद्यमान है किंतु कविता में भी, नाटक की ही तरह, भट्टनारायण की सशक्त कृति को विकृत बनाने वाला तत्त्व यह है कि उसकी शैली अत्यधिक कृत्रिम तथा अलंकृत है और बुरी कदर अलंकृत होना उदात्त-काव्य या नाटक से मेल नहीं खाता।

    उक्त सैद्धांतिक नाटकों की प्रतिक्रिया विशाखदत्त के मुद्राराक्षस में मिलती है, जो संभवतः भट्टनारायण का ही समसामयिक था। विशाखदत्त का मुद्राराक्षस संस्कृत के उन गिने-चुने नाटकों में है, जो काव्य के लिए लिखे जाकर नाटकीय विनियोग के लिए लिखे गए हैं। इतना ही नहीं, विशाखदत्त पहला नाटककार है, जिसने सैद्धांतिक रूढियों को झकझोरा। कथा-वस्तु, चरित्र-चित्रण तथा काव्य-शैली सभी में वह मौलिकता का परिचय देता है। विशाखदत्त के नाटक की कथा चंद्रगुप्त तथा चाणक्य से संबद्ध है। चाणक्य नंदवंश का उच्छेदकर चंद्रगप्त को मूर्धाभिषिक्त करता है, किंतु उसका कार्य तो पूर्ण तब होगा, जब वह नन्द के स्वामि-भक्त अमात्य राक्षस को चंद्रगुप्त का शुभचिंतक अमात्य बना सके। इसी कार्य के लिए वह चालें चलता है। राक्षस उसकी चालों से सतर्क रहता है, पर आखिर चाणक्य को 'गुणवती' नीति-रज्जु राक्षस-रूपी मस्त वन्य हाथी को बाँध ही लेती है। इस प्रकार मद्राराक्षस के सात अंकों में मुख्य रूप से चाणक्य तथा राक्षम का नीति-युद्ध है और इस नाटक का अंगी रस वीर होते हुए भी यहाँ एक भी रक्त की बूँद गिरी है, तलवारों की झनझनाहट ही सुनाई देती है। मुद्राराक्षम की कथा-वस्तु राजनीति के दाव-पेंच से संबद्ध होने के कारण अत्यधिक गंभीर है। उसमें कालिदास या शूद्रक के नाटकों का रोमानी वातावरण नहीं, हर्ष की नाटिकाओं की विलासवत्ता है, भट्टनारायण के नाटक की भयानक दृश्यों की योजना ही। चाहे यहाँ भवभूति के नाटकों की गीतिमत्ता भी हो, फ़िर भी मुद्रा-राक्षस में अपनी निजी विशेषता विद्यमान है, जो अन्य किसी संस्कृत नाटक में नहीं पाई जाती। “संभवतः सहृदय भावुक ऐसे नाटक की प्रभावात्मकता के विषय में शंका कर सकता है, जिसमें प्रेम-व्यापार को मधुरिमा है (महाराक्षस में स्त्री-पात्रों का अभाव है, केवल एक नगण्य पात्र चंदनवास की पत्नी मंच पर आती है), संगीत की तान, नृत्य का लास्यमय पदविक्षेप, सीन-सिनेरी से रमणीय प्रकृति-परिवेश हो; किंतु इसमें कोई शक नहीं कि नाटक की वस्तु-योजना इतनी चुस्त और गठी हुई है कि व्यापार को गत्यात्मकता कहीं क्षुण्ण नहीं होती और पात्रों का प्रवेश उस व्यापार को गति देने के लिए कराया जाता है। यही कारण है, मुद्राराक्षस के लिए विशिष्ट कोटि के सामाजिक (दर्शक) की आवश्यकता है। साथ ही मुद्राराक्षस की रसानुभूति भी इस दृष्टि से अन्य नाटकों की रसानुभूनि से भिन्न कोटि की है। जैसा कि मुद्रा-राक्षस की प्रभावोत्पादकता के विषय में हमने अन्यत्र लिखा है, मुद्राराक्षस की लड़ाई चाणक्य और राक्षस की लड़ाई नहीं, उनकी मंत्रशक्तियों की लड़ाई है और नाटक का सारा कौतूहल दोनों की चाल और अपने मोहरे को बचाकर दूसरी चाल चलने तथा प्रत्येक पक्ष के द्वारा अपर पक्ष को शै देने के प्रयत्न में है, दर्शक पास में बैठा शतरंज के इन दो खिलाड़ियों की चालें देखकर अभिभूत होता रहता है।

    नाटक के नायक को चुनने तथा उसके चरित्र में गहरे रंग भरने में भी विशाखदत्त की तूली ने क्रांतिकारिता का परिचय दिया है। उसके नाटक का नायक 'धीरोदात्त' है, निस्संदेह, किंतु क्या उसे रूढिवादी 'धीरोदात्त' मानेगा? पहले तो यही विवाद हो सकता है कि इसका नायक कौन है, चंद्रगुप्त या चाणक्य? परंपरावादी आलोचक चंद्रगुप्त के पक्ष में मतदान करेगा, किंतु विशाखदत्त चंद्रगुप्त को कभी भी नायक के रूप में नहीं देखना चाहता। मुद्राराक्षस का नायक वस्तुत चाणक्य है। क्या रूढिवादी उसे 'धीरोदात्त' मानेगा, संभवतः चाणक्य का ब्राह्मणत्व इसमें बाधक सिद्ध हो। कुछ भी हो, कलाकार ने अपनी समस्त कलावित्ता का रंग चाणक्य तथा प्रतिनायक राक्षस के चित्रांकन में ही उँडेल दिया है। चाणक्य निःस्वार्थ, दृढ़प्रतिज्ञ, कूटनीति-विशारद एवं महान राजनीतिज्ञ है। उसकी सबसे बड़ी जीत तो यह है कि मित्र एवं शत्रु सभी उसकी नीति की प्रशंसा करते हैं। भागुरायण को तो चारणक्य की नीति नियति की तरह चित्र-विचित्र रूप वाली दिखाई पड़ती है। बाहर से चाणक्य का चरित्र कठोर प्रतीत होता है, पर उसके अंतस् के नवनीतत्व की झाँकी भी कलाकार ने एक आध स्थान पर दिखाकर उसे लोकोत्तर चरित्र बना दिया है। चाणक्य वस्तुतः पत्थर से भी ज्यादा सख्त तथा मोम से भी ज़्यादा मुलायम है। प्रतिनायक राक्षस का चरित्र जिस प्रोज्ज्वल रूप में सामने आता है, ऐसा कम प्रतिनायकों में मिलेगा। राक्षस में मानवोचित उदात्तता इतनी कूट-कूटकर भरी है कि यही उसकी पराजय का कारण बनती है। राक्षस चारणक्य की तरह दृढ़ बुद्धिवादी होकर भावुक है, वह अपने हृदय को पूर्णतः वश में नहीं कर सका है, फलतः प्रत्येक व्यक्ति का विश्वास कर बैठता है। यद्यपि नाटक के निर्वहण में राक्षस की हार होती है, पर उसकी पराजय भी इतनी भव्य एवं उदात्त है कि सामाजिक उसके आगे श्रद्धानत हो जाता है और यह तथ्य चाणक्य पर उसकी नैतिक विजय सिद्ध करता है। राक्षस हारकर भी जीतता है और चाणक्य जीतकर भी हार जाता है। काव्य-शैली की दृष्टि से भी विशाखदत्त को मध्यम श्रेणी का कवि कदापि नहीं कहा जा सकता।

    विशाखदत्त के बाद हम संस्कृत साहित्य के एक और महान नाटककार की कृतियों से अवगत होते हैं। जिस प्रकार विशाखदत्त के नाटक को पूर्ववर्ती सैद्धांतिक नाटकों की प्रतिक्रिया माना जा सकता है, उसी प्रकार भवभूति में उनकी प्रतिक्रिया अन्य रूप में उद्भिन्न दिखाई पड़ती है। भवभूति के तीन नाटक हमें उपलब्ध है—मालतीमाधव, महावीरचरित एवं उत्तररामचरित। मालतीमाधव दस अंकों का प्रकरण है, जिसमें कवि ने मालती तथा माधव की कल्पित प्रेमकथा को निबद्ध किया है। यह अवश्य है कि कवि को इसकी प्रेरणा वृहत्कथा को किसी प्रेमकथा से मिलती होगी, क्योंकि वैसी कई कथानक-रूढ़ियों का प्रयोग इसमें पाया जाता है। भवभूति की यह प्रथम कृति विशेष सफल नहीं कही जा सकती। इस प्रकरण में व्यापारान्विति का प्रभाव है, तथा वस्तु-संविधान की रूढ-पुनरुक्ति भी पाई जाती है, जैसे एक स्थान पर मकरंद मालती का वेश धारण करता है, अन्यत्र माधव लवगिका का; इसी तरह माधव मालती को अधोरघट के पंजे से छुड़ाता है, मकरंद मदनिका को शेर से बचाता है। वैसे 'मालतीमाधव' में कतिपय उत्तेजक एवं प्रभावोत्पादक घटनाओं का संकलन पाया जाता है। काव्य की दृष्टि से यह कवि की प्रथम कृति होते हुए भी उत्कृष्ट कृति कही जा सकती है।

    मालतीमाधव के कथावस्तु-शैथिल्य को कवि ने महावीरचरित में हटाने की चेष्टा की है। यह रामायण की कथा पर निबद्ध सात अंकों का नाटक है। वैसे रामायण की कथा को लेकर संस्कृत में दर्जनों नाटक लिखे गए हैं, पर भवभूति का महावीर-चरित उनसब में उत्कृष्ट है, (यहाँ हम राम के जीवन के उत्तरार्ध का समावेश नहीं कर रहे हैं)। भवभूति ने भट्टनारायण की तरह महाकाव्य की कथा को ज्यो का त्यो लेकर उसमें से कुछ घटनाओं को चुनकर इस प्रकार से सजाया है कि एक ओर वह रावणवध तथा राज्याभिषेक तक के राम-जीवन की पूरी कथा भी हो जाए, दूसरी ओर नाटकीयता का भंग भी हो। इसके लिए भवभूति ने कथा में कुछ आवश्यक परिवर्तन भी किए हैं, जिन्हें ज्यो का त्यो पीछे के कवि-नाटककार—मुरारि, राजशेखर जयदेव-अपनाते रहे हैं। इतना होते हुए भी नाटक की कथा-वस्तु विशेष प्रभावोत्पादक नहीं बन पाती नाटकीय संघर्ष की मूल भित्ति दुर्बल दिखाई पड़ती है। माल्यवान् की कूटनीति की असफलता का कारण राम की शक्तिमत्ता नहीं जान पड़ती, अपितु भवितव्यता ही दिखाई गई है। परवर्ती रामायण-नाटककारों की भाँति भवभूति के राम विष्णु के अवतार नहीं हैं अपितु मानवी रूप में ही हमारे सामने आते हैं। महावीरचरित के राम मानव हैं, वैसे शक्ति, कुलीनता तथा शौर्य की दृष्टि से कवि ने उन्हें एक आदर्श नायक के रूप में अवश्य चित्रित किया है। भवभूति के चरित्र इसी पृथ्वी पर चलते-फ़िरते जान पड़ते हैं और उत्तररामचरित के रूप में तो भवभूति ने जो मानवोचित चित्र हमारे समक्ष उपस्थित किया है, वह संस्कृत साहित्य की अपूर्व निधि है।

    भवभूति का तीसरा नाटक, जिसके कारण उन्हें मज़े से कालिदास के साथ बिठाने का साहस किया जा सकता है, उत्तररामचरित है। यह कृति कवि के जीवन के प्रौढ़ अनुभवों की देन है। उत्तररामचरित की कथावस्तु नाटकीय 'टेकनीक' तथा चरित्रचित्रण की दृष्टि से अत्यधिक प्रौढ़ है। कार्य के रूप में भी यह निःसंदेह प्रथम कोटि की रचना है। वैसे उत्तररामचरित में उक्त गुण होते हुए भी व्यापार की कमी है। इसका खास कारण भवभूति की अत्यधिक भावुकता है। यदि उत्तररामचरित को 'गीति-नाट्य' की कसौटी से परखा जाए, तो इसका यह दोष नहीं खटकेगा। उत्तररामचरित के सात अंकों में राम के उत्तर जीवन की कथा निबद्ध है। यह कथा सीता-बनवास से संबद्ध है। कवि ने एक करुण कथा को चुनकर उसे अपनी भावुकता से और अधिक करुण बना दिया है। उत्तररामचरित में भवभूति ने दाम्पत्य-प्रणय के उस महनीय पवित्र चित्र की झाँकी दिखाई है, जिसकी अन्य सभी संस्कृत कवियों और नाटककारों ने उपेक्षा की थी। भवभूति के राम और सीता की कहानी वस्तुत राम और सीता की कहानी होकर सामाजिक रूढियों पुरुष के द्वारा नारी पर किए गए अत्याचार की तथा नारी के उत्कृष्ट त्याग की कहानी है। उत्तररामचरित में कवि ने राम और सीता के चरित्रों को सुचारुरूप से अंकित किया है। सीता का चरित्र आत्मा की पवित्रता, दृढ़ता और सहनशीलता में बेजोड़ है, तो राम का चरित्र कर्तव्यनिष्ठा के आदर्श वातावरण से संपन्न दिखाई देते दुए भी मानव-सुलभ भावात्मक दुर्बलताओं से समवेत है। उत्तररामचरित के अन्य पात्रों में लव, जनक तथा कौशल्या के चरित्र मार्मिक बन पड़े हैं। उत्तररामचरित के काव्यत्व के विषय में भी दो शब्द कह देना आवश्यक होगा। भवभूति कोमल तथा गंभीर दोनों तरह के भावों के सफल चित्रकार हैं। दाम्पत्य-प्रणय के वियोग वाले चित्र उत्तररामचरित में अत्यधिक मार्मिक बन पड़े हैं, जो भवभूति के ही शब्दों में 'पत्थर को भी रुला देते हैं वज्र के हृदय के भी टुकड़े-टुकड़े कर देते हैं’ (अपिग्रावा रोदित्यपि दलति वज्रस्य हृदयम्)। भवभूति की सबमें बड़ी विशेषताओं में एक उनका प्रकृति-चित्रण भी है। भवभूति संस्कृत के अंतिम कवि हैं, जिन्हें प्रकृति से—मानव-प्रकृति ही नहीं, जड़ प्रकृति से भी विशेष अनुराग था। उत्तर-रामचरित का द्वितीय अंक का जनस्थान-वर्णन इस दृष्टि से संस्कृत साहित्य की अमूल्य निधियों में अन्यतम है, जहँ एक साथ प्रकृति के कोमल तथा भीषण स्वरूप को फ़िल्म पर उतारा गया है। भवभूति जहाँ एक और कमलवनों को कम्पित करने वाले मल्लिकाक्ष हंसों या पादपशाखाओं पर झूमते शकुंतों की कोमल भंगिमा का अवलोकन करते हैं, वहाँ प्रचंड ग्रीष्म में अजगर के पसीनों को पीते प्यासे गिरगिटों को भी देखने में आनंद लेते हैं। वे एक साथ दंडकारण्य के 'स्निग्ध श्याम' तया 'भीषणाभोगरुक्ष' सौंदर्य को वाणी देने में समर्थ हैं। पद-योजना की दृष्टि से भवभूति जैसा कुशल संगीतज्ञ संस्कृत-साहित्य में ऐसा कोई नहीं, जो पंचम की कोमलता तथा धैवत को गंभीर धीरता का एक-सा निर्वाह कर सके। कालिदास केवल पंचम के गायक हैं, तो माघ केवल धैवत के, पर भवभूति कालिदास के मार्ग पर चलकर वैदर्भी के अपूर्व निदर्शन का परिचय देते हैं, वहाँ गौडी के ऊबड़-खाबड़ मार्ग पर उसी तेजी से चलते दिखाई पड़ते हैं। भवभूति की कविता का नाद-सौंदर्य भी इस काम में हाथ बँटाता है। उनकी पदयोजना स्वतः प्रकृति के वर्ण्य विषय की ध्वनि को उपस्थित कर देती है, चाहे वह कलंक ननिनादिनी निर्झरिणियों की ध्वनि हो, या श्मशान के पेड़ पर टंगे शवों के सिरों की माला के सरन्ध्र भागों में गूँजते और श्मशान की पताका को हिलाकर उसकी घंटियो को बार-बार बजाते वायु की भयंकरता हो। भवभूति जैसी तीव्र पर्यवेक्षण शक्ति कालिदास और वाण को छोड़कर शायद किसी संस्कृत कवि में नहीं दिखाई पड़ेगी। भवभूति के व्यक्तित्व में हमें संस्कृत नाटक-साहित्य का अंतिम महान कलाकार दिखाई देता है, जिसके बाद के आने वाले सभी विख्यात (कुख्यात?) नाटककार उसकी जूठन खाकर ही संतुष्ट रहे, वे भवभूति से आगे बढ़ना तो दूर रहा, पीछे हटते रहे। भवभूति की प्रतिभा और साहित्य, भावकता और अनुभवदक्षता, रसप्रकरणता और कल्पना-तति में उन्होंने केवल पांडित्य को ही अपना लक्ष्य बनाया और अपने नाटकों को व्याकरण-ज्ञान, वाग्वैदग्ध्य और कृत्रिम अलंकार के भार से इतना लाद दिया कि उसका दम ही टूट गया।

    भवभूति के साथ ही संस्कृत नाटकों का ज्वलंत युग समाप्त हो जाता है वैसे भवभूति के बाद में संस्कृत में जितने रूपक लिखे गए, उनकी गणना कई सौ के ऊपर होगी—अकेले रामचंद्र (जैन साधु) ने ही लगभग सौ रूपकों की रचना की थी—किंतु ये सब नाटक कोरे नाम भर के लिए दृश्य काव्य है। यद्यपि इस काल में नाटक, प्रकरण तथा नाटिका के अतिरिक्त, प्रहसन, भाण आदि अन्य प्रकार के रूपक भी लिखे गए, पर वे सभी रूढ़िबद्ध होने के कारण उदात्त कला के स्तर तक नहीं उठ पाते। पिछले खेचे के नाटकों के रचयिता मूलतः कवि रहे हैं, वे भी मध्यम श्रेणी के कलावादी कवि, नाटक के रंगमंचीय विनियोग का उन्हें रचमात्र ज्ञान नहीं है। साथ ही कथा-वस्तु के चयन और गत्यात्मक निर्वाह, चरित्रों की सजीव मूर्ति उपस्थित करने की क्षमता आदि की दृष्टि से भी वे असफल हुए हैं। भवभूति के साक्षात् उत्तराधिकारी मुरारि (850 ई.) में ये ही दुर्गुण स्पष्ट परिलक्षित होते हैं। अनर्धराघव पुराने पंडितों को कितना ही प्रिय प्रतीत होता हो, दो कौड़ी का नाटक है। कृत्रिम कलात्मकता की दृष्टि से चाहे इसे उच्च कोटि का काव्य मान लिया जाए। मुरारि उन्हीं के शब्दों में, (नाटक नहीं लिखना चाहते थे किंतु) ‘वाचोयुक्ति' का प्रदर्शन करना चाहते थे। ठीक यही दशा राजशेखर (950 ई.) के बालरामायण तथा जयदेव (1250 ई.) के प्रसन्नराघव की है। इन तीनों नाटकों के पात्र भी कठपुतलियाँ भर हैं। कालिदास से लेकर भवभूति तक के नाटकों में (जिनमें हर्ष भट्टनारायण अपवाद हैं) मानव-जीवन की स्पंदनशील झाँकी दिखाई देती है। उनके नाटक मानव-प्रकृति के दर्पण हैं, उनके चरित्र इसी ज़मीन पर चलते फ़िरते सचेतन प्राणी हैं, बाद के किसी नाटक ने इस गुण को नहीं अपनाया है। इन्हीं दिनों में संस्कृत में अन्यापदेशी नाटकों (एलेगरिकल ड्रामा) की परंपरा भी चल पड़ी है। श्रीकृष्ण मिश्र का 'प्रबोधचन्द्रोदय' इस मार्ग का अग्रदूत है, जिसमें नाटक के बहाने अद्वत वेदान्त के मत की स्थापना की गई है। इसी ढंग पर कवि कर्णपुर का 'चेतनाचन्द्रोदय' लिखा गया था। नाटक के लिए सबसे बड़ा दुर्भाग्य का दिन तो वह था जब आनदराय मणि ने वैद्यक के सिद्धांतों को लेकर भी एक आयुर्वेदीय अन्यापदेशी नाटक की रचना की। 'जीवानद' में ज्वर, विसूचिका जैसे रोग भी मानवी-रूप में मंच पर प्रविष्ट होते बताए गए हैं। इस काल में दो-तीन प्रकरण अवश्य लिखे गए, पर वे भी असफल कृतियाँ हैं उद्दण्डी का 'मल्लिकामारुत' तो भवभूति के 'मालतीमाधव' की हूबहू नकल है। इस काल में प्रहसनों तथा भाणों में हास्य तथा व्यंग्य की दृष्टि से कुछ महत्त्वपूर्ण कार्य किया गया। इन कृतियों में शखधर का 'लटकमेलक' प्रहसन, वामन भट्ट बाण तथा युवराज रविवर्मा के भाग प्रमुख हैं। पर प्रहसनों का हास्य छिछले ढंग का रहा, उसमें शिष्ट हास्य का वातावरण नहीं बन पाया और भाण श्रव्य काव्य के स्तर से अधिक ऊपर उठ पाए। वैसे संस्कृत में नाटक बीसवीं सदी तक लिखे जाते रहे हैं। उदाहरण के लिए भट्टाचार्य जी के 'अमर मंगल' का नाम लिया जा सकता है। कुछ अनुवाद भी संस्कृत में हुए हैं, जैसे शेक्सपियर के 'मिड समर नाइट्स ड्रीम' का अनुवाद भी संस्कृत 'वासतिकास्वप्न' पर ये सब गड़े मुर्दे उखाड़ना ही होगा।

    संस्कृत नाटकों की इसी ह्रासोन्मुखी प्रवृत्ति के कारण मध्यकालीन भारतीय आर्य-भाषाओं (प्राकृत तथा अपभ्रंश) के साहित्य में यह परंपरा विकसित हो सकी। वैसे प्राकृत में एक-दो सट्टक कृतियाँ मिलती हैं, जिनमें राजशेखर की 'कर्पूर-मजरी' विशेष प्रसिद्ध है, तथापि इन्हें अपवाद ही मानना होगा। अपभ्रंश में तो एक भी साहित्यिक नाटक नहीं पाया जाता। ठीक यही हाल देश्य भाषाओं के साहित्य का रहा है। मैं जनता के लोकमंच की बात नहीं करता, हाँ जनता का रंगमंच अवश्य मध्ययुग में भी अक्षुण्ण रहा होगा और वही आगे जाकर पूरब की 'कजरी' 'भडैती' 'नौटंकी', 'स्वाँग', राजस्थान के 'ख्यालो' और गुजरात की भवायी' के रूप में विकसित हुआ है। पर संस्कृत के साहित्यिक नाटकों से इनका संबंध जोड़ना हठधर्मिता और दुराग्रह ही कहा जाएगा : संस्कृत के नाटकों की चेतना मध्यकाल ही में विलुप्त हो गई थी। इस साहित्यिक मृत्यु के कई कारण थे।

    (1) संस्कृत नाटकों की रचना सामंत-वर्ग तथा पंडित-मंडली को ध्यान में रखकर की गई थी। प्राकृत काल में फ़िर भी ये नाटक कुछ लोकप्रिय इसलिए रहे होंगे कि साधारण जनता भी थोड़ी-बहुत संस्कृत समझ लेती होगी (चाहे वह बोल पाती हो) और साथ ही उनमें उनकी अपनी भाषा प्राकृत का भी प्रचुर समावेश रहता था। अपभ्रंश काल में आकर जन-भाषा में अधिक भाषा-शास्त्रीय परिवर्तन होने के कारण जनता के लिए संस्कृत तथा प्राकृत दोनों दुरूह बन गई।

    (2) कालिदासोत्तर काल के कवियों ने—शूद्रक तथा विशाखदत्त को छोड़कर—नाटक में श्रव्य-काव्य की प्रचुर कलात्मकता भरना शुरू किया।

    (3) पूर्ववर्ती काल में संस्कृत नाटकों का रंगमंच में कोई समध नहीं रहा, नाटक का रंगमंच केवल रचयिता की बुद्धि तथा पाठक (दर्शक नहीं) की कलपना-शक्ति में ही सीमित हो गया।

    (4) इसके अतिरिक्त कुछ सामाजिक तथा राजनीतिक कारण भी थे। बौद्धों जैनों ने नाटक-साहित्य की उपेक्षा की; इसका कारण उनकी धार्मिक प्रवृत्ति थी, मध्यकालीन भारत की राजनीतिक स्थिति बड़ी डाँवाडोल रही तथा इस्लामी साम्राज्य की स्थापना ने भी इसके ह्रास में योग दिया।

    इन्हीं कारणों से जब हम आधुनिक भारतीय भाषाओं के नाटक-साहित्य का अनुशीलन करते हैं, तो उन्हें संस्कृत नाटकों की परंपरा का अंग नहीं मान सकते : हिंदी साहित्य के नाटकों को भी (कतिपय संस्कृत-नाटकों के अनुवादों या पुराने गनानुगतिक नाटकों को अपवाद मान लें) संस्कृत-नाटकों की परंपरा का अंग नहीं माना जा सकता : जैसा कि स्पष्ट है, हिंदी के नाटक बीसवीं सदी तथा पाश्चात्य साहित्य की देन हैं। आजकल हर हिंदी की चीज़ को अपभ्रंश में ढूँढने का फैशन-सा हो चला है और एक विद्वान् ने तो 'संदेशरासक' को हिंदी का सर्वप्रथम नाटक मान लिया है। पर यह सबसे बड़ी साहित्यिक भ्रांति है, जिसमें और नए लेखक बहने दिखाई पड़े हैं। संदेशरासक हिंदी का प्रथम नाटक होना तो दूर रहा, नाटक ही नहीं है, वह शुद्ध श्रव्य-काव्य है। मध्ययुग के हिंदी के 'हनुमन्नाकर' (हिंदी अनुवाद) घानंदरसुनन्दन नाटक आदि तथा आधुनिक काल के 'शाकुंतल' (राजा लक्ष्मण सिंह कृत) तथा हरिश्चंद्र के कतिपय अनूदित संस्कृत-नाटक भी हिंदी नाटकों की निजी प्रकृति के परिचायक नहीं हैं। स्वयं भारतेंदु के ही नाटकों में संस्कृतेतर प्रभाव परिलक्षित होता है। बाद में तो प्रसाद के नाटकों में पाश्चात्य नाटकों तथा बंगाली नाटकों (जो स्वयं पाश्चात्य नाटकों से प्रभावित हैं) का पर्याप्त प्रभाव है। ठीक यही बात परवर्ती हिंदी नाटक-साहित्य के विषय में कही जा सकती है, जिसपर इब्सन, शॉ तथा गाल्सवर्दी के यथार्थवादी तथा बुद्धिवादी नाटकों का प्रभाव है। इतना होने पर भी संस्कृत-नाटक हिंदी-साहित्य के सदा प्रेरक बने रहेंगे। वे इस बात की चेतावनी भी देते रहेंगे कि नाटककार को सदा रंगमंच का, दृश्य काव्यत्व का, सामाजिक का ध्यान रखना है, कोरी कलात्मकता और श्रव्य-काव्यत्व का अधिक पुट उसकी कृति को विकृति कर देगा, ऐसा करने पर वह अपने हाथों अपनी ही कला का गला घोंट देगा।

    स्रोत :
    • पुस्तक : भारतीय नाट्य साहित्य (पृष्ठ 203)
    • संपादक : नगेन्द्र
    • रचनाकार : भोलाशंकर व्यास

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