संस्कृत नाटय-शास्त्र में कथा-वस्तु का विवेचन

sanskrit natay shastr mein katha wastu ka wiwechan

बलदेव उपाध्याय

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संस्कृत नाटय-शास्त्र में कथा-वस्तु का विवेचन

बलदेव उपाध्याय

और अधिकबलदेव उपाध्याय

    एक 

    संस्कृत नाट्य-शास्त्र में कथा-वस्तु के स्वरूप तथा महत्त्व का विवेचन बड़ी सूक्ष्मता के साथ किया गया है। नाटक की रचना केवल किसी क्षणिक भावना की तृप्ति के उद्देश्य से नहीं की जाती, प्रत्युत उसका प्रयोजन नितांत गंभीर, व्यापक तथा सार्वभौम होता है। 'नाट्य' का स्वरूप ही है—लोकवृत्तानुकरण अर्थात् संसार में विद्यमान चरित्र तथा वृत्तांत का अनुकरण। फलत उसका नाना भावों से संपन्न तथा नाना अवस्थान्तरात्मक होना स्वाभाविक है। भारतीय आचार्य नाटक के इतिवृत्त को किसी सीमित चहारदीवारी के भीतर बंद करने के पक्षपाती नहीं हैं। नाटक का दरवाज़ा प्रत्येक कथा-वस्तु के प्रवेश करने के लिए सदा खुला रहता है। आधुनिक पाश्चात्य नाटकों की कथा-वस्तु से इसकी तुलना करने पर इस विलय का महत्त्व स्वत हृदयगम हो सकता है। प्रगतिशील नाटकों की कथा-वस्तु एकाकार होती है। वह किसी धनी-मानी अधिकारी के द्वारा पदाक्रांत तथा उत्पीड़ित मानव की कहानी होती है। यही स्वर प्रत्यक्षत या अनुमानत प्रत्येक पाश्चात्य नाटक के कथानक में गूँजता हुआ सुनाई पड़ता है, परंतु भारत में नाटक का आदर्श महान है तथा महनीय है। वह किसी वर्ग की स्वार्थमूलक प्रवृत्तियों को अग्रसर करने का साधन नहीं है, प्रत्युत उसका प्रभाव भारतीय समाज के प्रत्येक स्तर पर समान-भविन पड़ता है। वह मानव-जीवन की शाश्वत प्रवृत्तियों को स्पर्श करने वाला एक सार्वभौम साधन है। भरत के नाट्य-शास्त्र का गंभीर अनुशीलन हमें इसी तथ्य पर हठात् पहुँचाता है—

    एतव् रसेषु भावेषु सर्वकर्मक्रियासु च
    सर्वोपदेशजननं नाट्यमेंतव् भविष्यति॥
                                           नाट्य-शास्त्र 1/110

    नाटक लोक के स्वभाव का अनुकरण है और लोक का स्वभाव एकरस नहीं होता। वह सुख तथा दुख का अनमिल घोल है जिसमें कभी सुख अपनी नितांत आह्लादकता के कारण चित्त को आकृष्ट करता है, तो कभी दुख अपने विषादमय वार्णों के द्वारा मानव-हृदय को वेधता है। संस्कृत नाटक की कथा-वस्तु दोनों को अपना आधारपीठ बनाती है। इसलिए संस्कृत नाटककारों पर दोषारोपण करना कि वे केवल मानव-जीवन के सुखमय चित्रों के ही आलेख्यकर्ता थे और इसीलिए वे जीवन के सच्चे व्याख्याता न थे, एकदम अज्ञानमूलक है, इस भ्रांत धारणा का निराकरण नितांत श्रेयस्कर है।

    सुखांत होना संस्कृत नाटक की अव्यावहारिकता का चिह्न नहीं है। भारतीय नाटक नाट्य-शास्त्रीय विधि-विधानों का पालन करता हुआ जीवन का एकागी चित्रण प्रस्तुत नहीं करता, वह भारतीय जीवन का पूर्ण तथा सार्वभौम चित्रण करता है। संस्कृत के नाटकों में दुख का, मानवीय क्लेश तथा कमज़ोरियों का चित्रण होता है, परंतु कहाँ? नाटक के आदि में अथवा मध्य में, पर्यवसान में नहीं। भवभूति के उत्तरराम-चरित से बढ़कर मानव-क्लेश, वेदना तथा परिताप और पश्चात्ताप का चित्रण करने वाला दूसरा नाटक नहीं हो सकता। अंत में सुखपर्यवसायी होने पर भी वह राम और सीता जैसे मान्य व्यक्तियों के दुखद जीवन की विषम परिस्थिति की वेदनामयी अभिव्यक्ति है। संस्कृत का नाटककार भरत के आदेशों का अक्षरश पालन करता है और भरत का आदेश है कि सुखदुखात्मक लोक-दशा का चित्रण नाटक में नितांत आवश्यक होता है—

    अवस्था या तु लोकस्य सुखदुःखसमुद्भवा
    नाना पुरुष संचारा नाटके सम्भवेदिह॥
                                           —भरत नाट्य-शास्त्र 21/121

    इसीलिए कथावस्तु में सर्वभाव, सर्वरस, सर्वकर्मों को प्रवृत्तियों तथा नाना अवस्थाओं का संविधान आवश्यक माना गया है—

    सर्वभावै सर्वरसैः सर्वकर्मप्रवृत्तिभिः।
    नानावस्थानंतरोपेतं नाटक संविधीयते॥
                                         —भरत नाट्य-शास्त्र 21/126

    दो

    दर्शकों के हृदय में रस का उन्मेष, रस का उन्मीलन सिद्ध करना भारतीय नाटककार का चरम लक्ष्य होता है और इसीलिए वह पश्चिमी नाट्यकारों की भाँति 'व्यापार' को नाटक का सर्वस्व नहीं मानता। इस तथ्य को हृदयंगम करना संस्कृत नाटकों की कथा-वस्तु के विवेचन के लिए नितांत आवश्यक है। भारतीय ललित कला का उद्देश्य यह नहीं रहता कि वह अपनी चिंतित वस्तुओं के रूप तथा आकृति को यथार्थरूपेण अंकित करे, प्रत्युत वह दर्शकों के हृदय पर आध्यात्मिक भावना, सौंदर्य की कमनीय छाप डालने में ही अपने को कृतार्थ समझती है। नाटक की कथा-वस्तु चुनने तथा सजाने का यही उद्देश्य कवि के सामने रहता है। इसीलिए कथा-वस्तु को उदात्तता के ऊपर प्रतिष्ठित होना चाहिए, क्षुद्रता के लिए यहाँ कोई स्थान नहीं। रामायण तथा महाभारत को कथा-वस्तु के लिए उपजीव्य होने का रहस्य इसी तथ्य में अंतर्निहित होता है। ये दोनों काव्य मारतीय दृष्टि से ही उदात्त, उन्नत तथा औदार्यपूर्ण नहीं हैं, प्रत्युत मानवता की दृष्टि से भी इनके कथानकों का महत्त्व नितांत उच्च है। रामायणीय नाटकों की कथा-वस्तु की एकरूपता के विषय में 'प्रसन्न राघव' के कर्ता जयदेव का यह प्रतिनिधि उत्तर सचमुच मार्मिक तथा सत्य है। रामकथा का आश्रयण कवियों के प्रतिभा-दारिद्रय का सूचक नहीं है, प्रत्युत मर्यादा-पुरुषोत्तम रामचंद्र के महनीय गुणों का यह अवगुण है—

    स्वसूक्तीनां पात्रं रघुतिलकमेकं कलयतां
    कवीनां को दोषः स तु गुणगणानामवगुणः॥
                                        (प्रसन्नराघव को प्रस्तावना)


    'औदात्य' की कसौटी

    'उदात्तता' की यह कसौटी नाटकों के ही लिए नहीं होती, प्रत्युत उन 'प्रकरणों’ के लिए भी जहाँ नाटककार कथा-वस्तु के चुनाव में अपनी कमनीय कल्पना का पूर्ण साम्राज्य पाता है। इस प्रकार 'कथा-वस्तु' को रस-निर्भर बनाने में कवि के लिए दो आवश्यक साधन होते हैं—औदात्य और औचित्य।

    नाटकीय कथा-वस्तु के विवेचन के अवसर पर उसका 'औदात्य' कभी नहीं भुलाया जा सकता। नाटक में शृंगार अथवा वीर रस का प्राधान्य रहता है और इसीलिए प्रेम अथवा युद्ध का वर्णन कथानकों में होता है। प्रेम की उदात्तता पर आग्रह होना स्वाभाविक है। संस्कृत का नाटककर्ता केवल मनोरंजन के लिए अपने रूपकों का प्रणयन नहीं करता, प्रत्युत्त समान से स्पर्श करने वाली घटनाओं का चित्रण कर उसके स्तर को उदात्त बनाने की भावना से भी प्रेरित होता है और यही औदात्य का महत्त्व पाता है। 'प्रहसन' तथा 'भाण में हास्य रस का पुट रहता है, परंतु यहाँ क्षुद्रता, हीनता या छिछोरेपन के लिए महनीय प्रहसनों में स्थान नहीं होता। वस्तु की रचना में प्राचीनता की दुहाई नहीं दी जाती, बल्कि कवि की प्रौढ़ प्रतिभा के लिए पूरा मदान ख़ाली रहता है परंतु उसमें एक ही अंकुश होता है और वह है औदात्य तथा औचित्य का। ‘धर्माविरुद्ध काम’ भगवान एक भव्य विभूति है और इसीलिए संस्कृत की कथा-वस्तु काम के पल्लवन में धर्म से संघर्ष को सहन नहीं कर सकती। पुरुषार्थत्रयी में धर्म का स्थान सबसे ऊँचा माना ही जाता है और इसीलिए अर्थ और काम दोनों के धर्म के साथ सामंजस्य स्थापित कर चलने की व्यवस्था हमारे आचार्यों को अभीष्ट है। अर्थकामी चित्रण कथा-वस्तु में मिलता है, परंतु धर्म की मर्यादा का उल्लंघन करके नहीं, प्रत्युत धर्म के नियंत्रण में रह कर ही। इसलिए संस्कृत में आधुनिक प्रकार के 'समस्या नाटकों' का अभाव है, परंतु उसमें शाश्वत समस्याओं के सुलझाने का खुलकर प्रयत्न है।


    तीन

    कथावस्तु में औचित्य

    औदात्य के अनंतर औचित्य का महत्त्व समझना बड़ा ज़रूरी होता है। 'काव्येषु नाटकं रम्यम्' की युक्तिमत्ता के लिए भरत ने औचित्य को प्रधान सहायक माना है। नाटक तो कवि के हाथों 'औचित्य' निर्वाह का एक महनीय अस्त्र है जो अपनी उचितरूपता के कारण—ही कथा-वस्तु के साथ पात्र, भाव तथा भाषा के औचित्य के हेतु—दर्शकों के हृदय पर गहरी छाप डालता है। भरतमुनि का आदेश है—

    वयोऽनुरूपः प्रथमस्तु वेषः
    वेषानुरूपश्च गतिप्रचारः।
    गतिप्रचारानुगतं हि पाठ्यं
    पाठ्यानुरूपोऽभिनयश्च कार्यः॥
                                  (नाट्य-शास्त्र 14/68)

    कथा-वस्तु के लिए औचित्य का मंडन प्रधान प्रसाधक होता है। ऐसी कोई कथा या उसका अंश जो नायक के चरित्र को गर्हणीय या निंदनीय बनाने में हेतु बनाता है कथमपि ग्राह्य नहीं होता। धनंजय का श्रादेश है—

    यत् तत्रानुचितं किञ्चिन्नायकस्य रसस्य वा।
    विरुद्धं तत्. परित्याज्यमन्यथा वा प्रकल्पयेत्
                                             —दशरूपक 3/22

    कथा-वस्तु मात्र में नायक या रस का विरोधी अंश या तो सर्वथा त्याज्य होता है अथवा उसकी अन्यथा प्रकल्पना होती है। ध्यान देने की बात है कि नाटककार 'इतिवृत्त', प्राचीन ऐतिहासिक कथानक, को पूर्णतया चित्रित कर (जैसा वह इतिहास में प्रसिद्ध होता है) अपने कर्तव्य का निर्वाह नहीं करता, प्रत्युत वह उसके अनुचित अंशों को काट-छाँटकर उसे रसपेशल बना डालता है। इसलिए तो आनंदवर्धन की यह गंभीर उक्ति है:—

    “काव्य प्रबंध की रचना करते समय कवि को सब प्रकार से रस-परतंत्र होना चाहिए। इस विषय में यदि इतिवृत्त में रस की अनुकुल स्थिति न दिख पड़े, तो उसे तोड़कर भी स्वतंत्र रूप से रसानुकूल अन्य कथा की रचना करनी चाहिए। कवि के इतिवृत्त मात्र के निर्वाह से कुछ भी प्रयोजन सिद्ध नहीं होता। उसकी सिद्धि तो इतिहास से हो ही जाती है।“

    नहि कवेरिलिव त्तमात्रनिर्वाहेण किञ्चित् प्रयोजनम्। इतिहासादेव तत् सिद्धेः 1
                                                                   (जैसे भायुराज-कृत उदात्तराघव)

    इसी तथ्य को लक्ष्य में रखकर अनेक राम-नाटकों में, कपट के द्वारा 'बालिवध' का राम के चरित्र पर लांछन-रूप होने से एकदम परिहार ही कर दिया गया है। भवभूति के 'वीर-चरित' में रावण के सहायक होने के कारण बालि मारा गया, इस प्रकार कथा में उचित परिवर्तन कर दिया गया है। निष्कर्ष यह है कि कथा-वस्तु की रसपेशलता तथा रस-निर्भरता के निमित्त उसे उदात्त तथा उचित बनाने का नाट्य-शास्त्रीय उपदेश गंभीर तथा मौलिक है।

    कथा-वस्तु की रसात्मिकता पर नाट्य शास्त्रीय ग्रंथों में विशेष ज़ोर दिया गया है अवश्य, परंतु उसमें भी औचित्य की सीमा का अतिक्रमण कथमपि न्याय्य नहीं होता। वस्तु तथा रस—इन दोनों में मजुल सामंजस्य होना ही नाट्य-कला का उच्च आदर्श है। न तो रस का अतिरेक होना चाहिए जिससे वस्तु का दूरविच्छेद न हो जाए। रसातिरेक का फल वस्तु के एकांत विच्छेद के ऊपर पड़ता है। यह एक छोर है जिससे बचकर रहना नाटककार का मुख्य कर्तव्य होता है। और दूसरा छोर होता है वस्तु, अलंकार तथा नाट्य-लक्षणों के द्वारा रस का तिरोधान और इस छोर को भी छूना नाटक में अभीष्ट नहीं होता। कवि के लिए नाटक में मध्यम मार्ग ही प्रशस्त होता है। उसे अपनी कथा वस्तु को रस, अलंकार तथा नाट्य लक्षणों से सजाकर स्निग्ध तथा सुंदर बनाना पड़ता है, परंतु कथा-वस्तु की ही मुख्यता होती है। वह तो काव्य का शरीर ही ठहरा। दीवाल के रहते चित्रकारी की साधना होती है। शरीर रहते ही अलंकारों का प्रसाधन हृदयगम तथा साध्य होता है। उसी प्रकार कथा-वस्तु की सार्वभौम सत्ता का तिरस्कार या तिरोधान रस, अलंकार आदि के द्वारा कथमपि नहीं किया जा सकता। इस प्रकार संस्कृत के आचार्यों ने कथा-वस्तु के सजाने तथा प्रसाधन के निमित्त मध्य-मार्ग को ही प्रशस्य माना है। धनंजय के इस मौलिक निरूपण का यही रहस्य है—

    न चाति रसतो वस्तु दूरं विच्छिन्नतांनयेत्।
    रसं वा न 'तिरोदध्याद् वस्त्वलंकारलक्षणै:॥
                                          —दशरूपक।

    कथा-वस्तु के प्रकार

    कथा-वस्तु के दो प्रकार होते हैं—(1) आधिकारिक (मुख्य) तथा (2)  प्रासंगिक (गौण)। ‘अधिकार’ का अर्थ है फल को स्वामिता (अधिकारः फलस्वाम्यम्) और अधिकारी से तात्पर्य है उस पात्र से जो उस फल को पाता है और उसके द्वारा संपन्न कथा-वस्तु ‘आधिकारिक’ नाम से अभिहित होती है (नाट्य-शास्त्र, अध्याय 21, श्लोक 3)। मुख्य कथा में योग देने वाली, सहायता करने वाली कथा ‘प्रासंगिक’ कहलाती है—

    कारणात् फलयोगस्य वृत्तं स्यादाधिकारिकम्
    परोपकरणार्थ तु कीर्त्यते ह्यानुषंगिकम्॥ 
                                     ना. शा. 21।5

    ‘प्रासंगिक’ भी विस्तारदृष्ट्या दो प्रकार की होती हैं— (1) पताका जो कुछ विस्तृत हो तथा (2) प्रकरी जो बहुत ही छोटी हो। रामायणीय नाटक में सुग्रीव का वृत्तांत मुख्य कथा का बहुत दूर तक अनुगमन करता है तथा सिद्धि में सहायता देता है और इसलिए वह ‘पताका’ का उदाहरण माना जाता है। श्रमणा का लघु वृत्तांत प्रकरी का दृष्टांत है। कथा-वस्तु के विस्तार तथा निर्वाह के ऊपर ही नाट्यकर्ता की कला-सिद्धि मानी जाती है। एक अंक के भीतर कितने काल की घटनाओं का प्रदर्शन अभीष्ट होता है? भरत का मत2 है कि पूरे दिन की कथा एक अक में संपन्न न हो सके, तो अंक का छेद कर के प्रवेशकों के द्वारा उसका विधान करना चाहिए। अक छेद करके एक महीने में होने वाली या एक साल में होने वाली घटनाओं का प्रदर्शन करना चाहिए। प्रवेशक आदि के द्वारा, परंतु वर्ष से ऊपर की घटनाओं का निदर्शन कभी अभीष्ट नहीं माना जाता।

    जिस प्रकार बीज नाना उपकरणों से समृद्ध होकर फल के रूप में परिणत होता है उसी प्रकार कथा-वस्तु भी नाना उपकरणों तथा घटनाओं से समृद्ध होकर फल-उत्पादन में समर्थ होती है। इसीलिए वृत्त की पाँच अवस्थाएँ मानी गई हैं—(1) प्रारंभ, (2) प्रयत्न, (3) प्राप्ति-संभव, (4) नियताप्ति तथा (5) फलयोग और बीज, बिंदु, पताका, प्रकरी तथा कार्य ये पाँच अर्थ-प्रकृतियाँ स्वीकृत की जाती हैं। इन दोनों के क्रमिक समन्वय से उत्पन्न नाटकीय कथा-भाग में पाँच संधियों तथा उनके अवांतर 64 अग माने जाते हैं। संधियों के नाम तो प्रसिद्ध ही हैं—(1) मुख, (2) प्रतिमुख, (3) गर्भ (4) सावमर्श, (5) निर्वहण। ‘नाटक’ तथा ‘प्रकरण’ में इन समग्र संधियों की सत्ता विद्यमान रहती है, अन्य रूपकों में यथासंभव कम संधियाँ भी हो सकती हैं। 

    संस्कृत के नाटय-शास्त्र में वर्णित कथा-वस्तु की रूपरेखा का यह एक सामान्य परिचय है।
     
    स्रोत :
    • रचनाकार : बलदेव उपाध्याय

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