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रीतिकाल : एक क्षयी युग

ritikal ha ek kshayi yug

त्रिलोचन

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रीतिकाल : एक क्षयी युग

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    सत्रहवीं शती के मध्य से उन्नीसवीं शती के मध्य का काल (सन् 1650-1850) रीतिकाल माना जाता है। यों रीतिकाल का पहला कवि मैं केशव को मानता हूँ। यद्यपि उनके पश्चात् लगभग आधी शती तक रीतिकाल का समुचित रूप नहीं दिखाई पड़ता, परंतु केशव में वे समस्त प्रवृत्तियाँ मौजूद थीं, जो रीतिकवियों में विकसित हुईं। अर्थात् दरबारी मनोवृत्ति, चमत्कार और अलंकरण का मोह तथा कवि के साथ आचार्यत्व का दिखावा और सबसे बढ़कर लोक-जीवन में अलग-थलग रहकर अपनी कविता रचने की प्रवृत्ति। इस माने में केशव रीतिकवियों के अगुआ और मार्गदर्शक थे।

    रीतियुग उसी मध्ययुग का उत्तरार्ध है जिसका पूर्वार्ध सामाजिक चेतना से संपन्न और कर्तव्य की उदात्तीकृत भक्ति रचनाओं वाला युग था और उसके बाद वह भारतेंदु युग आता है जो नए जागरण का पहला प्रभात था। इस प्रकार काव्य की दृष्टि से रीतिकाल दो उजालों के बीच एक अँधेरे का युग था।

    ऐतिहासिक दृष्टि से यह युग शाहजहाँ के शासन के अंतिम दौर से प्रारंभ होकर बहादुरशाह ज़फ़र के शासन के अंतिम दौर तक फैला हुआ था। इस युग का अधिकांश भाग औरंगज़ेब के शासनकाल से संबंध है। अकबर के भावात्मक एकता और धार्मिक सहिष्णुता के प्रयास औरंगज़ेब के काल में लगभग समाप्त हो चुके थे। जहाँगीर और शाहजहाँ के समय विलास के दौर में कला और साहित्य में भी शान-शौकत, नक़्क़ाशी और विलासिता की प्रवृत्ति पनप रही थी। अकबर के दरबार की विद्वत् और धार्मिक परिषदों का स्थान बादशाहों के विलास को बढ़ावा देने और चमत्कारों का प्रदर्शन करनेवाले कवि, कलाकारों की मंडलियों ने ले लिया। अकबर के दरबार में रहनेवाले कवियों ने प्रायः नीति, धर्म आदि से संबंध काव्य-रचनाएँ की थीं जिन्होंने कई बार शासक को मार्ग दिखाया था। आचार्य शुक्ल का कथन है कि नरहर कवि के निम्नांकित छंद को सुनकर अकबर ने गोहत्या बंद कर दी थी—

    अरिहु दन्त तिनु धरै ताहि नहिं मारि सकत कोइ

    हम संतत तिनु चरहिं वचन उच्चरहिं दीन होइ

    अमृतपय नित स्रवहिं बच्छ महि थम्भन जावहिं

    हिन्दुहिं मधुर देहिं, कटुक तुरकहिं पियावहिं

    कह कवि नरहर अकबर सुनौ, बिनवति गउ जोरे करन

    अपराध कौन मोहि मारियत, मुयेहु चाम सेवइ चरन।

    अकबर के दरबार कवियों में बीरबल, टोडरमल, गंग, अब्दुर्रहीम ख़ानख़ाना जैसे नीतिज्ञ और जागरूक कवि थे। परंतु यह परंपरा आगे जाकर नष्ट हो गई और जैसा कि कहा गया है एक 'भिन्न' क़िस्म के कवियों, कलाकारों का जमाव दिल्ली दरबार में होने लगा। दिल्ली दरबार का अनुकरण देश के अन्य राजाओं और सूबेदारों की राजसभाओं में भी होने लगा और जगह-जगह वैसे ही कलाकारों और कवियों का दल इकट्ठा किया गया। कवि, कलाकार शासकों की शान-शौकत का प्रतीक और मनोरंजन का साधन थे। इस युग के अधिकांश प्रमुख कवियों की आजीविका का साधन राजदरबारों से प्राप्त सहायता थी। इसलिए उनमें भी वही विलासिता पनपी जो बड़े राजकर्मचारियों में थी। राजदरबार तक अपने को सीमित कर लेने और सामान्य जनता से कट जाने का अनिवार्य परिणाम रीतिकवियों के रूढ़िपालन और भारतीय जीवन और संस्कृति की प्रगतिशील चेतना से कट जाने के रूप में दिखाई दिया। क्योंकि जनता से कट जाने का परिणाम जीवंत संस्कृति और जीवन की गत्यात्मकता से कटने में स्वतः देखा जा सकता है।

    वास्तव में रीतियुग ऐसा युग नहीं था कि जनता इतने सुकून में हो कि उसके विलास और आनंद के दिन गए हों। आम जनता के लिए तो वह युग आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक और वैयक्तिक दृष्टि से घोर विषमता, त्रास, पराभव और घुटन का युग था। जहाँ एक ओर उसके जीवन का केंद्र धर्म भयावह अपमान की स्थिति में था, वहीं धर्मपरिवर्तन के प्रतिरोध में उन्हें घोर आर्थिक त्रास और वैयक्तिक अस्थिरता तथा दबावों का सामना करना पड़ रहा था। इधर विघटनशील सामंती शक्तियाँ अपने सुख की कीमत पर प्रजा के साथ अमानुषिक क्रूरता और उपेक्षा का व्यवहार कर रही थीं। युद्धों और विलासों के साथ उनके प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष अत्याचारों और लापरवाहियों की क़ीमत जनता को चुकानी पड़ती थी।

    अगर रीतियुग मात्र इन दरबारी कवियों का काव्ययुग होता तो निश्चय ही यह साहित्यिक और सामाजिक दृष्टि से घोर अंधकार का युग होता। परंतु इस युग में धार्मिक आंदोलनों से अनेक नए समुदायों का गठन हुआ। इनके प्रभाव में पूरे हिन्दी क्षेत्र में अनेक कवि हुए, जिनका जनजीवन से निकट का संबंध था। भले ही ये आंदोलन विशेष रूप से उभर पाए हों, परंतु वे भीतर से बराबर समाज का संचालन करते रहे। सतनामी संप्रदाय ने तो औरगंज़ेब की धार्मिक हठवादिता के लिए उसके ख़िलाफ़ सशस्त्र युद्ध भी किया, कई हज़ार सतनामी मारे गए। राधास्वामी संप्रदाय ने भी उस युग में महत्त्वपूर्ण सामाजिक भूमिका निभाई। प्रजा भी उस कुशासन के युग में भक्ति और सत साहित्य से प्रेरणा लेती रही। खोज विवरणों को देखने से यह बात पूरी तरह स्पष्ट हो जाती है कि धार्मिक आंदोलनों से उत्पन्न संत और भक्तकवियों के सत्संगों और रचनाओं ने सामाजिक जीवन को विशेष रूप से प्रभावित किया।

    यह तथ्य है कि इस काल में प्रजा को जिस सबसे बड़े संकट का सामना करना पड़ा वह धर्म से संबंधित था। आर्थिक सुविधा, असुविधा या स्थिरता धर्मपरिवर्तन से जुड़ी थी और यह कार्य मुस्लिम साम्राज्यवादियों के द्वारा बलपूर्वक किया जाता था। ऐसे समय कवि भूषण की भूमिका विशेष रूप से उल्लेखनीय है, क्योंकि उनके काव्यनायक शिवाजी शोषित बहुसंख्यक हिन्दू जनता के संरक्षक थे। इस संदर्भ में भूषण का यह कथन विशेष महत्त्व रखता है: 'शिवाजी होते तो सुन (सुन्नत) होति सब की' मध्यकाल में मुस्लिम शासकों की भूमिका राष्ट्रीय नहीं थी, वह राष्ट्रविरोधी आक्रामक ही रही है। उनके युद्ध सुशासन के लिए नहीं, हिन्दुओं को कुचलने के उद्देश्य से प्रेरित थे। शिवाजी की शत्रुता तो सामान्य मुसलमान से थी, उसके धर्म से।

    उनकी सेना में एक दल मुसलमानों का था। इतिहास प्रमाण है कि शिवाजी ने किसी मस्जिद पर, या मुसलमान स्त्री की अस्मत पर हमला नहीं किया। विरोधी की स्त्रियों और उनके धर्म का सम्मान शिवाजी के व्यक्तित्व को मुस्लिम शासकों के व्यक्तित्व से अलग करता है। उसी तरह शिवाजी अन्य विलासी हिन्दू राजाओं और सूबेदारों से भी अलग थे। इस माने में शिवाजी राष्ट्रोद्धारक और प्रगतिशील थे। उन्होंने समाज-रचना के अनुरूप शासन किया और मावल, महार आदि जनजातियों के सहयोग से युद्ध किए। परिणामतः शिवाजी के महत्त्व, वीरता और कार्यों का स्तवन करने वाले कवि भूषण भी रीतिकालीन कवियों से भिन्न राष्ट्रीय और सामाजिक महत्त्व रखते हैं। शिवाजी का दरबार अन्य राजाओं के दरबारों की तरह समाज की छाती पर उठा हुआ फोड़ा नहीं, बल्कि समाज का विकास था। अतः भूषण के गौरवगान में एक दृष्टि थी। शिवाजी की तरह ही कवि भूषण के आक्रमण का लक्ष्य भी साधारण मुस्लिम प्रजा नहीं, मुस्लिम शासक थे। यहाँ एक उदाहरण पर्याप्त होगा जिसमें भूषण ने जो ब्यौरे दिए हैं वे शासकों के हैं सामान्य मुस्लिम प्रजा के नहीं। 'रैयत' उनके लिए हिन्दू और मुस्लिम दोनों थी—

    दाढ़ी के रखैयन की डाढ़ी-सी रहात छाती

    बाढ़ी मरजाद जस हृद हिन्दुआने की।

    काढ़ि गई रैयति के मन की कसक सब

    मिटि गई उसक तमाम तुरकाने की।

    भूषण उन रीतिकालीन कवियों की तरह नहीं थे, जो जिस-तिस आश्रयदाता की प्रशंसा में अपनी वाणी का अपव्यय करते थे। ऐसे कवियों की तुलना में अपने चरितनायक की महत्ता का स्पष्ट प्रतिपादन करते हुए उन्होंने लिखा है—

    भूखन यों कलि के कविराजन राजन के गुन गाय नसानी।

    पुन्य चरित्र सिवा सरजा सर न्हाय पवित्र भई पुनि बानी।

    अन्य कवियों के बहुत से आश्रयदाता ऐसे थे, जिनका जीवन में युद्ध से कभी संबंध नहीं रहा, फिर भी कवियों ने उन्हें पराक्रमी योद्धा बखाना। इसमें संदेह नहीं कि भूषण के आश्रयदाता शिवाजी के प्रति सारे संदेश में सम्मान की भावना थी। चरितनायक की लोकप्रियता ने कवि के काव्य को भी लोकप्रिय बनाया। इस संदर्भ में भूषण का 'छत्रसाल दशक' और लालकवि का 'छत्र प्रकाश' भी उल्लेखनीय रचनाएँ हैं। यों बिहारी आदि अन्य कवियों में भी कहीं-कहीं राजाओं को मार्ग दिखानेवाली पंक्तियाँ मिल जाती हैं जैसे : 'नहिं पराग नहिं मधुर मधु', आदि; लेकिन वे अत्यंत नगण्य हैं।

    रीतिबद्ध कवियों में देव अवश्य ही ऐसे कवि थे जो जगह-जगह भटकते रहे और किसी राजसभा में जमकर नहीं रहे। इसलिए दरबारी प्रवृत्ति उन पर अपेक्षाकृत कम हावी हुई। उन्होंने बिहारी तथा अन्य रीतिकवियों की अपेक्षा परकीया नायिका से संबंध काव्य कम ही रचा। स्वकीया के वर्णन में वे रीतिकाल के बेजोड़ कवि हैं। उनका यह कथन उनके लिए उपयुक्त है : 'दम्पति दीपति प्रेम प्रतीति, प्रतीति की रीति सनेह निचोरी।' अन्य रीति कवियों की तुलना में देव के नायिकावर्णन की इस भिन्नता से उनके सामाजिक उत्तरदायित्व का पता चलता है। लोक-जीवन से भी उनका सम्पर्क अपेक्षाकृत अधिक था। इसलिए कदाचित् वे सामाजिक विषमता के प्रति सोच सके होंगे। उन्होंने लिखा

    है—

    हैं उपने रज-वीज ही तें, बिनसेहूँ सबै छिति छार के छाँड़े।

    एक से देखु, कहूँ बिसेखु, ज्यौं एकै उन्हारि कुम्भार के भाँड़े॥

    तापर आपुन ऊँच है, औरन नीच के पाय पुजावत चाँड़े।

    वेदन मूँदि करी इन दूँदि, सु सूद अपावन, पावन, पाँड़े॥

    राजदरबार के घृणित और चापलूसी से भरे वातावरण को चित्रित करते हुए देव ने लिखा—

    साहेब अंध, मुसाहेब मूक, सभा बहिरी, रंग रीझ कौ माच्यौ।

    भूल्यो तहाँ भटक्यौ भट औघट, बूड़िबे को कोउ कर्म बाच्यौ॥

    भेष सूझ्यौ कयौ समुझायो न, बतायो सुन्यौ कहा रुचि राच्यौ।

    'देव' तहाँ निबरे नट की, बिगरी मति की सिगरी निसि नाच्यौ॥

    लेकिन प्रायः रीतिकालीन कवियों ने अपनी काव्यप्रतिभा केवल शृंगारवर्णन और राजाओं की स्तुति में ही ख़र्च की। इसलिए दरबार के बाहर रीतिकाव्य का विकास कम ही पाया जाता है। विषय निर्धारित होने के कारण उनके भाव भी निर्धारित होते गए थे। रीतिकवियों में सूर, तुलसी, जायसी, कबीर जैसी गहराई और व्यापकता दुर्लभ है। शृंगार से हटकर कभी-कभी ये कवि भक्ति अथवा नीति संबंधी बातों को भी काव्य का विषय बनाते थे। परंतु श्रृंगारेतर काव्य में इन कवियों की अनुभूति काफ़ी उथली थी, अतः इस प्रकार के काव्य में वह गंभीरता और अनुभूति-प्रवणता नहीं मिलती। रहीम और बिहारी के नीतिकाव्य की या सूर और पद्माकर के भक्तिकाव्य की परस्पर तुलना करने पर यह तथ्य प्रमाणित हो सकता है। रीतिमुक्त कवियों में भले ही दरबारी या काव्यरूढ़ि के परिपालन की प्रवृत्ति नहीं दिखाई देती, परंतु उनकी स्वच्छंदता भी प्रेमाभिव्यक्ति की स्वच्छंदता तक ही सीमित रही।

    रीतियुग में रचित प्रेमकाव्य पर भी यहाँ कुछ कहना उचित होगा। कुछ लोगों ने इस काव्य पर अश्लीलता का आरोप लगाया है। मेरे विचार से यह आरोप अनुचित है। शृंगार के संयोगपक्ष के वर्णन को अश्लील मानना अस्वस्थ मानसिकता है, क्योंकि शृंगार के सर्वांगीण और चारु विवरण संस्कृत के महाकवियों ने भी दिए हैं। फिर भी द्विवेदीयुग में रीतिकाव्य की अश्लीलता पर ध्यान दिया जाने लगा। लोगों में नैतिकता के स्थूल रूप का आग्रह इतना बढ़ गया कि कहीं भी नर-नारी जीवन का सगुंफित विवरण दिखाई नहीं दिया कि अश्लील-अश्लील की गुहारे लगाने लगे! शृंगार का स्थायीभाव रति है। इसी को अन्य शब्दों में प्रेम कह सकते हैं। प्रेम का प्रभाव मानव जीवन में विशेष है। यह प्रेम समाज स्वीकृत हो तो क्या कहना? और समाजमान्य नहीं है तो कुछ को छोड़कर बहुत से हृदयों को आघातकारी लगेगा। सामाजिक जीवन के संदर्भ में ही प्रेम को प्रतिष्ठा मिलती है अर्थात् उत्तरदायित्वपूर्ण प्रेम ही भव्य और उत्तम है। उत्तरदायित्व में प्रेम के उभयपक्षों का सामाजिक लगाव दिखाई देता है।

    यह लगाव ही प्रेम की अन्योन्यता को सर्वमान्यता और व्यापकता देता है। अर्थात् प्रेमाश्रित जीवन, जीवन-भूमि में नाना उतार-चढ़ावों को लेकर विकसित होता है। यह प्रेम अपने व्यापकत्व और प्रसार के कारण इतना बड़ा हो जाता है कि उसे सामान्य हृदय अपने निकट अनुभव करता है। इस प्रकार का प्रेम जीवन की नाना समस्याओं का आकलन करते हुए रीतिकाव्य अथवा कलाकाव्य किसी भी रूप में प्रस्तुत हो सकता है। इसके आशय से महाकाव्य का प्रणयन भी संभव है। जीवन और जगत् से निरपेक्ष, मात्र प्रेम ही बड़ी अथवा महान् कविता का विषय नहीं हो सकता।

    काव्य की दृष्टि से रीतियुग में नारी-जीवन-संबंधी रचनाएँ भारी परिमाण में प्रस्तुत की गई हैं। नारियाँ, जैसे मिलन या विरह के लिए ही समर्पित थीं! बहुत कम कविताएँ ऐसी हैं जिनमें नारी का सामाजिक दायित्व भी दिखाई देता है। हर नायिका किसी किसी नायक की ओर ही उन्मुख मिलती है। स्त्रियाँ दूती, स्वयंदूती, अभिसारिका आदि अनन्त रूपों में दिखाई देती हैं। इन रचनाओं को पढ़ते हुए इस बात पर ध्यान चला ही जाता है कि वह समाज कैसा था? स्वकीयाओं की भी मदनव्यथा जिस प्रकार उभार कर दिखाई गई है उस प्रकार उनके जीवन के सहज और स्वाभाविक पक्ष नहीं उजागर किए गए। नारी का रूप बिहारी के इस दोहे में देखिए—

    किती गोकुल, कुलवधू, काहि किहिं सिख दीन।

    कोनै तजी कुल गली, है मुरली सुरलीन॥

    यद्यपि इसमें स्पष्ट ही कृष्ण का मुरली सहित निर्देश है, किंतु कुल गली छोड़ना सामान्य शृंगार की दृष्टि से लोकजीवन के समक्ष क्या आदर्श रखता है? मैं इस प्रसंग में धार्मिक संदर्भ का उद्धरण उचित नहीं मानता। क्या बात है कि रीति कवियों की दृष्टि कृष्ण के रसिक जीवन पर ही जमी? धर्म में आस्था रखते हुए भी इन कवियों का भक्ति से विशेष सरोकार नहीं था। उनकी रचना को संकेतार्थ में धर्मनिरपेक्ष (!) कहा जा सकता है। इस प्रकार की रचना करने वाले लोगों में हिन्दू और मुसलमान दोनों समुदायों के कवि हैं, जिनकी शैली और वस्तु में विशेष अन्तर नहीं मिलता।

    हमारा यह तात्पर्य नहीं है कि कुटनी, दूती या इसी प्रकार की अन्य नारियाँ कभी किसी समाज में नहीं होतीं। किसी भी काल में ये पाई जा सकती हैं। इन्हें केंद्रीय महत्त्व देना सामाजिक दृष्टि से संगत नहीं। उदाहरण के लिए अंगरेजों के आने के बाद समाज सुधारकों के द्वारा आंदोलन किए जाने पर ब्रिटिश शासकों ने सतीप्रथा पर रोक लगा दी लेकिन रीतिकाल में सतीप्रथा पूरे ज़ोर पर थी, कोई गाँव शायद ही रहा हो जहाँ 'सती-चौरा' रहा हो। हमारे इन कवियों में से किसी ने इधर ध्यान नहीं दिया; अनुकूल या प्रतिकूल लिखने की बात ही अलग है। इस बात से भी प्रतीत होता है कि हमारे ये कवि समाज और सामान्य जीवन के चित्रण की अपेक्षा उच्च और अभिजात लोगों के मनोविनोद का ही अधिक ध्यान रखते थे। जैसी रचनाओं से आश्रयदाता और उसकी सभा के जन मुदित होते थे वैसी ही रचनाएँ प्रस्तुत करना इनका कार्य था।

    रीतिकाल की शृंगारी रचनाओं के विषय में यह जान लेना आवश्यक है कि एकांगी होती हुई भी ये रचनाएँ अपने आप में पूर्ण हैं और सौंदर्य की दृष्टि से इनमें आकर्षण भी पर्याप्त है। किंतु इनका आनंद व्यक्तिगत रूप से लिया जा सकता है, सामाजिक रूप से नहीं। कोणार्क और खजुराहो की मूर्तियाँ भी लोगों की आलोचना-प्रत्यालोचनाओं का लक्ष्य रही हैं, किंतु उन मूर्तियों की कला स्वतः संपूर्ण और आकर्षक है। रीतिकालीन कविता की स्थिति भी लगभग उसी प्रकार की है। यद्यपि प्रेम के नाना अर्थों की व्यंजना जितने परिमाण में रीतिकाल में पाई जाती है उतनी किसी भी भाषा के साहित्य में नहीं मिलती, फिर भी इस काव्य का जनजीवन से संबंध नहीं रहा। ये रचनाएँ समाज का रंजन अवश्य करती हैं, समाज का निर्माण नहीं।

    कवि ठाकुर ने रीतियुग में कविता की जो दशा देखी थी उसे इन शब्दों में कहा है—

    सीखि लीन्हो मीन, मृग, खंजन, कमल नैन,

    सीखि लीन्हो जस प्रताप को कहानी है।

    सीख लीन्हो कल्पवृक्ष, कामधेनु, चिन्तामणि,

    सीख लीन्हो मेरु कुबेर गिरि आनो है।

    ठाकुर कहत याकी बड़ी है कठिन बात,

    याको नहिं भूल कहूँ बाँधियत बानो है।

    डेल सो बनाय आय मेलत सभा के बीच

    लोगन कवित्त कीबो खेल करि जानो है।

    इस कवित्त से बढ़कर इस काल की सम्यक् आलोचना नहीं की जा सकती।

    यह स्थिति अधिक समय तक नहीं चल सकती थी। 1857 के विद्रोह के बाद लोगों में देश, धर्म और समाज को अच्छी तरह समझने की भावना उदित हुई जिसका परिचय भारतेंदु युग की कविताओं में मिलता है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : हिन्दी कविता की प्रगतिशील भूमिका (पृष्ठ 496)
    • रचनाकार : त्रिलोचन

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