भारतीय उपन्यास की अंतर्धारा

bharatiy upanyas ki antardhara

नामवर सिंह

नामवर सिंह

भारतीय उपन्यास की अंतर्धारा

नामवर सिंह

और अधिकनामवर सिंह

    प्रेमचंद्र हिंदी और उर्दू में लिखते हुए भी सच्चे अर्थों में भारतीय साहित्यकार थे। भारतीय उपन्यास में उनका स्थान, उनका योगदान और उनका महत्त्व इन विषयों पर विचार करने के लिए आवश्यक है कि हम पहले भारतीय उपन्यास के स्वरूप पर विचार करें। और भारतीय उपन्यास पर विचार करने के लिए ज़रूरी है कि भारत में उपन्यास के उदय और विकास की रूपरेखा से परिचित हों। हम आप सभी जानते हैं कि भारत में उपन्यास के उदय और विकास पर कोई भी विचार तबतक समीचीन नहीं हो सकता है, जबतक हम 'उपन्यास' शब्द के मूल नॉवेल के उदय और विकास पर विचार करें। ‘नॉवेल’ नामक रूप विधा की चर्चा करते हुए स्वभावतः हमें केवल अँग्रेज़ी नहीं, बल्कि संपूर्ण यूरोप में नॉवेल के उदय और विकास की चर्चा करनी पड़ेगी। इस विषय सूची को देखते हुए आपको लग रहा होगा कि यह काफ़ी बड़ा और पेचीदा विषय है। जाहिर है कि समय की अवधि ही नहीं, बल्कि मेरे जैसे एक साहित्य के विद्यार्थी के लिए भी कठिन ही नहीं बल्कि असंभव है, जो इतनी भाषाएँ जानता है, इतने साहित्यों का परिचय रखता है। फिर भी उसकी एक झलक आपके सामने भी विचारार्थ प्रस्तुत करने की अनुमति चाहूँगा।

    यूरोप का यह दावा है कि यूरोप ने कुछ ऐसी विधाएँ दी हैं जो ठेठ यूरोपीय सभ्यता और समाज की अपनी सृष्टि हैं और विश्व साहित्य को उसकी अपनी देन हैं। उस प्रसंग में जिन चीज़ों की गणना यूरोप करता है, उनमें एक है ट्रेजडी और दूसरा है नॉवेल। अब इससे किसी के स्वाभिमान को ठेस लगे तो लगे लेकिन यह विचार का भी विषय हो सकता है कि यूरोप का दावा सही है कि नहीं। ट्रेजडी और नॉवेलये दोनों शब्द जब यूरोप के लोग इस्तेमाल करते है तो पारिभाषिक अर्थ में करते हैं। यह उसी तरह की परिभाषिक अवधारणाएँ हैं जैसे भारतीय संस्कृति में 'धर्म' या 'आत्मा'। इनके अनुवाद दूसरी भाषाओं में किए गए हैं। लेकिन हम आप अच्छी तरह जानते हैं कि 'धर्म' की संकल्पना ठेठ प्राचीन भारतीय संस्कृति की अपनी संकल्पना है। 'रिलिजन' या 'मज़हब' अनुवाद मात्र हैं, ये शब्द उसके मूल अर्थ को ग्रहण नहीं करते। उसी तरह से आप 'आत्मा' का अनुवाद सोल या रूह भले ही कर लें, लेकिन 'आत्मा' के पीछे जो पूरा चिंतन है, वह ठीक-ठीक वही अर्थ नहीं देता है जो ‘रूह' में या ‘सोल' में है। इस क्रम में हमें यूरोप के 'ट्रेजेडी' और ‘नॉवेल’ इन दोनों शब्दों को लेना चाहिए। वैसे स्वयं यूरोप में भी नॉवेल शब्द सभी भाषाओं में प्रचलित नहीं है। ऐग्लों सेक्शन और ट्यूटानिक भाषाओं में तो नॉवेल शब्द मिलता है लेकिन उससे इतर भाषाओं में यानी फ़्रेंच में, रूसी में, इटैलियन में और संभवतः स्पैनिश में जिस शब्द का प्रयोग किया जाता है, वह 'रोमान' है। इसलिए आज भी रूसी में नॉवेल नहीं चलता, फ़्रेंच में नॉवेल नहीं चलता, रोमान शब्द चलता है। ‘नॉवेल’ और 'रोमान' दोनों एक हैं या अलग हैं? ये दोनों भिन्न शब्द हैं अथवा दो भिन्न संकल्पनाएँ हैं यह विचार का विषय हो सकता है। इन संकल्पनाओं में केवल रूपगत भेद ही नहीं है बल्कि मूल्यगत भेद भी है। इसलिए इस बात को भी ध्यान में रखना आवश्यक है। यह इसलिए भी आवश्यक है कि भारत में हिंदी और बंगला के लोग तो नॉवेल के लिए 'उपन्यास' शब्द का प्रयोग करते हैं। लेकिन अन्य भारतीय भाषाओं में यही शब्द गृहीत नहीं है। उदाहरण के लिए इसे गुजराती में ‘नवल कथा' मराठी में ‘कादंबरी’ और उर्दू में ‘नॉवेल’ कहते हैं—नॉवेल कहके 'नाविल' कह लीजिए। इसलिए स्वयं भारत में भी नॉवेल के लिए अनेक शब्द प्रचलित हैं। ये शब्द केवल एक ही संकल्पना के अनेक नाम हैं अथवा इन नामों में विभिन्न संकल्पनाएँ निहित हैं, विभिन्न रूप निहित है यह भी विचारणीय विषय होना चाहिए।

    अँग्रेज़ी में उपन्यास के उदय और उसके विकास की चर्चा हुई है। सामान्यतः नॉवेल नाम की जिस विधा का दावा यूरोप करता है उसका एक ऐतिहासिक और सामाजिक आधार है और दूसरा उसका रूपगत या मूल्यगत आधार है। ऐतिहासिक और सामाजिक आधार यह है कि नॉवेल यूरोपीय संदर्भ में नए उभरने वाले मध्यवर्ग का महाकाव्य माना गया है। ये बात हीगेल ने कही है। उसके बाद तमाम आलोचकों ने इसे दुहराया है। चूँकि यूरोप में औद्योगीकरण पहले हुआ, पूँजीवाद का उदय पहले हुआ इसलिए उसके साथ पुराने अभिजात्य वर्ग और कुलीनतंत्र के बाद उस नए वर्ग का उदय भी सबसे पहले वहीं हुआ। जिसे हम सामान्यतः मध्यवर्ग (मिडल क्लास) या फ्रांसीसी भाषा में बुर्जुआ कहते हैं। विभिन्न वर्गों के उदय के साथ अनेक रूप विधाएँ जुड़ी हैं, जिस प्रकार एपीक का संबंध एक विशेष वर्ग के साथ था, उसी प्रकार गद्य में लिखे जाने वाले कथात्मक प्रबंध का उदय मध्यवर्ग के साथ जुड़ा है जिसे नॉवेल कहा गया। उनका कहना है कि ऐतिहासिक दृष्टि से इस नए वर्ग का जन्म यूरोप में पहले हुआ। उस वर्ग की आशाओं, आकांक्षाओं, विचारधाराओं और कलाबोध के रूप में नए कथात्मक गद्यरूप का उदय हुआ, इसलिए नॉवेल यूरोपीय विधा है। दुनिया के अन्य देशों में देर-सबेर औद्योगीकरण हुआ, पूँजीवाद का उदय हुआ और उसके साथ मध्यवर्ग आया। इसलिए दुनिया के दूसरे देशों में, जिनमें भारत भी एक है, जब मध्यवर्ग का उदय हुआ देर-सबेर उन्होंने यूरोप के इस नए रूप को अपना लिया। इसलिए इसका श्रेय यूरोप के लोग लेना चाहते हैं।

    इतनी दूर तक अगर समाजशास्त्रीय व्याख्या होती तो कठिनाई थी, किंतु धीरे-धीरे यह मालूम हुआ कि यूरोप मैं भी नॉवेल का रूप केवल ऐतिहासिक सामाजिक वर्ग से बँधे हुए साहित्य रूप की तरह नहीं है, बल्कि उस रूप विधा में एक मूल्यबोध भी है। मूल्यबोध का अर्थ यह हुआ कि जो भी कथात्मक गद्य प्रबंध लिखा गया, वह सारा नॉवेल नहीं है। इसलिए यूरोप के लोगों ने और अलग-अलग आलोचकों ने इस पर गहराई से विचार किया और एक मूल्यबोधक संकल्पना के रूप में नॉवेल को रखा। उन्होंने कहा कि इस तरह के जितने कथात्मक गद्य प्रबंध-लिखे गए हैं, सब नॉवेल नहीं हैं बल्कि नॉवेल उसमें से कुछ ही हैं। इस कथन को स्पष्ट करने के लिए मैं कहना चाहता हूँ कि अँग्रेज़ी के प्रसिद्ध आलोचक डी. एफ. आर. लेविस ने 1948 में 'ग्रेट ट्रेडीशन्स' नाम की किताब लिखी। लेविस जिसको इंग्लिश नॉवेल कहते हैं, उस इंग्लिश नॉवेल में उन्होंने केवल 6 लेखकों का नाम लिया। उसमें सबसे पहला नाम जेन आस्टिन और जॉर्ज इलियट का है। इस क्रम में हेनरी जेम्स और जोसेफ़ कोनरॉड पर सूची समाप्त हो जाती है। ज़ेन आस्टिन से पहले रिचर्डसन और फील्डिंग जैसे बड़े उपन्यासकारों को एफ. आर. लेविस उपन्यासकार नहीं मानते। उनका मानना था कि इन्होंने उपन्यास की पृष्ठभूमि तैयार की थी। सच्चे अर्थों में इंग्लिश नॉवेल की शुरुआत जेन आस्टिन से होती है। यहाँ तक कि सबसे लोकप्रिय उपन्यासकार चार्ल्स डिकेंस को लेविस ने यह कहते हुए ख़ारिज कर दिया कि वह एक बड़े मनोरंजनकर्ता (एंटरटेनर) थे किंतु उपन्यासकार नहीं। अब आप देखें कि स्वयं इंग्लिश में ही नॉवेल केवल वर्णनात्मक शब्द नहीं रहा, बल्कि नॉवेल एक मूल्य बोधक शब्द हो गया। मैं केवल उदाहरण दे रहा हूँ। सारी आलोचनाओं का मुझे ज्ञान है और उनके विवरण के द्वारा मैं आपके मस्तिष्क को बोझिल करना चाहता हूँ।

    जर्मन भाषा में लिखने वाले जॉर्ज लुकाच हंगरी में पैदा हुए। 1910-11 के आस-पास उन्होंने 'थ्योरी ऑफ़ नॉवेल' नाम की किताब लिखी। जॉर्ज लुकाच नॉवेल के रूप विधान और उसके सिद्धांत पर विचार करने वाले महत्त्वपूर्ण आलोचकों में हैं। 1910-11 में वे मार्क्सवादी नहीं थे, इसलिए उनकी रचना मार्क्सवाद से पहले की है। लेकिन मार्क्सवादी होने के बाद भी उन्होंने उस स्थापना में कोई परिवर्तन नहीं किया। उन्होंने कहा कि नॉवेल एक विशेष प्रकार का रूप विधान है, जिसकी आत्मा और निर्धारक तत्त्व है प्रोबिमैटिक हीरो अर्थात् समस्याग्रस्त नायक। मैं फिर कहूँगा कि 'हीरो' शब्द का पर्याय हमारा 'नायक' शब्द नहीं है। नायक नायिका के आँचल से इतना बँधा हुआ है आप उसे लाख मुक्त करने की कोशिश करें, लेकिन वह ‘नहीं हो सकता। 'नायक' से ज़्यादा 'हीरो' के क़रीब आने वाला शब्द 'पुरुष' है। समस्याग्रस्त नायक ऐसा पुरुष है जिसकी अपने समाज से अनबन हो, जिसको पूरा एहसास हो कि उसके आस-पास का पूरा समाज भ्रष्ट है, मूल्यहीन है। ऐसे भ्रष्ट और मूल्यहीन समाज में अपने अकेलेपन के गहरे अहसास के साथ वह वांछित मूल्यों और आदर्शों के लिए छटपटाता रहता है। जिस कृति में यह मिले वह उपन्यास है मिले वह उपन्यास नहीं है। इस दृष्टि से लुकाच ने स्टैन्डिल, फ्लाबेयर, दोस्त्योवस्की और तोल्सतोय के उपन्यासों को चुना तो दूसरी और बहुत सारे उपन्यास इस कसौटी पर खरे नहीं उतरे।

    यूरोप में लंबे कथात्मक प्रबंध गद्य में बहुत सारे लिखे गए हैं लेकिन नॉवेल शब्द सबके लिए उपयुक्त नहीं पाया गया। एक विशेष प्रकार के वैचारिक अभिनिवेश के साथ यह शब्द जुड़ा रहा है। यह सही है या गलत, ये अलग विषय है। आप इसपर विचार कर सकते हैं। ‘नॉवेल’ और 'रोमान' शब्द दूर तक मूल्य बोधक और गुणबोधक शब्द रहे हैं, यह वर्णनात्मक नहीं रहा है। हिंदी के अध्यापकों को ख़ासतौर पर ध्यान देना चाहिए कि रूपगत भेदों पर विचार करते समय वे आमतौर पर इसे वर्णनात्मक मान लेते है, मूल्य बोधक नहीं मानते।

    हेनरी जेम्स ने तोल्सतोय के 'वॉर एंड पीस' और 'अन्ना केरेनिना' तक को कहा कि यह नॉवेल नहीं है। ये ऐसा ढीला-ढाला जेली है, जो उपन्यास की विधागत शर्तों को पूरा नहीं करता है। यह कृति महान होगी लेकिन यह नॉवेल नहीं है। इसलिए आप देखें कि 'उपन्यास' संज्ञा वर्णनात्मक (फ़ॉरमल डिसक्रिप्शन) रूपविधा नहीं रहा है। अँग्रेज़ी शब्द इस्तेमाल करूँ तो ये Juridical रहा है, ये निर्णयगत रह गई। निर्णय का मतलब है मूल्य निर्णय। इस संदर्भ में हम यूरोप के पूरे विमर्श को ध्यान में रखें। मैंने कहा मध्यवर्ग का उदय सबसे पहले यूरोप में हुआ था। उस मध्यवर्ग के उदय के साथ उसकी एक जीवन दृष्टि भी विकसित हुई थी। उसकी कुछ ऐसी विचारधाराएँ थी, जो नई रूपविधा को आकार देने में सहायक हुई। उनमें से व्यक्तिवाद है और दूसरा अनुभववाद है। इसके साथ उपन्यास में कुछ और विशेषताएँ हैं जैसे जीता जागता इंसान अपने वास्तविक परिवेश के साथ चित्रित किया जाता है, जहाँ परीकथाओं की कपोलकल्पना हो, केवल रोमाँस हो या जिसे दास्तान या क़िस्सा कहा है, वह हो। अँग्रेज़ी में कहा जाए तो एक ‘फ़ॉर्मल रियलिज़्म' के साथ नॉवेल जुड़ा हुआ है। ध्यान दीजिएगा मैं ‘फ़ॉर्मल रियलिज़्म' कह रहा हूँ। इस रूपगत यथार्थ के साथ एक नई विधा का जन्म हुआ था।

    इन तमाम बातों की ओर लोगों ने ध्यान आकृष्ट किया, लेकिन इसके साथ एक और बात भी जोड़ी और वो ये कि उपन्यास का गुण, उसका मूल्य और उसकी सारी विशेषताएँ अंततः सत्ता से जुड़ी हुई हैं। यह परिभाषा सत्ता या पावर से जुड़े रहने के कारण व्यापक और गहरे अर्थ में राजनीतिक हो जाती है। पश्चिमी देशों में नारीवादी आंदोलन चला है। इन नारीवादी लोगों ने कहा कि उपन्यास की परिकल्पना के मूल में ही सत्ता को चुनौती देने का आधार था। उपन्यास की परिभाषा में ही लिंग भेद या जेंडर डिफ़रेंस रहा है। इस नए मध्यवर्ग के उदय के साथ सही अर्थों में नारी की स्थिति में बहुत बड़ा परिवर्तन हुआ। यूरोप के आरंभिक उपन्यासों में यह तथ्य दृष्टिगोचर करने योग्य है कि इतिहास में जिस नारी को वाणी नहीं प्राप्त हुई थी, जो मूक थी, मुखर नहीं हुई थी वह उपन्यास विधा के साथ कर्ता या कर्ती के रूप में सामने आई है। यह आकस्मिक नहीं है कि आरंभिक अँग्रेज़ी साहित्य की तीन महान और प्रसिद्ध उपन्यास लेखिकाएँ नारियाँ ही थीं। जेन आस्टिन, ब्रोंके सिस्टर्स और जॉर्ज इलियट ये तीनों सामान्य लेखिकाएँ ही थीं बल्कि निर्विवाद रूप से उच्च कोटि की क्लासिक की रचना करने वाली महिलाएँ थीं। मदाम स्टील और उनके बाद भी फ्रांस में भी उसकी महिमा है। इसलिए तो कर्ची के रूप मे आना महत्त्वपूर्ण है। इससे बढ़कर नारी इस नई विधा के केंद्र में भी थी। हीरो कहने के लिए भले ही पुरुष हो, लेकिन अधिकांश उपन्यास नारी केंद्रित थे।

    बंकिम का बंगला में पहला महत्त्वपूर्ण उपन्यास 'दुर्गेशनंदिनी जब आया तो उसमें स्त्री आयशा इतनी महत्त्वपूर्ण चरित्र थी कि नायक की अपेक्षा उस आयशा ने लोगों का ध्यान अधिक खींचा। भारत में जो आत्मकथाएँ लिखी गईं, उनमें अधिकांश की लेखिका स्त्रियाँ हैं। हिंदी में तो नहीं हुआ लेकिन अन्य भारतीय भाषाओं में देखें तो उन्नीसवीं शताब्दी स्त्रियों की लिखी हुई आत्मकथाओं से भरी पड़ी है। बंगला और मराठी की जानकारी मुझे है। संभव है अन्य भारतीय भाषाओं में भी हो। जिस उर्दू भाषी समाज में पुरुष को बहुत ज़्यादा प्रधानता थी और नारी को पर्दे में दबाकर रखा गया था, उसमें पहला महत्त्वपूर्ण उपन्यास 1899 में रुस्वा का 'उमराव जान अदा' छपा है। यद्यपि उसके पहले सरशार उपन्यास लिख चुके थे। लेकिन नारी की वेदना और पीड़ा का वर्णन सबसे पहले वहाँ शुरू हुआ। उसके बाद उपन्यास एक नया मोड़ लेता है। उर्दू में भी और अन्य भारतीय भाषाओं में भी।

    मैं भारतीय उपन्यास की चर्चा उतने विस्तार से करके केवल यह कहना चाहता हूँ कि उपन्यास का संबंध यूरोप में केवल मध्यवर्ग से ही नहीं है, बल्कि उसका गहरा संबंध उस नई नारी की परिकल्पना के साथ जुड़ा हुआ है, बल्कि यह कहें कि एक नई नारी का आदर्श उपन्यासों के उदय के साथ जुड़ा हुआ है। इस नई नारी का उदय संभव ही नहीं था, यदि समाज एरिस्टोक्रेट रहता। अपने साहित्य में स्वकीया की जगह परकीया की बड़ी महिमा है। राधा-कृष्ण के पूरे उपाख्यान मैं परकीयाएँ भरी पड़ी हैं। हमारे यहाँ दो स्पष्ट विधान हिंदुओं में हैं, एक धर्म पत्नी है बाक़ी पत्नी हैं। जिसे अँग्रेज़ी में मिस्ट्रेस कहते हैं हिंदी में सीधे-सीधे वह रखैल थी। इस पूरे मूल्य विधान को तोड़कर मध्यवर्ग के उदय के साथ एक नए नारी आदर्श की परिकल्पना हुई जहाँ नारी उस घुटन भरे दायरे से निकलकर अपनी अस्मिता को प्राप्त करने का प्रयास कर रही है। उसका भी स्वतंत्र अस्तित्व है। यह नया ऐतिहासिक परिवर्तन नए सामाजिक संक्रमण के साथ संभव हो सका था। इसका संबंध भी उपन्यासों के उदय के साथ जोड़ा गया है।

    इस पृष्ठभूमि में हम भारतीय समाज, भारत में उपन्यास के उदय और उन तात्कालिक परिस्थितियों के बारे में विचार करें तो तथ्यों की और हमारा ध्यान जा सकता है। यह इसलिए भी ज़रूरी है कि हम अध्यापकों को भी अक्सर यह समझते हुए कठिनाई होती है कि इस देश में गद्य में भो लंबे कथा प्रबंध लिखने की परंपरा बड़ी पुरानी है। आख़िर ‘कादंबरी’ बाणभट्ट ने लिखी ही थी। 'दशकुमारचरित' यहीं लिखा गया था, 'कथा सरित्सागर' यहाँ पहले मौजूद था। लंबी जातक कथाओं को कहानी मानें या कहानी चक्र के रूप में लंबा उपन्यास मानें। कथा और आख्यायिकाओं की लंबी परंपरा इस देश में रही है। उन तमाम चीज़ों से अलग इस नए रूप विधान के भीतर वह विभाजक रेखा कौन-सी है? किनको हम उपन्यास मानें किनको मानें? उन्नीसवीं शताब्दी की यह एक बहुत बड़ी समस्या है। समस्या यह भी है कि इसका विकास कब से माना जाए। इस स्वरूप का निर्धारण और विवेचन बहुत गहराई और विचार से किया जाना चाहिए।

    मेरी जानकारी में ऐसे नए ढंग से कथा प्रबंधों की शुरुआत प्रायः नई पत्रकारिता के साथ हुआ। नए पत्र और पत्रिकाएँ निकलीं, जैसा कि विदेशों में भी हुआ था। धारावाहिक रूप में बहुत से उपन्यास विभिन्न भाषाओं में उन्नीसवीं सदी के मध्य में छपे थे। संभव है पहले भी छपे हों। लेकिन लोग कहते हैं कि बंगला में प्यारी मोहन मित्र ने 'आलाल भरे गुलाल' नाम से 1854 में पहला उपन्यास लिखा। यानी 1857 के पहले। सरशार ने 1857 के बहुत बाद ‘फ़साने आज़ाद' लिखा। ‘फ़साने आज़ाद' भी धारावाहिक रूप से छपा था। आप्टे के ऐतिहासिक उपन्यास भी धारावाहिक रूप पत्रिकाओं में छपे थे। पत्रिकाओं में धारावाहिक उपन्यासों का प्रकाशन एक नई घटना थी। बाद में वे पुस्तकाकार प्रकाशित हुए। इनके कारण गद्यात्मक कथाओं ने क्या रूप लिया, इसपर भी विचार किया जाना चाहिए। बहरहाल इन तमाम कृतियों के बीच जो उल्लेखनीय तथ्य दिखाई पड़ता है, वह यह कि 1862 में भूदेव मुखोपाध्याय ने ‘ऐतिहासिक उपन्यास' नामक एक लेख लिखा। उसमें उपन्यास नाम का पहली बार प्रयोग किया गया। उसके बाद 1902 मैं जयपुर से हिंदी की पत्रिका निकलती थी 'समालोचक'। उसमें माधव प्रसाद मिश्र ने एक लेख लिखा 'उपन्यास और समालोचना’। जिसमें उन्होंने बताया कि 'उपन्यास' शब्द बंगला में पहले प्रयुक्त हुआ और हम नॉवेल के लिए 'उपन्यास' शब्द हिंदी में ग्रहण कर रहे हैं। यही नहीं उपन्यास का रूप विधान हिंदी ने बंगला से लिया है। ये ऐसा कथन हैं जिसको हिंदी में आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने भी स्वीकार किया है कि 'उपन्यास' शब्द और उपन्यास का रूप विधान दोनों हिंदी ने बंगला लिया। अब इस बात से बहुत से लोगों की नाक नीची होने लगी है। हिंदी अंधराष्ट्रवाद इतना प्रबल होने लगा है कि लोग अपनी अस्मिता उद्घोषित करने के लिए भारतीय भाषाओं में जो आदान-प्रदान हुआ, उसपर भी पानी फेरने की कोशिश कर रहे हैं। अगर बंगला से उपन्यास शब्द लिया है, रूप विधान लिया है तो इससे नाक नीची नहीं होती। क्या कीजिएगा, अँग्रेज़ी हुकूमत पहले बंगाल में ही क़ायम हुई। आपकी राजधानी कलकत्ता थी। अँग्रेज़ी की शिक्षा वहीं शुरू हुई। पहला विश्वविद्यालय वहीं खुला। ये सारी चीज़ें हुई। इस तरह अँग्रेज़ी पढ़ा-लिखा आधुनिक समाज क़ायम हुआ और एक नई विधा चली। इससे किसी भाषा की नाक नीची नहीं होती।

    भारतीय भाषाओं में लगभग उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में गद्य में लिखी जाने वाली लंबी कथाओं की शुरुआत हुई। कुछ नाम सुविधा के लिए लिए जा सकते हैं; बंगला के बंकिमचंद्र, मराठी के हरिनारायण आप्टे, गुजराती के गोवर्धन राम त्रिपाठी, उर्दू के सरशार। इस तुलना में आप हिंदी में लाला श्रीनिवासदास (परीक्षा गुरु के लेखक) और देवकीनंदन खत्री, (जिन्होंने ‘चंद्रकांता संतति' लिखी थी) को जोड़ सकते हैं। किशोरी लाल गोस्वामी जिन्होंने क़रीब हजार उपन्यास लिखे। उनके बारें में शुक्ल जी ने लिखा है कि उपन्यास क्या लिखा उपन्यास का अटाला खड़ा कर दिया है। यह अटाला अट्टालिका नहीं है।

    क्या ये सब उसी अर्थ में उपन्यास हैं जिस अर्थ में उपन्यास संज्ञा का यूरोप चयन करता है। यहाँ तक कि वह रिचर्डसन, फिल्डिंग, टामस और गोम्स मेला को ख़ारिज करता है। हम लोग अपनी उदारता में उन्नीसवीं शताब्दी की समस्त कृतियों को 'उपन्यास' कहते चले जा रहे हैं। ये कहके हम लोग अपने इतिहास का महिमामंडन किए जा रहे हैं। यद्यपि हम जानते हैं कि इससे बहुत गौरव नहीं बढ़ने वाला फिर भी यूरोप से आप ऐतिहासिक दृष्टि से पीछे हैं। यूरोप में उन्नीसवीं शताब्दी में लिखे उपन्यासों से भारत का कोई उपन्यास मुक़ाबला नहीं कर सकता, क्योंकि उन्नासवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में भले ही विक्टोरियन काल में उपन्यास का थोड़ा ह्रास हुआ हो, लेकिन फिर भी भारतीय उपन्यास उस गरिमा को नहीं छूता। इसका कारण है कि हमारा मध्यवर्ग उतना विकसित नहीं था। मध्यवर्ग उदित भी हो गया हो तो उसकी संस्कृति नहीं बन सकी थी। हमारे समाज में आज भी बीसवीं सदी में भी, अभिजात संस्कृति और पुराने कुलीन तंत्र की संस्कृति इतनी जबर्दस्त ढंग से जमी है कि 1947-48 में भी गाँव के लोगों को कहते सुना है कि (यदि कोई कलकत्ता बंबई में जाकर बहुत रुपया कमाकर आए तो लोग कहते हैं) 'नए धनी हैं, ये खानदानी आदमी थोड़े हैं।’

    ये ख़ानदानी होना और बात है। पैसा होना और बात है। यह बात 1989-90 में भी की जा रही है। कुछ लोग ऐसे हैं जिन्होंने पैसा बहुत कमा लिया है पर उनके पास अपनी संस्कृति नहीं है। संस्कृति-सभ्यता वाली चीज़ तो जो ख़ानदानी लोग हैं, वहाँ पाई जाती है। अब आप उन्नीसवीं सदी का अंदाजा लगा सकते हैं। जो सभ्यता और संस्कृति नाम की चीज़ है, जिसे 'अख़लाक़' कहा जाता है पैसे से नहीं पाया जा सकता। अख़लाक़ तो ख़ानदानी चीज़ है। यह एरिस्टोक्रेटिक संस्कृति उन्नीसवीं सदी में कितनी मज़बूत रही होगी, इसका अंदाज़ा लगाया जा सकता है। ऐसी अभिजात संस्कृति के बीच अँग्रेज़ी पढ़ लिखकर सरकारी नौकरी पा जाने वाले इस नए उभरते वर्ग की सभ्यता-संस्कृति क्या रही होगी? उस पूरे समाज में उसका स्थान क्या रहा होगा? फिर वो नया साहित्य रूप कितना प्रभावशाली रहा होगा? प्राचीन साहित्य रूपों का मुक़ाबला कर सकेगा? प्राचीन महाकाव्यों या नाटकों का कुछ कर सकेगा कि नहीं? इसका अंदाज़ा आप लगा सकते हैं। इसलिए मध्यवर्ग के साथ अगर यहाँ उपन्यास को जोड़ते हैं तो उसके साथ लगी विचारधाराओं को भी जोड़ना होगा।

    उन्नीसवीं सदी में यहाँ किस हद तक उस व्यक्तिवाद का उदय हुआ था? किस हद तक उस अनुभववाद का उदय हुआ था? किस हद तक हमारे यहाँ उस विवेकवाद बुद्धिवाद का उदय हुआ होगा जिसके द्वारा वह यथार्थवाद विकसित होता है जिसे हम ‘फ़ॉर्मल रियलिज़्म' के नाम से जानते हैं? मैं ये खुले हुए प्रश्न आपके सामने छोड़ रहा हूँ, उत्तर देने का प्रयास नहीं कर रहा हूँ। लेकिन प्रश्न जिस रूप में रखे जा रहे हैं उनमें ठीक उत्तर किस हद तक निहित है, ये आप में से अधिकांश लोग स्वयं महसूस कर सकते हैं। मैं पहले भी कह चुका हूँ कि भारत में उपन्यास का उदय इस दृष्टि से तो मध्यवर्ग के उदय से जुड़ा है कि इसके अधिकांश लेखक नई अँग्रेज़ी शिक्षा प्राप्त पढ़े-लिखे लोग हैं, किंतु उपन्यास की अंतर्वस्तु मध्यवर्ग के महाकाव्य के रूप में यहाँ नहीं दिखाई देगी। सरशार का खोजी मध्यवर्गीय बुर्जुआ चरित्र है या उसकी जड़ें पुरानी समाज व्यवस्था, पुराने मूल्यों में हैं? स्वयं ‘परीक्षा गुरु' का नायक भले ही एक नया वाणिज्य करने वाला आदमी हो, लेकिन उसमें आदि से अंत तक यही बताया जाता है कि जो पश्चिमी तौर तरीक़ा है या पश्चिम से आई नई-नई चीज़ों को अपने शौक के लिए ख़रीद कर रखना बड़ी ख़राब बात है। जिस तरह से पूरब बनाम पश्चिम में पश्चिम की आलोचना करने के साथ ही समूची आधुनिकता को चुनौती दी जा रही है और उन पुराने सामंती मूल्यों को प्रतिष्ठा दी जा रही है, उस हिसाब से ‘परीक्षा गुरु' किसी भी रूप में उस मध्यवर्ग को प्रतिष्ठा प्रदान करने वाला उपन्यास नहीं है। इस दृष्टि से छानबीन की जानी चाहिए कि स्वयं बंकिम के उपन्यासों में जिन मूल्यों की प्रतिष्ठा की जा रही है, वो सब कितनी दूर तक नए उभरने वाले मध्यवर्गीय मूल्य हैं? किस हद तक वे पुराने सामंती मूल्य भले हों लेकिन उस आभिजात्य परंपरा से हैं? मसलन उनके उपन्यासों से विशेष प्रकार के शौर्य पराक्रम और प्राणों का बलिदान देने वाली क्षमता दिखाई देती है। किस चीज़ के लिए बलिदान दिया जा रहा है? इसमें कहीं मीडिवल सिवेलरी जैसे गुण दिखाई पड़ते है। कहीं-कहीं नारी की मुक्ति के लिए, नारी के उद्धार के लिए, देश को स्वाधीन करने के लिए भी बेचैनी उपन्यासों में दिखाई देती है। लेकिन देश का स्वरूप राष्ट्र का है या कुछ और उसकी गहराई से छान-बीन करने की ज़रूरत है।

    इस प्रकार उन्नीसवीं शताब्दी में उपन्यास के नाम पर जो कुछ हमारे यहाँ आया उसमें आप को दास्तान, क़िस्सागोई, आख्यानक और कथात्मकता आदि ये सारी चीज़ें मिलेंगी। हो सकता है ये रोमाँस की कोटि में जाएँ, लेकिन ठेठ पारिभाषिक अर्थ में ये नॉवेल बनते हुए दिखाई नहीं पड़ते हैं। इसी अर्थ में मैंने कहा कि भारत में उपन्यास का उदय मध्यवर्ग के महाकाव्य के रूप में नहीं हुआ। क्योंकि भारत में मध्यवर्ग इस लायक नहीं था कि उन्नीसवीं शताब्दी में किसी नई रूप विधा को जन्म दे सके और अपनी संस्कृति का विकास कर सके। भारत में उभरने वाले इस नए मध्यवर्ग की वजह से जो पहला अच्छा और महत्त्वपूर्ण काम हुआ, वह ये कि रोमांटिक मनोवृत्ति का उत्थान हुआ। जिसकी सफल अभिव्यक्ति कविता में हुई है। उन्नीसवीं शती में माइकेल मधुसूदन दत्त और रविंद्रनाथ ठाकुर की कविताओं में पहले नवीनता आई।

    यह ऐतिहासिक तथ्य है कि आधुनिकता का समावेश हमारे यहाँ क़ाएदे से गद्य में होना चाहिए था। निबंधों में आधुनिकता आई है, लेकिन निबंधों के बाद आधुनिक बोध का समावेश सबसे पहले कविता में हुआ। आपके यहाँ श्रीधर पाठक पहले पैदा हुए। श्रीधर पाठक के समकालीन कथाकारों को देखिए वो कहाँ हैं? यह दुर्भाग्य है कि श्रीधर पाठक जिस समय 'एकांतवासी योगी' का सर्जनात्मक अनुवाद कर रहे थे, नए ढंग की कविताएँ लिख रहे थे, ठीक उसके समानांतर किशोरी लाल गोस्वामी कैसा घटिया उपन्यास लिख रहे थे। दूर-दूर तक जिनका आधुनिकता से कोई ताल्लुक़ नहीं था। हिंदी के लिए एक बहुत बड़ी कठिनाई यह थी कि आधुनिक काल में खड़ी बोली गद्य में पहले आई। उन्नीसवीं शताब्दी यह बहस करने में लगी रही कि कविता ब्रज भाषा में ही हो सकती है, खड़ी बोली में हो ही नहीं सकती। ये दुविधा स्वयं भारतेंदु हरिश्चंद्र से पैदा हुई थी। उन्नीसवीं शताब्दी का हिंदी का सबसे महान साहित्यकार जिसने हिंदी साहित्य में आधुनिकता का प्रवर्तन किया भारतेंदु हरिश्चंद्र उनका उपन्यास लिखना इस बात का प्रमाण है। क्यों उन्नीसवीं शताब्दी में उपन्यास संभव नहीं हो सका? महान साहित्यकार जो कुछ लिखते हैं वो महत्त्वपूर्ण होता ही है। महान साहित्यकार जो नहीं लिखते वह उससे कम महत्त्वपूर्ण नहीं हुआ करता। भारतेंदु ने एक उपन्यास शुरू किया था। 'कुछ आप बीती कुछ जग बीती' नाम से और दो पन्ने उसके मिलते हैं। आगे वह पूरा नहीं हो सका। जिस आदमी ने इतने समर्थ नाटक 'अँधेर नगरी' 'वैदिक हिंसा हिंसा भवति' लिखे, वह आदमी उपन्यास लिखना शुरू कर और लिख पाए ये किसी बात का सूचक है। लेकिन मेरी समझ मैं उपन्यास लिखते हुए भी भारतेंदु उपन्यास की सबसे सटीक और सबसे अच्छी परिभाषा दे रहे थे और वह परिभाषा 'कुछ आप बीती कुछ जग बीती।' 'आप बीती और जग बीती' यह कहते हुए वे वैयक्तिकता और सामाजिकता दोनों का निर्वाह करने की बात करते हैं। इसमें वे यथार्थ सब्जेक्टिविटी और ऑब्जेक्टिविटी और कल्पना इन दोनों का समन्वय जिस ख़ूबी से कर ले गए और जिसकी और संकेत किया उपन्यास की इससे सटीक और कोई दूसरी परिभाषा नहीं हो सकती। जो सचमुच नॉवेल पर घटित होती है, केवल रोमाँस पर नहीं घटित होती। इसलिए हिंदी की तो कठिनाई मेरी समझ में आती है; लेकिन ये कठिनाई बंगला की नहीं थी, उर्दू की नहीं थी, मराठी की नहीं थी, गुजराती की नहीं थी। जहाँ गद्य और पद्य की भाषा थी अलग-अलग भाषाएँ नहीं थी, इसलिए उपन्यास हिंदी में इतने विलंब से विकसित हुआ। इसके अन्य कारणों पर भी विचार किया जाना चाहिए।

    मेरा एक ख़याल यह है कि सामंतवाद हिंदी भाषा-भाषी प्रदेश में इतना मजबूत रहा है और आज भी मजबूत है कि वह सांस्कृतिक दृष्टि से हमारे पिछड़ेपन का प्रत्यक्ष प्रमाण है। यह आकस्मिक नहीं है कि रीतिकाल इतना लंबा इतना बड़ा और व्यापक भारत की किसी भाषा में नहीं है। यहाँ ढाई सौ साल तक रीतिकाव्य की रचना होती रही। इस परिस्थिति को ध्यान में रखें तब आप को हिंदी में प्रेमचंद्र का महत्त्व समझ में आएगा। जिस प्रदेश में सामंतवाद इतना मजबूत रहा हो, जिस प्रदेश की भाषा गद्य और पद्य के बीच इतनी खंडित रही हो, जो साहित्यिक दृष्टि से दो जीभों वाला प्रदेश रहा हो, कविता ब्रज में लिखता रहा हो, गद्य खड़ी बोली में लिखता रहा हो उस प्रदेश में प्रेमचंद्र जैसा एक उपन्यासकार अचानक पैदा हो, यह अपने आपमें चमत्कार है। जब वह चमत्कार घटित हुआ तो अद्भुत ढंग से घटित हुआ।

    मैंने स्थापना की कि मध्यवर्ग से उपन्यास का उदय नहीं हुआ भले ही हमारे लेखक मध्यवर्ग के रहे हों। मेरी समझ में उपन्यास के उदय और विकास की दो स्थितियाँ हैं, एक रेखीय विकास के रूप में और दूसरा से अधिक रूपों में विकसित हुआ। मैंने बहुत पहले कहा था कि भारत में उपन्यास का उदय मध्यवर्ग के महागाथा के रूप में नहीं बल्कि किसान जीवन की महागाथा के रूप में हुआ। विकास की कड़ी वहाँ से शुरू होती। विचित्र बात है कि ऐसी भाषा से शुरू होती है जो भारतीय भाषाओं में छोटी थी। दबी हुई थी। उन्नीसवीं शताब्दी में अस्मिता के लिए संघर्ष कर रही थी। मेरी दृष्टि से सही अर्थों में पहला भारतीय उपन्यास उड़िया भाषा में लिखा गया। 1897 में उसका प्रकाशन हुआ। लेखक फ़कीर मोहन सेनापति थे। उसका नाम है 'छह माण आठ गुंठ'। छोटा सा उपन्यास है। फ़कीर मोहन सेनापति अँग्रेज़ी पढ़े-लिखे आदमी थे। सरकारी नौकरी करते थे। उनका जीवन विचित्र था। वह अलग कहानी है। बंगला ने उड़िया और असमिया इन दो भाषाओं को इतना दबा रखा था कि वो मानते ही नहीं थे कि उड़िया कोई स्वतंत्र साहित्यिक भाषा हो सकती है। उड़िया में उपन्यास का उदय उस भाषा में अस्मिता के संघर्ष से और उड़िया जाति की अपनी जातीयता के उदय से जुड़ा हुआ है। उसके साथ ही फ़कीर मोहन सेनापति ने उपन्यास को वह अंतर्वस्तु दी जो भारतीय उपन्यास का मूलाधार होने जा रहा था। वह है एक ग़रीब किसान के द्वारा ज़मीन के लिए किए जाने वाले संघर्ष और उस संघर्ष के साथ ही उपनिवेशवादी तंत्र से भारत की स्वाधीनता। ये दोनों चीज़ें 'छह माण आठ गुंठ' नाम के उपन्यास में मिलेगा। फ़ॉर्म और भाषा दोनों दृष्टियों से, मैं नहीं समझता कि, उस समय का कोई और उपन्यास उसका मुक़ाबला नहीं कर सकता। इसे विस्तार से कहने की ज़रूरत नहीं है कि उपन्यास की यह धारा भारतीय उपन्यास को वह रूप देती है जो यूरोपीय नॉवेल से उसे अलग करती है। भारतीय ही नहीं, बल्कि तीसरी दुनिया के जितने पिछड़े हुए उपनिवेशवाद से ग्रस्त उसके शिकार उपनिवेश थे, चाहे वे लैटिन अमेरिकी देश हों, चाहे अफ्रीकी हों, चाहे एशिया के हों और उसके अंतर्गत स्वयं भारत के उस औपनिवेशिक समाज में उपन्यास राष्ट्रीय मुक्ति के आंदोलन के प्रवक्ता के रूप में विकसित हुआ। उस राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन का संबंध किसानों के संघर्ष से किसानों की भूमिका से है। उपन्यास ने सही अर्थों में अपनी अस्मिता प्राप्त की, इसलिए भारत में जितने महत्त्वपूर्ण उपन्यास लिखे गए हैं, कहीं कहीं उनका मूलाधार और अंतर्वस्तु वह किसान चेतना है जो एक ओर प्रेमचंद्र के प्रेमाश्रम, रंगभूमि, कर्मभूमि और गोदान में है, तो दूसरी ओर वह चेतना विभूतिभूषण बंदोपाध्याय के, मानिक बंदोपाध्याय, ताराशंकर बंदोपाध्याय के अधिकांश उपन्यासों में है। वही आगे चलकर हिंदी में रेणु में, गुजराती में पन्नालाल पटेल में, मराठी में वेंकटेश नागुलकर और उनके समवर्तियों में, मलयालम में तकषी शिवशंकर पिल्लै के उपन्यासों की मुख्य धारा रही है। बल्कि मैं इसे ही भारतीय उपन्यास का मूल स्वरूप मानता हूँ। उसकी अपनी पहचान मानता हूँ।

    किंतु आज मैं एक दूसरी और धारा की ओर इशारा करना चाहता हूँ जिसकी शुरुआत उन्नीसवीं सदी मैं ही हो चुकी थी। इसी समाज के अंतर्गत नए नारी आदर्श और नारी की स्वाधीनता से उपन्यास गहराई से जुड़ा हुआ था। 1897 में यदि उड़िया का 'छह माण आठ गुंठ' लिखा गया तो 1899 मैं रुस्वा का 'उमराव जान अदा' नामक उपन्यास छपा और मेरी समझ में उमराव जान अदा अपने रूप विधान में अपनी यथार्थवाद, चेतना में भी दूसरे तरह के भारतीय उपन्यास का सूत्रपात तो करता ही है। स्वयं अपनी अंतर्वस्तु में नारी की वेदना, पीड़ा और करुणा के साथ उपन्यास का गहरा संबंध है। मैं फिर कहूँ कि मध्यवर्ग से इस उपन्यास का कोई लेना देना नहीं है। ये दूसरी बात है कि नारी या तो समाज के हाशिए पर पड़ी हुई थी या आगे चलकर ये स्त्रियाँ स्वयं किसान जीवन में संघर्ष करने वाली रहीं। संयोग से हिंदी उपन्यास में नारी लगभग हाशिए पर (मार्जिनलाइल्ड) कर दी गई थी। उस हाशिए पर पड़ी हुई नारी को, उसकी स्थिति पहचान कर इस धारा ने उपन्यास के केंद्र में लाने का प्रयास किया। यह उपन्यास के विकास की दूसरी धारा है। इन्हें आप ठेठ मध्यवर्ग मानें। इस धारा का विकास आगे चलकर हुआ और उसके सर्वोत्तम और लोकप्रिय कथाकार शरतचंद्र हैं। आगे चलकर जैनेंद्र और अज्ञेय के माध्यम से हिंदी में इसका विकास हुआ। 'शेखर एक जीवनी' का नायक भले ही शेखर हो, लेकिन उपन्यास की स्त्रियाँ जितनी सहानुभूति प्राप्त करती हैं और उपन्यास को मार्मिक और वास्तविक बनाती हैं, स्वय अहंकारी और विद्रोही शेखर वह सहानुभूति नहीं प्राप्त करता।

    हम भारत के अन्य भूभागों में, अन्य भाषाओं में भी इन दोनों धाराओं के बीच संबंध देखें। भारतीय उपन्यास को परिभाषित करने के मूल में एक तो वह किसान जो उपेक्षित पीड़ित है, जिसे साहित्य में स्थान ही नहीं मिला था, वह पहली बार नायक बना। हीरो बना। दूसरी ओर वह नारी जो हाशिए पर थी, उपन्यास विधा में समस्त संवेदनाओं का केंद्र बनी। इन दोनों के साथ भारतीय उपन्यास ने वह रूप प्राप्त किया। इन उपन्यासों में हम भारतीय नारी को पहचान सकते हैं। भारतीय मनुष्य को पहचान सकते हैं। भारतीय मनुष्य और भारतीय नारी के जो रिश्ते हैं, ये कुल मिलाकर उस उपनिवेशी आधिपत्य के ढाँचे में भारतीय समाज की समस्त अच्छाइयों और भारतीय समाज में जो उत्पीड़न और दमन है, उसकी वेदना को किस रूप में समाहित करते है ये संबंध शायद भारतीय उपन्यास को परिभाषित करने में सहायक हों।

    प्रेमचंद्र का स्थान शायद इसलिए महत्त्वपूर्ण है। जैसा मैंने कहा प्रेमचंद्र पहले महत्त्वपूर्ण उपन्यासकार थे, जिन्होंने इन दोनों को एक जगह किया। प्रेमचंद्र का पहला महत्त्वपूर्ण उपन्यास 'सेवासदन' है, जिसने ध्यान आकृष्ट किया। सेवासदन के मूल में नारी है सुमन। सेवासदन के बाद प्रेमाश्रम, वही किसान मूल में है। गोदान वह उपन्यास है जहाँ गंगा और यमुना जैसी ये दोनों धाराएँ-नारी वाली धारा और किसान वाली धारा, यानी 'सेवासदन' की और 'प्रेमाश्रम' की दोनों धाराएँ-समंवित और एकीकृत रूप में एकत्र होती हैं। यद्यपि उसकी शुरुआत 'रंगभूमि' में ही होती है। 'गोदान' में जाकर दोनों एक ही जगह, किसान के घर में होरी और धनिया के रूप में, गोबर और झुनिया के रूप में दिखाई पड़ते हैं। मध्यवर्ग का चरित्र इतना कमज़ोर होता है, वह मेहता और मालती के रूप में है, नए मूल्यों की एक पीत छाया मात्र है, जो निरे आदर्शवाद से आतंकित हैं, जो यथार्थ की ज़मीन को धारण ही नहीं कर पाता है। इन युग्मों के साथ अकेले प्रेमचंद्र के हाथों दोनों धाराएँ एकजुट होकर उस बिंदु पर पहुँचती हैं, जहाँ भारतीय उपन्यास पैदा होने के साथ ही सहसा वयस्क होता है। यह वयस्कता इसलिए उल्लेखनीय है क्योंकि इसी तरह का प्रयास ऐसे ही पिछड़े हुए देश में एक दूसरे साहित्यकार कथाकार के हाथों हुआ था, जिन्हें हम लेव टालस्टॉय के रूप में जानते हैं। जिसने 'अन्ना करेनिना' और 'युद्ध और शांति’ इन दोनों उपन्यासों के द्वारा उस किसान चेतना और साथ ही उस दुविधाग्रस्त नारी, इन दोनों को अपने उपन्यासों में चरितार्थ किया। अर्थात यह विडंबना ही है कि भले ही पश्चिमी यूरोप ने उपन्यासों को पैदा किया हो, लेकिन इस उपन्यास का सर्वोत्तम विकास उन जगहों में हुआ जो पश्चिमी यूरोप की सभ्यता से बाहर थे। रूस यूरोप में होते हुए भी हाशिए पर था और भारत तो स्वयं उसके बाहर है ही। इसीलिए बीसवीं शताब्दी का उत्तरार्ध ऐसे उपन्यासों का आभास देता है। गैब्रियल गार्सिया मार्केज ऐसे ही लैटिन अमेरिकी उपन्यासकार हैं जिनको नोबेल पुरस्कार मिला है। इसलिए ज़रूरी नहीं कि कोई विधा जहाँ जन्म ले वहीं पूर्ण विकास प्राप्त करे ‘मणि मानिक मुकता छबि ऐसी, उपजहिं अनत अनत छवि लहहीं।' उपन्यास पैदा ज़रूर पश्चिमी यूरोप में हुआ, लेकिन वह आज इतने वर्षों के बाद बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में उन जगहों पर वह छवि प्राप्त कर रहा है, जो उस दायरे से बाहर थे।

    (15 अप्रैल 1990 को प्रेमचंद्र साहित्य संस्थान के एक आयोजन में दिया गया व्याख्यान, संस्थान की स्मारिका 'कर्मभूमि' में 1994 में 'प्रेमचंद्र और भारतीय उपन्यास' शीर्षक से प्रकाशित)

    स्रोत :
    • रचनाकार : नामवर सिंह

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