'अँग्रेज़ी ढंग का नॉवेल' और भारतीय उपन्यास

angrezi Dhang ka nowel aur bharatiy upanyas

नामवर सिंह

नामवर सिंह

'अँग्रेज़ी ढंग का नॉवेल' और भारतीय उपन्यास

नामवर सिंह

और अधिकनामवर सिंह

    कैसी विडंबना है कि उन्नीसवीं शताब्दी में जब अँग्रेज़ी ‘ओरिएंटलिस्ट' कादंबरी, कथा सरित्सागर, पंचतंत्र जैसी भारतीय कथाओं के पीछे पागल थे, स्वयं भारतीय लेखक 'अँग्रेज़ी ढंग का नॉवेल' लिखने के लिए व्याकुल थे।' ये हैं उपनिवेशवाद के दो चेहरे।

    निस्संदेह कुछ लोग अपनी भाषा में 'अँग्रेज़ी ढंग का नॉवेल' लिखने में कुछ-कुछ कामयाब भी हो गए। उदाहरण के लिए लाला श्रीनिवास दास का ‘परीक्षा-गुरु' (1882), जिसे आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने 'हिंदी में अँग्रेज़ी ढंग का पहला उपन्यास' माना है। लेकिन पूरा-पूरा 'अँग्रेज़ी ढंग का नॉवेल' सबसे बन पड़ा। ख़ासतौर से उनसे जो सर्जनशील रचनाकार थे, जैसे हिंदी से ही उदाहरण लें तो ठाकुर जगमोहन सिंह, जिनकी कथाकृति 'श्यामास्वप्न' किसी भी तरह 'अँग्रेज़ी ढंग का नॉवेल' नहीं है। ऐसे सर्जनशील रचनाकारों के सिरमौर हैं बंकिमचंद्र, जिन्हें प्रथम भारतीय उपन्यासकार होने का गौरव प्राप्त है।

    छब्बीस वर्ष की कच्ची उम्र में बंकिमचंद्र ने 'दुर्गेशनंदिनी' (1865) नाम का अपना पहला बंगला उपन्यास प्रकाशित किया और एक साल बाद 'कपालकुंडला' (1866) फिर तीन साल के अंतराल के बाद 'मृणालिनी' (1869)। इनमें से एक भी ‘अँग्रेज़ी ढंग का नॉवेल' नहीं है जगमोहन सिंह के 'श्यामास्वप्न' के समान ही ये तीनों उपन्यास किसी ‘अँग्रेज़ी ढंग के नॉवेल' की अपेक्षा संस्कृत की कादंबरी की याद दिलाते हैं। यह भी एक विडंबना ही है। एक लेखक कथा की पुरानी परंपरा से मुक्त होकर एकदम आधुनिक ढंग की नई कथाकृति रचना चाहता है और परंपरा है कि उसके सर्जनात्मक अवचेतन का संचालन कर रही है। कंबल बाबाजी को कैसे छोड़े! इस तरह बंकिमचंद्र की रचना-प्रक्रिया से गुज़र कर जो चीज़ निकली उसके लिए सही नाम एक ही है, रोमांस!

    उपन्यास का अर्थ जिनके लिए अँग्रेज़ी ढंग का नॉवेल' है फिर उसकी परिभाषा जो भी होवे इसे बंकिमचंद्र की विफलता मानेंगे लेकिन मेरी दृष्टि में लेखक की इस विफलता में ही भारतीय उपन्यास की सार्थकता निहित है। भारतीय उपन्यास के मूलाधार उन्नीसवीं शताब्दी के ये 'रोमांस' ही हैं कि तथाकथित अँग्रेज़ी ढंग के उपन्यास! उन्नीसवीं शताब्दी के भारतीय मानस का सही प्रतिनिधित्व 'कपालकुंडला' करती है, ‘परीक्षागुरु' नहीं। ‘परीक्षागुरु' का महत्त्व अधिक से अधिक ऐतिहासिक है और वह भी सिर्फ़ हिंदी के लिए, जबकि 'कपालकुंडला' अपने जमाने की अत्यधिक लोकप्रिय कृति होने के साथ ही स्थाई कीर्ति की हकदार है। तथाकथित 'अँग्रेज़ी ढंग का नॉवेल' का तिरस्कार करके ही बंकिमचंद्र के रोमांसधर्मी उपन्यासों ने भारतीय राष्ट्र और भारतीय उपन्यास की अपनी पहचान बनाने में पहल की है।

    अँग्रेज़ी ढंग के नॉवेल का तिरस्कार वस्तुतः उपनिवेशवाद का तिरस्कार है। भारत से पहले ‘अँग्रेज़ी ढंग के नॉवेल' को उत्तरी अमेरिका अस्वीकार कर चुका था। हाथोर्म और मेल्विन ने 'रोमांस' की रचना की थी, किसी ‘अँग्रेज़ी ढंग के नॉवेल' का अनुकरण नहीं किया। ‘स्कार्लेट लेटर' और 'मोबी डिक' ऐसे रोमांस हैं जिन्हें 'राष्ट्रीय रूपक' के रूप में आज भी ग्रहण किया जाता है। अँग्रेज़ी साम्राज्यवाद से अपने आपको मुक्त कर अमेरिकी प्रतिभा ने आख्यान के रूपबंध में भी स्वतंत्रता प्राप्त की। इस प्रकार उत्तरी अमेरिका में राष्ट्र और उपन्यास का जन्म साथ-साथ हुआ। तब तक के 'अँग्रेज़ी नॉवेल' के रूपबंध में एक स्वतंत्र राष्ट्र की उद्दाम आकांक्षाओं का अँटना संभव था। नए राष्ट्र ने एक नितांत उन्मुक्त रूपबंध का सृजन किया।

    भारत के ऐसे भाग्य थे। 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का अंत राष्ट्रीय पराजय में हुआ।

    किंतु राष्ट्र की आत्मा ने पराजय स्वीकार की। कल्पना में स्वतंत्रता संग्राम गोया अभी भी जारी था। कहने वाले लाख कहें कि ब्रिटिश साम्राज्य में सूर्य नहीं डूबता और इस न्याय से 'अँग्रेज़ी ढंग के नॉवेल' को ही आख्यान की सार्वभौम विधा का आदर्श मानते रहें, लेकिन भारत के स्वतंत्रचेता लेखक ने इसे स्वीकार नहीं किया। उसके लिए तो सितारों से आगे जहाँ और भी है... तेरे सामने आसमाँ और भी हैं।

    इस जहान और आसमान का ही दूसरा नाम है भारत। स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में भारत। आँखों के सामने रोज़-रोज़ दिखाई पड़ने वाला भारत नहीं है। असली भारत। मनोवांछित भारत।

    कल्पना का भारत। इस भारत का निर्माण ही मुख्य मुद्दा था। निश्चिय ही यह एक प्रकार की कल्पसृष्टि है। कल्पसृष्टि कल्पसृजन से ही संभव है। उपन्यास सही कल्पसृजन है। गल्प-से-गल्प की सृष्टि। एक गल्प उपन्यास, दूसरा गल्प राष्ट्र। यह दूसरा ‘गल्प' गले से जल्दी नहीं उतरता। पर विचार करें तो राष्ट्र भी एक गल्प ही है। कुल मिलाकर राष्ट्र एक प्रतिमा ही तो है। इसके निर्माण में अतीत की कितनी पुरागाथाएँ, मिथक, किवंदतियाँ, लोककथाएँ, स्मृतियाँ, इतिहास-पुराण आदि का योग होता है? कहना कठिन है कि इसमें कितना वास्तविक है और कितना काल्पनिक। बेनेडिक्ट एंडरसन ने शायद इसीलिए राष्ट्र को ‘कल्पित जनसमुदाय' (इमैजिंड कम्युनिटी) कहा है।

    आधुनिक युग में इस राष्ट्र नाम के गल्प के निर्माण का सबसे सशक्त माध्यम उपन्यास है : छापकर पढ़ने के लिए तैयार की गई गद्य-कथा। छापेखाने के साथ ही उपन्यास अस्तित्व में आया। लगभग समाचारपत्रों के साथ और यह आकस्मिक नहीं कि अनेक उपन्यास पहले पहल पत्रिकाओं में ही धारावाहिक रूप से प्रकाशित हुए। इन धारावाहिक उपन्यासों के द्वारा धीरे-धीरे पढ़ने वालों का एक सुनिश्चित समुदाय बना। इसे कुछ विद्वान 'प्रिंट कम्युनिटी' कहना पसंद करते हैं। यह समुदाय वाचिक परंपरा द्वारा निर्मित समुदायों से भिन्न है, अपनी चेतना में भी और अपने ढाँचे में भी। इस प्रकार आधुनिक राष्ट्र को उपन्यासों की 'निर्मिति' भी कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति होगी।

    इतिहास भी उपन्यास के समान ही एक प्रकार की कल्पसृष्टि है। आख्यान दोनों का आधार है और आख्यान-रचना मूलतः कल्पना का ही व्यापार है। आकस्मिक नहीं कि इतिहास-लेखन और उपन्यास-रचना का आरंभ लगभग साथ-साथ हुआ। यहाँ तक कि अधिकांश आरंभिक उपन्यास 'ऐतिहासिक उपन्यास' हैं। बंकिमचंद्र को इतिहास और उपन्यास की तरह सजातीयता का पूरा एहसास था। अपने प्रसिद्ध ऐतिहासिक उपन्यास ‘राजसिंह' (1882) के चौथे संस्करण के ‘विज्ञापन’ में उन्होंने लिखा है : “इतिहास का उद्देश्य कभी-कभी उपन्यास द्वारा सिद्ध हो जा सकता है। उपन्यास-लेखक सर्वत्र सत्य (तथ्य) की श्रृंखला में नहीं बँधे होते। इच्छानुसार वे अपनी अभीष्ट सिद्धि के लिए कल्पना का आश्रय ले लेते हैं। पर सर्वत्र उपन्यास इतिहास के आसन को ग्रहण नहीं कर सकता।

    फिर भी उन्नीसवीं शताब्दी के भारत में राष्ट्र-निर्माण की दिशा ने जो भूमिका निभाई, उससे इतिहास की तुलना संभव नहीं है। इसका मुख्य कारण उपन्यास के रूपबंध की सर्जनात्मकता है। जैसा कि रूसी चिंतक बाख्तीन ने दिखलाया है। उपन्यास के ढाँचे में समाज के विभिन्न स्तरों के चरित्र आपस में मिलते हैं और अपनी-अपनी बोली-बानी में एक-दूसरे से बात करते हैं। इस प्रक्रिया में उपन्यास का संसार सहज ही एक ऐसे राष्ट्र के रूप में सामने आता है जिसमें सभी सदस्यों की भागीदारी एक समान नागरिक की सी प्रतीत होती है।

    इसके अतिरिक्त, किसी राष्ट्र की अपनी पहचान उसकी भाषा है; और कहना होगा कि गद्य के सबसे लोकप्रिय रूपबंध के रूप में उपन्यास ने ही भारत की आधुनिक भाषाओं को मानक रूप दिया। यह मानकीकरण छपे हुए गद्य के बिना संभव ही था। संतों-भक्तों ने आधुनिक भारत की लोक-भाषाओं को साहित्यिक रूप में प्रतिष्ठित किया तो उपन्यास ने उन्हें राष्ट्रीय रूप प्रदान किया। इस दृष्टि से हिंदी भाषी क्षेत्र में उपन्यास की भूमिका विशेष रूप से उल्लेखनीय है। आधुनिक खड़ी बोली हिंदी का उदय एक ऐतिहासिक घटना है।

    उपन्यास ने यदि राष्ट्र का रूप निर्मित किया तो राष्ट्रीय कल्पना ने उपन्यास के रूप-निर्माण में भी नियामक भूमिका अदा की। इस प्रकार राष्ट्र-निर्माण और उपन्यास के बीच द्वंद्वात्मक संबंध है। इस द्वंद्व के कारण उन्नीसवीं शताब्दी के अधिकांश भारतीय उपन्यास 'राजनीतिक' हैं। कथानक चाहे ऐतिहासिक हो, चाहे सामाजिक अथवा नितांत निजी प्रेम की कहानी, अंततः उनसे कोई कोई राजनीतिक अर्थ ध्वनित होता है। संभवतः इसी बात को लक्षित करते हुए अमेरिका के प्रसिद्ध मार्क्सवादी समालोचक फ्रेडरिक जेम्सन ने भारत-सहित तीसरी दुनिया के सभी देशों के उपन्यासों को 'नेशनल एलिगरी' (राष्ट्रीय रूपक) कहा है।

    बंकिमचंद्र के उपन्यासों के माध्यम से 'राष्ट्रीय रूपक' की परिकल्पना को आसानी से समझा जा सकता है। ‘राजसिंह' (1882) के संदर्भ में तो बंकिमचंद्र ने स्पष्ट शब्दों में स्वीकार किया है कि “हिंदुओं का बाहुबल ही मेरा प्रतिपाद्य है। इसका कारण यह है कि “अँग्रेज़ साम्राज्य में हिंदुओं का बाहुबल लुप्त हो गया है।” इस प्रकार 'मृणालिनी' (1869) में भी उनका स्वदेश-प्रेम स्पष्ट रूप में व्यक्त हुआ है। सिर्फ़ सत्रह घुड़सवारों को लेकर बख्तियार खिलजी ने बंगाल को जीता था, इस कहानी पर बंकिमचंद्र को बिल्कुल विश्वास था। वे बंगाली जाति के शौर्य-वीर्य के प्रति इतने आस्थावान थे कि 'मृणालिनी' के द्वारा वे इस जातीय कलंक को दूर करने में प्रवृत्त हो गए। कहने की आवश्यकता नहीं कि बख्तियार खिलजी की बंगाल-विजय भी एक रूपक ही है। इससे अनायास ही अँग्रेज़ों की बंगाल-विजय व्यंजित है।

    बंकिमचंद्र इस राष्ट्रीय कलंक से इतने उद्वेलित थे कि अपने पहले उपन्यास 'दुर्गेशनंदिनी' में भी इसका ज़िक्र करना भूले। तीसरे ही अध्याय में वे लिखते हैं : “यह परिच्छेद इतिहास-संबंधी है। पाठकवर्ग बहुत अधीर हों तो इसे छोड़ सकते हैं; किंतु ग्रंथकार की यह सलाह है कि अधैर्य अच्छा नहीं। पहले पहल बंगदेश में बख्तियार खिलजी के मुहम्मदीय जयध्वजा फहराने पर मुसलमान बेरोकटोक कई शताब्दी तक उसके राज्य का शासन करते रहे।

    वैसे, 'दुर्गेशनंदिनी' मुख्यत्ता 'रोमांस' है जिसके केंद्र में हिंदू राजकुमार जगतसिंह और मुस्लिम शाहजादी आयशा की प्रेम कहानी है। यह प्रेम कहानी दुःखांत है। प्रेम की परिणति विवाह में नहीं होती। फिर भी आयशा का आत्म बलिदान मन पर अमिट छाप छोड़ जाता है। आयशा के आदर्श-प्रेम के सामने राजकुमार का सारा शौर्य पराक्रम फीका पड़ जाता है। रोमांस में जो एक जीवट या साहस होता है, वह इस प्रेमकथा का अतिरिक्त आकर्षण है। इसमें अद्भुत का भी पुट है और रहस्य की भी सृष्टि है। इन सबको आकर्षक रंग देता है बंगाल के प्राकृतिक परिवेश या आँखों देखा वास्तव-सा चित्रण। क्या यह सब रूपक नहीं है?

    राष्ट्रीय रूपक का इससे अच्छा उदाहरण है 'कपालकुंडला', शुद्ध रोमांस। दुःखांत यह भी है। 'दुर्गेशनंदिनी' की तरह यहाँ भी नायक की एक पूर्वपत्नी है, अधिक ईर्षालु और पतित भी। पृष्ठभूमि है गंगा सागर का वन्य, असाधारण और रोमांचक परिवेश। अंतिम दृश्य हहराते समुद्र में कपालकुंडला की छलांग और उसे बचाने के प्रयास में नायक की भी जल-समाधि। लगता है गोया कपालकुंडला स्वयं ही वह हहराता हुआ सागर है। एक हहराते हुए समुद्र-सी युवती। पुरुष की काम्या! उस ज्वार में निमज्जित होता पुरुष! क्या यह सबकुछ रूपक नहीं प्रतीत होता?

    यदि रोमांचक ‘मोबी डिक' अमेरिका का राष्ट्रीय रूपक हो सकता है तो 'कपालकुंडला' बंगभूमि का रूपक क्यों नहीं? कुछ समीक्षक तो ऐसे 'प्रेम केंद्रित रोमांस' को 'राजनीति का कामशास्त्र' (इरोटिक्स ऑफ़ पॉलिटिक्स) कहना चाहते हैं।

    जो हो, इसमें कोई शक नहीं कि बंकिम के प्रेम केंद्रित रोमांस कोरे प्रेम से कुछ अधिक अर्थ व्यंजित करते हैं। प्रेमियों का आत्मबलिदान कहीं राष्ट्रीय आदर्श के लिए आत्मबलिदान का संदेश देता है तो कहीं प्रेमियों का मिलन-प्रसंग अधिक व्यापक एकता की ओर संकेत करता है।

    तात्पर्य यह है कि उन्नीसवीं शताब्दी के भारतीय 'रोमांस' लोकरंजन तक सीमित थे, बल्कि उनमें एक राष्ट्रीय भावना भी अंतर्निहित थी, जिससे समसामयिक पाठक कहीं-न-कहीं परिचित थे। इस प्रकार वे ऊपर-ऊपर से यथार्थ से दूर दिखते हुए भी अपने निहितार्थ में कहीं अधिक वास्तविक थे। सत्य के निकट, सत्य के निदर्शक काल्पनिक होते हुए भी ये रोमांस यथार्थ में हस्तक्षेप करने में समर्थ थे। बहुत कुछ अनैतिक होते हुए भी इतिहास के निर्माण में प्रयत्नशील थे; और विषयवस्तु में स्पष्टतः राष्ट्रीय होते हुए अंतर्वस्तु में राष्ट्रीय रूपक का आभास देते थे।

    इनके विपरीत तथाकथित 'अँग्रेज़ी ढंग के नॉवेल' चाहे जितने यथार्थवादी दिखाई पड़ें अंततः अनुकरणधर्मी थे : रूपबंध में एक पराई विधा के अनुकरणकर्ता और अंतर्वस्तु में प्रदत्त यथार्थ के पीछे चलने वाले; क्योंकि उनके पास यथार्थ में हस्तक्षेप करने वाली 'कल्पना' ही नहीं थी। अधिक-से-अधिक वे पुरानी नीति कथाओं के समान अंत में नीरस उपदेश देकर ही संतुष्ट को सकते थे; जैसे कि ‘परीक्षागुरु' औसत अँग्रेज़ी उपन्यासों की तरह उस जमाने के ज्यादातर भारतीय सामाजिक उपन्यास बहुत कुछ ‘घरेलू उपन्यास' बन कर रह गए।

    विरोधाभास प्रतीत होते हुए भी यह तथ्य है कि भारतीय उपन्यास में सच्चे यथार्थवाद का विकास इन ‘घरेलू उपन्यासों' के द्वारा नहीं, बल्कि बंकिमचंद्र जैसे 'रोमांसकारों' के उपन्यासों से ही हुआ। वैसे, बंकिम के रोमांसधर्मी उपन्यासों में भी यथार्थ के चित्र कम नहीं हैं। उदाहरण के लिए 'आनंदमठ' में ही बंगाल के गाँवों की दुर्दशा के चित्र। निश्चय ही शताब्दी का अंत होते-होते क्रमशः इस यथार्थवाद में व्यापकता भी आई और गहराई भी। फ़कीर मोहन सेनापति का उड़िया उपन्यास ‘छः माण आठ गुंठ' विकास की इस ऐतिहासिक प्रक्रिया की अंतिम परिणति है और सर्वोत्तम उपलब्धि भी। यह उपन्यास एक प्रकार से प्रेमचंद्र के उपन्यासों का पूर्वाभास है। उपनिवेशवादी दौर का ही दलित किसान, ज़मींदार द्वारा किसान के खेत का हड़प लिया जाना, गाय का छिन जाना, मुकदमेबाजी, कोर्ट-कचहरी, वकील मजिस्ट्रेट, अँग्रेज़ी न्याय, जेल, क्षुब्ध किसान का हिंसात्मक प्रतिशोध आदि। फिर भी यह किसी अँग्रेज़ी ढंग का नॉवेल नहीं है। बंकिमचंद्र की तरह ही बीच-बीच में संस्कृत के श्लोक, श्लोकों की मनोरंजक व्याख्याएँ, ठेठ भारतीय व्यंग्य, फिर भी आद्यन्त व्याप्त करुणा! उन्नीसवीं शताब्दी के समूचे भारतीय उपन्यास-साहित्य में 'छः माण आठ गुण' अनूठी कृति है, अनुपम और अद्वितीय। उपन्यास के अंत में 'छः माण आठ गुंठ' का विक्षिप्त प्रलाप करते हुए मगराज का प्राणत्याग अमिट छाप छोड़ जाता है। यथार्थ और फ़ैंटेसी एक साथ। यह उपन्यास भी अंततः एक 'राष्ट्रीय रूपक' है। किसी एक व्यक्ति की व्यथा-कथा यह नहीं है, बल्कि जैसे पूरे समूह की, देश की, आत्मा की चीत्कार है। 'छः माण आठ गुंठ' पूरा भारत है!

    इतिहासाचार्य विश्वनाथ काशीनाथ राजवाड़े ने बहुत पहले अपने कादंबरी (1902) शीर्षक लेख में चेतावनी दी थी कि केवल अँग्रेज़ी उपन्यासोंयह भी ‘सोसायटी नॉवेल्स' का परिचय भारतीय उपन्यासकारों के लिए हानिकारक सिद्ध हुआ है। इसके बदले भारतीय उपन्यासकारों का साक्षात्कार यदि उन्नीसवीं शताब्दी में ही रूस के तोल्सतोय और फ़्रांस के बालजाक जैसे उपन्यासकारों की महान् कृतियों से हो गया होता तो भारतीय उपन्यास का नक्शा कुछ और ही होता।

    कभी-कभी यह ख़याल भी आता है कि यदि सभी भारतीय भाषाओं ने मराठी की तरह 'नॉवेल्स' के लिए 'कादंबरी' संज्ञा स्वीकार कर ली होती तो शायद अपनी जातीय स्मृति अधिक सुरक्षित रहती और अपनी परंपरा का प्रत्यभिज्ञान हमारी कथात्मक सर्जनात्मकता में कुछ और रंग लाता।

    इस धारणा की पुष्टि आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेद्वी के उपन्यास 'बाणभट्ट की आत्मकथा' (1946) से होती है। इस तरह से देखें तो 'बाणभट्ट की आत्मकथा' भारतीय उपन्यास की भी

    आत्मकथा है। रूपबंध में प्राचीन और नवीन का अद्भुत संयोग। 'कादंबरी' कथा की तरह आरंभ में मिस कैथराइन का कथांतर लेकिन कथानक का विकास व्योमकेश शास्त्री के शब्दों में “आजकल की डायरी शैली'’ में। “कथालेखक जिस समय कथा लिखना शुरू करता है उस समय उसे समूची घटना ज्ञात नहीं है। तात्पर्य यह कि 'नरेटर' भूत-वर्तमान-भविष्य सबकुछ का जानकार सर्वज्ञ नहीं है। 'कादंबरी' की तरह ही अपनी कथा की अपूर्णता का उल्लेख करके लेखक ने क्या यह संकेत देना चाहा है कि उसकी दृष्टि में उपन्यास ऐसा रूपबंध है जो कहीं खत्म नहीं होता और एक जगह समाप्त होने के बाद भी कल्पना के लिए खुला रहता है?

    कुल मिलाकर प्राचीनता का आभास देती हुई ‘बाणभट्ट की आत्मकथा' कितनी नई है। नई और ताजा। किसी कालजयी कृति के लक्षण इसके अलावा और क्या होते हैं?

    इसी प्रकार यदि अंतर्वस्तु पर दृष्टिपात करें तो पूरी कथा ‘एलिगरी' (रूपक) है 'ओरिएंटलिस्ट' कैथराइन अपने ‘बाण' को खोजती हुई भारत आती है; शोणनद के किनारे की बीहड़ यात्रा करती है। हाथ लगती है एक पुरानी पोथी और वो तन्मय होकर नैश जागरण करती हुई उसका हिंदी अनुवाद करती है। कैसी विडंबना है कि जिस समय भारतीय उपन्यासकार अँग्रेज़ी नॉवेल की नकल में विकल थे, एक यूरोपीय महिला भारत की एक अति प्राचीन पोथी में अपने लिए जाने क्या पा जाती है कि उल्था करने में प्राणपण से जुट जाती है। यह किसकी ‘आत्मकथा' है? बाण की? भट्टिनी की? निउनिया की? कैथराइन की या स्वयं 'बाणभट्ट की आत्मकथा' के आपाततः संपादक और प्रकाशक व्योमकेश शास्त्री की? यह व्योमकेश शास्त्री वही हैं जिन्हें आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी अपना अभिन्न कहते हैं। कैथराइन की डाँट और व्योमकेश पंडित का अनुचिंतन सुनें तो यह किसी व्यक्ति की कथा नहीं है, बल्कि 'आत्मा' की कथा है। और आत्मा सार्वभौम है, किसी देश या व्यक्ति तक सीमित नहीं। तात्पर्य यह कि 'बाणभट्ट की आत्मकथा', 'ऑटोबायोग्राफ़ी' के अर्थ में किसी व्यक्ति का आत्मचरित नहीं, बल्कि समूह की अंतर्कथा है। ‘एलिगरी' या रूपक और किसे कहते हैं? यहाँ व्यक्ति और समूह में कोई अंतर नहीं; व्यक्ति की कथा ही समूह की कथा बन जाती है। फ्रेडरिक जेम्सन के अनुसार यह 'नेशनल एलिगरी' (राष्ट्रीय रूपक) है और पश्चिमी दुनिया के विकसित पूँजीवादी सभ्यता से भिन्न विकासशील देशों में कथा-सृजन का स्वधर्म!

    इस अर्थ में 'बाणभट्ट की आत्मकथा' आधुनिक भारत का 'राष्ट्रीय रूपक' नहीं तो और क्या है? इस राष्ट्र द्वारा अपनी अस्मिता की खोज और उसका पुनः प्रत्यभिज्ञान! फिर इतनी आत्मसजगता कि फिर से अपने आपको पहचान लेने पर भी मन पूरी तरह आश्वस्त नहीं है।

    संतुष्ट भी नहीं। इस स्वचेतनता का प्रमाण है उपन्यास का एह अंतिम वाक्य : “अंतरात्मा के अतल गह्वर से कोई चिल्ला उठा, “फिर क्या मिलना होगा?

    क्या यही प्रश्न आज के भारतीय उपन्यास के भविष्य को लेकर नहीं किया जा सकता?

    ('प्रेमचंद्र और भारतीय समाज' नामक पुस्तक से)

    स्रोत :
    • रचनाकार : नामवर सिंह

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