हिंदी-उपन्यास का धरातल

hindi upanyas ka dharatal

देवराज उपाध्याय

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हिंदी-उपन्यास का धरातल

देवराज उपाध्याय

और अधिकदेवराज उपाध्याय

    हिंदी-उपन्यास अथवा हिंदी-साहित्य की जिस समस्या का हम इस समय संकेत करना चाहते हैं, यह एक प्रकार से वर्तमान भारतीय संस्कृति की समस्या है। संक्षेप में यह समस्या यह है कि विभिन्न सांस्कृतिक क्षेत्रों में हम अंतर्राष्ट्रीय धरातल को किस प्रकार प्राप्त करें? हमारे देश में अभी ऐसा वातावरण ही नहीं है कि कोई व्यक्ति किसी भी क्षेत्र में बहुत ऊँची कोटि का मौलिक चिंतन कर सके। साहित्य-सृजन के क्षेत्र में स्थिति कुछ अच्छी है, पर यह नहीं कहा जा सकता कि वहाँ भी वातावरण संतोषप्रद है। पहली बात यह है कि साहित्य एवं साहित्यकार को शेष सांस्कृतिक वातावरण से अलग नहीं किया जा सकता। जिस देश में दूसरे क्षेत्रों में उच्चकोटि का सांस्कृतिक कार्य नहीं हो रहा है, वहाँ अनिवार्य रूप में, साहित्य का स्तर भी बहुत ऊँचा नहीं हो पाता। दूसरे क्षेत्रों में समृद्ध विचारों एवं उनकी वाहक व्यंजनाओं की कमी या अभाव होने के कारण साहित्यकार युगाभिव्यक्ति के साधनों से न्यूनाधिक वंचित रह जाता है। हमारे देशी साहित्यों, विशेषतः हिंदी-साहित्य के साथ एक दूसरी परिस्थिति भी रही है। इन साहित्यों का धरातल देश के श्रेष्ठतम विद्वानों के धरातल से प्रायः निम्नतर रहा है।

    आगे हम कथा-साहित्य या उपन्यास की ही विशेष चर्चा करेंगे। अवश्य ही पिछले तीन-चार दशाब्दों में हमारे कथा-साहित्य ने तेजी से उन्नति की है। किंतु हमारी समीक्षा इस उन्नति का ठीक-ठीक विश्लेषण कर पाई है, इसमें संदेह है; साथ ही इस समीक्षा को अभी यह भी ठीक अवगत नहीं है कि हमारे कथा-साहित्य में क्या कमियाँ हैं। इस संबंध में हिंदी-लेखकों तथा समीक्षकों की प्रतिभा प्रायः उपचेतन धरातल पर व्याप्त होती रही है। प्रायः हिंदी-समीक्षक अपने साहित्य के मूल्यांकन में ऐसे मानों का प्रयोग करते रहे हैं जो सार्वभौम नहीं है और जिनका समुन्नत देशों में साग्रह प्रयोग नहीं किया जाता। विशेष लक्षित करने की बात यह है कि हिंदी-समीक्षक की रुचि एवं समीक्षा-बुद्धि का विकास प्रायः वर्तमान हिंदी-साहित्य के विकास का समानांतर रहा है। काव्य-क्षेत्र में 'प्रिय-प्रवास', 'साकेत' और 'कामायनी' क्रमशः हमारी साहित्यिक लब्धि एवं समीक्षात्मक अभिरुचि दोनों का प्रतिमान रहे हैं। कथा-क्षेत्र में ‘ग़बन', 'सेवासदन', 'रंगभूमि', 'गोदान', 'सुनीता' और 'शेखर' उसी प्रकार हमारी उपलब्धि एवं रुचि के धरातल को प्रतिफलित करते रहे हैं। हिंदी का समीक्षक हिंदी से बाहर के साहित्यों तक कम पहुँचता रहा है, भले ही वह यूरोपीय समीक्षा-ग्रंथों को उलटता-पलटता रहा हो; प्रायः हिंदी लेखक ही अपनी शक्ति के अनुसार बाहरी सहित्य से प्रेरणा लेता या पाता है। किंतु यह कहना अत्युक्ति होगी कि अबतक हिंदी के लेखक और समीक्षक दोनों ही अंतर्राष्ट्रीय साहित्य के विकसित धरातल से सुपरिचित नहीं हो सके हैं। स्थूल रूप से साहित्य में दो तत्त्व होते हैं, एक अनुभूति और दूसरा कल्पना। एक तीसरा तत्त्व भी है, जिसे हम लेखक के दृष्टि या ‘पर्सपेक्टिव' कह सकते हैं। श्रेष्ठ कथाकारों की कल्पना यथार्थनुकारी होती है, वह वास्तविक जीवन का भ्रम उत्पन्न करती है। दूसरे शब्दों में, इस कल्पना की सृष्टि पूर्णतया विश्वसनीय एवं प्रेषणीय होती है। लेखक की ‘दृष्टि' उसके द्वारा किए गए जीवन-स्थितियों के चयन एवं उनकी व्याख्या को प्रभावित करती है।

    उच्चकोटि का कथाकार जीवन के उन्हीं पहलुओं का चित्रण करता है जिनसे वह सुपरिचित है। आधुनिक श्रेष्ठ उपन्यास में कथा-वस्तु थोड़ी ही रहती है; अपेक्षाकृत छोटी कथा-वस्तु की परिधि में श्रेष्ठ उपन्यासकार जीवन के अनगिनत तत्त्वों को देख लेता है। प्राचीन कथाओं में कथावस्तु जितनी विपुल होती थी, जीवन की स्थितियों का विश्लेषण उतना ही कम मार्मिक। 'अलिफ लैला' की एक छोटी-सी कहानी में आप दर्जनों प्रसंगों का उड़ता विवरण पढ़ जाते हैं। मार्मिक विश्लेषणों की बहुलता के कारण ही टॉलस्टॉय की ‘एना केरीनिना' तथा 'वॉर एंड पीस' बृहत् ग्रंथ बन गए हैं। इस दृष्टि से प्रेमचंद के अधिकांश उपन्यास मार्मिक नहीं बन सके हैं। उनके उपन्यासों में प्रायः कथा-वस्तु बहुत विस्तृत हो जाती है और मार्मिक विश्लेषण के स्थल उसी अनुपात में विरक्त हो जाते हैं। स्थूल दृष्टि से कहा जा सकता है कि प्रेमचंद्र का देश के बहुत-से वर्गों तथा विभिन्न कोटि के मनुष्यों से परिचय है, किंतु सच यह है कि वे बहुत कम पात्रों का मार्मिक एवं गंभीर चित्रण कर सके हैं। उनके उपन्यासों में 'गोदान' ही आधुनिक उपन्यास के विकसित धरातल पर पहुँचता दिखाई देता है, यद्यपि उक्त उपन्यास में भी जीवन के सतही विवरणों का अभाव नहीं है। प्रस्तुत लेखक को हाल ही में बंकिमचंद्र का ‘कपाल कुंडला' पुनः पढ़ने का अवसर मिला। उसे यह सोचकर आश्चर्य हुआ कि कुछ ही वर्ष पहले तक, संभवतः आज भी, ऐसे उपन्यासों की गणना ऊँचे साहित्य में होती रही या होती है। निस्संदेह श्री वृंदावनलाल वर्मा बंकिमचंद्र से श्रेष्ठतर लेखक हैं, कम-से-कम यथार्थानुकारिता में यदि वर्मा की ‘दृष्टि' कुछ अधिक परिष्कृत एवं विवेक-संपन्न होती है तो वे और भी अच्छे उपन्यासकार बन सकते हैं।

    यथार्थानुकारिता की अनेक कोटियाँ और धरातल हैं। किन्हीं भी दो पात्रों की बातचीत और उसके संबंध का चित्रण मनोवैज्ञानिक अंतर्दृष्टि की अपेक्षा रखता है। सामाजिक वर्गों के पारस्परिक संबंधों और उनकी विभिन्न प्रेरणाओं का उद्घाटन दूसरी ओर शायद उच्चतर, यथार्थ दृष्टि की माँग करता है। इससे भी अधिक दृष्टि एवं प्रतिभा की जरुरत है, जीवन के यथार्थ में से स्थितियों एवं मनोवृत्तियों का महत्त्वपूर्ण चयन करने के लिए। इतना काफी नहीं है कि लेखक अपने समीप के जीवन को और केवल अपने युग के जीवन को जाने। श्रेष्ठ लेखक की दृष्टि जीवन के उन प्रसंगों को पकड़ेगी जो मानव-इतिहास की अपेक्षाकृत स्थाई प्रेरणाओं को प्रतिफलित करते हैं। ‘एना केरीनिना' के प्रथम परिच्छेद में जिस समस्या का संकेत है अनेक बच्चों की माँ का यौवन ढल जाने पर उसके अपेक्षाकृत अधिक स्वस्थ या सप्राण पति का अन्यत्र तृप्ति खोजना वह विशिष्ट वर्गों के दांपत्य जीवन में एक स्थाई समस्या है। इसी तरह ‘वॉर एंड पीस' में पीयरे या पीये के सहसा समृद्ध हो जाने पर उसके समाज की सर्वश्रेष्ठ सुंदरी का उसके प्रति आकृष्ट दीखने लगना, अभिजात सामाजिक जीवन, एक गंभीर तथ्य को प्रकट करता है।

    इन दृष्टियों से हिंदी के, और कुछ हद तक भारत के उपन्यास-लेखकों की यथार्थ चेतना अर्ध-विकसित हो रही है। इसका एक कारण है हमारे लेखकों की उक्त चेतना का शिक्षण कर सकने वाली संस्थाओं या परिस्थितियों का अभाव। एक महान लेखक की चेतना को शिक्षित करने के लिए समूचे राष्ट्र को साधना करनी पड़ती है; उस शिक्षण में देश के विभिन्न विज्ञान-विशारदों का उतना ही हाथ रहता है जितना कि इतिहासकारों का। हमारे देश में इन 'एजेंसीज़' का आज भी अभाव है। आजतक तो भारतवर्ष का कोई बढ़िया वैज्ञानिक इतिहास की प्रस्तुत किया जा सकता है, ऐसा इतिहास जो हमारी विभिन्न जय-पराजयों की तुलना मूलक एवं विश्वसनीय विवरण देता हो और हमारे किसी इतिहासकार ने सभ्यताओं के उत्थान-पतन जैसे प्रश्नों से उलझाने का प्रयत्न ही किया है। जो देश स्वतंत्र नहीं हैं, जिसके नेता और इतिहासकार दोनों यथार्थ को देखने-समझने के अनभ्यस्त हैं, वहाँ के लेखकों से यह आशा नहीं की जा सकती कि वे जीवन को प्रौढ़, इतिहासाधारित, यथार्थ दृष्टि से देखेंगे और चित्रित करेंगे।

    हम भारतीय सदियों से स्वप्नदर्शी रहे हैं, 'विशफुल थिंकिङ्ग' या मन-मोदकों के अभ्यस्त। हमारी लंबी गुलामी का शायद यह सबसे महत्त्वपूर्ण कारण है। यदि हमें अपने उपन्यासों में इस मनोवृत्ति का प्रतिफल मिले, तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। जैनेंद्र जी के 'व्यतीत' में अमीर नायिका गरीब नायक के पीछे अपनी समृद्धि लिए घूमती-फिरती है, एक दूसरी महिला भी उसकी रुपए से मदद करने को सदैव तैयार रहती है। शरत की राजलक्ष्मी, नायक श्रीकांत की आर्थिक समस्या को अक्सर हल कर देती है, यद्यपि राजलक्ष्मी के पक्ष में यह कहा जा सकता है कि वह गायिका होने के कारण जहाँ धन पा सकती है, वहाँ किसी सहृद भले-मानुस का प्रेम आसानी से नहीं पा सकती। किंतु, इस प्रकार की गायिका या वेश्या अपवाद रूप है, वह समाज का व्यापक ऐतिहासिक सत्य नहीं है। यही बात रमणलाल वसंतलाल देसाई के 'पूर्णिमा' उपन्यास के संबंध में कही जा सकती है। श्री इलाचंद्र जोशी के 'निर्वासित' में एक फ़ैशनेबल परिवार की लड़कियों का कुरूप या विकलांग कवि-नायक की ओर आकृष्ट होना उसी प्रकार सामाजिक सत्य नहीं है। इस दृष्टि से ‘पथ की खोज' का नायक बड़ा भाग्यहीन है; उसकी प्रेमपात्री साधना अमीर होते हुए भी कभी उसकी आर्थिक सहायता नहीं करती। यों ‘पथ की खोज' के अनेक स्थलों में अप्रौढ़ता अर्थात् अयथार्थ दृष्टि का पर्याप्त पुट है।

    हमारे उपन्यास में बहुत-सी अपरिपक्वता आदर्शवाद के नाम पर भी आती रही है। ‘रंगभूमि' में विनय और सोफ़िया के प्रेम का चित्रण कुछ ऐसी ही चीज़ है; संदेह होने लगता है कि प्रेमचंद को नर-नारी के तीखे प्रेम का अनुभव भी हुआ था या नहीं। इसका मतलब नहीं कि श्रेष्ठ लेखक आदर्शवादी नहीं हो सकते या वे नैतिकता के प्रति उदासीन होते हैं। श्रेष्ठ कलाकार नैतिकता के नियमों को कुछ इस प्रकार अभिव्यक्त करते हैं कि वे यथार्थ जीवन के यथार्थ नियम जान पड़ें। उच्चतम कोटि का लेखक पाठक की बोध-वृत्ति का प्रवञ्चन करके नहीं, अपितु उसका पूर्ण उन्मेष करके उनका नैतिक शिक्षण करता है। यदि नैतिकता असली जीवन का नियम है, व्यक्ति और समाज की जीवन-समृद्धि का उपकरण है, तो उसकी महत्ता सिद्ध करने के लिए जीवन के यथार्थ को झुठलाना आवश्यक नहीं होना चाहिए। इस दृष्टि से टॉल्सटॉय की 'ऐना' रंगभूमि की ‘सोफ़िया' से ज्यादा प्रभविष्णु पात्री है। साधारण दृष्टि से व्यभिचारिणी होते हुए भी ऐना हमारी वृत्तियों का जितना परिष्कार करती है, उतना सोफ़िया नहीं। इस प्रकार 'गोदान' के आदर्श पात्र मेहता और मालती, हमारे मनोभावों का स्थाई उन्नयन करने में प्रायः असमर्थ रहते हैं।

    खेद है कि हिंदी-समीक्षा अभी तक इन सूक्ष्म प्रभेदों को देखने की अभ्यस्त नहीं बन सकी है। कोई लेखक गहरे अर्थ में नैतिक परिष्कार करने की क्षमता रखता है, अथवा एक छिछले अर्थ में 'शिक्षाप्रद' है। उसकी दृष्टि गंभीर मनोवैज्ञानिक एवं सामाजिक सचाइयों को पकड़ती है, या समाज के सतही यथार्थ को छूती है, इसका विवेक हिंदी का औसत समीक्षक नहीं करता। ऐसे वातावरण में श्रेष्ठ कलाकार का पनपना कठिन हो जाता है। विद्यापति की राधा की भाँति उसे यह आशंका या शिकायत बनी रहती है कि कहीं उसकी कला का माणिक्य 'कुवणिक्' या घटिया पारखी के हाथों में पड़ जाए अथवा पड़ गया है।

    हिंदी का औसत समीक्षक आलोच्य कृति को उद्दात्त विश्व-साहित्य के संपर्क में विकसित संवेदना की कसौटी पर कम जाँचता है, वह प्रायः अधसोचे और अधपचे वादों का प्रयोगमात्र करता है। विश्व की सभ्यताओं के उत्थान-पतन की व्याख्या करने के लिए ट्वायनबी को आठ-दस बड़े खंडों के महाग्रंथ की योजना बनानी पड़ी है। हिंदी का औसत लेखक और समीक्षक बी. ए. की डिग्री पाते-पाते, अथवा उससे भी पहले प्रगति, प्रतिक्रियावादिता आदि से संपूर्ण रहस्य से परिचित हो जाता है। किसी बड़े विचारक का अनुयायी बन जाना अथवा अपने को किसी फ़ैशनेबलवाद का हामी घोषित कर देना, उस आजीवन साधना का स्थानापन्न नहीं है जो लेखक की संवेदना का उच्चतम विकास और उसकी प्रतिभा का पूर्ण प्रस्फुटन करती है, इसे हिंदी के जोशीले युवक-लेखक बहुत कम समझते, या समझना चाहते हैं। किंतु इसका परिणाम क्या है? हिंदी के दर्जनों लेखक तथा आलोचकों ने प्रगतिवाद को अपनाया, पर उनमें से कितने शुक्ल जी की चिंतनशीलता को पा सके और कितने 'कामायनी' जैसा काव्य भी हिंदी को दे सके? दस-पंद्रह बरस उछल-कूद करके आज प्रगतिवाद अपनी निष्फलता के बोझ से श्रांत नजर रहा है। आशंका यह है कि कहीं तथाकथित प्रयोगवाद का भी वही हश्र हो।

    स्रोत :
    • पुस्तक : आलोचना (पृष्ठ 149)
    • रचनाकार : देवराज उपाध्याय
    • संस्करण : अक्टूबर 1954

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