अव्यवसायी रंगमंच की समस्याएँ

awyawsayi rangmanch ki samasyayen

नेमिचंद्र जैन

नेमिचंद्र जैन

अव्यवसायी रंगमंच की समस्याएँ

नेमिचंद्र जैन

और अधिकनेमिचंद्र जैन

    इस बात में तो अब कोई संदेह नहीं हो सकता कि संस्कृति के अन्य क्षेत्रों की भाँति रंगमंच में भी हमारे देश में नव-जागरण का एक युग वर्तमान है। आजकल प्रत्येक नगर में, यहाँ तक कि देहातों में भी, आए दिनों खेले जाने वाले नाटकों की संख्या पर यदि ध्यान दें तो पिछले प्रत्येक युग की तुलना में आज के युग की यह विशिष्टता स्पष्ट हो जाएगी। इस समय शायद ही कोई ऐसा स्कूल अथवा अन्य शिक्षालय होगा जिसमें वर्ष भर में एक-दो नाटक खेले जाते हों। कॉलेजों और विश्वविद्यालयों के लगभग सभी छात्रावास, बहुत से विभाग आदि अपने-अपने अलग-अलग नाटक प्रस्तुत करते हैं, विभिन्न सरकारी, गैर-सरकारी विभागों के क्लब, मज़दूर संगठन, बहुन-पी सैनिक टुकड़ियाँ तथा अन्य सांस्कृतिक संगठन वर्ष भर में एक-दो बार नाटक का आयोजन अवश्य करते हैं, चाहे फिर उन नाटकों को प्रस्तुत करने की प्रेरणा इन संगठनों के वार्षिक अधिवेशनों से मिलती हो अथवा अपने सदस्यों तथा सहायकों का मनोरंजन करने की भावना से और अंत में अनगिनती छोटे-बड़े ऐसे संगठन और दल तो हैं ही जो नाटक करने, रंगमंच के विकास में सहायता देने और अपने पारिपार्श्विक जीवन की मौलिक सांस्कृतिक आवश्यकताओं को पूरा करने के उद्देश्य से हर प्रदेश में, हर नगर में वर्तमान हैं और नित नए बनते जाते हैं।

    इस कोटि में किसी शहर के साधारण साधन तथा प्रतिभा वाले उत्साही विद्यार्थियों के नाटक-क्लब से लेकर कलकत्ते के बहुरूपी जैसे असाधारण क्षमता-संपन्न और नाटक को अपनी आत्माभिव्यक्ति का सर्वप्रमुख साधन मानने वाले कलाकारों के दल तक सभी जाते हैं। इनमें से पहली श्रेणी के संगठन किसी विशेष आयोजन के अवसर पर नाटक तैयार करते और खेलते हैं तथा रंगमंच के प्रति उनका उत्साह अपेक्षाकृत क्षणिक और प्राय आत्म-प्रदर्शन की भावना से प्रेरित होता है जो उस आयोजन के साथ ही समाप्त हो जाता। इनमें भाग लेने वाले बहुत से अभिनेता तो शायद दूसरी बार फ़िर कभी किसी नाटक में भाग ही नहीं लेते और प्राय ऐसे नाटक एक से अधिक बार प्रस्तुत नहीं किए जाते। दूसरी श्रेणी के संगठन ऐसे हैं जिनके सदस्यों को एक प्रकार से नाटक का खब्त होता है और वे अपने अधिकांश खाली समय में केवल नाटक की ही बात सोचते हैं और नाटक के द्वारा ही अपने भीतर की कलात्मक सृजन-प्रेरणा को प्रकट करना चाहते हैं। ऐसे संगठन प्रत्येक नाटक की तैयारी पर पर्याप्त समय, शक्ति और धन भी व्यय करते हैं और उस नाटक को अधिक से अधिक रसज्ञ प्रेक्षकों तक पहुँचाने के लिए उत्सुक होते हैं तथा उसका प्रयत्न भी करते हैं। यह सही है कि नाटक की इस प्रकार सृजनात्मक अभिव्यक्ति का साधन मानने वाले संगठन बहुत नहीं हैं, साधारणतः हो ही सकते हैं किंतु हमारे आज के सांस्कृतिक उन्मेष में उनका अस्तित्व है और वह हमारे विकास के एक महत्वपूर्ण स्तर को प्रकट करता है।

    साथ ही यह बात भी ध्यान देने की है कि पिछले दिनों में केवल इन नाटक खेलने वाले संगठनों की संख्या में वृद्धि हुई है, बल्कि उतनी ही, शायद उससे भी कहीं अधिक मात्रा में, उनके कृतित्व को देखने, सराहने और उससे आंनंद प्राप्त करने वाले दर्शकों की संख्या भी बढ़ी है। ये छोटे-बड़े नाटक चाहे किसी राजमार्ग के चौराहे पर रास्ता रोककर बनाए हुए चौकियों के मंच पर खेले जाएँ, चाहे कॉलेजों और स्कूलों के सभा-भवनों में और चाहे न्यू एंपायर' जैसे आधुनिक साधनों से युक्त मंच और प्रेक्षागृह में, उनको देखने के इच्छुक रमज्ञों की अब कमी नहीं होती। बल्कि दुर्गापूजा के समय बंगाल और गणेशोत्सव के समय महाराष्ट्र के नगर और देहात के हर मुहल्ले में, लगभग हर बड़ी सड़क पर नाटक किए जाते हैं और उनमें तिल धरने को जगह नहीं मिलती। इस भाँति यह निस्संदेह कहा जा सकता है कि आज हमारे देश के लगभग सभी भागों में जहाँ एक ओर शौकिया अभिनेता और निर्देशकों के नए-नए दल तैयार हो रहे हैं, वहीं दूसरी ओर उनके कार्य को समझने और सराहने वाले दर्शक—रंगमंच के प्रेक्षक—भी अधिकाधिक संख्या में प्रकट हो रहे है।

    रंगमंच के क्षेत्र में जहाँ यह नवोन्मेष एक असंदिग्ध सत्य है, वहीं दूसरी ओर यह बात भी उतनी ही निविर्वाद है कि कुछेक बड़े-बड़े नगरों को छोड़कर नियमित रंगमंच हमारे देश में नहीं के बराबर है और नियमित रूप से चलने वाले नाटकघर हमारे देश में लगभग हैं ही नहीं। जहाँ ये नाटकघर हैं भी, वहीं वे बड़ी मुगमता से चलते हैं यह भी नहीं कहा जा सकता। सिनेमा के प्रचार और लोकप्रिय होने बाद से व्यवसाय के रूप में नाटक-कंपनी चलाना अब किसी भी प्रकार से आकर्षक कारोबार नहीं रहा है। व्यवसायी रंगमंचों के संचालक अभिनेता तथा अन्य आश्रित सहायक शिल्पी कलाकार तो फ़िल्म-जगत जैसा सम्मान, प्रतिष्ठा अथवा महत्व ही समाज में पाते हैं कि अपने कार्य को गौरव और आकर्षण का विषय मान सकें, और आर्थिक दृष्टि में ही इस कार्य में उन्हें इतनी सफलता तथा संपन्नता प्राप्त होती है कि उसे आजीविका का निश्चित साधन बना सकें। परिणामस्वरूप जिनमें तनिक सी भी अभिनय अथवा निर्देशन संबंधी प्रतिभा है, वे सभी फ़िल्म की ओर दौड़ते हैं। जो उत्साही प्रतिभावान कलाकार इन परिस्थितियों के होते हुए भी रंगमंच में अपनी रुचि और उसके प्रति अपना उत्साह बनाए हुए हैं, उनकी संख्या उँगलियों पर गिनी जाने लायक है और वे भी अपनी आजीविका के लिए नाटक के अतिरिक्त फ़िल्म का सहारा किसी किसी रूप में लेने के लिए बाध्य हैं। प्रसिद्ध अभिनेता पृथ्वीराज इसके सबसे सुपरिचित उदाहरण हैं। पृथ्वी थिएटर को जीवित रखने के लिए उन्हें निरंतर फ़िल्म में काम करना पड़ता है और फ़िल्म द्वारा प्राप्त धन से ही वह नाटक के प्रति अपनी इस अद्भुत लगन और उत्साह को पूरा कर पाते हैं। व्यवसायी रंगमंच की यह स्थिति उसके प्रभाव और उसकी अपेक्षाकृत हीन अवस्था का परिणाम हो अथवा कारण, किंतु इतना अवश्य सही है कि हमारा व्यवसायी रंगमंच हमारे वर्तमान सांस्कृतिक नवोन्मेष को ठीक-ठीक प्रगट नहीं करता। किंतु साथ ही जबतक एक नियमित रूप से चलने वाला रंगमंच हमारे देश के प्रत्येक भाग में नहीं बन जाता जबतक नाटक खेलना और देखना हमारे सांस्कृतिक जीवन का, बल्कि हमारे दैनिक जीवन का अनिवार्य अंग नहीं बन जाता, जबतक कम से कम समाज का प्रबुद्ध शिक्षित वर्ग अपने अवकाश को और अपने मनोरंजन की आवश्यकता को नियमित रूप से नाटक द्वारा पूरा नहीं करता, तबतक यह कहना कठिन है कि हमारे देश में कोई रंगमंच वर्तमान है और तबतक किसी प्रकार की विकसित रंगमंचीय परंपराओं का निर्माण ही संभव है।

    इस भाँति हम देखते हैं कि आज नियमित रंगमंच के अभाव में और साथ ही देश के वर्तमान सांस्कृतिक नवोन्मेष के फलस्वरूप हमारे अव्यवसायी रंगमंच ने एक ऐसी स्थिति प्राप्त कर ली है जो एक प्रकार से अस्वाभाविक ही है। किंतु सा ही हमारे इस व्यवसायी, शौकिया रंगमंच में ही हमारे भावी नियमित-विकसित रंगमंच के बीज हैं, यह बात भी निर्विवाद लगती है। और यदि आज हम अपने इस अव्यवसायी रंगमंच की स्थिति को भली-भाँति समझ सकें, उसकी समस्याओं पर गंभीरतापूर्वक विचार कर सकें और सीमित रूप में ही सही, उसकी तात्कालिक आवश्यकताओं को पूरा कर सकें, तो हम अपने देश में एक संपन्न रंगमंच के निर्माण, स्थापना और विकास में बढ़ा भारी योग दे सकेंगे। यह तो अनिवार्य ही है कि अपनी ही आंतरिक प्रेरणा तथा सामान्य सांस्कृतिक उन्मेष के फलस्वरूप होने वाली इस क्रिया में एक ओर तो अपने भीतर ही बड़ी भारी असमानता है तथा प्रतिभा, सामर्थ्य और लगन के विभिन्न स्तर हैं। दूसरी ओर देश का वर्तमान सामाजिक-आर्थिक ढाँचा इस समुचित उन्मेष को संभालने में अभी समर्थ नहीं हो पाया है। इसीलिए इस देशव्यापी सांस्कृतिक हलचल को तो प्रशस्त अभिव्यक्ति ही मिलने पाती है और उचित सहयोग। यह कहने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि कुल मिलाकर हमारा शौकिया रंगमंच अभी केवल किसी-न-किसी प्रकार अभिव्यक्ति का साधन खोजने की अवस्था में है, आत्मविश्वास के साथ एक निश्चित दिशा की ओर बढ़ चलने की अवस्था में नहीं।

    उसी स्थिति के तीव्रतम रूप को नाटकीय ढंग से कहें तो यह कहा जा सकता है कि इस अव्यवसायी रंगमंच की सबसे बड़ी समस्या यह है कि उसके लिए तो नाटकघर हैं और नाटक। हमारे देश के आधुनिक रंगमच की अवस्था का यह बड़ा विचित्र-सा विरोधाभाम है कि नाटक खेले जाने की इतनी माँग और नाटक दिखाने तथा खेलने की इतनी प्रेरणा होने के बावजूद साधारणत रंगमंच के उपयुक्त पर्याप्त नाटक किसी भाषा में नहीं मिलते। और नाटकघरों का तो लगभग सभी जगह अभाव ही है।

    इन दोनों समस्याओं पर अलग-ग्लग विचार करें। पहले नाटकघरों के अभाव को ले लीजिए। समूचे भारतवर्ष के दो-तीन नगरों को छोड़कर नियमित नाटकघर कहीं भी नहीं हैं। जो हैं, वे या तो कुछेक व्यवसायी मंडलियों के पास हैं या फिर उनमें सिनेमाघर बन गए हैं अथवा वे एकदम टूटी-फूटी जीर्ण अवस्था में पड़े हुए हैं। जो भी हो अव्यवसायी मंडलियों को नाटकघर प्राप्त नहीं होते। साधारणतः जितने भी नाटक खेले जाते हैं, उनमें से अधिकांश स्कूलों, कॉलेजों के हॉल में अथवा अन्य ऐसे सभा-भवनों में प्रस्तुत किए जाते हैं जहाँ प्रायः तख्त तथा चौकियाँ कम कर स्टेज तैयार करना पड़ता है, जिसके ऊपर पर्दा लगाने और आलोक का उचित प्रबंध करने ही में बहुत अधिक परिश्रम की आवश्यकता होती है। फिर उस परिश्रम के बाद भी ऐसी स्थितियाँ दुर्लभ नहीं हैं कि किसी एक दृश्य के अत्यंत ही मार्मिक स्थल पर पर्दा गिराना आवश्यक तो होना है किंतु अचानक ही डोरी टूट जाती है, पर्दा नहीं गिर पाता और असमंजस में पड़े बेचारे अभिनेता यह स्थिर नहीं कर पाते कि रंगमंच पर रहें अथवा चले जाएँ। स्पष्ट हो ऐसी परिस्थितियों में भावोद्रेक का वह स्तर प्राप्त नहीं होता जब प्रेक्षक का रंगमंच पर प्रस्तुत दृश्य के साथ रसात्मक तादात्म्य हो सके। हमारे देश में शायद ही कोई ऐसा नगर है जहाँ नगरपालिका की ओर से बना हुआ नाटकघर हो जिसे छोटी-बड़ी अव्यवसायी नाटक-मंडलियाँ साधारण किराए पर ले सकें और सुविधा से नाटक प्रस्तुत कर सकें। विभिन्न नगरों में जो भी सभा-भवन आजकल बन रहे हैं उनमें किसी किसी प्रकार का मंच अवश्य होना है। पर दर्शकों के बैठने के स्थान से थोड़े ऊपर बने हुए किसी चबूतरे को रंगमंच नहीं बनाया या समझा जा सकता। इस परिस्थिति का बड़ा तीखा अनुभव तब हुआ जब 1954 में दिल्ली में राष्ट्रीय नाटक महोत्सव के लिए एक स्थानीय सभा-भवन के उपयोग की बात उठी। बड़े ही केंद्रीय स्थान में होने पर भी उस भवन के आयोजकों ने उसके इस उपयोग की संभावना पर ध्यान ही नहीं दिया था। परिणामत राष्ट्रीय महोत्सव के लिए उसमें बहुत से परिवर्तन करने पड़े और उसके बाद भी वह रंगमंच ऐसा बन सका जिसमें हर तरह के नाटक खेले जा सकें। दिल्ली में हाल ही में एक अन्य कला-संस्था ने एक नाटकघर बनाया है किंतु उसमें भी पूर्व-योजना के अभाव और अव्यवसायी नाटक-मंडलियों की समस्याओं के प्रति उदासीनता ने उस नाटकघर की उपयोगिता को बहुत-कुछ सीमित कर दिया है।

    इन इक्के-दुक्के नाटकघरों अथवा विभिन्न सभा-भवनों के साथ एक कठिनाई और भी है। उनका दैनिक किराया इतना अधिक होता है कि छोटी-छोटी नाटक-मंडलियाँ तो उसे बर्दाश्त ही नहीं कर सकती। उनमें नियमित सज्जा-शालाएँ नहीं होती, स्थायी रूप से लगे हुए पर्दे नहीं होते, आलोक संबंधी स्थायी व्यवस्था नहीं होती। अधिकांश अव्यवसायी नाटक-मंडलियों के लिए इनसब आवश्यकताओं की अपनी-अपनी अलग व्यवस्था करना कष्ट-साध्य होता है और अर्थ, समय तथा शक्ति का व्यय तो उसमें होता ही है। इन सबसे भी बड़ी समस्या है विज्ञापन संबंधी ख़र्च की। साधारण मनोरंजन-प्रेमी जनता अभी नाटक देखने जाने की अभ्यस्त नहीं है, केवल यही बात नहीं है। वास्तव में नाटकघर एक ऐसा स्थान होना चाहिए जहाँ मनोरंजन के इच्छुक अथवा कला-प्रेमी दर्शक अनायास ही इकट्ठे हो सकें—ठीक उसी प्रकार जैसे किसी सिनेमाघर की ओर लोग जाते हैं। ऐसी ही नियमितता के बिना रंगमंच की वास्तविक परंपरा नहीं बनती, वहाँ जाने का लोगों का अभ्यास नहीं बनता। फलस्वरूप प्रत्येक नाटक-मंडली को पहली बार दर्शकों को आकर्षित करने के लिए बहुत अधिक प्रयत्न करना पड़ता है और इस भाँति केवल विज्ञापन संबंधी ख़र्च बहुत बढ़ जाता है, बल्कि सिनेमा की तुलना में नाटक की ओर सहज ही दर्शक उन्मुख नहीं हो पाता। बहुत बार तो कुछेक अच्छे प्रदर्शनों के हो चुकने के बाद समाचार-पत्र में सूचना पढ़कर उनका पता चलता है। इसलिए नाटक को यदि हमारे सांस्कृतिक जीवन का अविच्छिन्न अंग बनना है तो यह सर्वथा आवश्यक है कि वह कभी-कभी होने वाली हलचल के रूप में नहीं, बल्कि हमारे दैनिक जीवन की एक अनिवार्य परिस्थिति के रूप में वर्तमान रहे। यह कार्य स्पष्ट ही तबतक संभव नहीं है जबतक प्रत्येक नगर में कम-से-कम ऐसा नाटकघर हो जहाँ हर शाम को नाटक खेले जाते हों, जहाँ अनायास ही दर्शक पहुँचते हों और साथ ही जहाँ स्थानीय तथा बाहर की छोटी-बड़ी नाटक-मंडलियाँ न्यूनतम साधारण सुविधाओं के साथ नाटक खेल सकती हों।

    ऊपर इस बात का उल्लेख किया गया है कि जो नाटकघर प्राप्त भी हैं, उनका दैनिक किराया इतना अधिक है कि साधारणत: नाटक-मंडलियाँ उसे बर्दाश्त नहीं कर पातीं। इस प्रश्न पर और भी विचार करने की आवश्यकता है क्योंकि प्रचार के अभाव में साधारणत अच्छे से अच्छा नाटक अथवा अच्छी से अच्छी नाटक-मंडली इतने अधिक दर्शकों को आकर्षित नहीं कर पाती कि पहले एक-दो दिनों में नाटक का पूरा ख़र्च टिकटों की बिक्री से इकट्ठा हो सके। दूमरी ओर अधिकतर यह संभव नहीं होता कि एक या दो दिन से अधिक किसी नाटकघर को किराए पर लेने का साहस कोई अव्यवसायी नाटक-मंडली साधारणतः करे। इस प्रकार की नाटका-मंडलियों को प्रायः यह आशंका बनी ही रहती है कि उनका प्रयास सफल होगा अथवा नहीं, दर्शकों को यह अच्छा लगेगा अथवा नहीं। पर्याप्त विज्ञापन के साधनों का अभाव होने के कारण भी इन मंडलियों के लिए अधिक दिन तक नाटकघर किराए पर लेना कठिन होता है।

    बहुत बार ऐसा भी होता है कि किसी नाटक के पहले एक-दो प्रदर्शन इतने सफल नहीं होते और पहले एक-दो अभिनय के बाद ही अभिनेताओं और प्रस्तुतकर्ताओं को नाटकों की दुर्बलताओं का पूरा बोध होता है और वे उन्हें दूर करके उसे कहीं अधिक प्रभावोत्पादक बनाने की स्थिति में होते हैं। क्योंकि यह बात हमें नहीं भूलनी चाहिए कि इन अधिकांश नाटक-मंडलियों के पास रिहर्सल के लिए प्राय कोई स्थान नहीं होता। अधिकतर मंडलियों को रिहर्सल किसी-न-किसी सदस्य के घर पर करनी पड़ती है जहाँ बहुत बार सबके लिए पहुँचना आसान नहीं होता। किसी छोटे कमरे में रिहर्सल करते रहने के कारण मंच पर ठीक किस प्रकार प्रवेश करना होगा, प्रस्थान करना होगा, व्यवहार करना होगा आदि बातें रिहर्सल में स्पष्ट नहीं हो पाती। बहुत-सी मंडलियाँ तो अंत तक कोई पक्की रिहर्सल रंगमंच पर कर ही नहीं पातीं और उनके पहले प्रदर्शन में इस भाँति स्टेज रिहर्सल की-सी अचकचाहट और कमजोरियाँ रहती हैं। इसलिए जबतक यह संभव हो कि ये नाटक एक से अधिक बार प्रस्तुत किए जा सकें, तबतक उसकी पूरी संभावनाएँ प्रकट होना बहुत कठिन है। इसके लिए विशेष रूप से यह आवश्यक है कि इन नाटकघरों का दैनिक किराया बहुत ही कम हो ताकि उसे कई दिन के लिए किराए पर लेना इन मंडलियों के लिए असंभव रहे। इस प्रकार जबतक राज्य की ओर से अथवा नगरपालिकाओं की ओर से नाटकघर नहीं बनते अथवा जबतक हमारे देश में नाटक के प्रचार में रुचि रखने वाली अथवा उसको अपना कर्तव्य मानने वाली संस्थाएँ सस्ते किराए पर मिलने वाले नाटकघर बनाने का प्रयत्न नहीं करती, तबतक अव्यवसायी मंडलियों की यह समस्या हल नहीं हो सकती। इन नाटकघरों के साथ अनिवार्य रूप से ऐसा स्थान भी यदि प्राप्त हो जहाँ नाटक-मंडलियाँ रिहर्सल कर सकें तो बहुत उत्तम होगा, एक प्रकार से अव्यवसायी रंगमंच के विकास की यह बड़ी अनिवार्य आवश्यकता है। अव्यवसायी नाटक-मंडलियों के कार्यकर्ता प्राय आजीविका के लिए कोई-न-कोई दूसरा कार्य करते हैं और वे केवल शाम को ही एकत्र होकर नाटक की रिहर्सल कर सकते हैं। इसलिए यह संभव नहीं कि किसी भी नाटकघर का नियमित भवन उन्हें रिहर्सल के लिए खाली मिल सके। इन परिस्थितियों में रिहर्सल के स्थान की अलग से व्यवस्था होना बहुत ही आवश्यक बात है। पर ऐसे स्थान हर एक नगर में निश्चय ही एक से अधिक होने चाहिए जो अलग-अलग दिनों में बहुत ही साधारण-से किराए पर नाटक-मंडलियों को प्राप्त हो सकें।

    जैसा ऊपर कहा गया है, नाटकघर तथा रिहर्सल के स्थान के अभाव के अतिरिक्त जो दूसरी बड़ी भारी समस्या आज व्यवसायी और अव्यवसायी सभी प्रकार की नाटक-मंडलियों के सामने है—और यह बात प्रत्येक भाषा के लिए लगभग समान रूप से सही है—वह है अभिनयोपयोगी नाटकों के अभाव की। वास्तव में नाटक एक ऐसा साहित्य-रूप है जो मूलत रंगमंच पर आधारित है। विकसित रंगमंच के अभाव में श्रेष्ठ नाटक होना प्राय असंभव है। किंतु साथ ही श्रेष्ठ नाटकों के अभाव में रंगमंच का विकास कैसे हो सकता है? नाटक और रंगमंच का यह अन्योन्याश्रित संबंध बड़ा मौलिक है। किंतु हमारे देश के अधिकाश भागों में जहाँ नियमित रंगमंच की परंपरा हमारे दैनिक जीवन में से मिट गई थी, अथवा जहाँ केवल पिछले कुछ समय से ही प्रारंभ हो पायी है, वहाँ यह बहुत ही आवश्यक है कि नाटककार और नाटक-मंडलियों में अनिवार्य और अविच्छिन्न संबंध स्थापित हों। हमारे देश में इस समय साहित्यिक प्रतिभा के उन्मेष का दौर है। उसमें से कुछेक तरुण और उत्साही लेखक रंगमंच की ओर ही क्यों नहीं उन्मुख हो सकते? साथ ही जिस प्रकार किसी भी नाटक-मंडली को अपने विशेष कुशल अभिनेताओं की, दिग्दर्शक की, रूप-सज्जाकार की, पर्दा रंगने वाले चित्रकार की, आलोक-विशेषज्ञ की अनिवार्य आवश्यकता होती है, उसी प्रकार अपने विशेष नाटककार की भी। प्रत्येक व्यवसायी नाटक-मंडली का भी अपना विशेष नाटककार सर्वदा ही होता है और केवल रंगमंच के व्यावहारिक ज्ञान द्वारा अपने नाटकों को अभिनय के उपयुक्त बनाता है, बल्कि जो उस विशेष नाटक-मंडली की विशेष क्षमताओं और अक्षमतामओं को ध्यान में रखकर ऐसे नाटक लिख पाता है जिनको प्रस्तुत करने में मंडली के सभी साधनों का पूरा-पूरा उपयोग हो सके और ऐसी अनावश्यक कठिनाइयाँ उत्पन्न हों जिन्हें दूर करना मंडली की सामर्थ्य के बाहर हो। अव्यवसायी नाटक-मंडलियों को भी इसी भाँति अपने विशेष नाटककार तैयार करने होंगे। जबतक उनकी विशेष आवश्यकताओं और क्षमताओं को ध्यान में रखकर नाटक लिखने वाली प्रतिभा का सहयोग उन्हें नहीं मिलता, तबतक नाटकों के अभाव की समस्या किसी किसी रूप में उनके सामने बनी ही रहेगी।

    इस कथन का यह अभिप्राय नहीं है कि जो नाटक इस समय लिखे हुए मौजूद हैं अथवा लिखे जा रहे हैं, वे नाटक-मंडलियों के किसी काम के ही कही। उनमें भी निस्संदेह कुछ तो ऐसे हैं ही जिनको ज्यो का त्यो अथवा किसी-न-किमी रूप में रंगमंचच के उपयुक्त बनाकर प्रस्तुत किया जा सकता है। एक प्रकार से वर्तमान नाटकों का इस प्रकार का रूपांतर नाटककारों और नाटक-मंडलियों दोनों के लिए बहुत उपयोगी सिद्ध हो सकता है। नाटक-मंडलियों के लिए इस कारण कि उन्हें कम से फम एक सामान्य ढाँचा तो इन नाटकों में प्राप्त होता ही है जिसको अपनी आवश्यकता के अनुसार परिवर्तित करके अभिनयोपयोगी बनाने में उन्हें अपेक्षाकृत कम कठिनाई होगी और मंडली के किसी एक विशेष सदस्य को नाटक लिखना सीखने के लिए अवसर मिलेगा। दूगरी ओर नाटककारों को भी यह समझने का अवसर मिलेगा कि उनके लिखे हुए नाटक साहित्यिक दृष्टि से सफल अथवा सर्वथा पठनीय होने पर भी उन्हें रंगमंच पर प्रस्तुत करने में कैसी कठिनाइयाँ नाटक-मंडलियों के सामने आती हैं और उन्हें किन उपायों से वे दूर करती हैं। इस प्रकार अपने अगले नाटकों में ये नाटका-मंडलियों की कठिनाई का अधिक ध्यान रख सकेंगे।

    स्पष्ट ही इसमें नाटककारों का सहयोग आवश्यक है। उनकी अनुमति के बिना उनके लिखे नाटकों में इस प्रकार का परिवर्तन संभव नहीं होगा और इसमें यह आशंका तो है ही कि कई बार इस प्रकार किया गया परिवर्तन सर्वथा उपयुक्त भी सिद्ध हो और नाटक असफर ही रहे। किंतु दूसरी ओर इस प्रकार की अनुमति दिए बिना यह संभावना सदा बनी रहेगी कि ये नाटक-मंडलियाँ कभी भी मौजूदा लिखे हुए नाटकों को नहीं छुएँगी। यह बात ध्यान देने की है कि बहुत बार नाटककार में ऐसी अनुमति प्राप्त हो सकने के कारण बहुत सी नाटक-मंडलियाँ मौजूदा नाटकों को हाथ में नहीं लेती, प्राय: नाटककार नाटक-मंडलियों के सुझावों अथवा समस्याओं को सहानुभूतिपूर्वक सुनने और उनपर विचार करके उनके अनुकूल आवश्यक परिवर्तन करने के लिए प्रस्तुत नहीं होते। क्योंकि साधारणतः नाटक, हिंदी में ही नहीं लगभग सभी भाषाओं में जहाँ रंगमंच की परंपरा बहुत विकसित नहीं है, केवल प्रकाशित करने के लिए लिखे जाते हैं, और पिछले दिनों तो केवल रेडियो पर प्रसारित किए जाने के लिए ही लिखे जाने लगे हैं, जिनके फलस्वरूप उसकी रंगमंचीय उपयोगिता और भी कम हो गई है। बहुधा हमारे साहित्यिक नाटकों में लंबे-लंबे संवाद होते हैं जिनमें केवल नाटकीय गति और घटना का अभाव होता है, बल्कि उनकी भाषा इतनी अस्वाभाविक होती है कि उसे अभिनेता सहज ही बोल नहीं पाते। ऐसे अधिकांश नाटक एक प्रकार से संवाद-रूप में लिखे हुए उपन्यास मात्र ही होते हैं। अभिनय के उपयुक्त नाटक में भाषा के स्वाभाविक और सरल तथा संवादों के संक्षिप्त तथा नाटकीय होने के साथ-साथ घटना और चरित्रों के विकास में एक निश्चित गति होनी बहुत आवश्यक है जिससे रंगमंच के ऊपर अभिनेता एक ही मुद्रा को, एक ही भाव-दशा को और एक ही शारीरिक क्रिया को दुहराते हुए जान पड़ें। रंगमंच के ऊपर विभिन्न पात्रों की स्थिति को मूर्त रूप में अपने सामने रखे बिना और उनके क्रमशः विकास पर समुचित ध्यान दिए बिना रंगमंच के उपयुक्त नाटक लिखना बड़ा कठिन है। इसमें कोई भी संदेह नहीं कि बड़े से बड़ा प्रतिभावान साहित्यकार भी नाटक की इस विशेषता को रंगमंच के साथ सक्रिय रूप से संबद्ध हुए बिना नहीं समझ सकता और यशस्वी नाटककारों को इसमें अपना असम्मान नहीं समझना चाहिए कि अपेक्षाकृत तरुण और अन्य कई दृष्टियों से क्षमतावान कलाकारों से उनको इस दिशा में सीखना है।

    नाटककार और नाटक-मंडलियों में संपर्क के अभाव का एक पक्ष निस्संदेह यह भी है कि अधिकांश नाटक-मंडलियाँ अपनी ओर से भी किसी नाटककार को अपने साथ संबद्ध करने का, उसकी बात सुनने और उसकी समस्याओं को समझने का और अपने ठोस व्यावहारिक सुझावों द्वारा उसको समझाने का प्रयत्न नहीं करती। ऐसा प्रयत्न निश्चय ही इन मंडलियों के हित में ही है क्योंकि नाटककार ही वह मूल साधन प्रस्तुत करता है जिसके बिना कोई नाटक-मंडली जीवित नहीं रह सकती। नाटककार और नाटक-मंडलियों के बीच, विशेषकर प्रत्येक नगर में बिखरी हुई अनगिनती अव्यवसायी नाटक-मंडलियों के बीच, यह संपर्क हमारे आज के नव-नाट्य आंदोलन की सर्वप्रमुख आवश्यकता है जिसके बिना नाटकों के अभाव की समस्या मौलिक रूप में कभी नहीं हल हो सकेगी।

    या इस समस्या के और भी कई समाधान है जो तात्कालिक हैं और जिनसे उसके मौलिक समाधान में भी बहुत कुछ सहायता मिलेगी। देश की विभिन्न भाषामो से तथा विदेशी भाषामो से ऐसे नाटकों के अनुवाद तथा भारतीय रूपांतर किए जाने चाहिए जो रंगमंच पर सफल हो चुके हैं। यह भी संभव है कि अलग-अलग स्थानो पर देश-विदेश की प्रसिद्ध व्यवसायी-मंडलियों ने उन्हें जिस प्रकार से रंगमंच पर प्रस्तुत किया है, उसकी जानकारी भी प्राप्त हो सके। कम से कम अनुवाद और रूपांतर का यह कार्य ऐसा है जिसे बहुत-सी नाटक-मंडलियाँ स्वय कर सकती हैं। साथ ही विभिन्न भाषाओं में प्रयवा एक ही भाषा-भाषी क्षेत्र की विभिन्न मंडलियों के पास ऐसे नाटक वर्ष में एक-दो अवश्य तैयार होते रहते हैं जो श्रेष्ठ साहित्य होते हुए भी अभिनय को उपयुक्त हो। ननके परस्पर प्रादान-प्रदान होने का कोई माध्यम तुरंत निकाला जाना चाहिए। ऐसे नाटकों के प्रकापान को भी कोई विशेष यवस्था निगी योन्द्रीय नाटक सस्था को करनी चाहिए। इस प्रकार प्रत्येक भाषा का नाटक-साहित्य केवल बहुत समृद्ध होगा, बल्कि इस प्रकार रूपांतर और अनुवाद में नए मोलिया नाटकों की रचना के लिए भी प्रेरणा मिलेगी और धीरे-धीरे यह संभव हो सगेगा कि हमारे नाटकों के प्रभाव को यह समस्या दूर हो सके।

    अव्यवसायी नाटक-मंडलियों की एक-दो समस्याएँ और भी हैं जिनके कारण उन्हें बहुत बार बड़ी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है! उनमें सब से प्रमुख है मनोरंजन-कर। देश के बहुत-से राज्यो में इस विषय के कानून बहुत ही कडे हैं और नाटक-मंडलियों को प्राय किसी मस्या के लिए दान का सहारा लेकर अपना प्रदर्शन करना पड़ता है अन्यथा उनकी प्राय का बड़ा भारी भाग मनोरंजन-कर के रूप में पला जाता है। इन मंडलियों का प्रदर्शन संबंधी साधारण व्यय अपेक्षाकृत इतना अधिक होता है कि मनोरंजन-बार दे चुकाने के वाद प्रदर्शन का पूरा व्यय जुटा मकना उनके लिए संभव नहीं हो पाता। हमारे देश में रंगमंच के विकास की एक बड़ी भारी आवश्यकता है कि विशेष रूप में अव्यवसायी रंगमंच को मनोरंजन कर से छुट्टी मिले। यह सुविधा इमलिए भी आवश्यक है कि छोटी नाटक मंडलियों को अन्य अनगिनती कठिनाइयों को मानकर नाटक प्रस्तुत करने पड़ते हैं और उनमें यह क्षमता नहीं होती कि इस आर्थिक सकट को भी सहन कर सकें।

    माथ ही यह बात भी ध्यान देने की है कि इस प्रकार मनोरंजन कर से प्राप्त धन को हमारे राज्यो की सरकारे नाटक विकास के लिए ही नहीं लगाती। अव्यव-सायी नाटन मण्डलियाँ एक नाटक की तैयारी में साधारणत: नाटकघर के किराये पर, विज्ञापन पर, पालोक-मम्बन्धी व्यवस्या पर, संगीत पर, वरतो तथा उप-सज्जा पर पोर 'सेट्स' पर धन व्यय करती है। बहुत-सी व्यवस्थित नाटक मंडलियाँ नाटक स्तर को भी योग-बहुत धन रायल्टी के रूप में भेद करती हैं और ये मालियों इम प्र में ही प्रव्यवसायों है कि एक नाटक के टिकट बेचकर प्राप्त होने वाले धन में ने प्राय अभिनेताओं को कोई हिस्सा नहीं मिलता अथवा वह इतना नगण्य होता है कि उसे उनकी प्राजीविका का साधन किसी भी प्रकार से नहीं माना जा सकता। जो हो, ये मण्डनियां जिन विविध व्यक्तियों को धन देती है, ननसे किसी किनी म्प में बदले में उन्हें सहयोग प्राप्त होता है जिसके द्वारा नाटक प्रस्तुत करने में उन्हें मायका मिलती है। एक प्रकार से उस सहयोग के बिना नाटक प्रस्तुत करना उनके लिए नमन ही नहीं होगा किंतु मनोरंजन कर के रूप में जो धन सरकार के पान जाना है उसके बदाने में इन नाटक-मंडलियों को कोई भी सुविधा सरकार में प्राप्त नहीं होती और मनोरंजन कर के रूप में जाने वाला यह धन पूरी आय का लगभग एक-तिहाई से भी अधिक हो जाता है। यह बात युक्तिसंगत जान पड़ती है कि सरकार इन नाटक-मंडलियों से, जिनके सदस्य मूलतः कला के प्रेम से आकर्षित होकर अपनी सुविधा और समय को अर्पित करके हमारे देश की नष्टप्राय नाट्य-परंपरा को बनाये रखने और उसको अधिकाधिक विकसित करने का प्रयत्न कर रहे हैं, कोई मनोरंजन-कर नहीं ले और यदि ले भी तो अनिवार्य रूप से उसको राज्य में नाटक के विकास में सहायता पहुँचाने के कार्य में फिर से अवश्य लगाए। यह एक ऐसा प्रश्न है जिस पर बहुत ही गंभीरता पूर्वक विचार होना आवश्यक है।

    इस विवेचन में मूलत अव्यावसायिक नाटक-मंडलियों की बाह्य समस्याओं पर ही अभी तक विचार किया गया है। किंतु इन मंडलियों की ऐसी आंतरिक समस्याएँ भी हैं जो उनके कार्य को समुचित रूप से विकसित नहीं होने देती अथवा उसे पर्याप्त रूप में उपयोगी नहीं बनने देती। जैसा पहले कहा भी गया है कि पव्यवसायी नाटक-मंडलियों की इस सज्ञा में वे प्राय सभी सगठन शामिल हैं, जो किसी किसी उद्देश्य से नाटक खेलते हैं और टिकट लगाकर अथवा आमंत्रित करके लोगों को दिखाते हैं। मूलत जिस मापदंड से हम इन मंडलियों का अव्यवसायी मंडलियों के रूप में उल्लेख करते हैं वह यही कि इन मंडलियों के सदस्य अपनी जीविका के लिए नाटक प्रस्तुत नहीं करते, साधारणतः अपने अवकाश के समय के उपयोग द्वारा ही ऐसे नाटक प्रस्तुत किए जाते हैं। यह विशेषता सामान्य रूप से इस कोटि की सभी मंडलियों में पाई जाती है। किंतु जब हम अव्यवसायी रंगमंच को समस्याओं पर विचार करते हैं तो मूलत हम उन नाटक-मंडलियों की बात ही सोवते हैं जो नाटक को अपनी कलात्मक अभिव्यक्ति का एक साधन मानती है, जो उसके द्वारा कलात्मक मूल्यों की सृष्टि करना और हमारे सास्कृतिक जीवन को समुन्द्र करने का उद्देश्य अपने सामने रखती हैं। उनमें से कई-एक तो अपने इस उद्देश्य के प्रति इतनी सजग और इतनी निष्ठावान होती हैं कि अनगिनत असुविधाओं और कठिनाइयों का सामना होने पर भी अपने इस कार्य को छोडती नहीं, उनके सदस्य आजीविका के लिए चाहे और कुछ कर सकें मथवा कर सकें, नाटक के लिए अपनी समस्त सुविधाएँ त्यागने को प्रस्तुत रहते हैं। वे अपनी अन्य आवश्यकताओं को भूलकर एक प्रकार से ऐसे पागलपन के साथ नाटक के काम में जुटे रहते है जो केवल सच्चे कलाकार के लिए ही सुलम है। इनमें ऐसी भी कई एक मंडलियाँ हैं जो, यदि संभव हो सके तो, रंगमंच को अपना व्यवसाय भी-अर्थात् आजीविका का साधन भी बनाने को तैयार है किंतु सुविधाओं के ममाव में जिनके लिए ऐसा करना संभव नहीं हो पाता।

    नाटक एक सामूहिक कला है। उसमें बहुत से व्यक्तियों के परस्पर नयोग की अनिवार्य आवश्यकता होती है साथ ही अन्य सभी कला-रूपो की अपेक्षा नाटक में व्यक्तिगत प्रतिभा के विस्फोट की आवश्यकता उतनी अधिक नहीं है जितनी अनुभव जय स्थिरता की। अभिनेता, निर्देशक तथा अन्य सहायक गिल्पी सभी पिछले अनुभव में सीख कर उन्नति करते हैं। एक ही नाटक का दूसरा प्रदर्शन पहले से अधिक व्यवस्थित और प्रभावपूर्ण होता है। नाटक में अभिनेता को एक ही कार्य चार-बार करना पड़ता है. इसलिए एक ही नाटक के कई प्रदर्शनी में बार-बार यह

    स्वय ही एक नवीन भावावेग की अभिव्यक्ति का रस प्राप्त कर सके, तो दर्शको को भी वह उसका भास्वादन नहीं करा सकेगा। शौकिया अथवा अन्यवसायी नाटक को एक या दो बार से अधिक नहीं खेलते, मुछ साधनों के प्रभाववा और कुछ इस कारण कि एक ही नाटक बार-बार दोहराने की अपेक्षा नया खेलने की प्रवृत्ति पार्षक लगती है। उनकी कला का स्तर ऊँचा उठ मकाने का यह बड़ा भारी कारण है। व्यवमायी मंडलियों, अथवा ऐमी अव्यवसायी नाटक मण्डलियां जो अपनी कार्य-पद्धति में व्यवसायी नाटक-मंडलियों के समान ही है, इसीलिए अपने कार्य को अधिक ऊँने स्तर का बना सकती है। किंतु इसके विपरीत बहुत-मी शौकिया नाटस-मंडलियों में अपने कार्य के प्रति बहुत बार ऐमा गहरा अनुराग होता है कि उनके प्रदर्शन में व्यवमापी बुद्धि को यांत्रिकता नहीं होती, उममें मदा सच्ची आत्मा-भिव्यक्ति की संभावना रहती है। इसी से अव्यवमायो रंमंच की निष्ठा, उत्साह धौर सच्चाई का व्यवसायी रंगमंच को निपुणता के साथ योग होना बहुन ही आवश्यक है। क्योंकि हमारे देश में नाटक और रगमत्र का वास्तविक भविष्य इन प्रयवगायो माडलियो की उन्नति से जुड़ा हुआ है, चाहे वे मंडलियाँ वर्ष में एक-दो नाटया प्रस्तुत करने वाली हो अथवा ऐनी जो वर्ष भर में एक ही श्रेष्ठ नाटक के बोम, पनीम, पचाम प्रदर्शन करनी हो। सिनेमा की प्रतियोगिता में जहाँ पश्चिमी देगो तक में, रगमत्र को सुदीर्घ परंपरा के बाद भी व्यवसायी नाटक-कंपनी टिक नहीं पाती, वहाँ हमारे देश में उमका गीघ्र ही पैर जमा लेना बहुत ही कठिन काम जान पटना है। और जैसा कि पहले कहा गया, परमाय की दृष्टि में नाटक कंपनी चलाना माज के युग में कोई बहुन आकर्षक कारोवार नहीं है। इसलिए जिम हद सध्यावयायिक नाटक मंडली नमाग प्रतिमा को इकट्ठा करके उनकी नृजन-शक्ति का अधिकाधिक उायोग कर सकेगी, उसी हद तक हमारे देश में रंगमंच की परंपरा का फिर में निर्माण हो सरेगा और धीरे-धीरे वह परंपरा दृढ़ हो सकेगी। तभी जन साधारण में नाटक के प्रति इतना अनुराग भी बढ सकेगा और नाटक हमारे नासति जीवन का इतना प्रविच्छिन्न अंग बन सकेगा कि उसको कोई स्थायी और नियमित रूप प्राप्त हो सके। प्राज तो अव्यवसायी नाटक-मण्डलियां केवल हमारी कला के श्रेष्ठतम रंग-शिल्पियों को गढ रही हैं, बल्कि वे साथ ही उस ध्यापक प्रेक्षक-वर्ग का भी निर्माण कर रही है जिसके बिना कोई रंगमंच तो टिक ही सकता है, महत्वपूर्ण सास्कृतिक मूल्यों का निर्माण ही कर सकता है।

    स्रोत :
    • रचनाकार : नेमिचंद्र जैन

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