प्रेत-मुक्ति

pret mukti

शैलेश मटियानी

शैलेश मटियानी

प्रेत-मुक्ति

शैलेश मटियानी

और अधिकशैलेश मटियानी

    केवल पांडे आधी नदी पार कर चुके थे। घाट के ऊपर के पाट मे अब, उतरते चातुर्मास में, सिर्फ़ घुटनों तक पानी है, हालाँकि फिर भी अच्छा-ख़ासा वेग है धारा में। एकाएक ही मन मे आया कि संध्याकाल के सूर्यदेवता को नमस्कार करें, किंतु जलांजलि छोड़ने के लिए पूर्वाभिमुख होते ही, सूर्य और आँखों के मध्य कुछ धूमकेतु-सा विद्यमान दिखाई दे गया। ध्यान देने पर देखा, उत्तर की ओर जो शूद्रों का श्मशान है, बौंड़सी, वही से धुआँ ऊपर उठ रहा है और, हवा के प्रवाह की दिशा में धनुषाकार झुककर, छिदिर-मिदिर बादलों का-सा गुच्छा बनाता, सूर्य के सामानानंतर धूमकेतु की तरह लटक गया है।

    ओम् विष्णुविष्णुविष्णु...

    केवल पांडे के घुटने पानी के अंदर ही आपस में टकरा गए और अंजलि में भरा जल ढीली पड़ी उँगलियों में से रीतकर, नदी में ही विलीन हो गया। अर्धचेतन में, कहीं से एक आशंका तेजी से उठी— “बेचारा किसनराम ही तो नहीं मर गया?

    किसनराम की स्मृति में होते ही घुटने पुनः नदी के जलप्रवाह में प्रकम्पित होते-से मालूम पड़े। पुरोहित पं. केवलानंद पांडे को लगा कि उनके और सूर्य के बीच में धूमकेतु नहीं, बल्कि हलिया किसनराम की आत्मा प्रेत की तरह लटकी हुई है। कुछ क्षण, सुँयाल नदी के जल से अधिक, अपने ही में डूबे रह गए। किसनराम के मरे होने का अनुमान जाने कैसे अपना पूरा वितान गढ़ता गया। गले में झूलता यज्ञोपवीत, माथे में चंदन-तिलक और रक्त में घुला-सा जातीय-संस्कार। बार-बार अनुभव हो रहा था कि ऊपर श्मशान से अछूत के शव की अस्थि—मज्जा को बहाकर लाती सुँयाल नदी का जल पाँवों से टकरा रहा है। हो सकता है, ऊपर से अधजला मुर्दा ही नीचे को बहा दिया जाय और वही अचानक पाँवों से टकरा जाय?...नदी के तेज़ प्रवाह में लकड़ी के स्लिपर की तरह घूमते और बहते जाते शव उन्होंने कई बार देखे हैं। विशेषकर बनारस में संस्कृत पढ़ने के दिनों में।

    हालाँकि इधर से सुँयाल पार करते ही, गाँव से लगा अरण्य प्रारंभ हो जाता है। अब सूर्यास्त के आस-पास के समय, ऊँचे-ऊँचे चीड़-वृक्षों की छायाएँ पूर्व की ओर प्रतिच्छायित हो रही थी। दूर ढलानों पर गाय-बकरियों के झुंड चरते दिखाई पड़ रहे थे। कुछ देर यों ही दूर तक देखते, आख़िर नदी पार करके अपने गाँव की ओर बढ़ने की जगह, केवल पांडे तेज़ी से इस पार ही लौट आए। उन्हें लगा, आगे की ओर का पानी चीर सकने की क्षमता घुटनों में रह नहीं गई। धुआँ देखने से पहले भी, आधी नदी पार करते में जाने इतने आकस्मिक रूप से क्यों किसनराम की याद आई थी कि उन्हें लगा था, वो नदी के पाट को अपने पाँवों से ठीक वैसे ही चीर रहे हैं, जैसे किसनराम हल की फाल से खेत को चीरता है। अब भी, बिना किसी प्रत्यक्ष कारण के ही, आख़िर क्यों उनकी कल्पना के आकाश में आशंका का यह धुमकेतु एकाएक उभर आया है कि ज़रूर किसनराम ही मर गया होगा, और उसी का शव जलाया जा रहा होगा? हो सकता है। चिता जल रही हो, नदी के किनारे मछली मारनेवालों ने ही आग जला रखी हो?

    केवल पांडे का मन हुआ, किनारे का जल हाथों में लेकर उसे देखें। उन्हें याद आया, जब कभी हल जोतते-जोतते, बैल थामकर, किसनराम उनके समीप जाता था, सुर्ती फाँकते, उसके मैंले चीकट कपड़ों से भी ठीक वैसी ही तीखी गंध फूटती मालूम पड़ती, जैसी सुर्ती की गाँठ तोड़ते मे फैलती है। कहीं ऐसा हो, पानी से भी वैसी ही गंध फूट आए? अपनी अजीब-अजीब सी कल्पना पर केवल पांडे को हँसी आने को हुई, मगर आई नहीं। किसनराम को लेकर जो कमज़ोरी उनके मन में है, वही पिछले कुछ समय से उन्हें लगातार दीचित्ता करती चल रही है। उसकी मृत्यु की आशंका से यों एकाएक जुड़ जाने के कारण ही, मन अपनी स्वाभाविक स्थिति खो बैठा है, ऐसा उन्हें लगा और अब वो नदी पार करने की जगह, बिनसर पहाड़ की दिशा में, यानी उत्तर की ओर, किनारे-किनारे चलने लगे। श्मशान लगभग एक फर्लांग दूर था वहाँ से।

    खुले मैंदान की भुरभुरी मिट्टी में रेंगती गर्भवती नागिनजैसी सुँयाल भी, अब उलटी दिशा को लौटती अनुभव हो रही थी। चंद्रमा की किरनों के पानी की सतह पर हवा से काँपने की स्थिति में नदी कैसे अपना प्रवाह पलटती-सी मालूम पड़ती है और तब किनारे-किनारे कुछ फ़ासला रखकर चलते रहिए, तो चन्द्रमा की तरह नदी भी अपने साथ-साथ चलती दिखती है। ऐसे में, हो सकता है, इसी बीच किसनराम का शव अधजला ही बहा दिया गया हो, तो वह भी उत्तर की ओर वापस लौटने लगे?

    कुछ दूर आगे बढ़ते ही सामने ही एक गहरा ताल दिखाई दिया, तो लगा, कहीं ऐसा हो, शव यहाँ तक बह आया हो और मछलियाँ उसे नोंच रही हों? एक बार गहराई तक उस ताल में झाँककर, केवल पांडे और भी तेज़ी से चलने लगे, ताकि आशंका का समाधान हो जाए, तो मन को विभ्रांति से मुक्ति मिले। धोती की काँछ को उन्होंने कंधे पर डाल लिया, ताकि नीचे झुककर ताल में झाँकने में सुविधा रहे।

    सुँयाल कभी देखी हो किसी ने, तो वह जानता है कि कार्तिक के प्रारंभ में, जबकि बाढ़ की ऋतु व्यतीत हो चुकी होती है, तब इसका जल कितना पारदर्शी हुआ रहता है। लेकिन चूंकि अभी चातुर्मास को बीते कुछ अधिक समय नहीं बीता होता है, इसलिए आसानी से इसके प्रवाह में पाँव टिक नहीं सकते। और देखिए कि जैसे पहाड़ की कई औरतें चाँदी के रुपयों की माला पहने रहती हैं—कुछ दूर तक डोरी, फिर पहला रुपया, इसके बाद फिर कुछ दूर तक डोरी, फिर पहला रुपया; इसके बाद फिर कुछ दूर तक डोरी, और फिर चाँदी का दूसरा रुपया—लगभग वैसा ही अंतराल सुँयाल नदी में है। उद्गम से कुछ दूरी तक नदी की-सी आकृति, फिर पहला ताल; इसके बाद फिर कुछ दूर तक, वही प्रकृति के गले में की डोरी, और फिर दूसरा ताल—और यही सिलसिला, जब तक कि कोसी में समाहित हो जाए।

    केवल पांडे की जजमानी का भी कुछ ऐसा सिलसिला है कि कहा जाय कि लगभग जहाँ तक सुँयाल जाती है। किनारे की ऊँची शिला पर से ताल में झाँकने लगे, तो असेला और पपड़ुवा मछलियों को ताल के तल में विचरण करना और छोटी-छोटी चिल्लों का पानी के भीतर से कंकड़ों की तरह पुटुक्क करके सतह से भी एकाध बालिश्त ऊपर उछलकर, फिर पानी में गिरते हुए वृत्त पर वृत्त बनाना, देखते ही रह गए। याद आया कि जब व्रतबंध हुआ था, कभी-कभी ताल में किसनराम के साथ मछलियाँ मारते अन्य शूद्र हम-उम्र के साथ स्वयं भी कूद पड़ते थे। घर में कोई मछली खाता नहीं था, लेकिन मैंण लगी मछलियों को पकड़ने में जो आनंद आता था!...रामबाण के पत्ते कूटकर पानी में डाल दिए गए हैं। मेड़बंधे पानी में साबुन का-सा झाग उतर आया है।...और अर्द्ध-मूर्च्छित-सी मछलियाँ सतह पर चक्कर काट रही हैं और हथेलियाँ फैलाने पर ही पकड़ में जाती हैं।

    केवलानंद पांडे और किसनराम की उम्र में विशेष फ़र्क नहीं। शायद, दो-तीन वर्ष बड़ा हो किसनराम, मगर केवल पांडे की तुलना में, बहुत जल्दी ही बूढ़ा दिखने लग गया। पैसठवाँ वर्ष पार करते हुए भी पांडे जी के ग़ौर-प्रशस्त ललाट में का तिलक रेखाओं में नहीं डूबता है, मगर किसनराम की कमर झुक गई। बचपन से ही किसनराम को देखा। एक ही अरण्य में के वृक्षों के साथ-साथ आकाश की ओर बढ़ने की तरह। किसनराम के पिता की तीन पत्नियाँ थी और बहुत बड़ा परिवार। खाने-पहनने को पूरा पड़ता नहीं था। दूसरों के यहाँ मेहनत-मज़दूरी का अनवरत सिलसिला दिन-रात कंधों पर लदा रहता। पांडे जी को याद नहीं पड़ता, कभी उन्होंने किसनराम में किशोरावस्था की चंचलता या जवानी के उद्दाम आवेग को उसके चेहरे या उसकी आँखों से फूटता हुआ देखा हो। जब भी देखा, हल या हथौड़े-हँसिए की मूठ थामे, काम में जुटा हुआ देखा।

    किशोरावस्था गाँव में गुज़ारकर, मिडिल पास करके केवल पांडे पहले मामा के यहाँ नैनीताल और फिर वहाँ से अपनी वाग्दत्ता के पिता के पास बनारस पढ़ने चले गए। नैनीताल से हाईस्कूल, बनारस से शास्त्री करके, फिर घर ही लौट आए। सभी छोटे भाई पढ़ रहे थे और पिताजी अत्यंत वृद्ध हो चुके थे। यजमानी बहुत बड़ी थी और उसे सँभालना आर्थिक और नैतिक, दोनों दृष्टियों से आवश्यक था।

    पठन-पाठन का वृत्त पूरा करके सदैव के लिए घर लौटने पर पांडे जी को पता चला था, किसनराम से ही, कि इस बीच उसकी माँ मर गईं और वह भी अपने मामा के यहाँ चला गया था। मामा लोहार था, मगर किसनराम सिर्फ़ किसानी या ओढ़गिरी जानता था, गर्म लोहा पीटने में अपने दाएँ हाथ की उँगलियाँ पिटवा बैठा। हाथ बेकार हो गया, तो मामा ने भी दुरा दिया। वहाँ से पत्नी को लिए-दिए ससुराल चला गया। ससुराल वालों ने भी अपनी बेटी, यानी उसकी घरवाली भवानी, को तो रोक लिया, उसे अकेला विदा कर दिया। हाँ, भवानी के लिए यही तो कहा था किसनराम ने कि—“गुसाईज्यू, उन डोमों ने ‘मेरी घरवाली’ को रोक लिया।”...यह नहीं कि “अपनी बेटी को।”

    मामा के यहाँ कुट गए दाएँ हाथ की तीन उँगलियाँ, धीरे-धीरे गलती हुई, बेकार हो गईं। शेष दो में सोंटा और बाएँ हाथ से हल की मूठ पकड़कर बैलों को ऊँची हाँक लगाते किसनराम की आवाज़ पांडेजी ने गाँव की सीमा में पहुँचते ही सुनी थी। और जब रास्ते में कुछ देर किसनराम के पास रुककर, उसका सुख-दुख पूछ लिया कि “आशीर्वाद, किसनराम, कैसे हो? ठीक-ठाक?” तो लगा कि जैसे अपनी सारी गाथा उन्हीं की प्रतीक्षा में छाती में दबाए था किसनराम। अवसर पाते ही, प्रकट होता चला गया। अपना व्यतीत बताते में जिस तरह धीरे-धीरे उसकी आँखें भरती चली आई थीं, लगता था, कहीं बहुत गहरे दबा विषाद घाटी में के कोहरे की भाँति ऊपर उठ रहा है, उसकी आँखों में आर्द्रता थी, जैसे कि बाँध बाँधकर ऊपर की ओर उठाए हुए पानी की सतह।

    किसनराम को रोते देखने का यह पहला अवसर था, अन्यथा उसकी खुश्क़ आँखों में तो सदैव एक दीन मुस्कराहट ही देखी थी उन्होंने। कठोर परिश्रम के क्षणों में पसीनों से लथपथ उसकी देह देखने से भले ही अनुभूति होती हो कि क्या यह अपनी त्वचा में से आँसू बहाता होगा?...और पांडे जी को तब भी तो विचित्र-सी कल्पना हो आती थी कभी-कभी कि किसनराम कहीं अभिशप्त इन्द्र तो नहीं कि इसकी सारी देह में आँखें ही आँखें फूट आएँ? पसीना वह पोंछता भी कुछ इतने जतन से था, लगता था, गालों पर से निथरते आँसू पोंछ रहा हो। ऐसे में एकटक उसकी ओर देखते रहने पर, मुँह में कैसा खारा-खारापन-सा उमसने लगता था!

    लेकिन तब तक यह सुर्ती की गाँठ तोड़ते में फैलने वाली जैसी तीखी गंध उसमें से फूटकर नहीं आती थी। बनारस से लौट आने के बाद, केवल पांडे ने देखा था कि उम्र में बड़ा होने पर भी किसनराम उनके गोरे, बलिष्ठ और खुले हुए शरीर की तुलना में ऐसा लगता था, जैसे इतने वर्षों के बीच प्रकृति ने उस लोहे को गर्म करके परिस्थितियों की चोटों से पीट-पीटकर अपने अनुकूल बना लिया है। खेत जोतते, पेड़ काटकर गिंडे बनाते, हल जोतते या पत्थर तोड़ते में वह अपनी सम्पूर्ण ऐन्द्रिकता में उभरता हुआ-सा अंततः जैसे प्रकृति में समा जाता था।

    पांडे जी को यह अनोखा दृश्य बार—बार याद आता है, जब चौदह वर्षों की उम्र में ही शादी हो जाने के बाद, किसनराम दुरगुन के लिए अपनी पत्नी को उसके मायके ले जा रहा था और वो मिडिल स्कूल से लौट रहे थे। छोटी-सी, ठिगनी—साँवली लड़की, गाढ़े रंग का घाघरा और गुलाबी रंग का पिछौड़ा पहने, बड़े इतमीनान से बीड़ी पीते-पीते उसके पीछे-पीछे चली रही थी। किसनराम ने “महाराज” कहकर, ज़मीन में मत्था टेकते हुए पांडे जी को प्रणाम किया था, तो उसने जल्दी में बीड़ी को अपनी हथेली में ही घिस लिया था और फिर रो पड़ी थी।

    पांडे जी को हँसी गई थी। किसनराम भी हँस पड़ा—“गुसाई, हमारी क़ौम में तो सारे कर्म-कांड बचपन में ही सीख लेती हैं छोरियाँ।” और आख़िर शरमाते-शरमाते पूछने लगा था कि शास्तरों के अनुसार किस उम्र तक आपस में खुलकर घर-गिरस्थी की बातचीत करना निषिद्ध है?

    “शास्तर” का उच्चारण करने में किसनराम का कंठ तब भी कुछ थरथरा गया था। पांडे जी बचपन से ही तीव्र बुद्धि के थे। समझ गए, किन्हीं सयानों की बात को गाँठ बाँधे हुए हैं। भोले-निश्छल स्वभाव किसनराम के प्रति उन्हें शुरू से ही आत्मीयता-सी थी और एक झलक किसनराम की घरवाली की, उन्होंने भी देख ली थी, एक हमउम्र की-सी जिज्ञासा में। धीरे से कहा था—“अरे, यार किसनराम! अभी तो ख़ुद मैंने ही कोई ऐसा शास्त्र नहीं पढ़ा है। पिताजी संस्कृत पढ़ने काशी भेजनेवाले हैं। दस-बारह वर्ष बाद बटुक शास्त्री बनने के बाद लौटने पर तुझे बताऊँगा कि इस मामले में शास्त्रों में क्या लिखा है।”

    और तब कैसे हँस पड़े थे, वो दोनों एक साथ? जैसे कि अरण्य में के फूल हों। किसनराम की घरवाली के सिर पर निंगाले की डलिया थीं—पीले पिछौड़े के छोर से ढकीं हुई दुरगुन (गौने) की पूरियाँ रही होंगी उसमें और आलू के गुटके या गंडेरी का साग!

    कई वर्षों के बाद एक बार छुट्टियों में घर लौटे थे कुछ दिनों को, तो किसनराम से पूछा था उन्होंने कि—“किसन, कोई संतान हुई या नहीं?” और किसनराम के उत्तर से उन्हें लगा था, जैसे वह उसी दिन की प्रतीक्षा में है अभी, जबकि पांडे जी उसे शास्त्रों में लिखा उत्तर बताएँगे।

    काशी से शास्त्री करके लौट आने के बाद भी, उनका मन वहीं प्रश्न पूछने को हो रहा था कि किसनराम की दुखांत गाथा से मन भर आया।... उन्होंने अनुभव किया, इस बार किसनराम की घरवाली ने अधजली बीड़ी को अपनी हथेली में घिस लेने की जगह, किसनराम के कलेजे के साथ घिसकर, बुझा दिया है और किसनराम के प्रति उनकी इस संवेदनशील कल्पना पर उसकी घरवाली कही अदृश्यमान तौर पर उपस्थित-सी खिलखिला रही है।

    बचपन बीतते बीतते ही शादी हो गई थी किसनराम की, पूरी तरह सयाना होने-होने तक में ही संबंध टूट भी गया। उन दिनो किसनराम अकेला ही रहता था। अनेकों के मना करने के बावजूद पांडे जी के पिता जी ने किसनराम को ही अपना हलिया रख लिया था। हलिया रख लेने के बाद, ख़ुद उन्होंने तथा पांडे जी की माँ ने किसनराम से कहा था— “किसनराम, पहली तो विश्राम लेने को डाल पर आकर बैठी हुई-जैसी भुर्र उड़ गई, अब तू क्यों उसके लिए जोग धारण कर रहा है? अरे, तू ब्याह कर लेता, तो हमारी खेती भी कुछ और ज्य़ादा सँभलती। बिना जोड़ी को बैल तक नहीं खिलता, रे! तू तो हलिया है। नहीं करता दूसरा ब्याह, तो पहली को ही लौटा ला!”

    किसनराम भली-भाँति जानता था, एक तो बिन घरवाली का हलिया वैसे ही पूरा श्रम नहीं कर पाता गुसाँईयों के खेत मे, तिस पर उसका तो दायाँ हाथ भी पूरा नहीं लगता है। लेकिन भवानी? शेष जीवन में उसके पुनरागमन की संभावना अब सिर्फ़ कल्पना में ही हो सकती थी। तब आख़िर उसने एक दिन हाथ जोड़कर अपनी अनुपयोगिता को स्वीकार लिया था और अपने सौतेले भाइयों में से किसी को हलिया रख लेने को कहते-कहते हुए रो पड़ा था—“बौराणज्यू, मैं अभागा तो हाथ से झड़ी लोथ ही नहीं लौटा पाया, कलेजे से झड़ चुकी कैसे लौटाऊँ?”

    और उन दिनों गाँव-भर में यह बात फैल गई थी कि सयानी औरत का मन भी कैसा कोमल होता है, माँ का जैसा। ख़ुद कुसमावती बहूरानी ने ही अपने हाथों से किसनराम के आँसू पोंछ दिए थे। श्राह्मणी, वह भी पुरोहित घराने की और अपने हाथों से शुद्र के आँसू पोंछे, लेकिन भैरव पांडे जी ने ही क्या कहा था कि यह अशुद्ध होना नहीं, शुद्ध होना है। केवल पांडे के पूछने पर कुसुमावती की आँखें फिर गीली हो आई थीं। बोली थी—“दुख सभी को एक होती है, केवल! मैंने आँसू पोंछे तो मेरे पाँवों के पास की मिट्टी उठाकर, कपाल से लगाते हुए बोला किसनराम—“बौराणज्यू, पारसमणि ने लोहे का तसला छू दिया है, मेरे जनम-जनम के पापों का तारण हो गया।”...जनमा शुद्र है, मगर बड़ा मोह, बड़ा वैराग्य है किसनिया में। भवानी ने तो अपना नाम गारत कर दिया। इस भोला भंडारी को उजाड़ कर गई।”

    पांडे जी अनुभव करते रहे थे कि कहीं भवानी के प्रति किसनराम में अति मोह था और इसलिए ही है इतना विराग। उन दिनों हफ्त़े-हफ्त़े किसनराम अपने कपड़े भी धोता था। भोजन भी नित्य समय पर कर लेता। खेतों में काम होता, तो पांडे जी के घर से ही रोटियाँ जाती थीं और किसनराम विनम्रतापूर्वक केवल पांडे की बहू से कह देता—“बौराणज्यू, रोटियाँ मुझे टैम से ही दे देना।”

    एक दिन, खेत जोतने से निबट कर, किसनराम सुँयात के किनारे कपड़े धो रहा था। सिर्फ़ लँगोटी पहने, कमर से नीचे पानी और ऊपर धूप में, जाने किस ध्यान में टखनों तक पानी में डूबे बगुले की तरह खड़ा था। लँगोटी पानी की पारदर्शित और हवा की हिलोर में, अपनी धुरी पर से उड़ान भरती मालूम पड़ती थी। शेष कपड़े सूखने डाल रखे थे, तभी यजमानी से लौटते पांडे जी आए। उनके नदी पार करते समय वह जल्दी-जल्दी पानी से अलग हट गया था कि उसके पाँवों को छुआ जल उन्हें लगे। पांडे जी ने यजमानी से मिली मिठाई में से कुछ मिठाई उसे दी थी और कहा था, “किसन, अच्छा नहीं किया भवानी ने। नहीं तो, तुझे अपने हाथों से खाना पकाने और कपड़े धोने से मुक्ति मिलती।...और तू-मैं तो साथ मछलियाँ पकड़ते थे—अब तू यों नदी छोड़ के अलग क्यों होने लगा? इतनी दूर तक छूत मैं नहीं मानता, रे!

    किसनराम के हाथ जुड़ आए थे और ओंठों पर हलकी-सी हँसी–“महाराज, जिस दिन बड़ी बौराणज्यू की सोने की छड़ी-जैसी उँगलियों का स्पर्श पा लिया आँखों ने, उस दिन से, कलेजे की जलन से कुछ मुक्ति मिल गईं, इतना ही बहुत। नहीं तो कहाँ अपवित्र—कहाँ पवित्र...”

    यों ही वर्षों बीतते गए। केवल के पिता भैरव पांडे जाते रहे, फिर कुसमावती बहू भी। धीरे-धीरे किसनराम की कमर भी झुकने लगी; मगर हल उसने नहीं छोड़ा। जब तक ख़ुद वह हल नहीं छोड़े, तब तक हलिया ने बदला जाए, केवल पांडे निर्णय कर चुके थे। ज़रूरत पड़ने पर रोज़ाना मज़दूरी देकर खेत जुतवा लिए जाते, मगर किसनराम को कोई नहीं टोकता। केवल पांडे की पत्नी चंद्रा बहूरानी भी अपनी सास की ही भाँति सहानुभूति उसके प्रति रखतीं। कभी-कभी किसनराम कृतज्ञ भाव में कह भी देता कि “बड़ी बहूरानी जी की तो देह-ही-देह गई है, आत्मा छोटी बहुरानी में समा गई।”...और ऐसा कहने के बाद, बहुधा, वह पांडे जी से आत्मा-परमात्मा के संबंध में तरह-तरह के प्रश्न पूछने लगता—“महाराज, शास्तरों में तो आत्मा-परमात्मा के ही मंतर लिखे हुए रहते हैं न? आपके चरणों का सेवक ठहरा, दो-चार मंतर मेरे अपवित्तर कानों में पड़ जाएँ, तो मेरी आत्मा का मैंल भी छँट जाए। क्या करूँ, गुसाई! घास खाने वाले पशु बैल नहीं हुए, अनाज खाने वाला पशु किसनराम ही हो गया।...आपका जनम-जनमांतरों का सेवक हुआ मैं, गुसाँईज्यू! दो-चार मंतर ऐसे मार दीजिए इस शरणागत किसनराम के फुटे कपाल में भी कि..”

    ‘कि’ से आगे क्या, इसे सिर्फ़ उसकी आँखों में ही पढ़ा जा सके, तो पढ़ा जा सके। तुरंत बात बदलता पूछने लगा—“महाराज, मरने के बाद आत्मा कहीं परलोक को चली जाती है, या इसी लोक में भटकती रह जाती है?”

    चौरासी लाख योनियों में एक योनि प्रेतात्मा-योनि भी होती है, यह जानने के बाद से किसनराम और भी अधिक जिज्ञासु हो गया था कि आत्मा की इच्छा होने पर भी क्या देह-मात्र की इच्छा से प्रेत-योनि मिल सकती है?

    जब यजमानी में नहीं जाना होता, पांडे जी खेतों में चले जाते। उन्हें इस बात का बोध था कि जब चंद्रा बहूरानी खेत में होती हैं, किसनराम एक़दम दत्तचित्त होकर काम करता रहता है, मगर जब पांडे जी ख़ुद होते हैं, तो बार-बार सुर्ती फाँकने के बहाने, उनसे तरह-तरह की बातें पूछने लगता है। उसकी बेतुकी बातों से अब अनुभव करने पर भी पांडे जी किसनराम के प्रति कठोर नहीं हो पाते थे। जैसी बहकी-बहकी बातें वह इन दिनों करने लगा था, यही भासित होता दिखता कि निरंतर अंतर्मुखी होता जा रहा है। आँखें इतनी धँस गई थीं अंदर कि मरने के बाद तालाब में डूबी पड़ी मछली-जैसी कोई चीज़ उनमें चमकती मालूम थी और पांडे जी को लगने लगा कि यह उसकी आसन्न मृत्यु का पूर्वाभास है क्या?

    औरत-सन्तान-हीन लोगों की इस लोक से मुक्ति नहीं हो पाती है और वे रात-रात भर मशालें हाथ में थामे, अपने लिए पत्नी और सन्तति खोजते, काया-हीन प्रेत-रूप में भटकते रहते है, ‘टोले’ बनकर—ऐसा कभी पांडे जी ने ही उसे बताया था। यह भी कि उच्च जाति के लोग जो प्रेतयोनि में ज्य़ादा नहीं जाते, औरत-सन्तति से वंचित रहने पर भी, उसका कारण यह कि उनकी सद्गति शास्त्रोक्त-पद्धति से हो जाती है। यह सब जानने के बाद से, किसनराम निरंतर उनसे ‘सद्गति’ के बारे में तरह-तरह के प्रश्न पूछने लगा।

    अभी कुछ ही दिन पहले उसने फिर पूछा था कि ख़ुद प्रेत-योनि में भटका जाए, या कि जिस पर तृष्णा रह गई हो, उस पर प्रेत-रूप में छाया चली जाए, तो इससे मुक्ति का उपाय क्या है?

    कई बार के पूछने पर, किसनराम, कुछ खुला था—“महाराज, आप तो मेरे ईष्ट देवता-सरीखे हैं, आपसे क्या छिपाना। इधर शरीर बहुत कमज़ोर हो चला। समय से खा नहीं पाता। वात-पित्त बढ़ गया, ठीक से आँख भी नहीं लग पाती और समय पर नहाने-कपड़े धोने की शक्ति अब रही नहीं, गुसाँईज्यू!...और जब-जब भूख से पेट जलता है, जब-जब खाँसी और चड़क से देह टूटने को हो आती है और इधर-उधर झाँकने पर सिर्फ़ अपनी ही दुर्गंध, अपनी ही प्रेत-जैसी छाया घेरने लगती है, तो पापी चित्त बस में नहीं रहता, गुसाँईज्यू! जिसे जवानी के दिनों में कभी गाली नहीं दी, उसे अब मरते समय जाने कैसी भयंकर और पलीत गालियाँ बकने लग जाता हैं। आत्मा फाँसी के फंदे पर लटकी हुई-सी धिक्कारती रहती है। किसनराम, धिक्कार है रे तुझ डोम को...अब मरते समय पिशाच क्यों बन रहा है—अब मसानघाट की तरफ़ जाते समय अपनी घरवाली को राँड-पातर मत कह, रे कसाई!...मगर ये दो ठँठ उँगलियाँ चरस-भरी बीड़ी-जैसी सुलगती, मेरे कपाल को दाग़ती रहती हैं, कि “अरे, पातरा! तूने जो मेरा कलेजा ही नहीं निकाल लिया होता, तो आज इस वद्धावस्था में तू नहीं...कोई और तो होती...गुसाँईज्यू, कहीं मैं प्रेत बन गया, तो?”

    “किसनराम, भवानी को तू भूला नहीं है, रे! जैसी दगा वह कर गई तेरे साथ, किसी और के साथ करती, तो वह थू-थू थूकता और दूसरी ले आता, मगर तेरी मोह तो घटा नहीं, विषाद चाहे जितना बढ़ा हो। तेरी गालियाँ प्रेत-पिशाच की नहीं, दुखी मनुष्य की हैं।”

    “गुसाँईज्यू डाल-पात टूटा वृक्ष तो फिर से पंगुर जाता है, मगर जड़ से उखड़ा क्या करे? जब तक हाथ-पाँव चलते रहे, टैम से पेट को आग बुझाना, टैम से मैंले कपड़े धोना इसीलिए करता रहा कि नहीं कर पाऊँगा, भवानी के लिए गाली निकलेगी मुँह से। महाराज, आपने तो उसे पुरपुतली की तरह मेरे आगे-पीछे उड़ते ख़ुद ही देखा था? उस तितली जैसी चक्कर काटती की गँवा देने के बाद, कोई दूसरी सयानी औरत ले आता, तो लगता, आगे-पीछे झपट्टे मार रही है।...महाराज, आप भी कहते होंगे, इस किसुनवा डोम की मति वृद्धावस्था में चौपट हो गई, मगर मैंने उस पुरपुतली को कभी इतनी दूर नहीं उड़ाना चाहा, गुसाँईज्यू, कि दिखना ही बंद हो जाए। मैं कपाल में हाथ लगाए अगाश हेरता रहूँ, वह दुपहरी का तारा हो जाय।”

    पांडे जी को लगा था—इसकी धूमी-हुई-सी आँखों में जो तालाब में की मछली-जैसी चमकती है, वह और कुछ नहीं। यह तो अपने ही ठहरे जल में ख़ुद तब का किसनराम ही डूबा पड़ा है, जब वह बीड़ी का जलता ठँठ हथेली में घिस लेने वाली किशोरी, भवानी को साथ लेकर काम पर निकलता और शास्त्रों की व्यवस्था पूछता फ़िरता था कि... “महाराज, शास्तरों में घरवाली के संबंध को जनम-जनमांतरों का संबंध माना गया है ना?”

    अभी कुछ ही दिन पहले उसने कहा था—“महाराज, आजकल जो तड़फ रहा हैं, इसीलिए कि म्लेच्छ योनि को पहले ही ठहरा, ऊपर से यह संसारी कुटिल चित्त की हाय-हाय! गरुड़ पुराण सुनने को तो पहले ही हक नहीं ठहरा, फिर सुनाए भी कौन? कभी-कभी जंगल मे आँखें बंद करके लेट जाता हैं, गुसाँईज्यू, कि कोई आकाश में उड़ता गरुड़ पक्षी ही मुझे मुर्दा समझे करके, मेरे माथे पर बैठ कर टिटकारी छोड़ जाए...महाराज, अपदे तारण-तरण की उतनी चिंता नहीं, इसी ध्यान से डरता हूँ कि कही प्रेत-योनि में गया, तो उसे लग जाऊँ? हमारी सौतेली महतारी में हमारे बाप का प्रेत आने लगा, महाराज! उसके लड़के गर्म चिमटों से दाग़ देते हैं उसे। वह नब्बे साल की बुढ़िया रोती-बिलबिलाती है। कहीं भवानी के लड़के भी उसे ऐसे ही दागें?...जिसे जीते-जी अपना सारा हक-हुकम होते भी कठोर बचन तक नहीं कह सका कि—“जाने दे, रे किसनराम, पुतली-जैसी उड़ती छोरी है, जहाँ उसकी मर्जी आए, वहीं बैठने दे”...उसे ही मरने के बाद दाग़ते कैसे देख सकूँगा?...अच्छा, गुसाँईज्यू, अगर कोई आदमी जीते-जी अपनी आँखें निकालकर किसी गरुड़ पक्षी को दान कर दे, तो वह प्रेत-योनि में भी अंधा ही रहता है, या नहीं?”

    पांडे जी अनुभव कर रहे थे, ज्यों-ज्यों किसनराम मृत्यु की ओर बढ़ रहा है, त्यों-त्यों भवानी एक रंग-बिरंगी तितली की तरह, उसके अंदर-ही-अंदर उडती; उसे एक ऐसे विभ्रम की ओर ले जा रही है, जहाँ मन के बवंडरों के प्रतिरोध की क्षमता देह में रह जाए, बुद्धि में। वे डरने लगे थे, कभी अपनी अंधभावुकता में किसनराम सचमुच आँखें निकाल बैठे। उसकी भैंसी आँखों मे झाँकने पर उनको लगता—किसनराम ने मछली पकड़ने के जाल को ऊपर से मूठ बांधकर, नीचे की ओर गहराइयों में फैला दिया है और बार-बार उसकी अतृप्त कामनाएँ उस जाल में फँस कर छटपटाती हैं—बार-बार वह, अपना ही यह माया-जाल अंदर की ओर समेटने की कोशिश करता है।...और तब उसकी आँखों के आस-पास की झुरियाँ ऐसे आपस में सिमट आती है कि लगता है जाल की बँधी हुई मूठ एक़दम कस दी गई है और डोरियों में भीगा पानी निचुड़ रहा है।

    ऐसी आँखों को अपनी ही देह पर सहना कितना कठिन होता होगा, जिन्हें दूसरे तक सह सकें? उस निरे अशिक्षित और अबोध किसनराम की आँखों की गहराई में जो चमक दिखाई देती थी, पानी के तल में मरी पड़ी मछली की-सी चमक, उसे देखने में पांडेजी को यक्ष-युधिष्ठिर प्रसंग याद जाता। उन्हें लगता—बिना अपनी प्रश्नाकुल आँखों के लिए तृप्ति पाए, यह किसनराम उन्हें छोड़ेगा नहीं। जीते-जी, उपरांत। उन्होने किसनराम से कहना शुरू कर दिया—“शास्त्रों में यह भी तो लिखा है कि जो व्यक्ति पवित्र मन से प्रायश्चित्त कर लेता है, वह अपनी मरणोत्तर-स्थिति में अवश्य ही स्वर्गवासी हो जाता है।”...

    किसनराम के प्रश्न पूछते ही, अब पांडेजी कह देते— “किसनराम, तू तो एक़दम निश्छल-निर्वैर मनुष्य है। तुझ जैसे सात्विक लोग प्रेत-योनि में नहीं जा सकते।” मगर इससे किसनराम के प्रश्न ही घटे थे, उसकी बेचैनी, उसका दुख नहीं। पहले जिस बेचैनी को वह प्रश्नों में बाँट देता था, अब वह जैसे चट्टान में से बूँद-बूँद रिसते जल की तरह उसके अस्तित्व में इकट्ठा होती जा रही थी।...और पांडेजी को लगता था, किसनराम की यह बेचैनी यदि नहीं घटी, तो उसकी मुक्ति सचमुच कठिन होगी। उसे यदि नदी में बहा भी दिया गया, तो अपनी ही अर्थी के बाँस के सहारे टिके हुए शव-जैसी उसकी विक्षुब्ध आत्मा, सतह पर उतरकर ऊर्ध्वमुख हो आएगी।...किसनराम की आँखों में मृत्यु की छाया दिखाई पड़ने लगी है और आँखों के रास्ते जिनके प्राण निकलते हैं, उनका चेहरा कितना डरावना हो जाता है!

    सुँयाल के किनारे चलते-चलते अतीत के आग्रह में होते पांडेजी को ऐसी लग रहा था, कोई उनकी पीठ पर लदी उस पोटली को नीचे धरती की ओर खींच रहा है, जिसमें यजमानी से मिली हुई सामग्री है। दूर के गाँव में एक वृद्ध यजमान की मृत्यु हो गई थी और तेरहीं का पीपल छुआकर, पांडेजी वही से वापस लौट रहे थे। पोटली में अनेक अन्य वस्तुओं के साथ, जौ-तिल भी थे और एक जोड़ी बर्तन भी। बाक़ी बर्तन तो गत-किरिया के दिनों ले चुके थे, आज सिर्फ़ एक लोटा, एक कटोरा, एक चम्मच और एक थाली!

    किसनराम के मरने पर, हो सकता है, उसके सौतेले भाई उसके थोड़े-से जो बतरन थे, उन्हें भी समेट ले गए हों?...और, संभव है, अपनी हीन नीयत के कारण, मरे किसनराम के नाम पर कोई बर्तन लगाएँ? पांडेजी को याद आया, चंद्रा बहूरानी जो पानी का लोटा खेत में ले जाती थीं, उसे किसनराम छूता नहीं था। बहूरानी लोटे से पानी छोड़ती थीं, और वह दाईं हथेली ओठों से लगाकर, गटागट पीता था। तब भी कैसी जन्म-जन्मांतरों की-सी मालूम देती थी उसकी प्यास? पानी गटकने की आवाज़ कैसे साफ़ सुनाई पड़ती थी? गले की घुंडी एकाएक कैसे लय में डूबत-सी प्रकट होती थी?...सोचते-सोचते पांडेजी को लगा, जैसे किसनराम पीछे-पीछे चलता हुआ, उनकी पीठ पर बँधे लोटे को अपने ओंठों की ओर झुका रहा है। पांडेजी के पाँव एक़दम भारी-भारी हो आए। उन्हें याद आया, यजमान के मरने से पहले, यों ही तसल्ली देने को, एक दिन उन्होंने किसनराम को यह आश्वासन दे दिया था कि उसके मरने पर वे ख़ुद उसका तर्पण कर देंगे और तब किसनराम कुछ आश्वस्त हो गया था— “महाराज, आपके हाथ की तिलांजलि से तो मुझ अभागे के समस्त पापों का तारण हो जाएगा! मगर कहीं ऐसा तो नहीं, गुसाँईज्यू, कि उलटे आप-जैसे पवित्तर ब्राह्मण देवता से तर्पण कराने का कोई दंड भुगतना पड़े मुझे?”

    पांडे जी भी जानते थे, किसनराम का तर्पण उनके लिए शास्त्र-विरुद्ध और निषिद्ध है, मगर उसे आश्वस्त करने का एकमात्र उपाय ही यही रह गया था। उन्होंने कह दिया— “जाति तो रिट्टी की होती है, किसनराम! मिट्टी छूट जाने के बाद, सिर्फ़ आत्मा रह जाती है और आत्मा तो अछूत होती नहीं।...” मगर इस समय इन सारे तर्क़ो में जाने का अवसर है कहाँ? चित्त इसी दुविधा में हो गया है कि कहीं किसनराम मर गया हो, तो क्या वो अपना वचन पूरा कर सकेंगे?

    मन ही मन केवल पांडे को अब आभास हुआ कि प्रार्थना करते जा रहे हैं—“और चाहे जो मरा हो—किसनराम मरा हो!”

    गाँव में उन दिनों सिर्फ़ दो के हो मरने की आशंका ज्य़ादा थी, एक किसनराम और दूसरी उसकी सौतेली माँ!

    केवल पांडे एक क्षण को तो संकोच में हुए कि यह किसनराम की सौतेली माँ के प्रति पूर्व-ग्रह करना तो होगा कि किसनराम की जगह उसका भर जाना अच्छा मालूम पड़े? फिर इस मनोभाव में हो गए कि नब्बे से ऊपर गए को तो विदा होना ही है—आज नहीं, तो कल।

    भारी क़दमों से चलते—चलते श्मशान तक पहुँचे, तो वहाँ सिर्फ़ अंतिम रूप से बुझती चिता शेष थी। मुर्दा फूँकने वाले जा चुके थे। श्मशान सूना पड़ा था। नदी के बहने की आवाज़ के साथ सन्नाटा भी बोलता मालूम पड़ता था, जैसे कि किसी के जा चुके होने का वृत्तांत सुनाता हो।

    पांडे बाहरी आचार-संस्कार में शूद्रों को जितना अछूत समझते, भावना में नहीं। पिता और माँ से भी उन्होंने संवेदना और उदारता ही पाई, मगर परम्परागत सामाजिक-व्यवस्था में जितना उन्हें बाहरी आचार-व्यवहार को जीना पड़ता, उतना भावना जगत का अवसर नहीं था। इस एकांत में भी अपने मंतव्य पर जाते हुए उन्हें एक सिहरन-सी ज़रुर हो आई।

    किसनराम के संबंध में जिज्ञासा बढ़ती गई थी, मगर दूर से पूछ लेने में जो सुविधा समझी थी, अब वह भी नहीं रही। जानना चाहते थे, किसनराम ही था, या उसकी सौतेली माँ थी, या आकस्मिक रूप से मरा कोई और, मगर दूर से देखने पर चिता में शव भी जलता दिखाई नहीं दे रहा था। संभव है, पूर्णदाह कर दिया गया हो? यह भी संभव है कि अधजला शव बहा दिया हो? लेकिन पूछे किससे? नदी से कि अरण्य से? आर-पार तक सिर्फ़ घाटी के अंगवस्त्र फैले पड़े हैं।

    जिज्ञासा के तेज़ प्रवाह में पांडे थोड़ा आगे बढ़ गए। अजीब मनस्थिति हो गई उनकी। आशंका पाँवों को पीछे लौटा लेना चाहती कि कहीं दूर खेतों में काम करता या इस ओर आता हुआ कोई व्यक्ति श्मशान टटोलते देखेगा उन्हें, तो जाने क्या समझे। एक अछूत के शवदाह के बाद वो वहाँ आख़िर खोज क्या रहे हैं? मगर जिज्ञासा जैसे भ्रमित चित्त को चारों ओर घुमा देती कि कहीं कोई ऐसा अब शेष, यानी किसनराम की सौतेली माँ का घाघरा-पिछोरा ही दिख जाए, जिससे आभास हो कि कोई औरत ही मरी है, और शंका टले। तभी, एकाएक कोई कपड़ा उनके पाँव से लिपट गया और पांडे चौंककर, पीछे हट गए देखा, बिलकूल किसनराम की-सी काली दोकलिया टोपी है, जिसे चंद्रा बहूरानी से रोटियाँ लेते में वह लोहे के तसले की तरह आगे फैला देता था! नहीं, इस टोपी को पहचानने में चूक नहीं हो सकती। इसमें और किसनराम के सिर में कोई अंतर नहीं। इस टोपी को किसनराम के सिर के बिना ज़रुर देख रहे हैं लेकिन किसनराम का सिर तो इस टोपी के बिना कभी देखा नहीं!

    किसनराम!...ओमविष्णुर!...केवल पांडे को लगा, तसले की तरह फैली हुई उस टोपी के पास ही किसनराम का प्रेत भी उपस्थित है और याचना-भरी, आँखों से उन्हें घूर रहा है— “महाराज!”

    “हे राम!”...दुख और विषाद में पांडे जी की आँखें गीली हो आईं। अब तक अँधेरे में के साँप की तरह डोलती आशंका के प्रमाण-सिद्ध हो जाने से, पाँव अपने आप एक़दम हल्के हो गए, जैसे घटना का घटित हो चुकना सारे भ्रमों से निर्भ्रांत कर गया हो। केवल पांडे थोड़ा पीछे लौट कर, फिर आगे निकल आए, गाँव की ओर जानेवाली सड़क पकड़ने के लिए। थोड़ी दूर और सुँयाल के किनारे-किनारे ही चलना था, मगर श्मशान-भूमि से जरा ऊपर पहुँचते ही, फिर पाँव भारी पड़ने लगे। लगा, किसनराम पीछे छूट गया है, और टोपी फैलाए हुए—आख़िर क्या माँगना चाहता रहा होगा किसनराम अपने अंतिम क्षणों में? सिर्फ़ यही तो कि उसकी प्रेत-मुक्ति हो जाए? शायद, भरते समय किसी से कह भी गया हो कि पांडे जी को इस बात की याद दिला दी जाए कि किसनराम का तर्पण करने का आश्वासन दे रखा था उन्होंने!

    उन्हें याद है, अंतिम कुछ दिनों अपनी मुक्ति की जो आश्वस्त किसनराम की आँखों में गई थी, वह कुछ सामान्य थी। प्रेतमुक्ति के इतमीनान में हो गए होने की प्रतिच्छाया उसके बोलने, सुनने, खाने, पीने और चलने-फ़िरने तक में झलकने लगी थी। अब वह आत्मपीड़ित नहीं, प्रशांत लगता था। उसके जर्जर शरीर में एक मद्धिम लय-सी गई थी। केवल पांडे का यह कहना कि एकांत में ही वो शास्त्रोक्त विधि से उसका तर्पण कर देंगे—सुनकर वह विरागियों की-सी सौम्यता में खो गया था। अब कही ऐसा हो, उसकी मरणोत्तर-आत्मा यही फिर खोजती रही हो कि पांडे उसको तर्पण करते भी हैं, या नहीं?

    केवल पांडे ज्यों-ज्यों आगे बढ़ते जाते, लगता था, किसनराम उनको पीछे लौटा लेना चाहता है और इससे मुक्ति का एकमात्र उपाय है, उसका तर्पण कर दिया जाए। तमाम-तमाम दुविधाओं से मुक्ति का यही एक मार्ग शेष है। जाति-बिरादरी के लोगों की जानकारी में तो कुछ भी करना संभव नहीं। यहाँ, इस सुँयाल-घाटी के एकांत में तो सिर्फ़ वह ईश्वर साक्षी रहेगा, जिसके लिए मनुष्य-मनुष्य सब एक हैं। कोई डोम है, कोई ठाकुर-ब्राह्मण! मगर श्मशान के समीप ही तर्पण करने पर कोई आता-जाता देखेगा, तो प्रश्नवाचक आँखों से घूरेगा ज़रुर। और कहीं यह अफ़वाह फैला दे कि पैसे के लोभी ब्राह्मण अब चोरी-चोरी शुद्रों का पौरोहित्य भी करने लगे?

    थोड़ी ही ऊपर, एक पतली धारा सुँयाल से मिल रही थी। पांडे जी आगे बढ़े और संगम के पास एक ऊँची शिला पर पोटली रख दी। पोटली खोलते में लोटा एकाएक दैवप्रेरित-सा बाहर को लुढ़क पड़ा। पांडे जी का मन भर आया। थोड़ी देर तक वो किसनराम के साथ बीते बाल्यावस्था के क्षणों की स्मृति में डूबे ही रह गए। आख़िर धीरे से जल भरकर, उन्होंने नदी-किनारे की मिट्टी में बेदी जैसी बनाकर, लोटा रख दिया। ज़िंदगी भर तो यजमानों की हथेली से दान ही ग्रहण किया है, आज थोड़ा-सा दान अपने सेवक के नाम पर स्वयं भी क्यों ग्रहण कर लें? चिंताना में उदार होते-होते, पांडे यह भी भूल गए कि एक शूद्र का तर्पण कर रहे हैं। थाली-गिलास और कटोरी भी उन्होंने निकाल लिया। थाली में जौ-तिल डाल लिए। थोड़े से कुश भी बीन लाए। सारी सामग्री ठीक कर लेने के बाद, पहली तिलांजलि देने के लिए, “किसनराम प्रेत प्रेतार्थ” कहते-कहते उनका मन हो आया, पीछे लौटकर श्मशान के पास पड़ी किसनराम की टोपी उठा लाएँ और उसी में जौ-तिल छोड़ दें—विष्णु-विष्णु...

    किसनराम का तर्पण करके गाँव के एक़दम समीप पहुँच गए, तो केवल पांडे को एकाएक याद आया कि कल ही उन्हें अपने पिताजी का श्राद्ध भी तो करना है?...पहले दिन एक शूद्र का तर्पण करने के बाद फिर अपने धर्मप्राण और शास्त्रजीवी पिता का श्राद्ध! पांडे जी ने अपने हाथों की ओर देखा। लगा, अशुद्ध हो गए हैं। उद्विग्न होकर, अपने मुँह पर अंगुलियाँ फिराई, तो वातावरण में सुर्ती तोड़ने की जैसी तीखी गंध व्याप्त होती अनुभव हुई।

    पांडे सोच रहे थे, यों चोरी-चोरी शुद्र का तर्पण करने के बाद, बिना घरवालों से कहे-सुने उन्हें पिताजी का श्राद्ध कदापि नहीं करना चाहिए। स्वर्गस्थ पितर के प्रति यह छल अनिष्टकर ही होगा। जानते थे, अछूतों के प्रति तमाम उदारता के बावजूद, जातीय-संस्कार की निष्ठा और कट्टरता उनके पिता में प्रभूत थी। जो शास्त्रसम्मत है, वही मानवीय भी है, ऐसा उनका मत था और इसे निबाह भी। जिसने जीवन-भर शास्त्र-विरुद्ध कोई कर्म नहीं किया, उसी का श्राद्ध अशुद्ध हाथों से कैसे किया जा सकता है?

    गाँव समीप आता जा रहा था। मगर केवल पांडे बहुत थक गए थे। उन्हें भय लग रहा था, शुद्ध मन से श्राद्ध करने के लिए उन्हें सत्य बोलना ही पड़ेगा, फिर चाहे घरवालों और बिरादरी में कैसी ही अप्रिय प्रतिक्रिया क्यों हो। उन्हें लगा, किसनराम की प्रेत-मुक्ति तो हो गई होगी, लेकिन जब शूद्र तर्पण के पश्चात्ताप का प्रेत उनसे चिपट गया है। किसनराम की याद आने पर, माथे का पसीना पोंछते हुए, उन्होंने पुनः श्मशान की दिशा की ओर आँखें उठाई। लगा, अस्ताचलगामी सूर्य और उनके बीच में इस समय उनका अपना ही प्रेत लटका हुआ है—और इसी अवसन्नता में, कुछ देर, वही पगडंडी के किनारे की शिला पर बैठे ही रह गए।

    सौतेली माँ को फूँककर, दूसरे रास्ते से घर को वापस लौटते किसनराम ने केवल पांडे को ध्यान में डूबा हुआ-सा, उदास सड़क के किनारे बैठे देखा, तो परम श्रद्धाभाव में “महाराज” कहते हुए, दंडवत में झुका।

    जैसे कहीं अंतरिक्ष में से आती-सी पुकार को सुनकर, केवल पांडे ने चौंककर सामने की ओर दृष्टि की, तो किसनराम का नंगा सिर दिखाई दिया। बीच सिर में, जहाँ पर बाल नहीं रह गए थे, पसीने की बूँदें थीं। केवल पांडे चकित-से देखते ही रह गए। किसनराम दोनों हाथ दंडवत में जोड़े, ज़मीन पर यथावत् झुका ही था। “जीऽऽ ताऽऽ रहो”, कहने को हाथ ऊपर उठाते हुए, केवल पांडे को लगा, जैसे अपने को आसमान में लटके किसी प्रेत के बँधन से मुक्त कर रहे हों।

    स्रोत :
    • पुस्तक : हिंदी कहानी संग्रह (पृष्ठ 182)
    • संपादक : भीष्म साहनी
    • रचनाकार : शैलेश मटियानी
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी

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