भारतेंदु हरिश्चंद्र

bharatendu harishchandr

गोपालराम गहमरी

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भारतेंदु हरिश्चंद्र

गोपालराम गहमरी

और अधिकगोपालराम गहमरी

     

     

    जे सूरज ते बढ़ि गए, गरजे सिंह समान।
    तिनकी आजु समाधि पर, मूतत सियरा खान॥
    —भारतेंदु

    मैं सन् 1879 ई में गहमर स्कूल से मिडिल वर्नाक्यूलर की परीक्षा पास करके चार वर्ष तक घर बैठा रहा। गाजीपुर जाकर अँग्रेज़ी पढ़ने का ख़र्च मेरी माता ग़रीबी के कारण नहीं सम्हाल सकीं। मैं 13 वर्ष का था, इस कारण नॉर्मल स्कूल में भरती होने से वंचित हुआ। गहमर स्कूल में ही स्वयं हेडमास्टर से उच्च शिक्षा पाता हुआ लड़कों को भी पढ़ा रहा था। इस तरह चार वर्ष बीत गए। सन् 1883 में पटना नॉर्मल स्कूल में भरती हुआ। हिंदी वालों के लिए और आश्रय ही नहीं था।

    सन् 1884 में बलिया जिले का बंदोबस्त हिंदी में हो रहा था। वहाँ के इंचार्ज मुंशी चेथरूलाल डिप्टी कलेक्टर थे और कलक्टर रॉबर्ट रोज़ साहब हिंदी के प्रेमी थे। कानूनगो धनपतलाल सुंदर हिंदी लिखने वालों की खोज में पटना नॉर्मल स्कूल पहुँचे। वहाँ से चालीस छात्रों को बलिया लाए। मैं भी उन्हीं में पटने से बलिया आया। बलिया जिले में गड़वार में बंदोबस्त का दफ़्तर था। हिंदी के सैकड़ों सुलेखक उसमें काम करते थे। खसरा जमाबंदी सुबोध सुंदर देवनागरी अक्षरों में लिखने वाले मुहर्रिर सफ़ाई कहलाते थे। सौ नंबर खेतों का खसरा लिखने पर चार आना मिलता था, इस काम से बहुत से हिंदी के लेखक अपना उदर-भरण करते थे। मथुरा के मातादीन शुक्ल और जोरावर मिश्र उसमें सुयशमान सुलेखक थे। कलेक्टर साहब के हिंदी प्रेम का उन दिनों डंका बज गया था। मातादीन शुक्ल ने 'देवाक्षरचरित' नाटक लिखकर वहाँ स्टेज किया था।
    उसी में नदी बनी हिंदी कलक्टर साहब के द्वार पर पधारी थीं और द्वारपाल के पूछने पर कहा था—
    संस्कृत देवासुअन देवाक्षर मम नाम।
    बंगदेश आदिक रमत आइ गयों एहि ठाम॥
    श्रवण सुन्यो यहि नगर को हाकिम परम उदार।
    सो पहुँचावहु तासु ढिग मनिहौं बड़ उपकार॥

    इस निवेदन पर द्वारपाल ने ग़रीबिनी हिंदी को कलक्टर साहब के सामने पहुँचा दिया। उन्होंने सम्मान से हिंदी का यर्थाथवाद और सद्गुण पर रखकर उसको स्थान दिया और हिंदी में बंदोबस्त का काम जारी हुआ। यही नाटक का दृश्य था।
    बिहार की कचहरियों में पंडित केशोराम भट्ट, पंडित शालिग्राम त्रिपाठी, ठाकुर रामदीन सिंह आदि सज्जनों के उद्योग से जो हिंदी प्रचलित हुई थी, जिसका स्थान कैथी ने अधिकृत कर लिया था। उसके पश्चात यू.पी. में ही पहले-पहल हिंदी का सरकारी काग़ज़ों में यह प्रवेश पहला कदम था। नहीं तो उन दिनों हिंदी का नाम भी कोई नहीं लेता था। पाठशाला तो पंडितों की बैठक में थी जहाँ वर्षों सारस्वत कंठ करने वाले छात्रों की पढ़ाई होती थी। जहाँ हम लोग पढ़ते थे वह मदरसा कहलाता था। पढ़ने की पंक्ति या श्रेणी वहाँ कहाँ, दरजा और क्लास भी नहीं उसको सफ कहते थे। सफ में रामागति और क,ख,ग पढ़ने वाले भरती होकर सफ सात में जाते। ऊपर उठते-उठते सफ अव्वल में जाकर मिडिल वर्नाक्यूलर कहलाते थे। मास्टर या शिक्षक उन दिनों सुनने को नहीं मिलते थे—मुदर्रिस कहलाते थे। उन्हीं दिनों काशी के बाबू हरिश्चंद्र ने हिंदी को नवजीवन दान किया था। उन्हीं दिनों काशी के श्री रामशंकर व्यास महोदय के प्रस्ताव पर उन्हें भारतेंदु की सर्वमान्य उपाधि दी गई थी। हम लोग उनकी कविता 'हरिश्चंद्र चंद्रिका' और 'मैगजीन' में कभी-कभी पढ़ने को पा जाते थे। काशी से सन् 1884 ई में ही बाबू रामकृष्ण वर्मा ने अपने जादू घर से 'भारत जीवन' साप्ताहिक का जन्म दिया था। उसमें हर सप्ताह एक नया छप्पय श्री विजयानंद त्रिपाठी का छपता रहा। अंत को छप्पय बंद करके त्रिपाठी जी ने यह दोहा 'भारत जीवन' का मोटो बना कर दिया—
    जयति ईश जाकी कृपा लेश ललित सर्वत्र।
    'भारतजीवन' हित लसत 'भारतजीवन' पत्र॥
    तब से यही 'भारत जीवन' का भाल तिलक अंत तक रहा।

    श्री मातादीन शुक्ल रचित देवाक्षर रचित जब बलिया में अभिनीत हुआ, बहुत गणमान्य सज्जन दर्शकों में पधारे थे। नाटक में वहाँ बजाजों से रंगीन थान मँगाकर पर्दे बनाए गए थे। हिंदी में पहले-पहल वही नाटक वहाँ के हिंदी प्रेमियों को देखने को मिला। वहाँ का उत्साह और सार्वजनिक भाषा स्नेह इतना उमड़ा कि श्री मातादीन शुक्ल के सुझाव और आग्रह पर मुंशी चेथरूलाल ने कलक्टर साहब को हिंदी की ओर बहुत आकृष्ट किया। भारतेंदु हरिश्चंद्र वहाँ आमंत्रित हुए। उनकी मंडली सब सामान से लैस वहाँ पहुँची। मैं उन दिनों बाबू राधाकृष्णदास से ही परिचित था। वह बच्चा बाबू कहलाते थे। उन्होंने 'दुःखिनीबाला' नामक एक छोटा सा ग्रंथ लिखा था। मैं उन दिनों 18 वर्ष का था, हिंदी लिखने की रुचि थी, सामर्थ्य कम। भारतेंदु की मंडलीभर के दर्शन मुझे वहीं बलिया में हुए थे और भारतेंदु का दर्शन पाकर अपने तईं कृतार्थ हुआ। बड़ी श्रद्धा भक्ति से वहाँ भारतेंदु के नाटक लोगों ने देखे। भारतेंदु ने स्वयं हरिश्चंद्र बनकर 'सत्य हरिश्चंद्र' का नाटक स्टेज पर खेला था।
    उसके बाद 'भारत जननी' और 'नील देवी' नाटक भी खेला गया। 'भारत-दुर्दशा' का खेल हुआ। तीनों नाटकों में देशी-विदेशी सज्जनों की आपार भीड़ थी। सत्य हरिश्चंद्र में जब डोम सरदार ने यों कहके हरिश्चंद्र को मोल लिया और अपना काम सौंपा—
    हम चौधरी डोम सरदार।
    अमल हमारा दोनों पार॥
    सब समान पर हमारा राज।
    कफ़न माँगने का है काज॥
    सो हम तुमको लेंगे मोल।
    देंगे मोहर गाँठ से खोल॥
    साहित्य रसिक योग्य आलोचक देखें कि डोम के मुँह से निकलने वाले कैसे चुभते सरल शब्द हैं। आजकल के लेखकों के नाटकों में देखता हूँ, ऐसे गँवार मुँह के पात्रों से वह संस्कृताहट के पंच से रहे शब्द निकलते हैं कि लोग अर्थ समझने के लिए कोश उलटने को बाध्य होते हैं। भारतेंदु जी ने जिस पात्र के मुँह से जैसा शब्द चाहिए वैसा गुंफित करके नाटकत्व की जो मर्यादा रखी है उसका अनुकरण करने वाले स्वाभाविकता दर्शाने वाले मर्मज्ञ उंगलियों पर गिनने योग्य सुलेखक भी हिंदी में नहीं दीखते।
    यह चौधरी डोम सरदार के शब्द हरिश्चंद्र को उस समय मिले जब उन्होंने विश्वामित्र के निर्मम उलाहने और तीखे विष से भरे वचन-बाण से मूर्छित-प्राय होकर करुणार्द्र स्वर से कहा था—मुनिराज अपना शरीर बेचकर एक लाख मुहर दूँगा।
    विश्वामित्र ने कहा—तूने अपना राज मुझे दान कर दिया, खजांची को पुकारने का तेरा अधिकार नहीं। तू शरीर बेचेगा कहाँ? सारा राज तो हमारा है। हरिश्चंद्र ने कहा—काशी शिव के त्रिशूल पर बसी है। उसी की भूमि में अपने तईं बेचूँगा। वहीं डोम चौधरी सरदार ने उन्हें मोल लिया।
    कफ़न माँगने का काम सुचारु रूप से संपादित करते हुए एक दिन श्मशान में जब शैव्या अपने सर्पदष्ट पुत्र रोहिताश्व का मृत शरीर लिए श्मशान में संस्कार करने आई और हरिश्चंद्र ने कफ़न का दान माँगा तो शैव्या ने बिलख कर कहा—
    मैं अपना आँचल फाड़ कर कुँवर का शव ढाँका है। इसको आधा फाड़कर देने में तो उघार हो जाएगा नाथ? कैसे क्या करूँ भगवन्!
    यही कहकर जो उसने आँसू हाथ से पोंछे तो सामने ही पसारे हुए हाथ की हथेली पर चक्रवर्ती राजा का चिह्न देख पहचान गई और कहने लगी—
    नाथ, यह तुम्हारा ही कुँवर रोहिताश्व है। अब कहाँ से मैं कफ़न दूँ!
    आँसू रोककर हरिश्चंद्र ने अपने तईं सम्हालते हुए कहा—
    हमको अपना कर्तव्य पालन करने दो देवि!
    उस समय कलेक्टर साहब की मेम ने अपने पति द्वारा कहलाया कि बाबू से बोलो —एक्ट आगे बढ़ावें। वहाँ मेमों के रूमाल भीग रहे थे। उनको कहाँ मालूम था कि उसके आगे तो त्रिलोकीनाथ का आसन डोलेगा और अमिय वृष्टि नभ से होगी। नाटक का अंत होगा।
    भारतेंदु ने ओवर एक्ट उस समय किया। विलाप के मारे सब देशी-विदेशी दर्शकों के अश्रु बेरोक प्रवाहित हो रहे थे। करुणा में सब विभोर थे। कलक्टर साहब करुणा में अवाक थे। स्टेज पर करुणा खड़ी थी। शैव्या रूपधारिणी बंग-महिला ने जो करुणा बरसाई, उससे सब विचलित हो गए थे।
    भारतेंदु के श्मशान वर्णन के शब्द देखिए—
    सोई भुज जे प्रिय गर डारे,
    भुज जिन रण विक्रम मारे।
    सोई सिर जहुँ, निज बच टेका,
    सोई हृदय जहुँ भाव अनेका।
    तृण न बोझ हुँ जिनत सम्हारे,
    तिन पर काठ बोझ बहु डारे।
    सिर पीड़ा जिनकी नहि हेरी,
    करन कपाल क्रिया तिन केरी।
    प्राणहुँ से बढ़ि जाकहुँ चाहै,
    ता कहुँ आजु सबै मिलि दाहैं॥
    इस करुणा को लाँघकर उस कफ़न मोचन का अवसर किसी से सह्य नहीं हुआ था। उसके बाद ही तो आसन डोला, सब जी गए। करुणा बीत गई, अमिय वृष्टि से नाटक का अंत हुआ। हेमंत की हाड़ कँपाने वाली भयंकर शीत में हम लोग बलिया से गड़वार पैदल रवाना हो गए।

    भारतेंदु जी अपनी मंडली सहित ससम्मान वहाँ से विदा होकर काशी लौट गए। सन् 1884 ई. का अंतिम मास था। सुना काशी पहुँचने पर रुग्ण हो गए। छाती में उनके दर्द उठा। एक मित्र से सुना कि भारतेंदु जी एकांत में योग साधना करते थे। नित्य के साधन में किसी समय कुछ भूल हो गई छाती में वेदना होने लगी। उस वेदना से ही उनका अंतिम काल आया।
    छह जनवरी सन् 1889 मंगलवार को काशी में उनका स्वर्गवास हो गया। हिंदी का शृंगार रस गया। भारतेंदु का अस्त हुआ। 'भारत जीवन', 'सार सुधानिधि', 'भारतमित्र', 'भारतेंदु', 'ब्राह्मण', 'हिंदी प्रदीप' आदि समस्त पत्रों में महीनों विषाद रहा। सब पत्रों ने काला कलेवर करके दुख प्रकट किया।
    भारतेंदु ने एक स्थान पर लिखा है—
    कहेंगे सबैही नयन नीर भरि-भरि,
    प्यारे हरिचंद की कहानी रहि जायगी।

    अब वही रह गई है।

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