मातृमुख
रात के बारह पैंतीस पर आस-पास कोई ऋतु नहीं है
अँधेरे के पंजे से छूटी हुई कोई ऋतु
एक ठंड है—दरवाज़ों, खिड़कियों से टकराई हुई
जो फेफड़ों में धँसकर रहने की प्रार्थना से
मेरा एक-एक रोम खट-खटा रही है
मेरे एक-एक रंध्र पर क़ब्ज़ा करके
जो बता रही है कि एक तारीख़ किस तरह बीतती है
और दूसरी तक आदमी किस तरह बदल जाता है
करोड़ों तारे मेरी पहुँच से दूर बिखरे हुए हैं रात के प्रसूतिघर में
फेफड़ों के किवाड़ पर खड़ी हुई आवारा ठंड का जकड़ा
क्या मैं माँ को याद कर सकता हूँ?
जिसकी मौत चेचक से हुई थी
पेड़ सीटियाँ बजा रहे हैं
इतने अकेले में ये किससे ग़ुंडई करेंगे?
क्या मुझसे?
क्योंकि मेरे दिमाग़ में इस वक़्त मेरी माँ है
मैं हज़ारों चेहरों को देखकर अंदाज़ जगा सकता हूँ
कि चेचक ने कैसे उसके चेहरे की गोड़ाई की होगी
रात के चेहरे पर तारे देखकर क्यों मेरे मन में
एक तस्वीर बन रही है?
मुझे उसके चेहरे पर पड़े काले बालों की याद है
केवल काले बालों की याद मेरे लिए माँ का चेहरा है
इंतज़ार हज़ार साल पहले से आदमी को गंदा कर रहा है
मुझे भी इंतज़ार है
कि कभी माँ के चेचकग्रस्त चेहरे की रचना कर सकूँगा
रात के बारह पैंतीस को क्या मैं कह सकता हूँ ‘इस समय’?
इस समय मेरे आस-पास उस समय के चेहर पर पड़े वे बाल हैं
जिनकी याद और जिनका रंग फेफड़ों की धुँध में
थोड़ा-सा वात्सल्य है
रात के बारह पैंतीस पर
क्या मैं किसी चीज़ को माँ की तरह जान सकता हूँ?
कफ़न जिसको, धोती की तरह पहना दिया गया
मिट्टी का हिस्सा बनने से पहले वह कोख थी
कभी जिसकी वजह से मैं संसार में आया
तब से घर के भीतर का अँधेरा माँ का चेहरा है
जो रात-भर गालों से सटकर जागता रहता है।
माँ के बालों से टपकती चेचकमुखी रात
धीरे-धीरे प्रशांत समुद्र तक चली गई है
ऐ मेरी मातृमुखी रात!
इस बिगड़ैल अंधकार को समझाओ
मेरी तरह यह भी तुम्हारा ही पुत्र है
कभी न कभी
तुमने इसे अपने बालों से जन्मा था
अगर मैं तुम्हें याद कर रहा हूँ तो यह सीटियाँ न बजाए।
- पुस्तक : कवि ने कहा (पृष्ठ 95)
- रचनाकार : लीलाधर जगूड़ी
- प्रकाशन : किताबघर प्रकाशन
- संस्करण : 2018
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