सुग्राह्यता

sugrahyta

शैलेंद्र दुबे

शैलेंद्र दुबे

सुग्राह्यता

शैलेंद्र दुबे

और अधिकशैलेंद्र दुबे

    यह एक गुण है, वस्तु का नहीं, ध्यान की एक प्रक्रिया का, किरण का, ध्वनि का, उन शब्दों का जो उच्चारित नहीं हो पाते, बुदबुदाते हुए, वे शब्द ग्राह्य होने के पहले अपने को समेटते हैं फिर वे तैयार करते हैं अपना होना।

    यह समय बहुत नहीं बीत रहा है, कुछ दोस्त अपनी ऊब के साथ बीतने का बहाना खोजते हटने का प्रयास करेंगे। मुझे इसी आकुलता से किसी प्रकार का भ्रम बनाए रखना ज़रूरी हो गया है।

    उनके पास कुछ खोने के लिए बच जाता है, वे विलीन करने का प्रयास करेंगे। ‘मैं’ एक पेड़ है, और वह लगातार अपनी जड़ें जमाए रखने के लिए हवा में से कुछ खींच रहा है।

    कुछ जानवरों का झुंड खिड़की के पास आकृति के रूप में टहल रहा है, सारी घास दुमंज़िले तक आने के लिए उखड़-उखड कर चरागाह बनने का प्रयास करते हुए झाँक रही है। मेरी आँखें जहाँ उसे देखती हैं, वह शर्माती-सी दब कर स्प्रिंगनुमा होकर उछल रही है। यह एक खेल है, मेरे, घास और चरागाह बनने के बीच।

    आकृतियों की भूख में पेट अदृश्य है। वे चाहती हैं अदृश्य भोजन जो कि उनकी स्मृति में कहीं कहीं है।

    मैं कुछ पूर्ण करने के हिसाब से बेहिसाब विचारों का ज़ख़ीरा तैयार कर रहा हूँ।

    उसने मुझे कहा कि तुम अपने इस अदृश्य जीवन में ज़्यादा मत जाओ, वहाँ तुम्हें लाठी लिए एक गड़रिया मिल जाएगा जो किसी माइथोलॉजी का पात्र होगा।

    उसी शृंखला का हिस्सा—कुछ नग्न, सुंदर स्त्रियों, बूढों-बच्चों से भरा है, क्या वे सब आपस में किसी रिश्ते से बँधे हैं।

    मुझे अब याद नहीं कि क्या होने वाला है। मैं अनुमानों से काम चलाने की कोशिश करूँगा जो कि इस सारे अदृश्य को समेटने का प्रयास होगा।

    कुछ चिट्ठियाँ अजीब काली टेकरियों (छोटे-छोटे) टीलों की तरह की) पर रात की आधी रोशनी में काँटों में फँसी पड़ी हैं, किसी झाड़ी में उड़नतश्तरी जैसी आकृति भी हो सकती है, यह एक कोरी कल्पना है।

    वह अब पूरी तरह तैयार है, संभोग के एक चीत्कार में उसने अपनी टाँगें फेर ली हैं, नहीं वह नतीजतन उसे जानना चाहती है जो अदृश्य है। वह रात्रि का एक विराट शून्य रच सकती है, और अपनी कोख में एक अदृश्य स्मृति के साथ दृश्य में जाना चाहेगी।

    मेरे पास दो क़लम बचे हैं, ख़ाली, उनका जो भी अदृश्यपन था वह काग़ज़ों में निकलने का ढोंग पूरा हो गया है।

    यदि आप परेशान हैं तो वह जो अदृश्य से भागना चाहती है उसके पीछे हो लें, वहाँ एक आलोचनात्मक देश आपकी प्रतीक्षा में होगा।

    क्या आप यह बता सकेंगे कि ये बिखरी हरी झाड़ियाँ और काँटों में अटके जंगली फल ‘वह’ के साथ क्यों नहीं जाएँगे?

    मैं शायद कुछ हवा बनाने की कोशिश करूँगा।

    आप देखें कितना बचा है उस मटके में पानी जो एक कौए ने पुरानी कहानी में से निकलकर पिया था।

    एक यात्रा की लंबी रेलगाड़ी चंद्राकार में मुड़ रही है, और वह जो दृश्य में जाना चाहती है अँधेरी सुरंग के भीतर घुप्प से लोप होने के साथ अब चमक रही है।

    क्या कोई जगह नहीं है, अदृश्य के साथ वह कब तक जी सकेगी, उसका प्रेम इतना पारदर्शी और झीना है कि उसे पकड़ने में वह थक-थक कर असहाय-सी ‘मैं’ को देख रही है।

    मैं एक खेल का नाम है और ‘मैं’ भी।

    आज शाम नहीं होगी क्योंकि वह अदृश्य होना चाहती है। आज दिन पूरा खड़ा रहेगा ताकि वह रात में बदलने से बच जाए और ‘वे’ रात में देख सकें कि ‘मैं’ किस अदृश्य से ‘वह’ के अदृश्य में आता है।

    आप कोई नहीं है दर्शक, प्रतीक, ही कोई अनायास गया हुआ आँख का बाल।

    *

    मेरी आवाज़ उस तक पहुँच रही है, वह रोज़ एक बार मेरा चेहरा देखकर अपने प्रेम का अनुमान लगाती है, उसे भरोसा है कुछ पिघलेगा मेरे अंदर, जो उसे जड़ लग रहा है, वह ईश्वर की रचना में अपने को दोष देना चाहती है।

    उसने एक बार मुझे ग़ौर से देखने के साथ ही ऐसा किया होगा, मैं लड़खड़ाता हुआ सँभलने की कोशिश कर रहा हूँ। मेरा चेहरा उसके मन के अंदर है। वह एक दर्पण रोज़ उठते ही तैयार करती है और यह कि वह कभी सोई ही नहीं थी।

    *

    मुझमें लिखने की ताक़त है पढ़ने की, वह आख़री क्षण तक प्रतीक्षारत रहेगी, ऐसा उसने कहा नहीं है।

    एक गीत उसके ख़ून में लगातार दौड़ रहा है, वह उस गीत के एक शब्द को मुँह में लाते ही रोने जैसी हो जाती है, कई ध्वनियाँ लगातार चीख़े जा रही हैं, दोनों के कान किसी अप्रत्याशित घटना के लिए लगातार आहटों के पास टिके हैं।

    वह अब कुछ खोलना चाहती है, उसके भीतर बिल्कुल भी मवाद नहीं है, उसे पता लग गया है, मैं किस तरह से आचरण कर रहा हूँ, वह अदृश्य आवाज़ें पकड़ने में माहिर हो रही है।

    और प्रेम जो कि मरीना की एक लाइन है सचमुच उसके और मेरे बीच के दरिया में तरंगित होता तैर रहा है।

    *

    आज वह एक कॉलम पढ़ेगी, और विचारों की शृंखला तैयार मिलेगी, उसने सोचा मैं किसी गहरे मज़ाक़ को उससे खेलना चाहता हूँ।

    वह मेरे भविष्य के उपन्यास की केंद्रीय पात्र होना चाहती है, शायद ख़ालीपन भरने का मनुष्य का यह तरीक़ा वह नहीं जानती। वह भोली है, वह प्रेम के उस दर्शन से परे है जो अस्तित्ववादी सूरमाओं ने अपने एकांत के लिए और स्वार्थसिद्धि के लिए तय किया हुआ है।

    मैं एक अव्यक्त बंधन के सींखचे को लिए उसके पीछे खड़ा हूँ, अपराधियों की तरह, उसे वह मान्य नहीं, अब फैसला समय के हाथ में है और मैं तरंगों में तैरता उससे लगातार गले मिल रहा हूँ, आँसू बहाता।

    *

    मैं उनके मौन में खेल रहा हूँ, वे दम साधे एक अजीब चुप्पी से देख रहे हैं और आवाज़ों का साथ उनका पीछा नहीं छोड़ रहा है।

    मैं उतनी ही आवाज़ करना चाहता हूँ जिससे कि बस मैं सुन सकूँ, वे किसी भी आवाज़ से अब विचलित होने के लिए दृढ़ हैं।

    खिड़की में रखे दो दिए एक बराबर और ख़ास दूरी पर रखे हैं या वे अपने आप उस दूरी पर अपनी सहज मुस्कान से ठहरे हैं। वे उनके बीच की दूरी भी कभी-कभी देखते हैं, उनके भीतर रहस्यमय-सा कुछ है जो उस दूरी को कभी यह चाहते हुए कि वह बिना आहट बदल जाएगी और चुप्पी बनी रहेगी।

    कमरा मेरे बार-बार, अंदर-बाहर को दर्ज करना चाहता है और पैरों की आहट मैं ख़ुद सुनता हूँ कि वे कितने गहरे पड़े हैं ‘ज़मीन पर’।

    रात में वाक़यात खुलते हैं और जैसे कि बिखरना चाहते हैं मैदान में, मैं उनको बरबस रोकने के लिए एक जगह बनाता हूँ पेड़ पर, पेड़ जो कि शांत रात का बिंब है।

    स्रोत :
    • रचनाकार : शैलेंद्र दुबे
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

    संबंधित विषय

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    जश्न-ए-रेख़्ता (2023) उर्दू भाषा का सबसे बड़ा उत्सव।

    पास यहाँ से प्राप्त कीजिए