मुझे कुछ सीधा-सरल चाहिए
मुझे मुस्कुराहटों, आयोजनों और स्वार्थों के बग़लगीर सुशब्दों की अभिव्यंजना से दूर करो
मुझे इन आइरनिकताओं से बचाओ
मैं प्रत्येक शक्ल पर प्रतिपल घटित होती मानवीय प्रेतकलाओं को देख लेता हूँ—
मेरी दृष्टि सीमित कर दो!
सारी चमकने वाली धातुएँ सोना हैं कि नहीं,
यह कहावत जाए भाड़ में
मुझे सोना चाहिए ही नहीं,
आज नहीं,
कभी नहीं...
सोना खाने की मेरी औक़ात नहीं,
इच्छा नहीं,
ज़रूरत नहीं...
बदबुओं का भी स्साला कोई न कोई प्रयोजन है
किसी ख़ुशबू को तो ख़ैर
कभी निष्प्रयोजन पाया ही नहीं।
कुछ सीधा-सरल-सा चाहिए
जैसे कोई सरल-सा सीधा मज़बूत काँटा
जैसे कोई सीधा-सपाट-सख़्त बिस्तर
जैसे सीधे कपार पर गिरने वाली बिल्कुल निचाट धूप
जैसे कोई भीतर तक बेध देने वाली बहुत सीधी गाली
जैसे कान से मैल झाड़ने वाला सीधा तेज़ चमाट
बहुत झनझनाता हुआ ग़ुस्से में चूर सीधा सरल नोकदार चेहरा
कोई दहकती हुई सीधी रेखा जो दूर से मेरी हदें बाँध दे।
कुछ सीधा-सरल चाहिए
जैसे अचानक चोट लगने पर निकलने वाली आह
जैसे बीमार होने पर ठीक होने की फ़िक्र
जैसे थकान से टूटी देह का शयन
जैसे ताज़ादम होकर खुली हुई नींद।
मुझे कुछ सीधा-सरल चाहिए।
- रचनाकार : अखिलेश सिंह
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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