मुझे अपनी नदी को कुछ जवाब देने हैं

mujhe apni nadi ko kuch jawab dene hain

बाबुषा कोहली

बाबुषा कोहली

मुझे अपनी नदी को कुछ जवाब देने हैं

बाबुषा कोहली

और अधिकबाबुषा कोहली

    जिन तितलियों को मैंने आँखों से छू कर छोड़ दिया

    वे फूल-फूल बैठ कर

    लौट आईं मेरी कविताओं में महफ़ूज़ रहने

    जिस प्रेम को छोड़ दिया मैंने एक कोमल धड़क से अस्त-व्यस्त कर

    वह छूटते ही उड़ गया परिंदा बन

    आकाश छू लेने

    मेरे केश की कामना ने बाँध लिया है छूटा हुआ एक पंख उस फीते से

    जो चंद्रमा के दो उजले रेशों से बना है

    आकाश के आँगन में संपन्न होने वाली उड़ानें

    धरती पर किसी लड़की की चोटी से बँधी हैं

    लड़की की 'उँहू!' पर हिलती हुई चोटी से जूझती है रात

    कोई जान नहीं पाता कि रात क्यों इस तरह लहकती है

    अपने केश में उलझे इस पंख को एक दिन मैं नदी में सिरा दूँगी

    नदी उसे तट के हवाले करेगी

    तट पर खेलती मल्लाह की नन्ही बेटी उसे अपनी स्कूल की कविता वाली किताब में रखेगी

    किताब में बंद अधमरी चिड़िया उसे सहलाएगी

    नन्ही जान नहीं पाती

    कि किताबों के पन्ने वायु की मति से नहीं फड़फड़ाते

    पन्नों में हलचल दरअसल छूटे हुए पंख की फड़फड़ाहट है

    संभव है कि नदी और उसका तट

    मल्लाह की बेटी और उसकी किताब

    चिड़िया और पन्नों की हलचल

    एकदम कोरी गप्प निकले

    और सचमुच! ऐसा होने में बहुत परेशानी नहीं है

    कि गप्प कई बार जीवन की इस तरह से देखभाल करती है

    जैसे तो कभी-कभी कविता भी नहीं कर पाती

    कविता आख़िर करती ही क्या है?

    वह तो महज़ तितलियों की सँभाल में ख़र्च कर देती है अपना सारा कौशल

    वह नहीं तोड़ती फूलों का भरोसा

    वह रचती है रंग इंद्रधनुष को उधार देने

    वह बताती है दुनिया को कि ये आवारा चाँद किसके आसरे पे लटका है

    वह सुनाती है नदी के तट पर मल्लाह की बेटी को किसी परिंदे की कथा

    उधर एक परिंदा उड़ता ही जाता है आजीवन

    इंद्रधनुष का स्वप्न लिए आँखों में

    बादलों की टहनियों पर बैठता है

    भीगता है

    चोंच में दबाता है नमी के कुछ कण

    फिर उड़ता है

    इंद्रधनुष के पीले आँचल में अटकता है

    छूटता है भटकता है

    इधर मल्लाह की वह नन्ही बेटी किताब से निकालती है पंख

    मेरी कविता में डुबो देती है

    मैं तितलियों को शुक्रिया कह आगे निकल जाती हूँ

    कोई लुभावनी-सी गप्प ढूँढ़ने

    मुझे अपनी नदी को कुछ जवाब देने हैं

    स्रोत :
    • रचनाकार : बाबुषा कोहली
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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