अपनी शवयात्रा में

apni shawyatra mein

प्रदीप चौबे

प्रदीप चौबे

अपनी शवयात्रा में

प्रदीप चौबे

और अधिकप्रदीप चौबे

    हम अपनी

    शवयात्रा का आनंद ले रहे थे

    लोग हमें

    ऊपर से कंधा

    और

    अंदर से गालियाँ दे रहे थे

    एक धीरे से बोला—

    साला क्या भारी है!

    दूसरा बोला—

    भाई साहब

    ट्रक की सवारी है

    ट्रक ने भी मना कर दिया

    इसलिए

    हमारे कंधों पे

    जा रही है

    एक हमारे ऑफ़िस का मित्र बोला—

    इसे मरना ही था

    तो संडे को मरता

    कहाँ मंडे को मर गया बेदर्दी

    एक ही तो छुट्टी बची थी

    कमबख़्त ने उसकी भी हत्या कर दी

    एक और बोला—

    हाँ यार

    काम तो हमारा भी लटक गया

    आज बिजली का बिल

    जमा करने की लास्ट डेट थी

    तो यहाँ पर अटक गया

    अब कल जो पेनल्टी भरना पड़ेगा

    उसका पैसा क्या इसका बाप देगा?

    एक

    नव-विवाहित मित्र बोला—

    तुम्हारा काम भी

    कोई काम था

    हमारी सोचो

    हमारा तो

    बीवी के साथ हनीमून का प्रोग्राम था

    अब पहाड़ों

    और

    घाटियों का सुख छोड़कर

    धूप में खड़े हैं

    जेब में

    एअर कंडीशंड के दो टिकट

    बेकार पड़े हैं!

    एक लाठी टेक बुढ़ऊ बोले—

    मुर्दे को

    कंधा लगाने से पुण्य मिलता है

    हम भी लगाएँगे

    एक नौजवान बोला—

    रहने दो बाबा

    वरना आप ख़ुद

    कंधा लगवाने लायक़ हो जाएँगे

    हम एक साथ

    दो-दो को कैसे ले जाएँगे?

    एक हीरो टाइप नौजवान

    सबसे कटा-कटा जा रहा था

    टाइम पास करने के लिए

    सीटी बजा रहा था

    उसे देखकर

    एक बुढ़ऊ बोले—

    भाई साहब

    आप क्या मुर्दे की बारात में जा रहे हैं?

    नहीं! तो फिर सीटी क्यों बजा रहे हैं?

    और हम क्या फ़ालतू हैं

    जो कंधा लगा रहे हैं

    एकाध बार आपर भी तो लगाइए

    नौजवान बोला—

    रहने दीजिए

    हमसे कंधा मत लगवाइए

    कंधा लगाना बुरा होता है

    जो एक बार लगाता है

    सारी उम्र रोता है

    हमारे शहर में एक नेता आया था

    उसने अपने भाषण में बताया था

    कि—

    ‘देश ख़तरे में है

    बचाओ

    और बचाने के लिए

    कंधे से कंधा लगाओ’

    उस नेता के विचार

    हमारे दिमाग़ में घूमते रहे

    हम बहुत दिनों तक

    अपना कंधा लिए

    देश को ढूँढ़ते रहे

    मगर देश

    जाने कहाँ खो गया था

    शायद मंत्रीजी के झोले में बैठकर

    एक्सपोर्ट हो गया था

    मगर हमें तो कंधा लगाना ही था

    इसलिए जब देश हमें नहीं मिला

    तो हमने अपना कंधा

    एक सब्ज़ीवाली को ही लगा दिया

    वो तो कुछ नहीं बोली

    मगर पुलिसवालों ने

    डंडा लगा दिया

    जनता के जूते

    अलग से पड़े

    रात भर हम थाने में सड़े

    और भारतीय थाना!

    उसके बारे में आपको क्या बताना

    मैं अकेला

    और दस हवलदार!

    वो पिटाई हुई यार

    कि रात भर में

    काया आधी हो गई

    और ज़मानत पर छूटे तो देखा

    बाहर पंडित को लिए

    वही सब्ज़ीवाली खड़ी थी

    उसी से शादी हो गई

    अब तक रो रहे हैं

    ये सारे लफ़ड़े

    सिर्फ़ कंधा लगाने के कारण हो रहे हैं!

    तब से हमने क़सम खाई

    कि ऐसी रिस्क फिर नहीं उठाएँगे

    कान पकड़ते हैं

    आज के बाद अपने बाप को भी

    कंधा नहीं लगाएँगे।

    केवल

    एक मित्र ऐसा था

    जो फूट-फूट कर रो रहा था

    बेचारा बहुत दुःखी हो रहा था

    उससे किसी ने पूछा—

    क्या मरने वाले से

    विशेष प्रेम था

    जो उसके लिए

    थोक में आँसू बहा रहा है?

    वो बोला—

    मरने वाले को

    गोली मारो भाई साहब

    हमको तो अपना

    सौ रुपए का नोट याद रहा है

    हमने अपने

    बाप से लेकर दिया था

    और अभी भी

    ब्याज़ भी नहीं लिया था

    कि यह इंटरवल में ही मर गया

    साला हमारे लिए

    कितनी टेंशन कर गया

    अब तुम हमारे बाप को नहीं जानते

    इतना कंजूस है

    कि लोग हमको

    उसका बेटा ही नहीं मानते

    आपस में फुसफुसाते हैं

    कि कंजूस ने

    बेटा कैसे पैदा कर लिया?

    अब बताओ

    ऐसी कड़की में

    ये मर लिया

    अब हम पिताजी को

    क्या मुँह दिखाएँगे

    उनको पता चला

    तो हमको

    सौ रुपए में बेच आएँगे!

    तभी

    हमारे मुहल्ले का

    कुल्फ़ी वाला आगे आया

    और उसने अपना कंधा

    जैसे ही

    हमारी अर्थी को लगाया

    कमबख़्त के

    मुँह से आवाज़ आई—

    ठंडी, मीठी, बर्फ़-मलाई

    कोई पीछे से बोला—

    कमाल है भाई

    यहाँ पर भी धंधा

    दुकान लगा रहे हो

    या कंधा?

    वो बोला—

    क्षमा करें, क्षमा करें

    मुँह से निकल गया तो क्या करें

    ऐसा नहीं कि मैं शवयात्रा के

    क़ायदे-क़ानून नहीं जानता

    मगर इस मुँह को क्या करूँ

    जो नहीं मानता

    जैसे ही

    कोई वज़नदार सामान

    कंधे पर आता है

    मुँह से बर्फ़-मलाई

    पहले निकल जाता है!

    जून का महीना था

    हर आदमी

    पसीना-पसीना था

    एक अर्थी-ढोऊ बोला—

    यार

    क्या भयंकर धूप है!

    दूसरा बोला—

    मरने वाला भी ख़ूब है,

    मरा भी तो जून में,

    अरे इस समय तो

    आदमी को होना चाहिए

    देहरादून में

    ये थोड़े दिन

    और इंतज़ार करता

    तो जनवरी में

    आराम से नहीं मरता

    अपन भी जल्दी से घर भाग लेते

    जितनी देर ठहरते

    सर्दी में आग तो ताप लेते

    भला मरने के लिए

    जून का महीना

    कितना बोर है!

    कोई बोला—

    हाँ यार,

    सर्दियों में मरने का

    मज़ा ही कुछ और है

    कोई बोला—

    अच्छा!

    हम फ़रवरी में

    प्रस्थान करेंगे

    जनवरी में ही मरेंगे?

    उत्तर मिला—

    नहीं,

    हम फ़रवरी में

    प्रस्थान करेंगे

    जनवरी में

    हमारा इंक्रीमेंट आता है

    भला हिंदुस्तानी कर्मचारी भी

    कहीं अपनी वेतन-वृद्धि छोड़कर जाता है!

    वो मारे प्रसन्नता के चीख़ा—

    ‘राम नाम सत्य है’

    एक अधमरा बोला—

    भाई साहब

    असल में मर तो हम रहे हैं

    मुर्दा तो साला

    अपनी जगह मस्त है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : हास्य-व्यंग्य की शिखर कविताएँ (पृष्ठ 140)
    • संपादक : अरुण जैमिनी
    • रचनाकार : प्रदीप चौबे
    • प्रकाशन : राधाकृष्ण पेपरबैक्स
    • संस्करण : 2013

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