परेड मैदान

parade maidan

प्रेमशंकर शुक्ल

प्रेमशंकर शुक्ल

परेड मैदान

प्रेमशंकर शुक्ल

और अधिकप्रेमशंकर शुक्ल

    लगभग हर रोज़

    परेड मैदान में बूटों से

    रौंदे जाने के बावजूद

    एक छतनार दूब अपने हरेपन में हँस रही थी

    और उसी के पड़ोस में एक सुरक्षा गार्ड

    अपने कप्तान की गालियाँ पर गालियाँ खा रहा था

    परेड के बाद अकेले मिलने के कप्तान के आदेशानुसार

    वह उपस्थित था और अपनी कोफ़्त को

    भीतर ही भीतर दबाए कहे जा रहा था—

    नहीं साहब जी नहीं मेरे बारे में किसी ने

    आपसे ग़लत कहा है

    मुझे लापरवाही के लिए कभी नहीं डाँटा गया साहब जी,

    कभी देर से उठने के लिए

    वर्दी की साफ़-सफ़ाई को लेकर

    और ही ऊपर के किसी आदेश को मानने में

    आनाकानी को लेकर

    मुझे कभी डाँट पड़ी साहब जी,

    कभी-कभी मेरे कुछ साथी ज़रूर कहते हैं—

    कि दुनिया के बारे में मेरी समझ कच्ची है

    और मैं इस नौकरी के क़ाबिल नहीं हूँ

    लेकिन क्या करूँ साहब जी

    जब हमारा ही कोई साथी राह चलती किसी लड़की पर

    भद्दी बौछार करता है तो मुझे अच्छा नहीं लगता साहब जी

    और मैं टोक देता हूँ

    जब किसी बूढ़ी औरत की बाँह पकड़

    हमारे ही सामने कोई झकझोर कर धकेल देता है

    तो मुझे यहाँ आते समय की

    अपनी माँ की आँख याद आती है

    और मैं पागल हो जाता हूँ साहब जी

    रपट लिखने आए किसी बुज़ुर्ग से

    जब उसकी जाति और हैसियत पूछी जाती है

    और फिर उसे गालियाँ दे मुंशी भगा देता है

    तब मैं झगड़ जाता हूँ साहब जी

    लेकिन धीरे-धीरे मैं अपने को सँभाल लूँगा साहब जी

    आगे अब शिकायत का मौक़ा नहीं आएगा साहब जी

    आगे के लिए ठीक होने की हिदायत दे

    कप्तान अपनी गाड़ी में बैठ चुका है

    और वह लंबे सैल्यूट के बाद

    अपने को ठीक करने का सोचते हुए

    परेड मैदान से बाहर हो रहा है

    लेकिन उसके सोचने में गड़ रही है

    हँसती छतनार दूब

    बूटों से रौंदे जाने के बावजूद

    स्रोत :
    • रचनाकार : प्रेमशंकर शुक्ल
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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