नाटक देखकर लौटे दिन
नाटक देख कर लौटे हुए दिन
रोटी चबाने की दोपहर के बाद
कविता की रातों में ढल जाते हैं
दफ़्तर की कुर्सी के हत्थे पर पॉलिश थोड़ी और चढ़ जाती है
'वाह वाह' की दिशाओं में छोड़े गए
शब्दवेधी बाण
किसी की फटी हुई जेब का सिक्का
किसी चौराहे का पोस्टर ढूँढ़ लेते हैं
मूँगफली के छिलके, घास के मैदान, सरपट घोड़े
अफ़सर की दराज़ में बंद
उस ज़िले का नक़्शा है
जहाँ मैं पैदा हुआ
मुझे मालूम है कितनी नदियाँ हैं कितनी फ़ाइलें
कितने पुल हैं कितने फीते
कितना चुल्लू पानी है
ज़मीन में
कितना इस क़लम-घसीट आँख में
परदा है
मंच पर कुछ होने का उजाला ठूँठ
उसी में से कोंपल फूटती है
जड़ नहीं गद्दी बदलती है
थाली में लड़े जा रहे बजट से बेपरवा
उसकी मेज़ पर रखा एक अश्लील सेब
लपलपाता छू रहा है उसके सौम्य दाँत
उसके सिर पर सलीक़े से कटे अमरीकन कट बाल
रौशनी फेंकते जबड़ों के हिलने से हिल रहे हैं
चू पड़ने की तरह अपनी प्रतिभा से परेशान
मैं उस ज़बान पर हूँ रटा रटाया
मीठे गुलगुले स्वाद की तरह
जबकि धारीदार पुलोवर के नीचे उसका पेट
भरा है
- पुस्तक : अपने होने को अप्रकाशित करता हुआ (पृष्ठ 49)
- रचनाकार : मलयज
- प्रकाशन : संभावना प्रकाशन
- संस्करण : 1980
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