मेरा दुख

mera dukh

मोहन कुमार डहेरिया

और अधिकमोहन कुमार डहेरिया

    दाख़िल हुआ है जो दुख मेरे जीवन में

    किसी से नहीं लूँगा इससे मुक्त होने में मदद

    धर्मगुरु, राजनेता, ज्योतिष से

    धर्मगुरु से कहा तो ढाल देगा मेरे कष्ट को सूक्ति वचन में

    राजनेता भर देगा इसके अंदर नारों का भूसा

    ज्योतिषि सौंप देगा ग्रहों-नक्षत्रों को

    हो जाऊँगा हलाकान जिनकी हास्यास्पद माँगों से

    हालाँकि किसी ने कहा है

    अपने दुख को दूसरों के साथ बाँटना

    अँधेरे और आशंका में डूबे घर की सारी खिड़कियों को

    हज़ारों दिशाओं में एक साथ खोल देना है

    या अपनी पीठ के कूबड़ को

    अपने आगे चलती प्रखर ज्योति में बदल देना

    जाने क्यों परंतु लग रहा डर

    ली अगर किसी की सहायता

    कर दे इससे ऐसी छेड़छाड़

    कि असंख्य फनों वाले ट्यूमर में बदल जाए यह

    तय किया इसलिए

    दाख़िल हुआ है जो दुःख मेरे जीवन में

    दूर करने में इसे नहीं लूँगा किसी सहायता

    भाषाविद्, इतिहासकार, दार्शनिक की

    व्केयाकरण के नियमों में जकड़कर सोख लेगा भाषाविद् इसकी नमी

    इतिहासकार किसी क़ौम विशेष का कलंक कहकर कर सकता है अपमान

    दार्शनिक माँगेगा किसी गहरी धुंध से मार्गदर्शन

    बढ़ जाएगी इससे तो उसकी जटिलता और

    आग से कहूँगा इसे भस्म कर देने को

    बाढ़ से कहूँगा बहा देने के लिए

    क्या करूँगा फिर इस दुःख का

    ढोते रहूँगा जिद्दी और भ्रमित हम्माल-सा संसार के एक प्लेटफ़ॉर्म से दूसरे प्लेटफ़ॉर्म

    या सौंप दूँगा सल्फ़ास की गोलियों को इसका नेतृत्व

    एक विकल्प यह हो सकता है

    मान लूँ मैं स्वयं को जलते हुए बीहड़ जंगल में भटक गया एक अंधा

    भाग गया जिससे कंधा छुड़ाकर उसका मार्गदर्शक

    हाथ की लाठी चुरा ले गया चोर

    नुकीली और पैनी करनी है जिसे अपनी इंद्रियाँ

    गढ़ना है आग और धुएँ से जूझने का ख़ुद का शिल्प।

    स्रोत :
    • रचनाकार : मोहन कुमार डहेरिया
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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