महगू महगा रहा

mahgu mahga raha

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला

और अधिकसूर्यकांत त्रिपाठी निराला

    आजकल पंडितजी देश में बिराजते हैं।

    माताजी को स्वीजरलैंड के अस्पताल,

    तपेदिक के इलाज के लिए छोड़ा है।

    बड़े भारी नेता हैं।

    कुइरीपुर गाँव में व्याख्यान देने को

    आए हैं मोटर पर

    लंडन के ग्रैज्युएट,

    एम.ए. और बैरिस्टर,

    बड़े बाप के बेटे,

    बीसियों भी पर्तों के अंदर, खुले हुए।

    एक-एक पर्त बड़े-बड़े विलायती लोग।

    देश की भी बड़ी-बड़ी थातियाँ लिए हुए।

    राजों के बाजू पकड़, बाप की वकालत से;

    कुर्सी रखने वाले अनुल्लंघ्य विद्या से

    देशी जनों के बीच;

    लेंड़ी ज़मींदारों को आँखों तले रक्खे हुए;

    मिलों के मुनाफ़े खाने वालों के अभिन्न मित्र;

    देश के किसानों, मज़दूरों के भी अपने सगे

    विलायती राष्ट्रों से समझौते के लिए।

    गले का चढ़ाव बोर्झुआज़ी का नहीं गया।

    धाक, रूस के बल से ढीली भी, जमी हुई;

    आँख पर वही पानी;

    स्वर पर वही सँवार।

    गाँव के अधिक जन कुली या किसान हैं;

    कुछ पुराने परजे जैसे धोबी, तोली, बढ़ई,

    नाई, लोहार, बारी, तरकिहार, चुड़िहार,

    बेहना, कुम्हार, डोम, कुइरी, पासी, चमारा,

    गंगापुत्र, पुरोहित, महाब्राह्मण, चौकीदार;

    कामकाज, दीवाली-जैसे परबों के दिन

    मनों ले जानेवाले पिछली परिपाटी से;

    हुए, मरे, ब्याह में दीवाला लाते हुए

    ज़मींदार के वाहन।

    बाक़ी परदेश में कौड़ियों के नौकर हैं

    महाजनों के दबैल,

    स्वत्व बेचकर विदेशी माल बेचनेवाले;

    शहरों के सभासद।

    ऐसे ही प्रकार के प्राकार से घिरे

    लोगों में भाषण है।

    जब भी अफ़ीम, भाँग, गाँजा, चरस, चंडू, चाय,,

    देशी और विलायती तरह-तरह की शराब

    चलती है मुल्क में,

    फिर भी आज़ादी की हाँक का नशा बड़ा;

    लोगों पर चढ़ता है।

    विपत्तियाँ कई हैं घूस और डंडे की;

    उनसे बचने के लिए

    रास्ता निकाला है, सभाओं में आते हैं

    गाँवों के लोग कुल।

    एक-एक गए।

    पंडितजी कांग्रेस के चुनाव पर बोले ;

    आज़ादी लेते हैं, एक साल और है;

    आततायियों से देश पिस-पिसकर मिट गया;

    हमको बढ़ जाना है;

    चैन नहीं लेना है जब तक विजयी हों।

    जनता मंत्रमुग्ध हुई।

    ज़मीदार भी बोले जेल हो-आने वाले,

    कांग्रेस-उम्मीदवार। सभा विसर्जित हुई।

    महगू सुनता रहा।

    कम्पू को लादता है लकड़ी, कोयला, चपड़ा।

    लुकुआ ने महगू से पूछा, “क्यों हो महगू, कुछ

    अपनी तो राय दो?

    आजकल, कहते हैं, ये भी अपने नहीं?”

    “महगू ने कहा, हाँ, कम्पू में किरिया के गोली जो लगी थी,

    उसका कारण पंडितजी का शागिर्द है;

    रामदास को कांग्रेसमैन बनाने वाला,

    जो मिल का मालिक है।

    यहाँ भी वह ज़मींदार, बाज़ू से लगा ही है।

    कहते हैं, इनके रुपए से ये चलते हैं,

    कभी-कभी लाखों पर हाथ साफ़ करते हैं।”

    लुकुआ घबरा गया। “भला फिर हम कहाँ जाएँ?”

    महगू से प्रश्न किया।

    महगू ने कहा, “एक बड़ी ख़बर सुनी है,

    हमारे अपने हैं यहाँ बहुत छिपे हुए लोग,

    मगर चूँकि अभी ढीला-पोली है देश में,

    अख़बार व्यापारियों ही की संपत्ति हैं,

    राजनीति कड़ी से भी कड़ी चल रही है,

    वे सब जन मौन हैं इन्हें देखते हुए;

    जब ये कुछ उठेंगे,

    और बड़े त्याग के निमित्त कमर बाँधेंगे,

    आएँगे वे जन भी देश के धरातल पर,

    अभी अख़बार उनके नाम नहीं छापते।

    ऐसा ही पहरा है।”

    “तो फिर कैसा होगा?” लुकुआ ने प्रश्न किया।

    “जैसा तू लुकुआ है, वैसा ही होना है,

    बड़े-बड़े आदमी धन मान छोड़ेंगे,

    तभी देश मुक्त है,

    कवि जी ने पढ़ा था, जब तुम बदले नहीं;

    अपने मन में कहा मैंने, मैं महगू हूँ,

    पैरों की धरती आकाश को भी चली जाए,

    मैं कभी बदलूँगा, इतना महगा हूँगा।”

    स्रोत :
    • पुस्तक : निराला संचयिता (पृष्ठ 150)
    • संपादक : रमेशचंद्र शाह
    • रचनाकार : सूर्यकांत त्रिपाठी निराला
    • प्रकाशन : वाणी प्रकाशन
    • संस्करण : 2010

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