मेरे समय में
मेरे समय में
जब तापमान के बढ़ने भर से
जल रहा हो सारा का सारा जंगल
जल रहे हो अभी अभी जन्मे छौने
मेरे समय में
जब तापमान के घटने भर से
पत्थर हो जाती हों नदियाँ
ज़मीन बन जाती हो क़ब्र
मेरे आस-पास के लोग
नागरिक बने रहने का ख़्वाब देखते हैं
मेरे द्वारा चुनी गई सरकार
अपनी उदारता का डंका पीट रही होती है
एक रंग जिसे देखा है सदियों से
मेरे पुरखों की आँखों ने
जिसकी अंतिम निशानी
मैं अपने साथ लिए जाऊँगा मिट्टी में
पिछली रात मिटा दी गई
और रोते रहे चौराहे पर कुत्ते
मेरे पड़ोस के एक तरफ़
बहती है गंगा
जबकि दूसरी तरफ़
बहती है यमुना
मेरी बेटी कहती है
'इस ओर के घर
उस ओर के घर से
बिल्कुल मिलते-जुलते हैं
हम थहाते हुए पानी के बीच से
करेंगे आवाजाही
हम पुल के सहारे नहीं
एक-दूसरे तक पहुँचेंगे
अपने-अपने पाँवों के सहारे
रेत और नमी को महसूसते हुए'
यह सब सुनते हुए मैं जैसे नींद में हूँ
जब आँखें खुलेंगी
सामने वही लंबा पुल दिखाई देगा
मेरे जन्म के ठीक बाद
बँटवारे की दीवार ने
चलाई थी कुल्हाड़ी एक फलदार वृक्ष पर
कि जिसके बाद हर मौसम में
बिलखते रहे बच्चे
और उदास होती रही दुपहरी
मेरे होश सँभालते ही
आरी से रेत दिया गया था
पड़ोस का पीपल
कि जिसके बाद हमने सुग्गे को
हमेशा पिंजरे में ही देखा
बाक़ी बचे पक्षी किधर गए
आज तक नहीं जान पाया
मुझे हमेशा लगता रहा
कि किसी रोज़ सूरज उगेगा
मेरे समय में
जबकि मैं दिन भर सोया था
यह सूरज के उगने का नहीं
डूबने का समय था
मेरे समय में!
- रचनाकार : लक्ष्मण गुप्त
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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