दीवारें
हरा बतियाता है केसरिया रंग से
काला सबसे सुंदर लगता है सफ़ेदी पर
लाल सबकी जगह बनाता हुआ थोड़े में ही ख़ुश है
नीला रंग कमरे में आसमान उतार लाया है
दीवार रँगी हैं बच्ची के सतरंगी प्रयोगों से।
उसे डराता हूँ तो नहीं करती दीवारों को गंदा
कुछ क्षण के लिए,
मगर चूँकि उसका मन साफ़ है
फिर-फिर उभर आती है
कोई पवित्र तस्वीर उसके भीतर
और फिर दीवारें भी तो इंतज़ार करती होंगी
एक कोमल स्पर्श का।
वह चोरी-चुपके रँगती जाती है कोना-कोना
जैसे कोई महान चित्रकार अपना कैनवस रँगता है।
जैसे किसी ने रंग दिए हैं तमाम धरती के कोने
पेड़, समुद्र और पहाड़ों से
कोई ईश्वर बैठा है बच्ची के भीतर
जो सिर्फ़ रचना जानता है
डरना नहीं।
सहम जाती है कभी-कभी
पिता का मान रखने के लिए
मगर जानती है पिघल जाएँगे पिता
जब देखेंगे दीवारों पर
उसकी रची एक नई भाषा को।
ठीक है कि मेहमान घर को विस्मय से देखते हैं
क्लास टीचर भी ताना मारती हैं दीवारें देखकर
ऑनलाइन पीटीएम में
ढूँढ़ने पर भी नहीं मिलता कोई साफ़ कोना
गिटिर-पिटिर करते ही होंगे पड़ोसी।
बहरहाल,
वह जानती है
क्यूँ भरा मिलता है
कलर पेंसिल का डिब्बा अक्सर!
रात जब सो जाती है लोई
कौन भरता है चुपके से दीवारों में छूट चुके रंग
और डाँट से उपजा उसके भीतर का ख़ालीपन भी।
- रचनाकार : निखिल आनंद गिरि
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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