फ़िलहाल यह आसपास
हालाँकि पेड़ों की रक्ताभ पत्तियों
से गुज़रकर प्रातःकाल मंगलमय
होते हुए लोग हथेलियों में लिए
रहते हैं दिन भर के मनोरथ कि
दिख जाती हैं स्कूल जाती लड़कियाँ
लहलहा उठते हैं दिक्-दिगंत जहाँ
हम लौट रहे होते हैं कि किस क़दर
ख़ूबसूरत होता है यह सब कुछ
यह आस-पास जहाँ लड़कियाँ हैं तो
ख़ूबसूरत हैं और स्कूल जा रही हैं
एक बार ऐसा हुआ कि पृथ्वी के
स्वर्ग होने का पता बिहारीलाल घायल
को बहुत बाद में लगा और वह बरसों
पछताता रहा कि क्यों वह लिखता रहा
कविताएँ ऐसे समय में जबकि
पृथ्वी स्वर्ग भी थी और ख़ूबसूरत भी
लड़कियाँ स्वर्ग बुनती हैं एक पहाड़ की
ऊँची से ऊँची चोटी से लेकर जेठामल
सिंधी कपड़ों के थोक व्यापारी बैरागढ़
की दूकान तक पंछियों की उड़ानों में
उड़ता है शहर और गूँजती रहती हैं
लड़कियाँ और कविताएँ झरती रहती हैं
गाँव में पहली बारिश में भीगती है नीम
और नीम के नीचे खड़ी लड़कियाँ
मिट्टी की गंध उठती है आस-पास
दिल्ली या भोपाल के कवि को बेचैन
बनाती हुई डामर की सड़क पर एकाकी
यों तो प्रिंसिपल के लिए कविता
या नदी की कलकल या पंछियों का
कलरव या मधुमालती की बंध या
चींटियों के मुँह में दबे शकर के दाने
या बड़े तालाब के किनारे फैली दूब
रामचरण सोनी मास्साब के मुताबिक़
वह है जिसका कि विरोध सुरेश कुमार शर्मा
ग्यारहवीं ब ने एक बार किया था और
लगभग एक हफ़्ते तक यह ख़बर आम की बौरों
की बंध की तरह पूरे गाँव में शाम के वक़्त
घर लौटती गायों की टापरों में बजती रही थी
फ़िलहाल यह आसपास स्वर्ग है
जहाँ लड़कियाँ हैं और लड़कियाँ
स्कूल जा रही हैं और घूम-फिर रही हैं
- पुस्तक : फ़िलहाल यह आसपास (पृष्ठ 48)
- रचनाकार : विनय दुबे
- प्रकाशन : मेधा बुक्स
- संस्करण : 2004
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