दुख की प्रजातियाँ

dukh ki prjatiyan

अनामिका

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दुख की प्रजातियाँ

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    दुख की अलग-अलग प्रजातियाँ।

    एक दुख अंधों का

    जो अंधों की बस्ती में

    पडे़ रह गए धूल खाते।

    एक दुख गंजों का

    जिनके कि सिर मुंड़ाते ही ओले पडे़,

    और दूसरा दुख उन कंधों का

    जो गंजों की बस्ती में

    बिकने गए।

    एक दुख भैंसों का—

    बैठी पगुराने को लाचार

    और दूसरा दुख उन बीनों का

    जो कि लगातार

    भैंसों के आगे बजने को

    अभिशप्त रहीं!

    प्रिय मार्क्स,

    किसको कहें दुश्मन,

    किससे संघर्ष करें

    कि क़रीब से देखने पर

    सब ही लाचार लगे :

    किसिम-किसिम के दुखों में गिरफ़्तार!

    हे बुद्ध, आप मार्क्स से एक कॉन्फ्रेंस कॉल कर लें,

    हम भी तो सोच ही रहे हैं क्या करें, क्या करें!

    न्याय से बडी क्षमा, लेकिन

    आईना दिखलाना आपको स्वयं ही ज़रूरी लगा,

    खौलते हुए पानी में तो किसी का भी चेहरा नहीं दीखता,

    इसीलिए आईने से भी चमकीली

    एक प्रशांत झील बनने की इतनी वकालत की।

    वैर से वैर शांत सचमुच नहीं होता,

    यह तो अवैर से ही शांत होता है,

    किंतु अवैर की पराकाष्ठा है निरंतरता

    न्याय को निवेदित सदाशय संघर्षों की!

    माना कि स्वयं में परिवर्तित जगत जान लेने पर

    उँगली किसी पर नहीं उठती होगी,

    पर आँखें खुल जाने पर

    निरुद्विग्न कैसे रह सकता है कोई,

    कैसे अदेखा कर सकता है

    आस-पास जो हो रहा है—वो?

    आख़िर तो ’मुक्ति’ स्त्री ही है,

    तब ही तो हँसती-बतियाती

    “ये ही देंगे तुमको

    एकदम नए वजूद में प्रवेश का वीसा—

    आकाश खुला-खुला होगा वहाँ,

    धूप बहुत नम होगी

    और प्रसन्न बहेगी हवाएँ।

    कनखियों से देखेंगे हमको

    खट्मिट्ठे बब्बूगोशे—

    एक ही टहनी पर सटे हुए,

    एक साथ पकने की गंध में नहाए,

    तरह-तरह से झेलते

    वक़्त और बारिश और हवा के थपेड़े!

    ‘कुमारसंभव’ का उजला कबूतर

    सिर पर मँडराएगा अपने,

    लाल-लाल आँखें नचाता

    उड़ेगा इधर से उधर।’’

    ’’अच्छा, अब बस भी करो,

    तुम तो मत इतना उड़ो,

    मुझको चौके तक जाने दो,

    तीन बार खौला,

    खौल-खौल सूख चुका पानी,

    क्या कहेगी केतली रानी—

    कितने गपोड़ी हैं ये दोनों प्राणी!’’

    प्रसूति-गृह में पिता : एक पुराने छात्र के लिए

    जो अब नया पिता है

    डॉक्टर ने कहा—

    ‘‘वक़्त बदल गया, आप लेबर-रूम में जाएँ,

    पितृत्व भी बड़ा अनुभव है जीवन का,

    साक्षी बने जन्म का!’’

    थोड़ा लजाता हुआ मैं भीतर गया

    तो वह पहचान में नहीं आई!

    पीड़ा के उत्कर्ष पर भी

    उसने कहा मुस्कुराकर—

    “देखो तो क्या मेरा हाल हुआ,

    दो-दो दिल धड़क रहे हैं मुझमें,

    चार-चार आँखों से कर रही हूँ आँखें चार मैं

    महाकाल से!’’

    कहती हुई यह वह फैल गई पूरी पृथ्वी पर,

    उसके आवेग से थरथरा उठे सब पर्वत

    ठेल दिया उसने पहाड़ों को पैरों से एक तरफ़!

    उठ रही थीं उससे ऐसी उसाँसें—

    काँप-काँप उठते थे उसकी उसाँसों से जंगल,

    इंद्रधनुष के सात रंगों से

    था वह बिछौना सौना-मौना!

    जन्म ले रहा था वो नया पुरुष

    उसके पातालों से जिसका खाका खींचती थी वह

    रोज़ सुबह मुझे चाय देती हुई,

    कहती थी आकाश में जगता सूर्य देखकर—

    “बेटी हो तब तो चिंता ही नहीं,

    बेटा अगर हो तो हो सुबह का सूरज,

    उसमें प्रचंडता नहीं हो,

    लोभ, क्रोध और कामनाओं के अतिरेक से पीड़ित,

    ओजोन छिद्र भेदता

    अतिशय पुरुष

    नई धरती के किस काम का?

    ख़ुद अपना पुरुष गढ़ेगी नई धरती अब!

    स्वस्थ होंगी धमनियाँ उसकी और दृष्टि सम्यक!

    उसके उन उन्नत पहाड़ों से फूटेगी जब

    दुधैली रोशनी, वह पिएगा!

    अँधियारा इस जग का

    अंजन बन उसकी आँखों में सजेगा!

    झूलेगी अब पूरी कायनात झूले से,

    फिर धीरे-धीरे बड़ा होगा नया पुरुष,

    सम्बुद्ध प्रज्ञा से शासित-अनुकूलित,

    प्रज्ञा का प्यारा भरतार,

    प्रज्ञा को सोती हुई छोड़कर जंगल,

    इस बार लकिन वह नहीं जाएगा।’’

    मेरी माँ भी कुछ कुछ ऐसा ही

    देखा करती थी क्या सपना

    जब मुझको टखनों पर बैठाकर

    झूला झुलाती हुई गाती थी—

    ‘‘नया बीती उठे, पुराना बीती गिरे!’’

    बीती यानी भित्ति-नई दीवार उठे, पुरानी गिरे,

    लेकिन उठे ही क्यों कोई दीवार, उठे, आदमी उठे।

    उठ रहा है धीरे-धीरे

    माँ के ही टखनों पर एक नया आदमी!

    कितनी सदियाँ बीत जाती हैं एक अदद आस फूल जाने में,

    कितनी लंबी होती है, बाबा, नन्ही से नन्ही इच्छा की उड़ान!

    स्रोत :
    • रचनाकार : अनामिका
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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