किताब घर
मेज़ पर क़ब्ज़ा है उनका
थोड़ा इधर-उधर सरका कर बनाई जाती है
चाय का कप या मोबाइल या अख़बार
या कोई ऐसी ही दूसरी चीज़ रख पाने भर की जगह
वे गँजी पड़ी हैं अलमारियों में
एक के ऊपर एक
बेहद संकोच से सिमट सिकुड़कर
वहाँ रखा जाता है कभी-कभार कोई दूसरा सामान
अक्सर अपना विचार रखने लिए भी
कम या छोटी पड़ती जा रही है जगह
आले पर
जाज़िम पर
कुर्सी पर
मूढ़े पर
रेहल पर
टी.वी. पर
सब जगह बस किताबें ही किताबें
विराज रही हैं पूरे घर में हर ओर
यह घर है किताबों का
यहाँ चलती है उन्हीं की मनमर्ज़ी
अक्सर एक अंतराल के बाद
उनके साथ रहने चली आती हैं कुछ किताबें और
किताबें एक दूसरे को धकियाती नहीं
अपने होने के सही तरीक़े से
वे दिल भी नहीं दुखातीं दूसरी किताबों का
अब तो युग
रचकर हमने गढ़े तमाम मत
जिल्द की तरह पहन लिए नानाविध वस्त्र
अधिकारी हुए सभ्य कहलाने के
एक-एक पृष्ठ को पलटा अनेक बार
लिखीं समीक्षाएँ किए अनुवाद
खोजे तरह-तरह के तर्क-वितर्क
पर क्या पढ़ भी सके क़ायदे से एक भी किताब
तीन लोक से न्यारी काशी का ही विस्तार है यह जगत
कह रहे है कबीर
किताबें भी कुछ कहना चाहती हैं
पर पोथी पढ़-पढ़ कर मरा जा रहा है सारा संसार!
- रचनाकार : सिद्धेश्वर सिंह
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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