अयोध्या में प्रेम
सरयू तट की घास पर बैठे हुए हैं हम
इस शालीन दोपहर में जब
और धूप का एक शिशु टुकड़ा
नरमाई से खेल रहा है तुम्हारी पीठ के साथ
ठीक उसी वक़्त
मैं यह सोचना शुरू करता हूँ कि
यह हवा जिसमें हम साँस ले रहे हैं
क्या हमें इतनी इजाज़त देगी
कि प्रेम करते हुए हम
सहजता से जीवित रह सकें इस शहर में
इतिहास का अभ्यारण्य नहीं है यह शहर
और भले ही इसकी आत्मा में कलुष की कमी न हो
कमर तक कीचड़ में डूबे हों इसके नाम के हिज्जे
या फिर यहाँ से उछाले गए किसी नारे की गूँज से
साबरमती के तट पर हो सकता हो
किसी स्त्री का गर्भपात
विलाप के पार्श्वसंगीत में डूबा हुआ यह शहर
शुचितापूर्ण नैतिकता का
मंत्रोच्चार तो कर ही सकता है
तुम ही बताओ
कैसे किया जा सकता है अयोध्या में प्रेम
जबकि ठीक उसी समय
जब मैं तुम्हें चूमना चाहता हूँ
किसी धार्मिक तलघर से एक स्त्री की चीख़ उठती है
रखना चाहता हूँ अपना गरम हाथ
जब मैं तुम्हारे कंधे पर
भरोसा दिलाने की कोशिश में
तो किसी इमारत के गिरने की आवाज़
तोड़ देती है हाथों का साहस
और वे काँप कर रह जाते हैं
तुम्हारी देहगंध को पहचानने
और याद रखने की कोशिश में
मैं विक्षिप्त-सा हो जाता हूँ
और मेरे नथुने सुन्न हो जाते हैं
धूप, धुएँ और बजबजाते सीवर की
मिली-जुली सड़ांध से
ऐसे ही किसी क्षण में लगता है
यह सड़न बस गई है हमारे भीतर भी
और तुम जानती हो कि
लड़ते हुए तो किया जा सकता है प्रेम
सड़ते हुए ऐसा करना संभव नहीं
और कितना अजीब लगता है न
रसिक परंपरा का पोषक कहलाने वाला यह शहर
कितनी अरसिकता से भरा है
अयोध्या में प्रेम करना प्रतिबंधित है
नफ़रत करने के लिए यहाँ तमाम विकल्प हैं
- पुस्तक : पीली रोशनी से भरा काग़ज़ (पृष्ठ 108)
- रचनाकार : विशाल श्रीवास्तव
- प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
- संस्करण : 2016
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