मेरी कस्तूरी

meri kasturi

अनुपम सिंह

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मेरी कस्तूरी

अनुपम सिंह

और अधिकअनुपम सिंह

    मेरी एकरंगी दुनिया की

    बहुरंगी चाहतें

    जिसके बीच कोई डगर

    पुल

    बस! घनी रात घने जंगल

    घर में अकेले रहती मौन आत्मा

    बोलने-सुनने लगी थी कोई और बोली-बानी

    मैं ज़िंदगी की खड़ी चढ़ाई चढ़ रही थी

    फिर वह आया

    लगा जैसे तूफ़ान आया हो

    जैसे उखड़ जाएँगे अबकी सभी पेड़

    बढ़ जाएगा शोर हाहाकार

    नदियों का जलस्तर

    मैंने विस्तारित कर लीं अपनी आँखें

    मैंने बिल्ली की माफ़िक़

    एक लंबी छलाँग लगानी चाही उसके सीने पर

    तर्क सीखने के बाद बेतर्क होकर प्रेम करना चाहा

    लज्जा के बाद भी उसके सम्मुख बेपर्द होना चाहा

    सोचा कि परिचय के लिए कितना कम है यह जीवन

    लेकिन उसकी जल्दबाज़ी से पता चला कि

    बस अपनी तृष्णा मिटाने के लिए आया है

    मैंने उसे इस तरह देखा कि वह समझ गया

    कि हड़बड़ी में दिया बुझाना मुझे पसंद नहीं

    मैंने उसे अपनी कविता के रिक्त पंक्तियों में बैठाया

    वह थोड़ा झेंपा

    मैंने उसे थोड़ी-सी रियायत दे दी

    उसने फिर से वही हड़बड़ी दिखाई

    ज़ोर की फूँक मारी और दिया बुझा दिया

    और इस बार बिल्कुल भी नहीं झेंपा

    मेरे सभी भवन हो गए धराशायी

    मेरी सभी नौकाएँ जो थीं बच निकलने के लिए

    डूब गई तूफ़ान के बाद की बरसात में

    शिशिर ने खड़-खड़ करते झाड़ दिए पत्ते

    बिना किसी फल के खंडित हुई मेरी तपस्या

    मेरी देह जलने लगी आरती सजी थाल की तरह

    लेकिन वह अपने लिए आया था और लौट गया

    जाने के बाद लगा कि उसने मेरी रात में सेंधमारी की

    ढही हुई चीज़ों के बीच मैं इतना खो गई

    कि भूल गई अपने गाँव के

    सभी मौसम सभी फल

    कि कौन-सी ऋतु में बोई जाती है कौन फ़सल

    सभी फूल मसले गए उसकी चट्टानी पीठ के नीचे

    मैंने उन फूलों को सूखने या मुरझाने से बचाया

    मैंने उन्हें ख़ूब शीतल जल से सींचा

    खिलाया अपने घर का एक-एक कोना

    कम उम्र नहीं ख़र्च हुई

    पूरे पैंतीस साल लगे वह कोना खोजेने में

    जो देह में था

    जैसे कस्तूरी

    स्रोत :
    • रचनाकार : अनुपम सिंह
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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