अलगनी

algani

शरद रंजन शरद

और अधिकशरद रंजन शरद

    हवा में तनी रस्सियों पर

    झूलते रहते हैं हरदम

    धागों की साँसों से बुने शरीर

    रहते कभी बिल्कुल थिर

    कभी शरारत में चलते पाँव

    प्यार से हिलाते हाथ

    कभी इतना मचलते

    जैसे उतरकर चल देंगे

    रहना इनका सूत भर का नहीं

    भरे-पूरे घर का होना है

    ख़ाली पड़े रहते तो भी इनकी साँसें

    घुलती रहतीं धुल रहे वस्त्रों के साथ

    जीवन की उतरन सुनती

    पहले यही आवाज़

    कोई और साथ दुनिया का

    नहीं इतना खुला और खरा

    चुटकी-भर चाहत से जुड़ा

    जुड़ते समय जो पाता जितना कुछ

    छूटते वक़्त उतना ही अधिक दे जाता

    जिसके लिए एक-सा होता मिलना-बिछुड़ना

    आकाश के रूमाल उड़ते हुए उतरते नीचे

    तो गुरुत्व को फूँक मारती साँसे ही

    बचाती उन्हें गिरने से

    हमारे सधे हुए दम पर वे लहराते

    और दबे पाँव जेब में घुस जाते

    कभी हम नहीं होते घर या छत पर

    तो भी एक डोर होती भीतर

    जिस पर नट की तरह चलते रहते प्राण

    झूलती रहती करतबी साँस

    तन और मन का संतुलन लिए

    इस समय को घड़ी से नहीं

    रौशनी की अलग-अलग अलगनी से

    मिलाते रहना ज़रूरी है

    जैसे यदि आत्मा की डोर सिहरने लगे

    तो समझ लीजिए

    जीवन के कपड़े नहीं हैं धुले हुए

    असल में यह सृष्टि भी तो है एक अलगनी

    भीगे अधसूखे कपड़ों से भरी

    अनन्य अनंत में बँधी

    और जहाँ गाँठ लगा यह बंध जकड़ा है

    देखते रहिए हमेशा

    वहाँ कितना बल पड़ा है!

    स्रोत :
    • रचनाकार : शरद रंजन शरद
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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