आलता

alata

इसे महावर कहूँ

या महज़ चटख सुर्ख़ रंग

उगते-डूबते सूरज की आभा

वसंत का मानवीकरण

या कुछ और।

खँगाल डालूँ शब्दकोश का एक-एक पृष्ठ

भाषा-विज्ञानियों के सत्संग में

शमिल हो सुनूँ

इसके विस्तार और विचलन की कथा के कई अध्याय

क्या फ़र्क़ पड़ता है!

फ़र्क़ पड़ता है

इससे

और...और दीपित हो जाते हैं तुम्हारे पाँव

इससे सार्थक होती है संज्ञा

विशिष्ट हो जाता है विशेषण

पृथ्वी के सादे काग़ज़ पर

स्वत: प्रकाशित होने को

अधीर होती जाती है तुम्हारी पदचाप।

आलता से याद आती हैं कुछ चीज़ें

कुछ जगहें

कुछ लोग

कुछ स्वप्न

कुछ लगभग भुला-से दिए गए दिन

और कुछ-कुछ अपने होने के भीतर का होना।

फ़र्क़ पड़ता है

आलता से और सुंदर होते हैं तुम्हारे पाँव

और दिन-ब-दिन

बदरंग होती जाती दुनिया का

मैं एक रहवासी

ख़ुद से ही चुराता फिरता हूँ अपनी आँख।

यह किसी मुहावरे का वाक्य प्रयोग नहीं है प्रिय

ही किसी वाक्यांश के लिए एक शब्द

ही किसी शब्द का अनुलोम-विलोम

कोई सकर्मक-अकर्मक क्रिया भी नहीं।

क्या फ़र्क़ पड़ता है

इसी क्रम में अगर यह कहूँ—

तुम हो बस तुम

आलता रचे अपने पाँवों से

प्रेम की इबारत लिखती हुई

लेकिन यह मैं नहीं

यह आलता सिर्फ़ आलता भी नहीं

और हाँ, यह सब कुछ संभवत: कविता भी नहीं।

स्रोत :
  • रचनाकार : सिद्धेश्वर सिंह
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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