इतस्तत:

itasttah

जैनेंद्र कुमार

और अधिकजैनेंद्र कुमार

    पाप का सवाल एक बहुत बड़ा सवाल है। पाप समाप्त हो तो धर्म अनावश्यक हो जाता हैं। परम आस्तिक और परम नास्तिक दर्शन यही कहते हैं। आस्तिक कहता है कि तुम कुछ नहीं करते, सब परमेश्वर करता है। जो कुछ करता ही नहीं, कर सकता ही नहीं, वह पाप को करेगा। दूसरी और परम नास्तिक दर्शन भी कर्तव्य को आदमी में अलग कर देता है। जो हो रहा है, और तुम कर रहे हो, विकास में अन्नभूत ऐतिहासिक शक्तियों से हो रहा है। हर कोई है वह, जो परिस्थितियों ने उसे बनाया है। उनका चाहना और करना इस तरह उसका अपना नहीं है। कुछ, और कोई परिस्थितियों से स्वतंत्र नहीं है, सब ‘कंडिशंड’ है। पदार्थ की ओर से यह इतिनिश्चितिका (डिटरमिनिस्ट) दर्शन इस तरह पाप को उड़ा देता है। साध्य में लीन हो तो साधन में पाप-पुण्य का प्रश्न ही नहीं रह जाता। उस तरह आस्तिक और नास्तिक दोनों दर्शन एक ऐसी श्रद्धा दे डालते हैं जिसमें पाप के भय से आदमी ऊँचा हो जाता है। पहला आदमी कहता है कि मैं ब्रह्म हूँ, दूसरा मानता है कि इतिहास मैं हूँ। ऐसे अकार्य कुछ रहता नहीं, क्योंकि कार्य ही नहीं रह जाता। बस होनहार होते जाने को रहता है। केवल क्रिया होती है, कर्ता और कर्तव्य मिट जाता है।

    ऊपर की दोनों आस्थाएँ आसानी में नहीं प्राप्त होती। बड़े अभ्याम की ज़रूरत पड़ती है। इसलिए एक सुगम उपाय भी आदमी ने निकाला है। वह उपाय है, नशा। अंदर की भावनाओं में से पक्कापन पाने में ज़ोर पड़ता हो तो शराब जैसी चीजों के सहारे एक नशा आसानी से सिद्ध किया जा सकता है। योगी जन सुल्फा, गाँजा और चरस जैसे द्रव्यों की सहायता लेते सुने जाते हैं। भारतीय पद्धति वाले अमरीकी लेखक आल्डम हक्सले ने एक नई बूटी खोज़ निकाली है और पुस्तक लिखकर उनका स्तवन किया है! उस बूटी में अध्यात्म-समाधि सहन होती है। नशों का लाभ यह होता है कि आदमी इधर-उधर का बहुत कुछ नीचे छोड़ देता है और स्वप्न में अपने को पहुँचा लेता है। तब अंदर कोई ग्लानि और कुतरने वाली चीज़ महसूम नहीं होती और जो सामान्यतः संभव नहीं है, उसी की सामर्थ्य भीतर में निकल आती है।

    कहते हैं नशीली चीज़ों में मिलने वाला भ्रम थोड़ी देर ठहरता है, अपने अंदर के ज़ोर से पकाया गया विश्वास देर तक टिकता है। वह जीवन भर काम दे जाता है। इस विश्वास की पद्धति के सहारे जो पाप से उठते हैं महापुरुष समझे जाते हैं। इतिहास उन्हें याद रखता है। वे रण की ललकार जगाते हों और लाखों को जान और करोड़ो का माल नष्ट-भ्रष्ट करते हों तो भी उनकी महापुरुषता में क्षति नहीं पाती। कारण, प्रेरणा उन्हें सिद्धांत की होती है। नशा वस्तु से मिलता है, सिद्धांत से मिला ‘इन्सपिरेशन’ कहलाता है।

    ऐसे उत्तर और उत्तम पुरुषों की बात मैं नहीं करता। पाप के सवाल के लिए वे संगत नहीं हैं। शेर शिकार करता है तो पाप करता है? इसी तरह मानव जाति के सिंहपुरुषों को विचार से बाहर मानिए। पाप करते भी होंगे तो इतना विशाल, इतना महान्, इतना चमत्कारी होता है कि उसके आगे माथे को विस्मय में उठाकर या स्तुति में झुकाना ही पड़ता हे। पाप की बात सामान्य जन की है।

    सच यह है कि सब हम सामान्य है। शराब हम में से कोई ज़रूरत से ज्यादा चढ़ा ले तो वहीं आसामान्य दीख आयेगा। ऐसी असामान्यता जहाँ प्रकट हो, वहाँ हम उसे विचार के लिए अनावश्यक कर देते हैं। ‘अरे-अरे शराबी हैं, बेचारे को रहने दो। असल में इसी भाव से मानवोत्तर और मानवोत्तम को फ़िलहाल अलग किया जा सकता है। यों पाप के प्रयोग से बरी वे भी नहीं हैं। सिर्फ़ नशा उन्हें तेज़ होता है, उसमें अंदर की कुरेद का पता वे खो रहते हैं।

    तो पाप है, इसलिए नहीं कि ईश्वर ने उसकी सृष्टि की है, बल्कि इसलिए कि मनुष्य को उन्नति करनी है। वह वर्तमान से आगे भविष्य को देखता है, और वर्तमान को व्यतीत में जोड़कर देखना चाहता है। वह क्षमता उसमें आकांक्षा और विवेक को पैदा करती है। पशु सिर्फ़ होता है, चाहना सोचना उसमें होने में अलग नहीं है। आदमी की चाह सदा होने (प्राप्त) से आगे सदा अनहोने (अप्राप्य) की ओर जाती है। इस तरह प्राप्त और प्राप्य में मनुष्य के भीतर सदा ही एक तनाव रहता है। इसी में से कर्म उपजता है और मनुष्य प्रगति करता है। जैसे दाएँ-बाएँ घर में चला जाता है, वैसे ही पाप-पुण्य के विवेक में ऊपर को उठा जाता है। पाप का होना इस दृष्टि से सृष्टि विधान में ग़लत नहीं रह जाता, बल्कि बेहद ज़रूरी हो जाता है। कारण, उसके अभाव में स्थिति से भिन्न हम गति की कल्पना ही नहीं कर सकते। तब सारा पुरुषार्थ गिर जाता है और विकास को क्रिया रुक जाती है।

    पाप वह जिनमें हम खिंचते हैं और खिंचना नहीं चाहते। जिसे आधा मन चाहता है, आधा एकदम नहीं चाहता जो हमें स्वाद में अच्छा लगता है, परिणाम में बुरा लगता है। पाप इस तरह आदमी के अपने अंदर के द्वन्द्व में बसता है। पशु की पशुता में पाप नहीं है, पाप मनुष्य की पशुता में है। अर्थात् पशुता को पाप नहीं कहा जा सकता; पाप का प्रवेश तभी होता है जब प्राणी निरा पशु नहीं है मनुष्य भी है। इस तरह स्पष्ट हो जाता है कि पाप की स्थिति बिना पुण्य के हो नहीं सकती।

    पाप का क्या करें? कैसे उसे जानें? कैसे झेलें और भुगतें? पाप को यों ही तो अपनाया नहीं जाता। जैसे अच्छा काम करने में ज़ोर पड़ता है, वैसे ही बुरा काम करने में ज़ोर पड़ता है, बल्कि ज्यादा ज़ोर पड़ता है। किसने चोरी की है और शुरू में डर नहीं लगा? जार कब कायर नहीं हुआ? पाप और भय का अभिन्न संग है। यानी कभी नहीं हो सकता कि पाप को निर्णय मन से अपनाया जा सके। भय में से पाप की उपज है।

    यहाँ आवश्यक है हम समझ लें कि पाप अपराध नहीं है। अपराध समाज से बनता है। संत जन अपराधी माने गये हैं और दंडित हुए। गांधी ने जेल पर जेल पायी। अपराध के कारण ही बार-बार उन्हें कैद में डाला गया। पर इन अपराधों में पाप कहीं था ही नहीं। इस तरह पाप स्वापेक्ष (सब्जेक्टिव) वस्तु है। समाज की ओर से उसका इलाज बन नहीं सकता। चोर को चोरी की सजा में हमने जेल भेजा, पर मन को जेल कहाँ हो पायी? मान लीजिए कि चोरी पकड़ी नहीं जाती या कि नहीं सिर्फ़ चाही जाती है, तब पाप तो उग गया, पर समाज किसी तरह उसे छू या छेड़ नहीं सकता। इसी तरह समाज की ओर से किये गये सब उपाय अपराध तक रह जाते हैं, पाप तक नहीं पहुँच पाते।

    पाप के सवाल को जो चीज़ छू और समझ सकती है, वह है मनुष्य के भीतर चलने वाली आंतरिक क्रिया। सत्-असत् में भेद करने वाली एक अनिवार्य प्रक्रिया है जिसको मनुष्य के भीतर में लाख प्रयत्न करने पर भी भेदा नहीं जा सकता, उसे विवेक कहते हैं। अक्सर उस विवेक से हम सत् और असत् के टक्कर की प्रेरणा लिया करते हैं। यानी माने हुए सत् में अपने में माने हुए असत् को सीधे-सीधे लड़ाते हैं। पाप की वासना को नीति की धारणा से दबाते हैं। इसको संयम कहा जाता है।

    कथाओं-पुराणों में असंख्य उदाहरण हैं, और हम सबके जीवनों में उतने ही असंख्य अनुभव हैं, कि उग्र आग्रह खंडित होता है। हठ टूटता है और जय उस राह व्यक्ति की नहीं, पाप की होती देखी जाती है। व्यक्ति करता है वह जो नहीं चाहता है कि करे। बहुतेरा झगड़ता है, पर अंत में बस ही नहीं चलता! यह आत्म-अनुभव है।

    ऐसा क्यों होता है? व्यक्ति का उत्तम क्यों अपने अधम से हारता है? क्यों है कि इस द्वंद्व में सदा व्यक्ति पराभूत हुआ है, संकल्प क्यों सदा टूटा ही है? क्यों है कि होनहार कभी भी व्यक्ति के अनुसार नहीं होता है, अपने ही अनुसार होता है। इसके मूल में जायें तो शायद पता लगेगा कि कुछ है जो हर व्यक्ति और उसके हर संकल्प से प्रमाण है और अनिवार्य है। उस अमोघ-अनिवार्य का नाम है ईश्वर। वही सत्य। इस स्वीकृति में से प्रार्थना और अकिंचनता की प्राप्ति होती है। मनुष्य का संकल्प टूटेगा, बिखरेगा, अगर नीचे उसके इस प्रार्थना मय अकिंचन्य का बल नहीं है। मैं जीतने वाला नहीं है, जीतेगा सत्य। इस लिए वह संयम और वह संकल्प जो सारा बल ‘मैं’ से प्राप्त करता है, पाप को जीत नहीं पायेगा। उलटे अंत में यह पाप की ही विजय का उपादान होगा। अहंकार पाप का निमंत्रण है और स्वयं पाप है। इसलिए उस आधार पर जड़ जमाकर बड़ा होने वाला मनोबल (विल पावर) और उसमें में निकलने वाली स्पर्द्धापूर्ण यम-नियम-संयम और तप-त्याग-तपस्या का सिद्धांत अंत में अकृतार्थ ही होगा। कारण, यह अहं पुण्य के ज़ोर से अहं पाप को जीतने का उपाय है। पर पुण्य-पाप की तो जोड़ी है और अहता से जुड़ी है! अतः द्वन्द्व का शमन तो सत्य में है। वहाँ पाप के प्रति हठ नहीं करुणा है और पुण्य में आकांक्षा नहीं समता है। सत्य वह जहाँ अविभक्तता है।

    स्त्री-पुरुष के संबंधों में और सत्ता-संपत्ति को लेकर अक्सर मनों में कामनाएँ उठती हैं जिनके साथ पाप का बोध चलता है। नैतिक मत-मान्यताएँ उस बोध को उपजाती और तीखा करती है। उसका निपटारा दुर्जन और सज्जन के ‘सु' और 'कु' के, दो वर्ग खड़ा करने और उनके विग्रह को तीक्ष्ण करने से नहीं होगा। होगा यदि तो इस पद्धति में कि सज्जन अपने अंदर दुर्जनता टटोल देखें और उधर दुर्जन के अंदर की सज्जनता पहचाने और उसे प्रकट करें।

    स्रोत :
    • पुस्तक : निबंध गरिमा (नवल किशोर एम ए) (पृष्ठ 38)
    • संपादक : नवल किशोर (एम ए)
    • रचनाकार : जैनेन्द्र कुमार
    • प्रकाशन : जयपुर पब्लिशिंग हाउस

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    जश्न-ए-रेख़्ता (2023) उर्दू भाषा का सबसे बड़ा उत्सव।

    पास यहाँ से प्राप्त कीजिए