मेरी डायरी के कुछ पृष्ठ

meri Diary ke kuch prishth

धीरेन्द्र वर्मा

धीरेन्द्र वर्मा

मेरी डायरी के कुछ पृष्ठ

धीरेन्द्र वर्मा

और अधिकधीरेन्द्र वर्मा

     

     

    सत्य क्या है, अथवा सबसे उत्तम मार्ग कौन सा है, इसका निश्चय करना बहुत दुस्तर है। संसार में इतने बहुत से धर्म हैं, इससे ही प्रकट होता है कि सत्य का जानना कितना कठिन है। एक ओर एक बूढ़ा मनुष्य जनेऊ पहने, माथे पर चंदन लगाए, स्नान करके, कुशासन पर बैठा गायत्री का जाप कर रहा है।  दूसरी ओर जूते और कपड़े पहने, गिरजा घर में खड़ा हुआ, एक मनुष्य आँखें मूंदकर ईसा मसीह से पापों को दूर करने की प्रार्थना कर रहा है। तीसरी जगह बकरे को मारकर, झटपट हाथ धो, कंधे पर के सुर्ख़ अंगोछे से मुँह पोंछ, मुल्ला साहब मसजिद में घुटनों के बल बैठे हुए 'या मुहम्मद रसूल अल्लाह' को श्रद्धापूर्वक पढ़ रहे हैं।  इसमें कौन ठीक है?
    ऐसा मालूम होता है कि दुनिया में सत्य और झूठ कुछ भी नहीं है, अथवा एक ही बात सच्ची और झूठी दोनों हैं। जिन बातों को बचपन से सत्य और उत्तम कहके बताया जाता है, उन्हें लोग अच्छा समझते हैं, और जिनको झूठ और ख़राब बताया जाता है, उन्हें बुरा समझते हैं। एक आदमी कच्चे माँस को देखकर घृणा के कारण मुँह फेर लेता है, और दूसरा मुँह में पानी भर टकटकी लगाकर उसी को देखता है। क्या यह शिक्षा का प्रभाव नहीं है। इनमें कौन ठीक है?

    कुछ विद्वानों ने सत्य और असत्य को जानने के लिए बहुत परिश्रम के बाद कुछ सिद्धांत रचे हैं; किंतु यह भी अलग-अलग हैं। एक कहता है कि जो आँख से दिखाई दे, वह अवश्य है। किंतु दूसरी ओर एक धुरंधर विद्वानों की मंडली कहती है, कि जो कुछ दिखाई पड़ता है, वह भ्रम मात्र है। हद हो गई ! कैसे पता चले कि इनमें कौन ठीक है?
    ख़ैर, आगे चलिए। एक आदमी ईश्वर को मानता है, दूसरा इस विचार की हँसी उड़ाता है। यह नहीं है कि देश अथवा काल के कारण यह कठिनाई पड़ती हो। एक ही घर में चार आदमी बिलकुल अलग-अलग ख़याल के मिलेंगे। फिर पता कैसे चले कि इनमें ठीक कौन है?

    (2)

    बचपन और बड़ी उमर में सब से बड़ा भेद यह होता है कि पहली अवस्था में प्रत्येक बात कहानियों के अनुभव से जाँची जाती है, तथा दूसरी अवस्था में संसार के प्रत्यक्ष और कठिन अनुभव से। बचपन में यह ही समझ में नहीं आता, कि लोग रुपया कमाने को नौकरी क्यों करते हैं। प्रथम तो रुपया चाहिए ही क्यों? क्या रॉबिंसन क्रूसो का जीवन सुंदर जीवन न होगा? और यदि चाहिए भी, तो यह परिश्रम बिलकुल व्यर्थ है। अभी उस दिन तो दादी से उस गिरे हुए मकान के तहख़ाने में रक्खे मुहरों से भरे सोने के कलशों का हाल सुना ही था। बचपन के सुखों का यह एक बड़ा कारण अवश्य है।

    कुछ बड़े होने पर एक डर बढ़ जाता है  सबक याद न होने पर मास्टर साहब की घूरनेवाली आँखों का। खेलने के सामने पढ़ना समय नष्ट करना मालूम होता है; किंतु माता तक इस समय नष्ट करने को कहा करती है। खेलते-खेलते मास्टर साहब के आने का समय निकट होने की याद हाथ रोक देती है। इसके सिवाए और कोई डर नहीं होता है। वीरता का तो कुछ कहना ही नहीं। क्या अब डाकू बिल्कुल नष्ट हो गए? एक बार भी माता के सामने उन्हें दंड देने का मौका न मिलेगा? क्या अब नावें डूबती ही नहीं? एक बार भी अकेले ही सब डूबते हुओं को बचाने का अवसर न मिलेगा?

    अब एक समय आता है, जब पुराने सुख नए सुखों में धीरे-धीरे बदल जाते हैं। पढ़ने में एक विशेष आनंद आने लगता है। इसका कारण पढ़ाई जानेवाली पुस्तकों के विषय नहीं होते; किंतु दर्ज़े में सबसे आगे बैठने या परीक्षाओं में सब से अधिक नंबर फटकारने का शौक होता है। इस समय मन किन्हीं गंभीर बातों को नहीं सोचता। स्कूल जाने, और स्कूल से लौटकर स्कूल के ही काम करने में सब समय लग जाता है। हाँ, कभी-कभी घर के बड़े लोगों को देश की दुर्दशा का वर्णन करते सुन कुछ समय के लिए दुःख अवश्य होता है। यह भी विचार उठते हैं, कि मैं ही क्यों न देश का उद्धारकर्ता होऊँ! असंभव तो तनिक भी नहीं है।

    स्कूल से निकलते ही एक नवीन संसार में प्रवेश करना होता है। प्रारंभ में यह संसार आशापूर्ण देख पड़ता है; किंतु धीरे-धीरे ज्यों ही समय बीतता जाता है। संसार के असली स्वरूप का दर्शन होने लगता है। संसार की कठिन उलझनें व प्रत्यक्ष अनुभव कभी-कभी एक प्रकार की निराशा उत्पन्न कर देते हैं; किंतु यह शीघ्र ही दूर हो जाती है और फिर मनुष्य तेली के बैल के समान नीचे को सिर डालकर इस चक्र में ख़ुशी-ख़ुशी पड़ने को उद्यत हो जाता है।

    यदि एक बार फिर पुरानी दुनिया को देखने की इच्छा होती हो, तो क्षण भर के लिए आँखें मूंदकर बचपन की याद कीजिए एक झलक देख पड़ेगी।

    (3)

    यदि लोग अपने पिछले तथा अगले जन्म के विषय में पूरी तरह जानते होते, अथवा यह ही पूर्ण रूप से निश्चय होता कि ये जन्म होते भी हैं, तो बहुत सी बुराइयाँ दूर हो जातीं और उन्नति करनेवाली आत्माओं का कार्य अत्यंत सुगम हो जाता। इसमें संदेह नहीं कि बुराइयाँ भी बढ़ जातीं; किंतु हानि की अपेक्षा लाभ कदाचित् अधिक होता। ठीक यही बात भावी जीवन के संबंध में भी है। यदि मनुष्य लड़कपन से ही निश्चय कर सके कि मैं संसार की इस कमी को पूरा करूँगा, तो उस मनुष्य तथा संसार दोनों ही के लिए अति उत्तम हो; परंतु जब किसी बड़े कार्य की पूर्ति करना हो तब न? सच पूछिए, तो जो कुछ कार्य होता देख पड़ता है, सब पेट के कारण होता है। मज़दूर डलिया नहीं ढोता, न कवि कविता करता! शायद दोनों के हाथ में कुदाली और हल होता, यदि इन कामों से पेट का प्रबंध न होता।

    कभी-कभी शहर की गलियों में से जाते हुए चित्त बड़ा उदास हो जाता है। जब दृष्टि सैकड़ों दुखित स्त्री पुरुषों पर पड़ती है, जो भूख लग आने के कारण घिसटते होते हैं। समझ में नहीं आता, कि ये लोग किस प्रकार से अपना तथा संसार का भला कर रहे हैं। इसमें संदेह नहीं कि कुछ थोड़ी.सी आत्माएँ ऐसी भी अवश्य होती हैं, जो अपना कार्य धर्म समझकर करती हैं, न कि रोटी कमाने का द्वार समझकर; किंतु इनमें भी बहुत सी ऐसी निकलेंगी, जिनके पेट भरे जाने का प्रबंध है; इसलिए वे अपना कार्य धर्म समझकर कर सकती हैं। केवल धर्म समझकर ही कार्य करनेवाले इस बड़े संसार में सचमुच उँगली पर गिने जा सकते हैं। फिर संदेह इसमें भी तो है कि ये मुट्ठी भर आदमी क्या सचमुच सर्वोत्तम हैं ही।

    (4)

    दुनिया में लोग कहने और करने की बातें अलग-अलग रखते हैं। कहावत है, हाथी के दाँत खाने के और होते हैं दिखाने के और। सच पूछिए, तो लड़कों के हाथ में संसार के बड़े-बड़े आदमियों की जीवनियाँ इसलिए नहीं दी जाती हैं, कि वे उनका अनुकरण करें; किंतु इसलिए कि उनकी प्रशंसा करना सीख जाएं। स्वामी दयानंद की जीवनी पढ़कर कोई लड़का आत्मा के संतोष तथा संसार के उपकार के लिए घर से उड़ने की तैयारी करने लगे, तो अव्वल नंबर का नालायक समझा जाएगा; किंतु मूलशंकर जैसा संसार का उद्धार करने वाला लड़का बिरला ही होगा। स्वामी दयानंद की जीवनी, आदर्श जीवनी है! बिचारा लड़का सिर हिला-हिलाकर समझाया जाएगा कि कुछ और भी सीखा कि यही सीखा; पहले स्वामीजी के और गुण तो सीखे होते; परंतु इन सिर हिलाने वाले बड़े-बूढ़े को यह पता नहीं कि दयानंद बनने से पहले मूलशंकर घर से भागा ही था।

    न मालूम इन बिचारे लड़कों को इस दुरंगे झंझट में क्यों डाला जाता है। बचपन से बतलाया जाता है, कि सच बोलना बड़ा ही अच्छा है; विद्या प्राप्त करने से आत्मा की उन्नति होती है। संसार में जीवन का उद्देश मोक्ष प्राप्त करना है। ये तो रहीं कहने की बातें। जब करने का मौका होता है, तब दूसरी ही बातें काम आती हैं। 'कहीं ऐसे सच्चे बनने से दुनिया में काम थोड़े ही चलता है?, इस पढ़ाई से क्या लाभ, जो रोटी कमाने के काम न आवे?', 'अरे भाई, रुपए से सब सुख हो सकते हैं।' वाह, क्या निराली दुनिया है!

    अगर इस तरह धोखा न दिया जाए, तो कदाचित् बचपन की शुद्ध आत्मा इस पेच सहसा न पड़े। इन बातों के कहने में भी कुछ झिकक लगती है। मद्धिम रोशनी में,अकेले, धीरे-धीरे भले ही ये बड़े-बूढ़े अपने सफ़ेद बालोंवाला तजुर्बा नासमझ लड़के को सौंपने को तैयार हो जाएँ, नहीं तो खुले ख़ज़ाने तो कहना दुनिया की रीति नहीं है। यदि कहीं दुनिया का काम, चलने की विधि और कहना एक ही हो जाता, तो कैसा अच्छा रहता। क्या यह संभव नहीं है कि जैसे अभी इस दुरंगी चाल के बिना काम नहीं चलता, वैसे ही तब एकरंगी चाल के बिना काम न चलता; वही रिवाज हो जाता; लेकिन लोग कोशिश ही नहीं करते।

    सच पूछिए, तो लोगों ने अपने जीवन को एक बड़ा भारी झूठ बना लिया है। ज़रा-ज़रा सी बातों में लोग दुहरे कोट रखते हैं, जब चाहा, जैसा बदल लिया। एक ओर देश के उद्धार के लिए जीवनदान देने पर व्याख्यान दिया जा रहा है, दूसरी ओर लड़के को डिप्टी कलेक्टरी दिलाने की कोशिश की जा रही है। एक ओर पुस्तकों की बड़ाई की जाती है, दूसरी ओर पुस्तकों में व्यर्थ रुपया नष्ट करने से रोका जाता है। एक ओर गाँधीजी के सादे रहन-सहन को आदर्श बताना, और दूसरी ओर सूट के लिए काशी सिल्क का देना! अजब दुरंगी दुनिया है!

    क्यों नहीं बचपन से बतला दिया जाता कि तुम्हें रुपया कमाने के लिए पाला व पढ़ाया जा रहा है; जितने ही अधिक रुपया कमाने के योग्य तुम अपने को बना लोगे, उतने ही तुम हमारे आदर के पात्र होओगे। क्यों नहीं बचपन में बतला दिया जाता कि शिक्षा का उद्देश्य रुपया कमाने की शक्ति प्राप्त करना, तथा दुनिया में आदर का पात्र होना है। क्यों नहीं बचपन से बतला दिया जाता कि जीवन का उद्देश्य तिजारत करना, इंजीनियरी करना, व डिप्टी कलेक्टरी करना है। बचपन से ही झूठ बोलने के अच्छे से अच्छे तरीके सिखा दिए जाएँ, जिससे फिर बड़ी उमर में लड़कों को दिक्कत न पड़े। सीधे और चुप्पे लड़कों की बुराई तथा चालाक और बातून लड़कों की तारीफ़ करनी चाहिए। बड़ी उमर में यह बातें सीखना ज़रा कठिन हो जाता है। रामचंद्र, शिवाजी व तिलक के स्थान पर रायबहादुर छोटेलाल, साहू भिखारीमल व आडिट ऑफ़िस के मशहूर हेडक्लर्क रायसहाय साहब की जीवनी लाखों में छाप-छाप कर लडकों के हाथों में देनी चाहिए। इन्हीं की नकल तो लडकों से करानी है।

    दुनिया बड़ी झूठी है, इससे संतोष नहीं होता।

    मार्च, 1917

    स्रोत :
    • पुस्तक : हंस (आत्मकथा अंक) (पृष्ठ 20)
    • संपादक : प्रेमचंद
    • रचनाकार : धीरेंद्र
    • प्रकाशन : विश्वविद्यालय प्रकाशन वाराणसी
    • संस्करण : 1932

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    जश्न-ए-रेख़्ता (2023) उर्दू भाषा का सबसे बड़ा उत्सव।

    पास यहाँ से प्राप्त कीजिए