एक जेल से दूसरी जेल में

ek jel se dusri jel mein

भाई परमानंद

भाई परमानंद

एक जेल से दूसरी जेल में

भाई परमानंद

और अधिकभाई परमानंद

    दो साल तक काल-कोठरी में बंद रहने के बाद अचानक एक दिन सुपरिटेंडेंट-जेल अपना सारा स्टाफ़ लिए हुए कोठरी के सामने मौजूद हुआ। हुक्म दिया—'इस कोठरी का ताला खोलकर इसे बाहर निकाल दो।' मुझे और मेरे उन कुछ साथियों को, जिनकी सज़ा मौत से कालापानी में तब्दील हो गई थी, काल-कोठरी वाले हाते से निकालकर जेल के एक दूसरे हाते की कोठरी में अकेला-अकेला ही बंद कर दिया। इस तब्दीली से हमें इतना ज्ञान हो गया कि हमें अब फाँसी के तख़्ते पर चढ़ने की ज़रूरत नहीं रही। ऐसे ही दो-तीन दिन और गुज़र गए। सुबह का वक़्त था। जेल का दारोग़ा और सिपाही आए। कोठरी से बुलाकर बाहर ले गए। हाते के बाहर एक फ़ोटोग्राफ़र ने अपना कैमरा लगाया हुआ था। मैंने जेल का एक कुर्ता और जाँघिया पहना हुआ था। हाथ में हथकड़ी लगी हुई थी। पाँव में वे स्लीपर थे, जो मुक़दमे के आरंभ से ही मैंने पहने हुए थे और जो अब आठ मास के बाद पुराने दिखाई देने लगे थे। फ़ोटोग्राफ़र ने हम सब की जुदा-जुदा तस्वीर ले ली और इसके बाद हमें अपनी-अपनी कोठरी में लाकर बंद कर दिया गया।

    उसी दिन शाम के वक़्त हम सब को बाहर निकाला गया। हम में से हर एक का वज़न लेकर उसे एक छपे हुए फ़ार्म पर दर्ज कर दिया गया। हमें बताया गया कि अब तैयार हो जाओ; तुम्हें इस जेल से चला जाना होगा। अँधेरा होने तक हम सबके पाँव में मज़बूत बेड़ियाँ लगा दी गई और हमें बाहर जाने के लिए दूसरी प्रकार का कुर्ता ओर धोती भी दे दी गई। बिस्तरे के लिए दो-दो कंबल भी दे दिए गए। ख़ासा अँधेरा हो जाने पर हमको जेल से बाहर निकाला गया। फाटक से बाहर एक बड़ी लंबी-चौड़ी, घोड़ों से खींची जाने वाली एक गाड़ी खड़ी थी। गाड़ी के चारों तरफ़ लोहे की सलाख़ें थीं। एक दरवाज़ा खोलकर हम पंद्रह निर्वासितों को उसमें भर दिया गया। रात के अँधेरे में ही बहुत देर इधर-उधर फिराने के बाद हमें स्टेशन के नज़दीक ले जाया गया। स्टेशन से कुछ फ़ासले पर एक रेलगाड़ी खड़ी थी। पास लेकर उस गाड़ी में बंद कर दिया गया और पुलिस का पहरा गाड़ी के अंदर और बाहर मज़बूत कर दिया गया। यह अकेली गाड़ी स्टेशन से इतनी दूर खड़ी थी कि हमें यह पता लग सकता था कि लाहौर के नज़दीक कौन-से स्टेशन पर हमें लाया गया है।

    दूसरे दिन सुबह हुई। हमने देखा कि पंजाब की सीमाओं से गुज़रकर हम यू० पी० के अंदर दाख़िल हो गए हैं और हम पर पंजाब की पुलिस के बजाए यू० पी० की पुलिस निगरानी कर रही है। उस समय हम सब ने आठ-दस माह के बाद बाहर की दुनिया देखी। जिस स्टेशन से हमारी गाड़ी गुज़रती, मुसाफ़िर हमें एक अजूबा-सा समझकर गाड़ी के पास खड़े हो जाते। इस पर पुलिस के सिपाहियों को कई बार बड़ी सख़्ती के साथ लोगों को परे हटाना पड़ता था; परंतु हमने इतना अनुभव ज़रूर कर लिया कि पंजाब पुलिस की अपेक्षा संयुक्त प्रांत की पुलिस का हमारे साथ बर्ताव बहुत नरम था। संयुक्त प्रांत की पुलिस हमें इतना भयावह समझती, जितनी पंजाब की। बिहार की सीमा में प्रवेश करने पर हमारा चार्ज बिहारी पुलिस ने ले लिया। यद्यपि उनको सूचित किया गया कि हम बड़े ख़तरनाक क़ैदी हैं तो भी उनका व्यवहार यू०पी० पुलिस की निस्बत ज़्यादा नरम था। बिहार से भी आगे जब हम हावड़ा स्टेशन पर पहुँचे तो गाड़ी से उतरने पर, चाहे हमारे पाँव में बेड़ियाँ थी, किंतु हम अपने आप को अन्य यात्रियों के समान ही समझने लगे। कलकत्ता के पुलिस वाले बहुत बेपरवाह थे। वे किराए की चार गाड़ियाँ ले आए। हम में से चार-चार को एक गाड़ी में बैठा दिया और एक या दो-दो सिपाही गाड़ी के ऊपर बैठ गए। इन गाड़ियों के अंदर इतना फ़ासला हो जाता था कि हम से कइयों के मन में यह ख़याल आया कि अगर उनके पाँव में बेड़ियाँ हों तो वे आसानी से भाग कर राह चलने वाले दूसरे मुसाफ़िरों के अंदर मिल सकते हैं। कलकत्ता में हम ऐसा समझते थे कि हमारी निगरानी का किसी को ध्यान ही नहीं है।

    ख़ैर, लगभग दो घंटे के बाद अलीपुर जेल में पहुँचे। जेल वालों ने पुलिस से हमारा चार्ज ले लिया और हमें अलीपुर जेल के अंदर एक ख़ास हाते की कोठरी में बंद कर दिया गया, जहाँ पर बंगाल के राजनैतिक कैदी रक्खे जाया करते थे।

    क़रीब दो सप्ताह हमें इस जेल में ठहरना पड़ा। पंजाब के जेलों की निस्बत यहाँ कहीं ज़्यादा आराम था। बजाए कच्ची कोठरियों के पक्की कोठरियाँ थीं। उनके फ़र्श सीमेंट से पक्के किए गए थे। इस जेल में दूसरे क़ैदियों का, जो हमारे लिए पानी और खाने का प्रबंध किया करते थे, हमारे साथ बहुत अच्छा व्यवहार था। भारत के बाक़ी जेलों में से भी क़ैदी लाकर यहाँ जमा रक्खे जाते थे। हम सब की डाक्टरी परीक्षा की गई। अंडमान भेजे जाने वाले क़ैदियों की छाती को यहाँ विशेषकर देखा जाता था कि वह कालापानी का जलवायु सहन करने योग्य हैं या नहीं।

    अंत में एक दिन प्रातः यह मालूम हुआ कि कालापानी का 'महाराजा' नामक जहाज़ अपने घाट पर गया है। एक सौ से अधिक क़ैदियों को जेल से बाहर निकाला गया और दो-दो की एक लाइन बनाकर उन्हें जहाज़ की तरफ़ रवाना किया गया। हम में से हर-एक का बिस्तर—अर्थात् दो कंबल—उसके सिर पर था और प्याला हाथ में। इस तरह हम तीन मील चलकर बंदरगाह पर पहुँचे और जहाज़ में दाख़िल किए गए।

    महाराजा जहाज़ के ऊपर के हिस्से में कई केबिन और डेक थे, जहाँ कई यात्री सवार थे। इस जहाज़ में ख़ुराक और दूसरा सामान भी अंडमान को ले जाया जाता है। डेक के नीचे एक और तहख़ाना था जिसमें बाक़ी के क़ैदी रक्खे गए। इस तहख़ाने के नीचे एक और तहख़ाना था जिसमें हम पंद्रह रक्खे गए और इस बात का खास ख़याल रक्खा गया कि हम कभी किसी दूसरे क़ैदी से मेल-जोल रख सकें और जहाज़ के ऊपर के हिस्से में आकर बाहर की हवा और सूर्य को देख सकें। कलकत्ता से कालापानी तक तीन दिन दो रात का रास्ता है। इन चार-पाँच वक़्तों में अन्य यात्रियों के साथ हमें भी कुछ चने और गुड़ दे दिए जाते थे जिससे हम अपना पेट भर लेते थे। दिन गुज़र गए। अपने वक़्त पर जहाज़ पोर्ट ब्लेयर पर जा लगा। नौ-दस बजे का समय था। मुझे अन्य यात्रियों का तो ख़याल नहीं; लेकिन हम पंद्रह को जहाज़ से जेल तक ले जाने के लिए पुलिस का एक ख़ास दस्ता मौजूद था। जहाज़ से उतरते ही एक घाटी शुरू हो जाती है। एक-डेढ़ फ़र्लांग चढ़ाई चढ़ने के बाद चोटी पर सेलुलर जेल जाता है जो दूर से एक बड़ा भारी क़िला दिखाई देता है। पुलिस हमारे आगे-पीछे और दोनों बाज़ुओं पर थी। बिस्तर हमारे सिरों पर थे। पाँव की बेड़ियाँ घन-घन कर रही थीं। डेढ़-दो फ़र्लांग चलकर हम जेल के फाटक पर पहुँचे। उस समय फाटक खोल दिया गया और हमें ड्योढ़ी के अंदर लाकर खड़ा कर दिया गया। एक आयरिश बड़ा मोटा और भद्दी-सी शक्ल का दफ़्तर के बाहर आया। हमसे संबोधन करके कहने लगा—'देखो, मुझे रिपोर्ट पहुँची है, तुम बड़े ख़तरनाक शख्स़ हो। तुमने बम बनाकर गवर्नमेंट को उखाड़ने की कोशिश की है। अब समझ लो कि तुम ऐसी जगह में गए हो जहाँ से तुम्हारी कोई दाद-ब-फ़रियाद सुनी नहीं जा सकती। बाहर दुनिया का और ख़ुदा है, 'इस जेल का ख़ुदा मैं हूँ।' यह कहकर उसने अपने एक पठान जमादार को हुक्म दिया—ले जाओ इनको। मुख़्तलिफ़ हातों में दूर-दूर कोठरियों में अकेले-अकेले बंद कर दो। ये साहब मिस्टर बैरी सेलुलर जेल के दारोग़ा थे, जिनके ज़ुल्म और सख़्तियों का बयान हमारे जेल के जीवन का एक बहुत ही दर्दनाक अध्याय है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : हंस (आत्मकथा अंक) (पृष्ठ 17)
    • संपादक : प्रेमचंद
    • रचनाकार : परमानंद
    • प्रकाशन : विश्वविद्यालय प्रकाशन वाराणसी
    • संस्करण : 1932

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    जश्न-ए-रेख़्ता (2023) उर्दू भाषा का सबसे बड़ा उत्सव।

    पास यहाँ से प्राप्त कीजिए