उपन्यास के दायित्व

upanyas ke dayitw

रामस्‍वरूप चतुर्वेदी

रामस्‍वरूप चतुर्वेदी

उपन्यास के दायित्व

रामस्‍वरूप चतुर्वेदी

और अधिकरामस्‍वरूप चतुर्वेदी

    एक

    साहित्य के माध्यमों में से कौन-सा माध्यम सबसे अधिक सशक्त तथा प्रभावोत्पादक है, इस संबंध में विभिन्न विद्वानों के अपने-अपने मत रहे हैं। इधर लगभग पिछले 5-6 वर्षों से उपन्यास की महत्ता सर्वमान्य रूप से प्रतिपादित की जाने लगी है। पच्चीस वर्षों पहले तक उपन्यास का पढ़ना शिक्षित वर्ग में विलास के अन्य बहुत से साधनों में से एक माना जाता था। उपन्यास का पठन-पाठन शिक्षित तथा अर्द्धशिक्षित धनिक वर्ग में अधिक प्रचलित भी था क्योंकि इस शौक को पूरा करने के लिए उनके पास प्रचुर समय तथा साधन दोनों ही थे। यदि हिंदी-साहित्य के प्रसंग में हिंदी भाषा-भाषी प्रदेश के सामाजिक इतिहास का थोड़ा अध्ययन किया जाए तो स्पष्ट पता चलता है कि जिस युग की हमने ऊपर चर्चा की है, उस युग में उपन्यासों का पठन-पाठन युवकों तथा अर्द्ध-युवकों के लिए प्रायः वर्जित था। उपन्यास पढ़ने तथा समझने का अधिकार अधेड़ उम्र के व्यक्तियों को ही अधिकतर दिया गया था, क्योंकि ऐसे व्यक्तियों का मानसिक स्तर प्रौढ़ तथा परिष्कृत हो चुकता है। युवकों तथा अर्द्ध-युवकों को उपन्यास पढ़ने से वर्जित इसलिए किया जाता था कि उपन्यासों में अंकित जीवन का सर्वतोमुखी तथा यथातथ्य चित्रण कहीं उनके अपरिपक्व मन पर बुरा प्रभाव डाले। इससे स्पष्ट है कि उपन्यास के प्रारंभिक काल में ही, साहित्य के इस माध्यम की गहरी प्रभावशीलता का उस समय की जनता ने मन-ही-मन भली-भाँति अनुभव किया था। प्रभावशीलता के साथ-ही-साथ दायित्व की भावना संबद्ध होती है। साहित्य के जिस माध्यम द्वारा पाठक, श्रोता अथवा दर्शक सबसे अधिक प्रभावित होता है, उसी अनुपात से समाज के प्रति उसका दायित्व भी सबसे अधिक होता है। इस दृष्टिकोण से साहित्य के अन्य किसी भी माध्यम की अपेक्षा उपन्यास के दायित्व भी सबसे अधिक होता है। इस दृष्टिकोण से साहित्य के अन्य किसी भी माध्यम की अपेक्षा उपन्यास के दायित्व अनेक तथा बहुमुखी हैं। जैसा हमने अभी ऊपर देखा, उपन्यास को एक शक्ति-संपन्न परंतु ख़तरनाक माध्यम तो बहुत दिनों से माना जाता रहा है, किंतु उसकी शक्ति के श्रेयस्कर प्रभावों को अभी हाल में पहचाना गया है। यही कारण है कि समकालीन साहित्यिक वातावरण में उपन्यास की महत्ता सर्वोपरि है।

    दो

    आत्म-तत्त्व की अनुभूति को संसार के प्रायः सभी दर्शनों ने मनुष्य जीवन की उच्चतम स्थिति के रूप में स्वीकार किया है। अँग्रेज़ी के प्रसिद्ध आलोचक तथा 'टाइम्स लिटरेरी सप्लिमेंट' के संपादक ऐलन प्राइस जोन्स के अनुसार इस आत्म-तत्त्व की अनुभूति की उपलब्धि कराना उपन्यास के प्रधान दायित्वों में से एक है। उसी के शब्दों में “यह मत समझिए कि आप काल्पनिक परिस्थितियों से प्रभावित होने के लिए उपन्यास पढ़ते हैं। आप उन्हें पढ़ते हैं, जिस प्रकार अन्य लोग प्रार्थना करते हैं, स्वयं अपने-आपके अन्वेषण के लिए। और क्योंकि अंतिम अन्वेषण कभी संभव नहीं हो पाता, इसीलिए उपन्यास की कभी मृत्यु नहीं होती। उपन्यास के इस दायित्व से हम सभी बहुत परिचित हैं। उपन्यास चाहे शरत् का हो या हार्डी का, चाहे प्रेमचंद्र का हो अथवा गोर्की का, उसके किसी पात्र विशेष अथवा पात्रों से अपना तादात्म्य स्थापित करके, हम उनमें स्वयं अपने-आपको ढूँढ़ने लगते हैं, इसमें कोई संदेह नहीं। तथा यह भी एक सर्वविदित तथ्य है कि व्यक्ति अपने अज्ञात तथा अवचेतन के अंशों को, जिन्हें वह अपनी साधारण दृष्टि से नहीं देख पाता, अपने किसी प्रिय उपन्यास के पात्र द्वारा सहज ही में पहचान लेता है। इस आत्मानुभूति की गहराई उपन्यासकार की सूक्ष्म अंतदृष्टि तथा विवेचन-शक्ति और विभिन्न पाठकों की विभिन्न प्रकार की परिस्थितियों पर निर्भर करती है। पर यह निश्चित है कि जो उपन्यासकार अपने पाठक-वर्ग को यह सहज आत्मानुभूति की भावना नहीं दे पाता, वह अपने कर्तव्य तथा लक्ष्य दोनों से च्युत है।

    आत्मानुभूति के साथ-साथ उससे संबद्ध सत्य के अन्वेषण की बात आती है। आत्मा व्यक्तिगत है तो सत्य वस्तुगत। जोन्स महोदय के अनुसार तो सत्य का वास्तविक अन्वेषण उपन्यास के अतिरिक्त साहित्य के अन्य किसी भी माध्यम द्वारा संभव नहीं। तथ्य की बात यह है कि सत्य तक पहुँचने के लिए उपन्यासकार की दृष्टि ही एक मात्र सहारा है।” डेविड कॉपरफील्ड क्राइम एंड पनिशमेंट तथा 'मैदामबॉवेरी' जैसे उपन्यासों के अध्ययन से स्पष्ट पता चलता है कि डिकेंस, डास्टाएव्स्की तथा फ्लाबेयर जैसे कलाकार सत्य के कितने महान अन्वेषक रहे हैं। और जिस प्रकार आत्मा की खोज कभी समाप्त नहीं होती, उसी प्रकार सत्य का अन्वेषण भी कभी समाप्त नहीं होता, ‘और इसीलिए उपन्यासकार कभी इस बात का अनुभव नहीं करता कि प्रत्येक बात कह दी है अथवा सत्य का कोई भी पहलू अंतिम निश्चय के साथ अनावृत कर दिया गया है।'

    व्यक्तियों तथा स्थितियों के प्रति सहानुभूति प्रदर्शित तथा आकर्षित करना उपन्यास का एक महत्त्वपूर्ण दायित्व माना जाता है। यह उपन्यास का ही कर्तव्य है कि वह पतित चरित्रों के प्रति हमारी अकृतिम करुणा को उभारे। वैसे तो सारे-का-सारा रचनात्मक साहित्य ही मानव-मूल्यों का संरक्षक माना जाता है, परंतु यहाँ भी उपन्यास की ज़िम्मेदारी अपेक्षाकृत अधिक है। दलित मानवता के प्रति पाठकों का ध्यान आकर्षित करना तथा उसकी समस्याओं और समाधानों को हमारे सम्मुख प्रस्तुत करना उपन्यास का चरम ध्येय है। ग्राहम ग्रीन ने अपने एक वक्तव्य में उपन्यास के अतिरिक्त-आयाम सहानुभूति' की चर्चा की है। एलिज़ाबेथ बोवेन के मतानुसार इस ‘अतिरिक्त-आयाम सहानुभूति' के बिना उपन्यास का अस्तित्व सुरक्षित नहीं रह सकता। वस्तुस्थिति तो यह है कि बिना इस सहानुभूति की भावना के उपन्यास लिखने की वास्तविक प्रेरणा मिल ही नहीं सकती। टॉलस्टॉय द्वारा बहु प्रचारित सिद्धांत ‘पाप से घृणा करो, पापियों से नहीं'। आज भी उपन्यास का मूल मंत्र माना जाता है।

    जीवन के बहुत से जटिल तथा उलझे हुए पक्षों को तार्किक एकरूपता देना दार्शनिक का काम माना गया है। इसी प्रकार उपन्यासकार का दायित्व होता है, जीवन के बिखरावों में से एक भावनात्मक सामंजस्य को ढूँढ निकालना। अपने गुरु-गंभीर कर्तव्य तथा दायित्व में एक वास्तविक उपन्यासकार किसी भी दार्शनिक से कम नहीं होगा। जीवन को एक संगति तथा अर्थ देना दोनों का ही लक्ष्य रहता है। वस्तुतः हर सफल उपन्यासकार मूलतः एक दार्शनिक होता है, तथा उसका दर्शन विकसित होता है, उसके गंभीर मनन तथा उसकी सूक्ष्म अंर्तदृष्टि से। दार्शनिक बहुत निरपेक्ष तथा इतिवृत्तात्मक ढंग से अपना चिंतन हमारे सम्मुख उपस्थित करता है, जबकि उपन्यासकार का चिंतन एक स्वरूप भावनात्मकता तथा विस्तृत सहानुभूति से अनुरंजित होकर उसकी कला-कृतियों में अभिव्यक्ति पाता है। फलतः दार्शनिक की अपील बहुत सीमित तथा संकुचित होती है, जबकि उपन्यास की प्रभावशीलता या क्षेत्र अत्यंत व्यापक होता है। एक राष्ट्र अथवा जाति के उत्थान या विघटन की जितनी अधिक ज़िम्मेदारी उसके दार्शनिकों पर होती है प्रायः उतनी ही ज़िम्मेदारी उसके उपन्यासकारों पर भी होती है।

    किसी भी समाज में पुरानी चली आने वाली परंपराओं तथा रूढ़ियों की परतें उसके अधिकांश सदस्यों के मन पर चढ़ती रहती हैं। ये परतें अंधविश्वास तथा मूढ़ ग्राहों की भी हो सकती हैं, तथा मिथ्या भय और मिथ्या अहंकार की भी। समाज के विकास के साथ-साथ 'प्रेजुडिस' को भी जन्म मिलता है। इस ‘प्रेजुडिस' पर विजय पाने के लिए जिस व्यापक सहानुभूति की आवश्यकता होती है, उसे एक उपन्यासकार ही दे सकता है। अँग्रेज़ी के प्रसिद्ध समसामयिक उपन्यासकार जॉयस कैरी के अनुसार ही यह उपन्यास-लेखक की एक बड़ी ज़िम्मेदारी है कि वह लोगों के भावुक मन पर चढ़ी हुई पर्तों को बहुत सावधानी के साथ, बिना उन्हें किसी भी प्रकार की हानि पहुँचाए हुए, धीमे-धीमे तोड़े। जबतक ये बहुत दिनों की जमी हुई पर्ते टूटेंगी नहीं, तबतक उन्हें कोई नवीन तथा स्वस्थ दृष्टि नहीं दी जा सकती। अपने निबंध 'उपन्यासकार के दायित्व' को समाप्त करते हुए कैरी महोदय कहते हैं, “संक्षेप में उपन्यास का दायित्व यह है कि वह संसार को स्वयं अपने-आपकी मीमांसा करने और समझने के लिए प्रेरित कर सके; और यह समझना एक बौद्धिक जीव के रूप होकर मूल्यों के अनुभव के रूप में, एक संपूर्ण पदार्थ के रूप में हो।” जीवन के प्रति यह सुलझा हुआ दृष्टिकोण व्यक्ति तभी अपना सकता है जबकि उसके मन में कोई पूर्वग्रह या अनावश्यक परंपरा की कोई पर्त हो! किसी भी विचारधारा को समाज के मन से निकालने या उसकी चेतना में अज्ञात रूप से प्रविष्ट कराने का कार्य उपन्यास ही भली-भाँति कर सकता है।

    उपर्युक्त विश्लेषण से स्पष्ट है कि किसी भी राष्ट्र अथवा समाज में एक विशेष प्रकार की चिंतन-पद्धति को प्रवाहित करने में अथवा किसी परंपरागत विचारधारा को वांछनीय दिशा में

    मोड़ देने में यहाँ के उपन्यासों का बड़ा प्रभाव होता है। बंगाल की नारी-समस्या को सुलझाने में शरतचंद्र ने अपनी उपन्यास-कला के माध्यम से जो-कुछ भी किया, वह बहुत से सुधारकों द्वारा मिलकर एक साथ भी नहीं किया जा सकता। इसी प्रकार से उत्तर भारत की कृषक तथा ग्राम-समस्याओं का समाधान प्रस्तुत करते समय इस संबंध में प्रेमचंद्र के ऋण को नहीं भुलाया जा सकता। उपन्यासकार सचमुच एक द्रष्टा होता है। कविता कुछ क्षणों के लिए पाठकों को प्रभावित कर सकती है, अभिभूत कर सकती है। क्षीणतर होते हुए भी उसका प्रभाव पाठक के मन पर कुछ दिनों तक बना रह सकता है, परंतु इसके बाद उसके व्यापक प्रभाव में कोई गहराई नहीं होती।

    इसके विपरीत, एक उपन्यास अपने पाठक के चेतन तथा अवचेतन मन पर इतने गहरे संस्कार छोड़ जाता है, जो कि उसके मन में एक सर्वथा नवीन जीवन-दर्शन को जन्म दे सकते हैं। उपन्यास के प्रभावों में स्थिरता तथा एकरूपता रहती है। किसी भी गंभीर सामाजिक परिवर्तन अथवा क्रांति को आगे बढ़ाने में उपन्यास का माध्यम एक अत्यंत सशक्त माध्यम होता है। इन सब बातों को देखते हुए इस बात का वैज्ञानिक विवेचन होना अत्यंत आवश्यक है कि किस श्रेणी के उपन्यास कितनी अवस्था तक के व्यक्तियों को पढ़ने के लिए दिए जाने चाहिएँ। उपन्यास की शक्ति असीम है, अतः यह अत्यंत आवश्यक है कि उसका प्रवहन उचित दिशा में हो। उपन्यासों के अध्ययन के संबंध में जो वर्जना हमारी शती के प्रारंभिक दशकों में थी, उसका एक वैज्ञानिक तथा परिष्कृत रूप समाज के लिए सदैव हितकर होगा।

    उपन्यास का एक बड़ा दायित्व है अपने पाठकों को जीने की कला सिखाना। एक अच्छा उपन्यास अपने पाठकों के लिए दिशा-निर्देश का काम बड़ी सफलता के साथ कर सकता है। जीवन के सभी महत्त्वपूर्ण पक्षों पर उपन्यासकार प्रकाश डालता है। सृष्टि-निर्माता के समान ही मानव-जीवन का कोई भी रहस्य उसके लिए अपरिचित नहीं होता। इसलिए उपन्यासों का एक अच्छा अध्येता ज़िंदगी के सभी पहलुओं को देखे रहता है। राबर्ट गोरहम डेविस का कथन है कि, “उन्होंने (अँग्रेज़ी के प्रारंभिक उपन्यासकारों ने) अपने पाठकों को उदारता, सहानुभूति, विनोद तथा नैतिक एवं सौंदर्यात्मक चेतना की शिक्षा दी। उन्होंने संस्थाओं को सुधारने तथा सामाजिक स्थिति को उन्नत बनाने की इच्छा उत्पन्न की। वस्तुतः यदि उपन्यास अपने पाठक के लिए इतना कर सकता है तो उसने अपने प्रधान दायित्व का बड़ी सफलता के साथ निर्वाह किया है। और यह भी सच है कि जीने की कला सिखा पाना अथवा जीवन के संबंध में एक व्यापक दृष्टि देना, आज उपन्यास द्वारा ही संभव है। प्राचीन वाङ्मय में जितना महत्त्वपूर्ण स्थान महाकाव्य का था, आज के युग में उतना ही महत्त्वपूर्ण स्थान उपन्यास का है। वास्तविकता तो यह है कि उपन्यास महाकाव्य का ही एक परिवर्तित तथा आधुनिक रूप है।

    जनतंत्र तथा उपन्यास का बड़ा घनिष्ठ संबंध है। जनतंत्र की भावना को उत्पन्न करने तथा उसे आगे बढ़ाने में अच्छे उपन्यासों का सहयोग अत्यंत आवश्यक होता है। साथ ही हमें यह भी मानना पड़ेगा कि जनतंत्र अथवा जनतंत्र तक पहुँचने की तीव्र भावना उपन्यासों के सृजन में सहायक सिद्ध होती है। जनतंत्र का आयोजन इसलिए किया जाता है कि व्यक्ति अपने स्वातंत्र्य का उपभोग कर सके, तथा विभिन्न मूल्यों को मान्यता देने वाले मनुष्य अपनी-अपनी दिशा में आगे बढ़ सकें और इसपर भी समाज की उन्नति में वे अधिक-से-अधिक सहायता दे सकें। उपन्यास हमें बहुमुखी दृष्टि, अधिकाधिक सहानुभूति, सहिष्णुता तथा व्यक्तिगत दायित्व की भावना देकर, इस कार्य में हमारा हाथ बँटाता है। इस प्रकार जनतंत्र और उपन्यास सदैव एक-दूसरे को प्रश्रय देते हैं। उपन्यासों का समुचित विकास जनतंत्र में ही संभव हो पाता है, तथा जनतंत्र को सुचारू रूप से चलाने की शिक्षा काफ़ी हद तक उस राष्ट्र के उपन्यास देते हैं। इस दृष्टिकोण से जनतंत्र तथा उपन्यास के दायित्वों में भी बहुत-कुछ समानता है।

    कम्युनिज़्म की संकीर्णता से लोहा लेने के लिए आज राजनीति, धर्म तथा दर्शन सभी दृढ़ता के साथ तत्पर हैं। वे 'व्यक्ति के पुर्नन्वेषण' में व्यस्त हैं। व्यक्ति की महत्ता, नैतिक दायित्वों का निर्वाह कर पाने की क्षमता तथा स्वयं अपने राष्ट्र के भविष्य को प्रभावित करने की शक्ति पर वे सामूहिक रूप से विशेष बल दे रहे हैं। ऐसे संकट के अवसर पर उपन्यास का दायित्व और भी अधिक बढ़ जाता है। समाज को श्रेय की ओर ले जाने में आज अनेक प्रकार की कठिनाईयाँ हैं; भौतिकतावाद की एकांत तथा अनन्य साधना उनमें से एक है। ऐसे ख़तरों से बाहर निकलने के लिए आज हमें जिन साधनों की आवश्यकता है, उनमें साहित्य का प्रतिनिधित्व केवल उपन्यास ही करता है और इसके अतिरिक्त उपन्यास में वह क्षमता भी है, जिससे वह समसामयिक सामाजिक तथा दार्शनिक गतिरोध को दूर कर सकता है। श्रांत तथा विभ्रमित राष्ट्र का उपचार उपन्यास बड़े हल्के-हल्के ढंग से अनजाने में ही कर डालता है। इसके लिए वह कभी-कभी 'शॉक ट्रीटमेंट' का भी सहारा लेता है। परंतु किसी भी दृष्प्रवृत्ति पर वह खुले ढंग से आक्रमण कभी नहीं करता। इसीलिए उपन्यास द्वारा किया जाने वाला उपचार अपनी प्रकृति में पूर्णतः मनोवैज्ञानिक होता है। राजनीतिक दृष्टिकोण से व्यक्ति का आदर करते हुए जनतंत्र की स्थापना करना उपन्यास का परम आदर्श है।

    वैयक्तिक अनुभूतियों के माध्यम से मानववाद तक पहुँचाना कदाचित उपन्यास का प्रथम तथा अंतिम दायित्व है। उपन्यास के चरित्र, हार्डी के शब्दों में, 'वास्तविक से अधिक सत्य' होते हैं। इस दृष्टिकोण से उपन्यास में अंकित मानव-जीवन की वास्तविकता से अधिक सत्य होता है। उपन्यास की यह विशेषता उसकी बिल्कुल अपनी है। साहित्य का अन्य कोई भी माध्यम जीवन का इतना सत्य तथा पूर्ण चित्र उपस्थित करने का दावा नहीं कर सकता। 'प्रायः प्रत्येक युग के आलोचकों ने उन व्यक्तियों तथा घटनाओं की निंदा की है, जिनका चित्रण यथार्थवादी उपन्यासकारों ने किया है। परंतु क्योंकि उपन्यास में विक्षिप्त, बहिष्कृत तथा त्रस्त व्यक्तियों, औसत दर्जे के मनुष्यों और पापियों को अंकित किया जाता है, इसलिए हमारी कल्पना-प्रसूत सहानुभूति अपनी मानवता अथवा 'इसा इयत' में अधिक पूर्ण हो जाती है, और साथ ही साथ वह एक सामान्य मानव-प्रकृति में अपने सामाजिक उत्तरदायित्व की भूमियों को भी पहचान पाती है।' इसमें कोई संदेह नहीं कि उपन्यास-कला सर्वाधिक पूर्ण मानवतावादी कला है। व्यक्ति तथा मानवता को एक ही सत्य के दो पहलू मानकर उपन्यासकार आगे बढ़ता है। इसलिए व्यक्ति की महत्ता को स्वीकार करता हुआ उपन्यासकार मानवता से बड़ा किसी भी सत्य को नहीं मानता।

    उपन्यास की गहरी प्रभावशीलता का अनुभव करने के कारण आलोचक तथा पाठक दोनों ही उसके भविष्य के संबंध में चिंतित रहते आए हैं। इस प्रसंग में ऐलन प्राइस जोन्स ने अत्यंत मनोरंजक ढंग से लिखा है, “हर दस साल के बाद कोई-न-कोई उपन्यास की मृत्यु की घोषणा करता है; आलोचक बहुत सामान्य ढंग से अपने वस्त्रों को शोकसूचक काले कोट से ढँक लेते हैं; उपन्यासकार पूर्ववत् लिखते चले जाते हैं। उपन्यास के माध्यम के इस स्थायित्व और उसके कुछ कारणों की चर्चा हम पहले भी कर चुके हैं। स्वयं जोन्स महोदय का कथन है: “उपन्यास इसलिए नहीं लिखे जाते, क्योंकि उपन्यासकार कोई कहानी कहना चाहता है, वरन् इसलिए कि वह सत्य की कभी पकड़ में आने वाली प्रकृति से परेशान रहता है। सत्य की यह कभी ‘पकड़ में आने वाली' प्रकृति ही सदैव उपन्यासकार को लिखने के लिए प्रेरित करती रहती है। इसलिए उपन्यास-लेखन का कभी अंत नहीं होता।

    अपने निबंध ‘एट हार्ट ऑफ़ स्टोरी इज़ मैन' में रोबर्ट गोरहम डेविस ने उपन्यास की इस विलक्षण प्रकृति का विश्लेषण करते हुए एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण बात कही है। उनका कहना है कि, “आज इतने अधिक लोग प्रकट रूप से उपन्यास की वर्तमान स्थिति तथा भविष्य की संभावनाओं को लेकर इसलिए चिंतित हैं क्योंकि उसके महत्त्व के बारे में, जाने अथवा अनजाने, उनके मन में एक गहरी धारणा बन गई। यह एक शुभ लक्षण है। परंतु उपन्यास के इतिहास में कोई भी ऐसी चीज़ नहीं है, जो इसके भविष्य के बारे में निराशा प्रकट करती हो, कम-से-कम तब तक जब तक कि हमारे समाज में व्यक्ति की स्वतंत्रता, उत्तरदायित्व तथा उच्चाशयता अपनी प्राथमिकता बनाए रहते हैं, और जबतक लेखकों को यह भान रहता है कि उनके अंदर मूल्यों का निर्माण करने की शक्ति है।” जो भी हो, आज के सुलझे हुए पाठक तथा आलोचक उपन्यास की प्रभविष्णुता तथा महत्ता का भली-भाँति अनुभव कर रहे हैं। उपन्यास के दायित्व कितने बहुमुखी तथा महत्त्वपूर्ण हैं, इस बात का भी इससे स्पष्ट पता चलता है। आने वाले युग के जीवन-दर्शन में तथा विभिन्न मूल्यों के निर्धारण में उपन्यासों का और भी अधिक प्रभाव होगा, इसमें कोई संदेह नहीं।

    तीन

    उपन्यास के दायित्वों का सामान्य विश्लेषण करने के उपरांत अब हम बहुत संक्षेप में यह देखने का प्रयत्न करेंगे कि हिंदी के उपन्यासों ने अपने इन दायित्वों का निर्वाह कहाँ तक किया है? जैसा कि हम संकेत कर चुके हैं, अपनी शैशवावस्था में ही उपन्यास ने अपने पाठकों को आकर्षित तथा प्रभावित करना प्रारंभ कर दिया था। यही नहीं, ऐसा लगता है कि आगे चलकर तो सामाजिक उपन्यासकारों ने अपने पहले अपने दायित्व को भली-भाँति समझकर ही उपन्यास लिखना शुरू किया था। हिंदी का प्रथम मौलिक उपन्यास लाला श्रीनिवासदास-कृत ‘परीक्षा-गुरु' इस प्रसंग में एक महत्त्वपूर्ण उदाहरण है। इस उपन्यास के रूप-गठन में दो बातें अत्यंत रोचक तथा उपन्यासकार की मनःप्रवृत्ति की परिचायक हैं। एक तो यह कि इस उपन्यास के अध्यायों के प्रारंभ में देशी तथा विदेशी मनीषियों के नीति-वचन उद्धृत किए गए हैं। कहीं-कहीं तो ये नीति-वचन संबद्ध अध्याय की कथा-वस्तु से मेल खाते हैं, और कहीं-कहीं इनका अस्तित्व एकदम स्वतंत्र तथा निरपेक्ष है। दूसरी जो रोचक तथा महत्त्वपूर्ण बात है, वह यह कि इस उपन्यास की कथावस्तु तथा वर्णन दो भागों में विभक्त किया गया है। उपन्यास के कुछ अंश रेखांकित हैं, तथा अधिकांश साधारणः मुद्रित हैं। उपन्यासकार ने अपनी भूमिका में यह स्पष्ट कर दिया है कि जो पाठक इस उपन्यास का अध्ययन कथा द्वारा अपना मनोरंजन करने के लिए करना चाहते हैं, वे कृप्या रेखांकित अंशों को छोड़कर पढ़ें। ऐसा करने से कथा की रोचकता तथा समरसता बराबर बनी रहेगी। परंतु जो पाठक इस उपन्यास में कथा के अतिरिक्त कुछ चिंतन अथवा मनन भी करना चाहते हैं, वे कृप्या रेखांकित अंशों को छोड़कर अपेक्षाकृत अधिक ध्यान देकर पढ़ें, क्योंकि उनमें विचार-वितर्क की ही प्रधानता है।

    हिंदी के प्रथम मौलिक उपन्यासकार ने ही अपने दायित्वों का इतनी गहराई के साथ अनुभव किया था, यह सब कुछ विलक्षण होने के साथ-ही-साथ गर्व करने योग्य भी है। सही नहीं, इस युग के अन्य उपन्यासकारों में भी अपने कर्तव्य के प्रति सजगता दिखाई देती है। कहीं-कहीं तो वह कर्तव्य-भावना उपन्यास के रस में भी व्याघात डालती जान पड़ती है। नीति-संबंधी उदाहरण देने की प्रकृति पं. बालकृष्ण भट्ट के ‘सौ अज़ान एक सुजान' में बहुत बढ़ी-चढ़ी दिखाई देती है। राधाकृष्णन के 'निस्सहाय हिंदू' जीवन के सामाजिक पक्ष को अधिक महत्त्वपूर्ण माना गया है। कुल मिला-जुलाकर हिंदी उपन्यासों के एकदम प्रारंभिक काल में लगता है कि दायित्व की भावना इतनी गहरी नहीं रही है। परंतु यह भी सच है कि इस दायित्व की भावना ने उल्लेखित उपन्यासों में कला-तत्त्व को दबाकर उन्हें उपदेशप्रद अधिक बना डाला था। आज जान पड़ता है कि उपन्यास के कलात्मक पक्ष पर विशेष बल दिया जा रहा है। आवश्यकता इस बात की है कि दोनों तत्त्व एक-दूसरे के विरोधी होकर एक-दूसरे के पूरक हो जाएँ।

    फुट प्रिंट

    1. अपने विभिन्न वर्ग के पाठकों को संतुष्ट करने के लिए लाला जी यह सूझ सचमुच ही अनूठी थी। उनके बाद के उपन्यासकारों ने इस पद्धति को नहीं अपनाया। परंतु आज के घोर बौद्धिकता-प्रधान (इंटेलैक्चुअल) उपन्यासों में इस पद्धति को फिर से स्वीकार कर लिया जाए तो इससे विशुद्ध उपन्यास के पढाब्लों का परम कल्याण होगा, इसमें कोई संदेह नहीं।

    खत्री जी के तिलिस्मी उपन्यासों तथा गहमरीजी के जासूसी उपन्यासों के पश्चात् हिंदी-उपन्यास के विकास में दूसरी श्रेणी पं. किशोरीलाल गोस्वामी से प्रारंभ होती है। गोस्वामी जी की कला मुख्यतः यथार्थवादी थी। परंतु उनकी यथार्थ भावना बहुत स्वस्थ नहीं थी। इस युग के अन्य प्रसिद्ध उपन्यासकार पं. लज्जाराम मेहता के उपन्यासों में दायित्व की भावना कुछ अधिक दिखाई देती है। गोस्वामी जी के संबंध में तो आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपने 'हिंदी साहित्य का इतिहास' में स्पष्ट लिखा है, “यह दूसरी बात है कि उनके बहुत से उपन्यासों का प्रभाव नवयुवकों पर बुरा पड़ सकता है, उनमें उच्च वासनाएँ व्यक्त करने वाले दृश्यों की अपेक्षा निम्न कोटि की वासनाएँ प्रकाशित करने वाले दृश्य अधिक भी हैं और चटकीले भी। इस बात की शिकायत 'चपला' के संबंध में अधिक हुई थी। गोस्वामी जी के युग के दूसरे उपन्यासकारों में भी दायित्व की भावना बहुत प्रधान नहीं रही।

    बाबू गुलाबराय के शब्दों में, “चरित्र-चित्रण की और सोद्देश्य उपन्यास लिखने की दृष्टि में मुंशी प्रेमचंद्र की (सं. 1937-1993) ने युगांतर उपस्थित कर दिया। यह सच है कि उपन्यास के दायित्वों को यदि एक सुलझे हुए दृष्टिकोण से समझने का किसी ने सजग प्रयत्न किया तो प्रेमचंद्र ने। साथ ही उनके अंदर की दायित्व-भावना ने उपन्यास-कला को भी विकृत नहीं किया। उपन्यास के जिन दायित्वों की चर्चा हमने प्रस्तुत निबंध के प्रथम भाग में की है, उनमें से अधिकांश का निर्वाह प्रेमचंद्र के उपन्यास करते हैं। आत्म-तत्त्व की खोज तथा सत्य के अन्वेषण में उनके उपन्यास डिकेंस तथा दास्ताएव्स्की से टक्कर लेते भले ही दिखाई दें, परंतु व्यक्तियों और स्थितियों के प्रति सहानुभूति प्रदर्शित करने तथा रूढ़ियों की गहरी जमी हुई पर्तों को तोड़ने में वे कदाचित् आज भी अपना सानी नहीं रखते। किंतु यह स्पष्ट स्वीकार करने में कोई हानि नहीं कि हमारे गहनतम स्तरों पर जीवन को अर्थ और संगति देने में शरच्चंद्र चट्टोपाध्याय प्रेमचंद्र को बहुत पीछे छोड़ देते हैं। इन क्षेत्रों में शरत् विश्व के महान दृष्टा उपन्यासकारों की कोटि में पहुँच जाते हैं। शरत् जैसी मनोवैज्ञानिक ‘एप्रोच' विरले ही उपन्यासकारों में मिलती है। प्रेमचंद्र ने अपने-आपको भौतिक समस्याओं में ही अधिक उलझाए रखा, मन की गहरी पर्तों में वे दूर तक पैठ सके।

    जैसा हम पहले भी संकेत कर चुके हैं, आधुनिक हिंदी-उपन्यास में कला के प्रति आग्रह कुछ अधिक है, तथा दायित्व की भावना उतनी गहरी नहीं है जितनी उसकी इस विकसित दशा में होनी चाहिए। प्रेमचंद्र के युग के कुछ अन्य उपन्यासकारों ने भी जीवन की बहुमुखी समस्याओं पर प्रकाश डालने तथा उनके समाधान ढूँढ़ने के लिए काफ़ी प्रयत्न किया था। कौशिक, प्रसाद तथा सियारामशरण गुप्त के उपन्यास इस तथ्य का समर्थन करते हैं। परंतु इसके बाद लगता है कि एक बार फिर साहित्यिक प्रतिक्रिया हुई, और उपन्यास के दायित्वों का पक्ष कुछ हल्का पड़ गया। यहाँ इस तथ्य के एक दूसरे पक्ष पर भी हमें विचार करना होगा। कुछ आधुनिक उपन्यासकारों ने कदाचित् अपने दायित्व का कुछ आवश्यकता से अधिक अनुभव करते हुए अपने उपन्यासों को घोर बौद्धिक बना डाला है। यह प्रवृत्ति हिंदी में ही हो, ऐसी बात नहीं है। विदेशी उपन्यासों ने तो इस पद्धति को पहले से ही अपना रखा है। इस वर्ग के उपन्यासकार बौद्धिक वाद-विवाद तथा भारी-भरकम कथोपकथनों द्वारा अपने पाठक को एक निश्चित दृष्टिकोण देना चाहते हैं। परंतु ऐसा करने में केवल उनका प्रयत्न असफल होता है, वरन् उनकी उपन्यास-कला भी क्षीण तथा अशक्त हो जाती है। जिस तथ्य को उपन्यासकार अपने पात्रों तथा घटनाओं के माध्यम से पाठक के मन में प्रविष्ट करा सकता है, उस तथ्य को लंबे-लंबे वाद-विवाद एकदम खोखला तथा अप्रिय बना देते हैं। उपन्यास में यह दोष बहुत-कुछ कविता के रस-संबंधी 'स्वशब्दवाच्यत्व' दोष के समानांतर होता है। अंतर केवल इतना ही है कि कविता में जहाँ यह दोष मात्र एक टेक्निकल कमज़ोरी माना जाता है, वहीं उपन्यास में यह दोष अन्यथा सुगठित कथा को एकदम नीरस तथा अग्राह्य बना देता है।

    आधुनिक हिंदी-उपन्यासकार उपन्यास के दायित्वों की अवहेलना कर रहे हों, अथवा ऐसा करने के लिए उनके पास पर्याप्त शक्ति का अभाव हो, ऐसी बात नहीं है; वस्तुस्थिति यह है कि उनमें से अधिकांश अपनी ज़िम्मेदारियों को सही-सही ढंग से कदाचित् पहचान नहीं पा रहे हैं।

    साहित्य का यह माध्यम उनके निकट इतना सर्वमान्य, रूढ़ तथा ‘फ़ेमीलियर' हो गया है कि वे उसकी शक्ति तथा संभावनाओं को नहीं देख पाते। प्रेमचंदोत्तर हिंदी-उपन्यासों में व्यक्तियों तथा स्थितियों के प्रति सहानुभूति उत्पन्न करने की शक्ति-भर तो अवश्य रह गई है, परंतु उपन्यास के अन्य गंभीर तथा गुरुतर दायित्वों का उनमें बहुत-कुछ अभाव है। डिकेंस, दोस्तोयेवस्की तथा शरच्चंद्र जैसी व्यापक जीवन-दृष्टि तथा गहरी सहानुभूति आज के उपन्यासकार में कदाचित् नहीं है। आज वह अपने 'अहं' में इतना उलझा हुआ है कि उसे बाहर के जीवन की ओर देखने का अवकाश नहीं है। इस प्रसंग में पिछले उपन्यासकारों से उसकी 'एप्रोच' का अंतर स्पष्ट है। पिछले युग के उपन्यासकार समग्र जीवन के परीक्षण के माध्यम से 'अहं' को पहचानने का यत्न करते थे जबकि आज का उपन्यासकार समग्र जीवन के परीक्षण के माध्यम से 'अहं' के रहस्यों को पहचानने के प्रयत्न में ही इतना अधिक थक गया है कि संपूर्ण मानव-जीवन को एकबारगी देख सकने की दृष्टि अब उसके पास शेष नहीं रही है। उस प्रवृत्ति का एक स्पष्ट फल यह हुआ कि आज उपन्यासों के स्थान पर लघु उपन्यास अधिक लिखे जा रहे हैं। पूरे आकार के उपन्यास तो अब बहुत ही कम लिखे जाते हैं। इन लघु उपन्यासों के माध्यम से उपन्यासकार अपने पीड़ित तथा विक्षुब्ध 'अहं' की किसी भी समस्या को ही हमारे सामने रखकर, अपने कर्तव्य को समाप्त हुआ समझने लगता है। जीवन को उसकी विशालता तथा समग्रता में देख पाने के लिए सहज आस्था, गहरी सहानुभूति तथा व्यापक दृष्टिकोण की आवश्यकता होती है, उनका उसके पास अभाव है।

    आधुनिक हिंदी-उपन्यासों के उपर्युक्त संक्षिप्त विश्लेषण से स्पष्ट हो जाता है कि उपन्यास के सभी दायित्वों का निर्वाह उनमें भली-भाँति नहीं हो सका है। परंतु अभी तो हिंदी का उपन्यास साहित्य अपनी विकासावस्था को पार करके प्रौढ़ावस्था तक पहुँचा भी नहीं है; अतः उसकी वर्तमान स्थिति से हमें बहुत निराश होने की आवश्यकता नहीं। भगवतीचरण वर्मा के 'चित्रलेखा', उदयशंकर भट्ट के 'वह जो मैंने देखा', इलाचंद्र जोशी के 'संन्यासी' तथा 'अज्ञेय' के 'शेखर : एक जीवनी' को पढ़ने से स्पष्ट हो ज्ञात होता है कि ये उपन्यासकार यदि अपने दायित्वों का बहुत सफलतापूर्वक निर्वाह भी कर पाए हों, तो भी उनको पहचानने तथा समझ पाने का वे भरसक यत्न कर रहे हैं, इसमें कोई संदेह नहीं। यह यत्न ही अपने-आपमें अत्यंत शुभ तथा आशाप्रद है।

    उपन्यासकार की महत्ता तथा ऊँचाई बहुत-कुछ उसकी अनुभूति-प्रवणता पर भी निर्भर होती है। यह तो किसी भी प्रकार नहीं कहा जा सकता है कि आज का हिंदी-उपन्यासकार अनुभूति-प्रवण नहीं है। पर जिस 'अहं' की थकाने वाली खोज की चर्चा हमने ऊपर की है, उससे अपने-आपको संप्रति कुछ समय के लिए मुक्त करके, यदि आज हिंदी-उपन्यास समग्र मानवता की संवेदना तथा सहानुभूति की दृष्टि से देखने का प्रयत्न करे तो वह अपने दायित्वों का निर्वाह काफ़ी अच्छे ढंग से कर पाएगा, पर यह बात विवाद से परे है।

    (आलोचना, अक्टूबर 1954 से)

    स्रोत :
    • रचनाकार : रामस्वरूप चतुर्वेदी

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