उपन्यास

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प्रेमचंद

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उपन्यास

प्रेमचंद

और अधिकप्रेमचंद

    उपन्यास की परिभाषा विद्वानों ने कई प्रकार से की है, लेकिन यह कायदा है कि जो चीज़ जितनी ही सरल होती है, उसकी परिभाषा उतनी ही मुश्किल होती है। कविता की परिभाषा आज तक नहीं हो सकी। जितने विद्वान् हैं, उतनी ही परिभाषाएँ हैं। किन्हीं दो विद्वानों की रायें नहीं मिलतीं। उपन्यास के विषय में भी यही बात कही जा सकती है। इसकी कोई परिभाषा ऐसी नहीं है, जिसपर सभी लोग सहमत हों।

    मैं उपन्यास को मानव-चरित्र का चित्र मात्र समझता हूँ। मानव-चरित्र पर प्रकाश डालना और उसके रहस्यों को खोलना ही उपन्यास का मूल तत्त्व है।

    किन्हीं भी दो आदमियों की सूरतें नहीं मिलतीं, उसी भाँति आदमियों के चरित्र भी नहीं मिलते जैसे सब आदमियों के हाथ, पाँव, आँखें, कान, नाक, मुँह होते हैं पर उतनी समानता पर भी जिस तरह उनमें विभिन्नता मौजूद रहती है उसी भाँति, सब आदमियों के चरित्रों में भी बहुत कुछ समानता होते हुए कुछ विभिन्नताएँ होती हैं। यही चरित्र संबंधी समानता और विभिन्नता, अभिन्नत्व और भिन्नत्व, और भिन्नत्व में अभिन्नत्व दिखाना उपन्यास का मुख्य कर्तव्य है।

    संतान-प्रेम मानव-चरित्र का एक व्यापक गुण है। ऐसा कौन प्राणी होगा, जिसे अपनी संतान प्यारी हो? लेकिन इस संतान-प्रेम की मात्राएँ हैं, उसके भेद हैं। कोई तो संतान के लिए मर मिटता है, लेकिन उसके लिए कुछ छोड़ जाने के लिए आप नाना प्रकार के कष्ट झेलता है, लेकिन धर्मभीरुता के कारण अनुचित रीति से धन संचय नहीं करना, उसे शंका होती है कि कहीं इसका परिणाम हमारी संतान के लिए बुरा हो। कोई ऐसा होता है कि औचित्य का लेशमात्र भी विचार नहीं करता। जिस तरह भी हो, कुछ धन संचय कर जाना अपना ध्येय समझता है, चाहे इसके लिए उसे दूसरों का गला ही क्यों काटना पड़े। वह संतान-प्रेम पर अपनी आत्मा को भी बलिदान कर देता है। एक तीसरा संतान-प्रेम वह है, जहाँ संतान का चरित्र प्रधान कारण होता है जबकि पिता संतान का कुचरित्र देखकर उससे उदासीन हो जाता है, उसके लिए कुछ छोड़ जाना या कर जाना व्यर्थ समझता है। अगर आप विचार करेंगे तो इसी संतान-प्रेम के अगणित भेद आपको मिलेंगे। इसी भाँति अन्य मानव-गुणों को भी मात्राएँ और भेद हैं। हमारा चरित्राध्ययन जितना ही सूक्ष्म, जितना ही विस्तृत होगा, उतनी ही सफलता से हम चरित्रों का चित्रण कर सकेंगे। संतान-प्रेम की एक दशा यह भी है, जब पुत्र को कुमार्ग पर चलते देखकर पिता उसका घातक शत्रु हो जाता है। वह भी संतान-प्रेम ही है, जब पिता के लिए पुत्र घी का लड्डू होता है, जिसका टेढ़ापन उसके स्वाद में बाधक नहीं होता। वह संतान प्रेम भी देखने में आता है, जहाँ शराबी, जुआरी पिता पुत्र-प्रेम के वशीभूत होकर ये सारी बुरी आदतें छोड़ देता है।

    अब यहाँ प्रश्न होता है, उपन्यासकार को इन चरित्रों का अध्ययन करके उनको पाठक के सामने रख देना चाहिए? उसमें अपनी तरफ से काट-छाँट, कमी-बेशी कुछ करनी चाहिए? या किसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए चरित्रों में कुछ परिवर्तन भी कर देना चाहिए? यहीं से उपन्यासों के दो गिरोह हो गए : एक आदर्शवादी, दूसरा यथार्थवादी।

    यथार्थवादी चरित्रों को पाठक के सामने उनके यथार्थ नग्न रूप में रख देता है। उसे इससे कुछ मतलब नहीं कि सच्चरित्रता का परिणाम बुरा होता है या कुच्चरित्रता का परिणाम अच्छा। उसके चरित्र अपनी कमजोरियाँ या ख़ूबियाँ दिखाते हुए अपनी जीवन-लीला समाप्त करते हैं। संसार में सदैव नेकी का फल नेक और बदी का फल बद नहीं होता; बल्कि इसके विपरीत हुआ करता है। नेक आदमी धक्के खाते हैं, यातनाएँ सहते हैं, मुसीबतें झेलते हैं, अपमानित होते हैं, उनको नेकी का फल उलटा मिलता है। बुरे आदमी चैन करते हैं, नामवर होते हैं, यशस्वी बनते हैं, उनको बदी का फल उलटा मिलता है (प्रकृति का नियम विचित्र है!)। यथार्थवादी अनुभवों की बेड़ियों में जकड़ा होता है और चूँकि संसार में बुरे चरित्रों की ही प्रधानता है यहाँ तक कि उज्ज्वल चरित्र में भी कुछ कुछ दाग़-धब्बे रहते हैं, इसलिए यथार्थवाद हमारी दुर्बलताओं, हमारी विषमताओं और हमारी क्रूरताओं का नग्न चित्र होता है। और इस तरह यथार्थवाद हमको निराशावादी बना देता है, मानव-चरित्र पर से हमारा विश्वास उठ जाता है, हमको अपने चारों तरफ़ बुराई ही बुराई नज़र आने लगती है।

    इसमें संदेह नहीं कि समाज की कुप्रथा की ओर उसका ध्यान दिलाने के लिए यथार्थवाद अत्यंत उपयुक्त है क्योंकि इसके बिना बहुत संभव है, हम उस बुराई को दिखाने में अत्युक्ति से काम लें और चित्त को उससे कहीं अधिक काला दिखाएँ, जितना वह वास्तव में है। लेकिन जब वह दुर्बलताओं का चित्रण करने में शिष्टता की सीमाओं से आगे बढ़ जाता है, तो आपत्तिजनक हो जाता है। फिर मानव-स्वभाव की एक विशेषता यह भी है कि वह जिस छल और क्षुद्रता और कपट से घिरा हुआ है, उसी की पुनरावृत्ति उसके चित्त को प्रसन्न नहीं कर सकती। वह थोड़ी देर के लिए ऐसे संसार में उड़ कर पहुँच जाना चाहता है, जहाँ उसके चित्त को ऐसे कुत्सित भावों से निजात मिले। वह भूल जाए कि मैं चिंताओं के बंधन में पड़ा हुआ हूँ; जहाँ उसे सज्जन, सहृदय, उदार प्राणियों के दर्शन हों। जहाँ छल और कपट, विरोध और वैमनस्य का ऐसा प्राधान्य हो जिसके दिल में ख्याल होता है कि जब हम किस्से-कहानियों में भी उन्हीं लोगों से साबका है, जिनके साथ आठों पहर व्यवहार करना पड़ता है, तो फिर ऐसी पुस्तक पढ़ें ही क्यों?

    अँधेरी गर्म कोठरी में काम करते-करते जब हम थक जाते हैं, इच्छा होती है किसी बाग में निकलकर निर्मल स्वच्छ वायु का आनंद उठाएँ। इसी कमी को आदर्शवाद पूरा करता है। वह हमें ऐसे चरित्रों से परिचित कराता है, जिनके हृदय पवित्र होते हैं, जो स्वार्थ और वासना से रहित होते हैं, जो साधु-प्रकृति के होते हैं। यद्यपि ऐसे चरित्र व्यवहार-कुशल नहीं होते, उनकी सरलता उन्हें सांसारिक विषयों में धोखा देती है; लेकिन काँइयापन से ऊबे हुए प्राणियों को ऐसे प्राणियों को ऐसे सरल, व्यावहारिक ज्ञान-विहीन चरित्रों के दर्शन से एक विशेष आनंद होता है।

    यथार्थवाद यदि हमारी आँखें खोल देता है, तो आदर्शवाद हमें उठाकर किसी मनोरम स्थान में पहुँचा देता है। लेकिन जहाँ आदर्शवाद में यह गुण है, वहाँ इन बातों की भी शंका है कि हम ऐसे चरित्रों को चित्रित कर बैठें, जो सिद्धांतों की मूर्ति मात्र हों, जिनमें जीवन हो। किसी देवता की कामना करना मुश्किल नहीं है, लेकिन उस देवता में प्राण-प्रतिष्ठा करना मुश्किल है।

    इसलिए वही उपन्यास उच्चकोटि के समझे जाते हैं, जहाँ यथार्थ और आदर्श का समावेश हो। उसे आप ‘आदर्शोन्मुख यथार्थवाद' कह सकते हैं। आदर्श को सजीव बनाने ही के लिए यथार्थ का उपयोग होना चाहिए और अच्छे उपन्यास की यही विशेषता है। उपन्यासकार की सबसे बड़ी विभूति ऐसे चरित्रों की सृष्टि है, जो अपने सद्व्यवहार और सद्विचार से पाठक को मोहित कर ले। जिस उपन्यास के चरित्रों में यह गुण नहीं हैं, वह दो कौड़ी का है।

    चरित्र को उत्कृष्ट और आदर्श बनाने के लिए यह जरूरी नहीं कि वह निर्दोष हो। महान से महान पुरुषों में भी कुछ कुछ कमज़ोरियाँ होती हैं। चरित्र को सजीव बनाने के लिए उसकी कमज़ोरियों का दिग्दर्शन कराने से कोई हानि नहीं होती, बल्कि यही कमज़ोरियाँ उस चरित्र को मनुष्य बना देती हैं। निर्दोष चरित्र तो देवता हो जाएगा और हम उसे समझ ही सकेंगे। ऐसे चरित्र का हमारे ऊपर कोई प्रभाव नहीं पड़ सकता। हमारे प्राचीन साहित्य पर आदर्श की छाप लगी हुई है। वह केवल मनोरंजन के लिए था। उसका मुख्य उद्देश्य मनोरंजन के साथ आत्म-परिष्कार भी था। साहित्यकार का काम केवल पाठकों का मन बहलाना नहीं है। यह तो भाटों और मदारियों, विदूषकों और मसख़रों का काम है। साहित्यकार का पद इससे कहीं ऊँचा है। वह हमारा पथ-प्रदर्शक होता है, वह हमारे मनुष्यत्व को जगाता है, हममें सद्भावों का संचार करता है, हमारी दृष्टि को फैलाता है। कम से कम उसका यही उद्देश्य होना चाहिए। इस मनोरथ को सिद्ध करने के लिए जरुरत है कि उसके चरित्र ‘पॉजिटिव' हों। जो प्रलोभनों के आगे सिर झुकाएँ, बल्कि उनको परास्त करें, जो वासनाओं के पंजे में फँसें, बल्कि उनका दमन करें, जो किसी विजयी सेनापति की भाँति शत्रुओं का संहार करके विजय-नाद करते हुए निकलें, ऐसे ही चरित्रों का हमारे ऊपर सबसे अधिक प्रभाव पड़ता है।

    साहित्य का सबसे ऊँचा आदर्श यह है कि उसकी रचना केवल कला की पूर्ति के लिए की जाए। 'कला के लिए कला' के सिद्धांत पर किसी को आपत्ति नहीं हो सकती। वही साहित्य चिरायु हो सकता है, जो मनुष्य की मौलिक प्रवृत्तियों पर अवलंबित हो। ईर्ष्या और प्रेम, क्रोध और लोभ, भक्ति और विराग, दुःख और लज्जायें सभी हमारी मौलिक प्रवृत्तियाँ हैं। इन्हीं की छटा दिखाना साहित्य का परम उद्देश्य है और बिना उद्देश्य के तो कोई रचना हो ही नहीं सकती।

    जब साहित्य की रचना किसी सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक मत के प्रचार के लिए की जाती है, तो वह अपने ऊँचे पद से गिर जाता है, इसमें कोई संदेह नहीं। केवल आजकल परिस्थितियाँ इतनी तीव्र गति से बदल रही हैं, इतने नए-नए विचार पैदा हो रहे हैं कि कदाचित अब कोई लेखक साहित्य के आदर्श को ध्यान में रख ही नहीं सकता। यह बहुत मुश्किल है कि लेखक पर इन परिस्थितियों का असर पड़े, वह उनसे आंदोलित हो। यही कारण है कि आजकल भारतवर्ष के ही नहीं, यूरोप के बड़े-बड़े विद्वान भी रचना द्वारा किसी 'वाद’ का प्रचार कर रहे हैं। वे इसकी परवा नहीं करते कि इससे उनकी रचना जीवित रहेगी या नहीं। अपने मत की पुष्टि करना ही उनका ध्येय है, इसके सिवाय उन्हें कोई इच्छा नहीं। मगर यह क्योंकर मान लिया जाता है, उसका महत्त्व क्षणिक होता है? विक्टर ह्यूगो का ‘ला मिजरेवुल', टालस्टाय के अनेक ग्रंथ, डिकेंस की कितनी ही रचनाएँ, विचार प्रधान होते हुए भी उच्चकोटि की और साहित्यिक हैं, और अब तक उनका आकर्षण कम नहीं हुआ। आज भी शॉ, वेल्स आदि बड़े-बड़े लेखकों के ग्रंथ प्रचार ही के उद्देश्य से लिखे जा रहे हैं।

    हमारा ख़याल है कि क्यों कुशल साहित्यकार कोई विचार-प्रधान रचना भी इतनी सुंदरता से करे, जिसमें मनुष्य की मौलिक प्रवृत्तियों का संघर्ष निभता रहे? 'कला के लिए कला' का समय वह होता है, जब देश संपन्न और सुखी हो। जब हम देखते हैं कि हम भाँति-भाँति के सामाजिक बंधनों में जकड़े हुए हैं, जिधर निगाह उठती है दुःख और दरिद्रता के भीषण दृश्य दिखाई देते हैं, विपत्ति का करुण क्रंदन सुनाई देता है, तो कैसे संभव है कि किसी विचारशील प्राणी का हृदय दहल उठे? हाँ, उपन्यासकार को इसका प्रयत्न अवश्य करना चाहिए कि उसके विचार परोक्ष रूप से व्यक्त हों, उपन्यास की स्वाभाविकता में उस विचार के समावेश से कोई विघ्न पड़ने पाए, अन्यथा उपन्यास नीरस हो जाएगा।

    डिकेंस इंग्लैंड का बहुत प्रसिद्ध उपन्यासकार हो चुका है। 'पिकविक पेपर्स' उसकी एक अमर हास्य-रस प्रधान रचना है। 'पिकविक' का नाम एक शिकार गाड़ी के मुसाफिरों की जबान से डिकेंस के कान में आया। बस, नाम के अनुरूप ही चरित्र, आकार, वेश सबकी रचना हो गई। ‘साइलस मार्नर' अँग्रेज़ी का एक प्रसिद्ध उपन्यास है। जॉर्ज इलियट ने, जो इसकी लेखिका हैं ने लिखा है कि अपने बचपन में उन्होंने एक फेरी लगानेवाले जुलाहे की पीठ पर कपड़े के थान लादे हुए कई बार देखा था। वह तस्वीर उनके हृदय-पट पर अंकित हो गई थी और समय पर इस उपन्यास के रूप में प्रकट हुई। ‘स्कारलेट लेटर' भी हॅथन की बहुत ही सुंदर, मर्मस्पर्शी रचना है। इस पुस्तक का बीजांकुर उन्हें एक पुराने मुकदमे की मिसिल से मिला। भारतवर्ष में अभी उपन्यासकारों के जीवन-चरित्र लिखे नहीं गए, इसलिए भारतीय उपन्यास-साहित्य से कोई उदाहरण देना कठिन है। 'रंगभूमि' का बीजांकुर हमें एक अंधे भिखारी से मिला, जो हमारे गाँव में रहता था। एक ज़रा-सा इशारा, एक ज़रा-सा बीज, लेखक के मस्तिष्क में पहुँचकर इतना विशाल वृक्ष बन जाता है कि लोग उस पर आश्चर्य करने लगते हैं। ‘एम ऐंडूज हिम' रुडयार्ड किपलिंग की एक उत्कृष्ट काव्य रचना है। किपलिंग साहब ने अपने एक नोट में लिखा है कि एक दिन एक इंजीनियर साहब ने रात को अपनी जीवन-कथा सुनाई थी। वही उस काव्य का आधार थी। एक और प्रसिद्ध उपन्यासकार का कथन है कि उसे अपने उपन्यासों के चरित्र अपने पड़ोसियों से मिले। वह घंटों तक अपनी खिड़की के सामने बैठे लोगों को आते-जाते सूक्ष्म दृष्टि से देखा करते और उनकी बातों को ध्यान से सुना करते थे। ‘जेन आयर' भी उपन्यास के प्रेमियों ने अवश्य पढ़ी होगी। दो लेखिकाओं में इस विषय पर बहस हो रही थी कि उपन्यास की नायिका रूपवती होनी चाहिए या नहीं। 'जेन आयर' की लेखिका ने कहा, 'मैं ऐसा उपन्यास लिखूँगी, जिसकी नायिका रूपवती होते हुए भी आकर्षक होगी। इसका फल था ‘जेन आयर।‘

    बहुधा लेखकों को पुस्तकों से अपनी रचनाओं के लिए अंकुर मिल जाते हैं। हालकेन का नाम पाठकों ने सुना है। आपकी एक उत्तम रचना का हिंदी अनुवाद हाल ही में 'अमरपुरी' के नाम से हुआ है। आप लिखते हैं कि मुझे बाइबिल से प्लॉट मिलते हैं। 'मैटरलिंक' बेल्जियम के जगद्विख्यात नाटककार हैं। उन्हें ‘बेल्जियन शेक्सपियर’ कहते हैं। उनका 'मोमबोन' नामक ड्रामा ब्राउनिंग की एक कविता से प्रेरित हुआ था और ‘मेरी मैगडालीन' एक जर्मन ड्रामा से।

    शेक्सपियर के नाटकों का मूल स्थान खोज-खोजकर कितने ही विद्वानों ने 'डॉक्टर' की उपाधि प्राप्त कर ली है। कितने वर्तमान औपन्यासिकों और नाटककारों ने शेक्सपियर से सहायता ली है, इसकी खोज करके भी कितने ही लोग 'डॉक्टर' बन सकते हैं। 'तिलिस्म होशरुबा' फ़ारसी का एक बृहत् पोथा है। जिसके रचयिता अकबर के दरबार के दरबार वाले फैज़ी कहे जाते हैं हालाँकि, हमें यह मानने में संदेह है। इस पोथे का उर्दू में भी अनुवाद हो गया है। कम से कम 20,000 पृष्ठों की पुस्तक होगी। स्व. बाबू देवकीनंदन खत्री ने 'चंद्रकांता' और 'चंद्रकांता संतति' का बीजांकुर 'तिलिस्म होशरुबा' से ही लिया होगा, ऐसा अनुमान होता है।

    संसार-साहित्य में कुछ ऐसी कथाएँ हैं, जिन पर हजारों वर्षों से लेखकगण आख्यायिकाएँ लिखते आए हैं और शायद हजारों वर्षों तक लिखते जाएँगे। हमारी पौराणिक कथाओं पर जाने कितने नाटक और कितनी कथाएँ रची गई हैं। यूरोप में भी यूनान की पौराणिक गाथा कवि-कल्पना के लिए अशेष आधार है। 'दो भाईयों के कथा', जिसका पता पहले मिश्र देश के तीन हजार वर्ष पुराने लेखों से मिला था, फ्रांस से भारतवर्ष तक की एक दर्जन से अधिक प्रसिद्ध भाषाओं के साहित्य में समाविष्ट हो गई है। यहाँ तक कि बाइबिल में उस कथा की एक घटना ज्यों की त्यों मिलती है।

    किंतु यह समझना भूल होगी कि लेखकगण आलस्य या कल्पना शक्ति के अभाव के कारण प्राचीन कथाओं का उपयोग करते हैं। बात यह है कि नए कथानक में वह रस, वह आकर्षण नहीं होता, जो पुराने कथानकों में पाया जाता है। हाँ, उनका कलेवर नवीन होना चाहिए। 'शकुंतला' पर यदि कोई उपन्यास लिखा जाए तो वह कितना मर्मस्पर्शी होगा, यह बताने की जरुरत नहीं।

    रचना-शक्ति थोड़ी बहुत सभी प्राणियों में रहती है। जो उसमें अभ्यस्त हो चुके हैं उन्हें तो फिर झिझक नहीं रहती, कलम उठाया और लिखने लगे। लेकिन नए लेखकों को पहले कुछ लिखते समय ऐसी झिझक होती है, मानों वे दरिया कूदने जा रहे हों। बहुधा एक तुच्छ सी घटना उनके मस्तिष्क पर प्रेरक का काम कर जाती है। किसी का नाम सुनकर, कोई स्वप्न देखकर, कोई चित्र देखकर उनकी कल्पना जाग उठती है। किसी व्यक्ति पर निर्भर है। किसी की कल्पना दृश्य विषयों से उभरती है, किसी की गंध से, किसी की श्रवण से, किसी को नए सुरम्य स्थान की सैर से, इस विषय में यथेष्ट सहायता मिलती है। नदी के तट पर अकेले भ्रमण करने से बहुधा नई-नई कल्पनाएँ जागृत होती हैं।

    ईश्वर-दत्त शक्ति मुख्य वस्तु है। जब तक यह शक्ति होगी, उपदेश, शिक्षा, अभ्यास, सभी निष्फल जाएगा। मगर यह प्रकट कैसे हो कि किसमें यह शक्ति है, किसमें नहीं? कभी इसका सबूत मिलने में बरसों गुजर जाते हैं और बहुत परिश्रम नष्ट हो जाता है। अमेरिका के एक नए पत्र-संपादक ने इसकी परीक्षा करने का नया ढंग निकाला है। दल के दल युवकों में से रत्न हैं और कौन पाषाण? वह कागज के टुकड़े पर किसी प्रसिद्ध व्यक्ति का नाम लिख देता है और उम्मीदवार को वह टुकड़ा देकर उसके नाम के संबंध में ताबड़तोड़ प्रश्न करना शुरू करता है। उसके बालों का रंग क्या है? उसके कपड़े कैसे हैं? कहाँ रहता है? उसका बाप क्या करता है? जीवन में उसकी मुख्य अभिलाषा क्या है? आदि। यदि युवक महोदय ने इन प्रश्नों के संतोषजनक उत्तर दिए, तो उन्हें अयोग्य समझकर विदा कर देता है। जिसकी निरीक्षण-शक्ति इतनी शिथिल हो, वह उसके विचार में उपन्यास-लेखक नहीं बन सकता। इस परीक्षा विभाग में नवीनता तो अवश्य है, पर भ्रामकता की मात्रा भी कम नहीं है।

    लेखकों के लिए नोटबुक का रखना बहुत आवश्यक है। यद्यपि इन पंक्तियों के लेखक ने कभी नोटबुक नहीं रखी, पर इसकी ज़रुरत को वह स्वीकार करता है। कोई नई चीज़, कोई अनोखी सूरत, कोई सुरम्य दृश्य देखकर नोटबुक में दर्ज कर लेने से बड़ा काम निकलता है। यूरोप में लेखकों के पास उस वक्त तक नोटबुक अवश्य रहती है, जब तक उनका मस्तिष्क इस योग्य नहीं बनता कि हर प्रकार की चीजों को वे अलग-अलग खानों में संगृहीत कर लें। बरसों के अभ्यास के बाद वह योग्यता प्राप्त हो जाती है, इसमें संदेह नहीं, लेकिन आरंभ-काल में तो नोटबुक का रखना परमावश्यक है। यदि लेखक चाहता है कि उसके दृश्य सजीव हों, उसके वर्णन स्वाभाविक हों, तो उसे अनिवार्यतः इससे काम लेना पड़ेगा। देखिए, एक उपन्यासकार की नोटबुक का नमूना :

    'अगस्त 21, 12 बजे दिन; एक नौका पर एक आदमी, श्याम वर्ण, सफेद बाल, आँखें तिरछी, पलकें भारी, ओंठ ऊपर को उठे हुए और मोटे, मूँछे ऐंठी हुईं।’

    'सितम्बर 1, समुद्र का दृश्य, बादल श्याम और श्वेत, पानी में सूर्य का प्रतिबिंब काला, हरा, चमकीला; लहरें फ़ेनदार, उनका ऊपरी भाग उजला। लहरों का शोर, लहरों के छींटे से झाग उड़ती हुई।’

    उन्हीं महाशय से जब पूछा गया कि आपको कहानियों से प्लॉट कहाँ मिलते हैं? तो उन्होंने कहा, 'चारों तरफ।' अगर लेखक अपनी आँखें खुली रखे, तो उसे हवा से भी कहानियाँ मिल सकती हैं। रेलगाड़ी में, नौकाओं पर, समाचार-पत्रों में, मनुष्य के वार्तालाप में और हजारों जगहों में सुंदर कहानियाँ बनाई जा सकती हैं। कई सालों के अभ्यास के बाद देख-भाल स्वाभाविक हो जाती है, निगाह आप ही आप अपने मतलब की बात छाँट लेती है। दो साल हुए, मैं एक मित्र के साथ सैर करने गया। बातों ही बातों में यह चर्चा छिड़ गई कि यदि दो के सिवा संसार के और सब मनुष्य मार डाले जाएँ तो क्या हो? इस अंकुर से मैंने कई सुंदर कहानियाँ सोच निकालीं।

    इस विषय में तो उपन्यास-कला के सभी विशारद सहमत हैं कि उपन्यासों के लिए पुस्तकों से मसाला लेकर जीवन ही से लेना चाहिए। वालटर बेसेंट अपनी 'उपन्यास-कला' नामक पुस्तक में लिखते हैं :

    “उपन्यासकार को अपनी सामग्री, आले पर रखी हुई पुस्तकों से नहीं उन मनुष्यों के जीवन से लेनी चाहिए, जो उसे नित्य ही चारों तरफ मिलते रहते हैं। मुझे पूरा विश्वास है कि अधिकांश लोग अपनी आँखों से काम नहीं लेते। कुछ लोगों को यह शंका भी होती है कि मनुष्यों में जितने अच्छे नमूने थे, वे तो पूर्वकालीन लेखकों ने लिख डाले। अब हमारे लिए क्या बाकी रहा? यह सत्य है; लेकिन अगर पहले किसी ने बूढ़े कंजूस, उड़ाऊ युवक, जुआधारी, शराबी, रंगीन युवती आदि का चित्रण किया है, तो क्या अब उसी वर्ग के दूसरे चरित्र नहीं मिल सकते? पुस्तकों में नए चरित्र मिलें, पर जीवन में नवीनता का अभाव नहीं रहा।”

    हेनरी जेम्स ने इस विषय में जो विचार प्रकट किए हैं, वह भी देखिए :

    “अगर किसी लेखक की बुद्धि कल्पना-कुशल है, तो वह सूक्ष्मतम भावों से जीवन को व्यक्त कर देती है। वह वायु के स्पंदन को भी जीवन प्रदान कर सकती है, लेकिन कल्पना के लिए कुछ आधार अवश्य चाहिए। जिस तरुणी लेखिका ने कभी सैनिक छावनियाँ नहीं देखीं, उनसे यह कहने में कुछ भी अनौचित्य नहीं है कि आप सैनिक जीवन में हाथ डालें। मैं एक अँग्रेज़ उपन्यासकार को जानता हूँ, जिसने अपनी एक कहानी में फ्रांस के प्रोटेस्टेंट युवकों के जीवन का अच्छा चित्र खींचा था। उस पर साहित्यिक संसार में चर्चा रही। उससे लोगों ने पूछा आपको इस समाज के निरीक्षण करने का ऐसा अवसर कहाँ मिला? (फ्रांस रोमन कैथोलिक देश है और प्रोटेस्टेंट वहाँ साधारणतः नहीं दिखाई पड़ते)। मालूम हुआ कि उसने एक बार, केवल एक बार, कई प्रोटेस्टेंट युवकों को बैठे और बातें करते देखा था। बस, एक बार का देखना उसके लिए पारस हो गया। उसे वह आधार मिल गया, जिस पर कल्पना अपना विशाल भवन निर्माण करती है। उसमें वह ईश्वर-दत्त शक्ति मौजूद थी, जो एक इंच से एक योजन की खबर लाती है और जो शिल्पी के लिए बड़े महत्त्व की वस्तु है।”

    मिस्टर जी. के. चेस्टरटन जासूसी कहानियाँ लिखने में बड़े प्रवीण थे। आपने ऐसी कहानियाँ लिखने का जो नियम बताया है, वह बहुत शिक्षाप्रद है। हम उसका आशय लिखते हैं :

    “कहानी में जो रहस्य हो, उसे कई भागों में बाँटना चाहिए। पहले छोटी-सी बात खुले, फिर उससे कुछ बड़ी और अंत में रहस्य खुल जाए! लेकिन हर एक भाग में कुछ कुछ रहस्योद्घाटन अवश्य होना चाहिए, जिसमें पाठक की इच्छा सब कुछ जानने के लिए बलवती होती चली जाए। इस प्रकार की कहानियों में इस बात का ध्यान रखना परमावश्यक है कि कहानी के अंत में रहस्य खोलने के लिए कोई नया चरित्र लाया जाए। जासूसी कहानियों में यही सबसे बड़ा दोष है। रहस्य के खुलने में तभी मजा है, जबकि वही चरित्र अपराधी सिद्ध हो, जिस पर कोई भूलकर भी संदेह कर सकता था।”

    उपन्यास-कला में यह बात भी बड़े महत्त्व की है कि लेखक क्या लिखे और क्या छोड़ दे। पाठक कल्पनाशील होता है। इसलिए वह ऐसी बातें पढ़ना पसंद नहीं करता है। वह यह नहीं चाहता कि लेखक सब कुछ खुद कह डाले और पाठक की कल्पना के लिए कुछ भी बाकी छोड़े। वह कहानी का खाका-मात्र चाहता है, रंग वह अपनी अभिरुचि के अनुसार भर लेता है। कुशल लेखक वही है, जो यह अनुमान कर ले कि कौन-सी बात पाठक स्वयं सोच लेगा और कौन-सी बात उसे लिखकर स्पष्ट कर देनी चाहिए। कहानी या उपन्यास में पाठक की कल्पना के लिए जितनी ही अधिक सामग्री हो, उतनी ही वह कहानी रोचक होगी। यदि लेखक आवश्यकता से कम बतलाता है तो कहानी आशयहीन हो जाती है, ज्यादा बतलाता है तो कहानी में मजा नहीं आता। किसी चरित्र की रूपरेखा या किसी दृश्य को चित्रित करते समय हुलिया-नवीसी करने की ज़रुरत नहीं। दो-चार वाक्यों में मुख्य-मुख्य बातें कह देनी चाहिए।

    किसी दृश्य को तुरंत देखकर उसका वर्णन करने से बहुत-सी अनावश्यक बातें आप ही आप मस्तिष्क से निकल जाती हैं, केवल मुख्य बातें स्मृति पर अंकित रह जाती हैं। तब उस दृश्य के वर्णन करने में अनावश्यक बातें रहेंगी। आवश्यक और अनावश्यक कथन का एक उदाहरण देकर हम अपना आशय और स्पष्ट करना चाहते हैं :

    दो मित्र संध्या समय मिलते हैं। सुविधा के लिए हम उन्हें 'राम' और 'श्याम' कहेंगे।

    राम- गुड ईवनिंग श्याम, कहो आनंद तो है?

    श्याम- हैलो राम, तुम आज किधर भूल पड़े?

    राम- कहो क्या रंग-ढंग हैं? तुम तो भले ईद के चाँद हो गए।

    श्याम- मैं तो ईद का चाँद था, हाँ, आप गूलर के फूल भले ही हो गए।

    राम- चलते हो संगीतालय की तरफ?

    श्याम- हाँ चलो।

    लेखक यदि ऐसे बच्चों के लिए कहानी नहीं लिख रहा है, जिन्हें अभिवादन की मोटी-मोटी बातें बताना ही उसका ध्येय है, तो वह केवल इतना ही लिख देगा -

    'अभिवादन के पश्चात् दोनों मित्रों ने संगीतालय की राह ली।'

    (यह आलेख पहले समालोचक : जनवरी, 1925 में प्रकाशित हुआ था, इसी का संशोधित रूप 'कुछ विचार' संकलन में दिया गया है।)

    स्रोत :
    • पुस्तक : समालोचक (पृष्ठ 25)
    • रचनाकार : प्रेमचंद
    • संस्करण : 1925

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