उपन्यास और यथार्थ चित्रण

upanyas aur yatharth chitran

मोहन राकेश

मोहन राकेश

उपन्यास और यथार्थ चित्रण

मोहन राकेश

और अधिकमोहन राकेश

     

    सबसे पहले हमारे सामने यह प्रश्न है कि यथार्थ क्या है? क्या जिसकी स्थूल सत्ता का प्रमाण हमारे पास है वही यथार्थ है? जिस अनुभूति के आधार में स्थूल की चेतना किसी-न-किसी रूप में विद्यमान रहती है, क्या वही यथार्थ की अनुभूति है? यथार्थ के विषय में हम आदर्श और कल्पना इन दो शब्दों का प्रयोग करते हैं। आदर्श का अर्थ एक ऐसी स्थिति या ऐसी अवस्था है जो हमें अप्राप्त का एक मानसिक चित्र बना रहने से आदर्श यथार्थ और कल्पना के बीच की चीज़ है। कल्पना आदर्श द्वारा अनुप्रणित भी हो सकती है और उससे रहित भी। आदर्श की प्राप्ति के पीछे सदा वर्तमान यथार्थ से आगे प्रगति करने की चेतना निहित रहती है। कल्पना के क्षेत्र में प्रगति की चेतना का होना अनिवार्य नहीं। कल्पना चेतना की वह स्थिति है जो किसी भी असंगति को संगति में बदल लेती है। जो संगति संभव को लेकर चलती है वह आदर्श या उसके विपरीत हो सकती है। पर जो संगति असंभव को लेकर चलती है वह कोरी कल्पना रह जाती है। मनुष्य में कल्पना-शक्ति का होना यथार्थ है। भावुकता की प्रवृत्ति होना यथार्थ है। यथार्थ का चित्रण करने वाला लेखक जब उचित संगति में अपने चरित्र की कल्पना या भावुकता का चित्रण करता है तो वह यथार्थ का ही चित्रण है। भेद वहाँ पैदा होता  है जहाँ लेखक जीवन की संगति को छोड़कर किसी अप्राप्त या अप्राप्य संगति को सामने ले आता है। जिस मात्रा में वह जीवन की प्राप्त संगति से दूर जाता है उसी मात्रा में उसकी रचना यथार्थ से दूर हट जाती है। जीवन की परिस्थितियों द्वारा पुष्ट भावुकता के अनेक उदाहरण हमें शरत् की रचनाओं में मिलते हैं। इस तरह हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि यथार्थवादी रचना का क्षेत्र मनुष्य की अंतर्मन और उसकी अंतवृत्तियाँ भी है, जहाँ तक उनका अनुकूल संगति में चित्रण किया जा सकता है। अनुकूल संगति में जो अपील एक अर्धध्वनित शब्द में होती है वह अनुकूल संगति के अभाव में किसी के पचास बार 'भुवन, भुवन, मेरे भाव-शिशु, देवशिशु' कहने में नहीं आ सकती। जीवन की संगति से ही वेदना को भी शक्ति प्राप्त होती है। वेदना की बौद्धिक स्वीकृति किसी को वेदनाक्षम नहीं बना देती। वेदना निसंदेह हृदय को पिघलाती है पर वेदना का दर्शन हृदय को नहीं पिघलाता। इसलिए 'ले मिजराब' के ज्याँ-वेल्ज्याँ की वेदना तो हृदय को द्रव की अवस्था में ले जाती है पर 'नदी के द्वीप' के भुवन और रेखा की वेदना स्वीकृति हृदय को द्रव की अवस्था में नहीं ला पाती।

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    इसी संदर्भ में हम उपन्यासों में लंबे-लंबे सैद्धांतिक विवेचन या व्याख्यान-भर देने की प्रवृत्ति पर भी दृष्टिपात कर सकते हैं। कुछ उपन्यासों में तो कथा का ढाँचा जैसे पहले से तैयार किए हुए भाषणों को स्थान देने के लिए ही खड़ा किया जाता है। ऐसे भाषणों द्वारा यथार्थ या आदर्श का पोषण किसी रचना को यथार्थवादी या आदर्शवादी नहीं बना देता। यदि ऐसे किसी उपन्यास में कोई नई श्रृंखलाबद्ध चिंतन-धारा मिले तो उसे अधिक-से-अधिक उपन्यास-रूप में लिखा गया सिद्धांत-ग्रंथ ही कहा जा सकता है। वह उपन्यास तभी होगा जब उसके पात्रों द्वारा कहा गया एक-एक शब्द उनके जीवन की परिस्थितियों द्वारा उन्हें विवश करके कहलाया गया हो। तभी उसमें हम यथार्थ की शक्ति का परिचय पा सकते हैं। तब यदि लंबे-लंबे भाषण भी हों तो वे रेडीमेड बाहर से लाकर वहाँ रखे गए प्रतीत उदाहरण के लिए हम शरत् के 'चरित्रहीन' की किरणमयी के उद्गारों को ले सकते हैं। किरणमयी का आक्रोश उसके जीवन की परिस्थितियों द्वारा पुष्ट होते हैं। इसीलिए उसके एक-एक शब्द में जान है, चुभ जाने और छा जाने की शक्ति है। यह शक्ति आज के कथा-साहित्य के उन सिनिक पात्रों के उद्गारों में नहीं है। जो अपने को हीरो की स्थिति में देखते हुए जीवन के प्रति आक्रोश प्रकट करते हैं। इसी तरह  दोस्तोवस्की के पात्रों को धर्म और नैतिकता आदि के संबंध में लंबे-लंबे भाषण उनकी रचनाओं के उपन्यास-तत्त्व को हीन नहीं करते; क्योंकि वे भाषण कथा के प्रवाह में अनिवार्य कड़ियाँ बनकर आते हैं। जीवन की पृष्ठभूमि उनके लिए स्थान तैयार करती है। परंतु ‘मुक्तिदूत' जैसे उपन्यास में हमें जो भाषण मिलते हैं, वे जीवन की पृष्ठभूमि के आगे उभरकर नहीं आते। ऐसे उपन्यास का वातावरण यथार्थ का वातावरण नहीं कहा जा सकता।

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    यथार्थ चित्रण के प्रसंग में एक प्रश्न यह भी पैदा होता है कि जीवन की पृष्ठभूमि में स्थानीय रंगों का लाना कहाँ तक वांछनीय है? कुछ लोगों की यह धारणा संगत प्रतीत नहीं होती कि स्थानीय रंगों के लाने से उपन्यास की अपील एक वर्ग-विशेष तक ही सीमित रह जाती है। यह ठीक है कि मानव-प्रकृति में और उसकी भौगोलिक पृष्ठभूमि में बहुत-कुछ ऐसा है जो सब जगह मिल सकता है और उसका ऐसा ही चित्रण होना चाहिए जो व्यापक रूप से ग्राह्य हो। परंतु साथ ही हम यह भी देखते हैं कि भौगोलिक, ऐतिहासिक तथा अन्यान्य कारणों से एक देश या देश-खंड की प्रकृति में कुछ विशेषताएँ पैदा हो जाती हैं जो उसे दूसरों से किन्हीं दिशाओं में भिन्न कर देती हैं। 'जोश' मलीहाबादी की ज़मीन 'जर्राते ख़ाकी' से बनी है; मगर त्रिवांकुर के लेखक के लिए ज़मीन ख़ाकी नहीं है, गेरुए रंग की है। कन्याकुमारी के तट के रेत में हम कई तरह के रंग झलकते देखते हैं, जो अरब सागर, हिंद महासागर और बंगाल की खाड़ी की अलग-अलग देन का परिणाम हैं। संस्कृति के इतिहास में भी नाना जातियों की ऐसी देन के अनेक उदाहरण मिलते हैं। यथार्थ का तक़ाज़ा है कि हमारी रचनाओं में उन रंगों का सही चित्रण होवे, रंग मिट्टी के हों या मानव के सामाजिक व्यवहार के। ज़मीन एक है मगर दिल्ली और त्रिवांकुर में उसके अलग-अलग रंगों का उल्लेख अनिवार्य है। इसी तरह मानव एक है, पर पंजाब के जाट और लखनऊ के नवाब की बातचीत और व्यवहार-चेष्टा आदि के भेद को दृष्टि में रखे बिना उनका यथार्थ चित्रण नहीं किया जा सकता। जीवन के स्थानीय रंगों की वास्तविक और सहानुभूतिपूर्ण चित्रण और उनके वैसा होने के कारणों का विश्लेषण रचना की अपील को कम नहीं करता बल्कि उसमें जान डाल देता है। हार्डी, ताल्स्ताय, चेखव, शरत् और प्रेमचंद्र की रचनाओं की सबसे बड़ी शक्ति जीवन के स्थानीय रंगों की पहचान और उन्हें उनकी वास्तविकता में अंकित कर देने की योग्यता ही है।

    सामान्यतया भारतीयों को भावुक प्रकृति कहा जाता है। भावुकता मन की तरल दशा है; और एक गर्म देश के लोगों का भावुक होना स्वाभाविक है। इसी से हमें सहिष्णुता, स्निग्धता और सहानुभूतिपूर्ण दृष्टि मिली है। साथ ही यही कारण हमारी स्नायविक दुर्बलता का है। भिन्न-भिन्न प्रदेशों में हमारी भावुकता ने भिन्न-भिन्न रूप ले लिए हैं। कहीं यह भावुकता रूढ़ियों के प्रति विशेष आग्रह के रूप में दिखाई देती है, तो कहीं नवीन के प्रति अंध आस्था के रूप में। हमारी भावुकता ही हमारे लिए राजनीति को धर्म, और धर्म को राजनीति बना देती है। पिछली कई शताब्दियों की आर्थिक परिस्थितियाँ भी हमारी स्वभावगत विशेषताओं के लिए उत्तरदायी हैं। इन विशेषताओं के संपन्न विशुद्ध भारतीय चरित्र हमें शरत् और प्रेमचंद्र की रचनाओं में तो मिलते हैं पर उनके बाद के साहित्य में बहुत कम दिखाई देते हैं। शरत् का विप्रदास और प्रेमचंद्र का सूरदास इसी भूमि की उपज हो सकते हैं, और हैं। परंतु 'अज्ञेय' का शेखर किसी भी भूमि की उपज हो सकता है। ऐसे सार्वभौम से चरित्रों के साथ संवेदनशील, हृदय निजत्व का संबंध स्थापित नहीं कर पाता, अधिक-से-अधिक वे देव-प्रतिमाओं की तरह उसकी आस्था के विषय बन सकते हैं। रोम्याँ रोलाँ का ज्याँ क्रिस्तफ भी, जिससे शायद लेखक ने शेखर की रचना की प्रेरणा ली है, शेखर की अपेक्षा कहीं अधिक अपने देश की स्थानीय मिट्टी का बना चरित्र है। उसके शरीर में जर्मनी का ख़ून खौलता है और फ्रांस में रहकर भी अपनी भिन्नता को छिपा नहीं सकता। फिर क्रिस्तफ के चरित्र में वह संतुलन भी है, जो उसके क़दमों को सामान्य जीवन के धरातल पर टिकाए रखता है। उपन्यासकार की सफलता ऐसे चरित्रों की सृष्टि में नहीं, जो लेखक के निजी अहं का या किन्हीं बँधी हुई विचार-धाराओं का प्रतिनिधित्व करते हैं, बल्कि ऐसे चरित्रों की सृष्टि में है जो आस-पास के जीवन में पहचाने जा सकते हैं, जिनके नक्श, जिनकी भाव-मुद्राएँ और जिनके पसीने की गंध तक हमारी पहचानी हुई होती है और जिनके विषय में हम तुरंत कह देते हैं कि ऐसी परिस्थिति में इस व्यक्ति का यह आचरण स्वाभाविक था, ऐसी परिस्थिति में यह व्यक्ति ऐसा आचरण कर ही नहीं सकता था। वे चरित्र हमारे इतने अपने होते हैं कि सहज ही हमारा उनके जीवन के साथ तादात्म्य स्थापित हो जाता है।

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    पिछले पैंतीस वर्षों में भारत के इतिहास में कई महत्त्वपूर्ण घटनाएँ हुई हैं। इस काल के आरंभ
    में हम जलियाँवाला बाग का हत्याकांड देखते हैं। कांग्रेस का स्वतंत्रता-आंदोलन उस हत्याकांड
    के बाद नई दिशा लेने लगता है। युवकों का एक गिरोह कांग्रेस के रास्ते को छोड़कर आतंकवादी बन जाता है। ये आतंकवादी युवक समाज की भावुकता के आदर्श बन जाते हैं। ‘इंकलाब जिंदाबाद' का नारा ऊँचे स्वर में बुलंद होता है। भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को विदेशी हुकूमत द्वारा फाँसी दे दी जाती है। जनता के हृदय में विदेशी सत्ता के प्रति घृणा बहुत ही तीव्र हो उठती है। उधर हिंदू-मुस्लिम फ़साद विषम रूप धारण करने लगते हैं और कांग्रेस के अंदरूनी झगड़े की शक्ति को कमज़ोर करते नज़र आते हैं। शहीदगंज के प्रश्न पर बहुत से मुसलमान कांग्रेस को छोड़कर चले जाते हैं। प्रांतीय शासनाधिकार प्राप्त होते हैं और फिर महायुद्ध छिड़ जाता है। सन् बयालिस में 'भारत छोड़ो' का आंदोलन उठता है और कांग्रेसी नेता क़ैद कर दिए जाते हैं। बंगाल में अकाल पड़ता है, जिसके परिणाम देश की चेतना में भूकंप पैदा कर देते हैं। आर्थिक परिस्थितियाँ सदियों की मान्यताओं को जल्दी-जल्दी तोड़ने लगती हैं। जीवन के आर्थिक न्याय के प्रति लोगों की रुचि जाग्रत होती है और समाज पुरानी केंचुली में से निकलने के लिए सचेष्ट हो उठता है। युद्ध समाप्त होता है और कांग्रेसी नेता छोड़ दिए जाते हैं। मुस्लिम लीग के आंदोलन के कारण सांप्रदायिक भावना जोर पकड़ जाती है। अँग्रेज़ भारत छोड़कर चले जाने के निश्चय की घोषण कर देते हैं। देश का विभाजन हो जाता है। विभाजन से जीवन में क्रंदन और चीत्कार की ध्वनि आ मिलती है। स्वदेशी सत्ता के आ जाने से कुछ दिशाओं में प्रगति दिखाई देती है, पर साथ ही अवसरवाद का बोल-बाला दिखाई देने लगता है। अनेक संकीर्ण स्वार्थ उभर आते हैं और जिस वायु से करोड़ों व्यक्ति प्राण पाने की आशा रखते थे वह धूल से भर जाती है; जहाँ श्वास लेना भी कठिन है और न लेना भी। फिर वायुमंडल को साफ करने से कुछ हार्दिक प्रयत्न दिखाई देते हैं और नया उठता हुआ गर्दो-गुबार!

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    इन पैंतीस वर्षों में हिंदी में जो उपन्यास लिखे गए हैं उनमें कुछ तो ऐतिहासिक उपन्यास हैं, जिनकी अपनी एक श्रेणी है। प्रेमचंद्र, जैनेंद्र, यशपाल, भगवतीचरण वर्मा, इलाचंद्र जोशी और उपेंद्रनाथ अश्क प्रभृति लेखकों ने इस काल में अपने आस-पास के जीवन और उसकी परिस्थितियों को लेकर लिखा है और जीवन के प्रवाह में रहकर उससे दिशा ग्रहण करते और उसे दिशा देने की चेष्टा करते हुए लिखा है। प्रेमचंद्र के उपन्यासों में निःसंदेह प्रेमचंद्र का समय मुखर हो उठा है। उनके चरित्रों के साथ हमारा तादत्म्य तुरंत स्थापित हो जाता है। परंतु वहाँ उनके चरित्र कमज़ोर हो गए हैं जहाँ उन्होंने अपने आदर्शोन्मुख यथार्थवाद के दृष्टिकोण के निर्वहन के लिए उनसे प्रचार का काम लिया है। वे चरित्र उसी हद तक कमज़ोर हैं जिस हद तक वे यथार्थ के पुत्र न होकर आदर्श के पुत्र हैं। पहले यह कहा जा चुका कि मानव में आदर्श भाव का होना यथार्थ है। एक आदर्शवादी चरित्र का संतुलित चित्रण उसे अयथार्थ नहीं होने देता। वह यथार्थ तब हो जाता है जब चरित्र में नहीं, चित्रण में आदर्श का पुट आ जाता है। चित्रण की भावुकता चरित्र की भावुकता से अलग चीज़ है। ‘गोदान' में आकर प्रेमचंद्र की दृष्टि उतनी भावुक नहीं रही। वहाँ उनकी दृष्टि ने यथार्थ को उसके अधिक सत्य के रूप में देखा है। इसीलिए उस रचना की अपील प्रेमचंद्र की अन्य रचनाओं की अपेक्षा कहीं अधिक है।

    जैनेंद्र ने अपनी रचनाओं में राजनीति को केवल बौद्धिक रूप में ग्रहण किया है। उनके चरित्र राजनीतिक हलचलों से उतना प्रभावित नहीं होते जितना उनके विषय में सोचते हैं। उन पात्रों के आदर्श भी समय की परिस्थितियों द्वारा बोधित होने वाले भविष्य के आदर्श नहीं। ‘सुनीता', 'सुखदा' और 'व्यतीत' में जो जीवन हमारे सामने आता है वह एक बुद्धिवादी की टेबल पर बनता और घटित होता हुआ जीवन है, हमारे चारों ओर उमड़ता और हमें प्रभावित करता हुआ जीवन नहीं। सुनीता जैसी नारी की चरम भावुकता जिस संगति में उत्पन्न होती है वह संगति किसी फ़ैंटेसी की संगति प्रतीत होती है। और फिर राजनीतिक जागरुकता के बावजूद, जैनेंद्र की रचनाओं में ऐसा तत्त्व बहुत कम हैं जो उनके और केवल उनके समय की ही देन हो। उस समय की जो जलियाँवाला बाग के हत्याकांड से आरंभ होता है और आज के 'आत्मन एवं समर्पये' के युगों तक आता है।

    'अश्क' ने 'गिरती दीवारें' और 'गर्म राख' में जो चित्र दिए हैं वे उनके समय के चित्र तो हैं पर वे एक वर्ग के एक बहुत छोटे से अंग के चित्र हैं। फिर उन्होंने जिन इंसानों को लिया है उनके भी अस्वस्थ पहलुओं को ही उघाड़ा है, उनके स्वस्थ पहलुओं या वैसी संभावनाओं को देखने का प्रयत्न नहीं किया। 'गर्म राख' के हरीशजी, जो अस्वस्थ वायुमंडल में रहकर भी उससे अछूते हैं, एक बोलने वाले सुदंर खिलौने की तरह ही जीवित हैं, जिसके मुख से लेखक ने जब जो चाहा है कहला दिया है। यशपाल, भगवतीचरण वर्मा और इलाचंद्र जोशी की कृतियों में हमें अपने काल के सामाजिक और राजनीतिक जीवन के कई यथार्थ चित्र मिलते हैं, परंतु यह सवाल बार-बार सामने आ जाता है कि हमारे जीवन में जितनी हलचल हुई और हो रही है, क्या उसका सही अनुमान हमारे उपन्यास-साहित्य को पढ़कर हो सकता है? परिस्थितियाँ निःसंदेह ऐसी रही हैं कि उन्हें लेकर महाभारत लिखे जा सकते थे। परंतु क्या वे लिखे गए हैं? यदि नहीं तो क्यों? निःसंदेह 'शेखर', 'संयासी' और 'चित्रलेखा' की रचना करने वाली प्रतिमा उनकी सृष्टि कर सकती थी। फिर उनकी सृष्टि क्यों नहीं हुई?

    आज हमारा जीवन प्रतिदिन विश्व की और अपने देश की आंतरिक हलचलों से प्रभावित हो रहा है। आज हम निरंतर एक उत्कंप की स्थिति में जी रहे हैं। इस उत्कंप में मिले हुए हैं कुछ संकुल स्वार्थ, कुछ पंकिल से ईर्ष्या-द्वेष, कुछ नन्हीं-नन्हीं चोंचों के उन्मीलन जैसी महत्त्वाकांक्षाएँ, कुछ थैली पर बैठे साँपों जैसे अहं और इन सबके प्रति असंतोष, इन सबके प्रति विद्रोह भाव और इन सबको उखाड़ फेंकने की कामना और प्रवृत्ति। साथ ही राजनीतिक हलचलें जीवन पर इस तरह हावी हो रही हैं कि हमारा सांस्कृतिक जीवन रूखा और फीका पड़ता जा रहा है। कुछ बड़े-बड़े केंद्रों की बात छोड़ दें तो अन्यत्र हमारा सांस्कृतिक जीवन बहुत-कुछ सिमटा सिमटा-सा रह गया है। पुरानी परंपराएँ हमसे छूटती जा रही हैं और नई परंपराएँ विकसित नहीं हो पा रहीं। हमारी इकाइयों में उबलती हुई स्पिरिट वर्तमान है, पर उस स्पिरिट के सामूहिक उफ़ान के अवसर नहीं आ पाते। आज वर्तमान की यही संकुल पृष्ठभूमि हमें प्राप्त है। इस पृष्ठभूमि के आगे, तेज़ से बनते हुए इतिहास की साक्षी में, हम जो कुछ देख रहे हैं, जैसे जीना चाहते हैं और जैसे जी रहे हैं, इस सबका चित्रण आज के उपन्यास में नहीं तो और कहाँ होगा?

    (आलोचना, अक्टूबर 1954 से)

    स्रोत :
    • रचनाकार : मोहन राकेश

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