हिंदी में एकांकी का स्वरूप

hindi mein ekanki ka swarup

लक्ष्मी नारायण लाल

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हिंदी में एकांकी का स्वरूप

लक्ष्मी नारायण लाल

और अधिकलक्ष्मी नारायण लाल

    जिन स्थितियों और प्रेरणाओं ने हिंदी उपन्यास-क्षेत्र में कहानी को विकास दिया, उन्हीं तथ्यों ने हिंदी नाटक-क्षेत्र में एकांकी को जन्म दिया—यह स्थापना कहानी के लिए चाहे जितनी सत्य हो, पर जहाँ तक वैज्ञानिक दृष्टि जाती है, यह निष्कर्ष हिंदी एकांकी के लिए एक विचित्र असंगति उत्पन्न करने वाला है। यह अति व्यापक निष्कर्ष एकांकी अध्ययन और इसके स्वरूप के अल्पाकन में इतने गहरे पैठकर आए दिन आलोचनाओं में पढ़ने को मिलता है कि जिनसे हिंदी एकांकी के महत्व और प्रतिमान का स्तर झुकने लगता है।

    हिंदी एकांकी और कहानी, इन दोनों कलाओं के उदय के पीछे आंतरिक रूप से दो विभिन्न प्रेरणाएँ और शक्तियाँ कार्य कर रही थीं। दोनों माध्यमों के दो अलग-अलग उत्स भी थे। बाह्य दृष्टि से, निस्संदेह, यंत्रयुग की द्रुतगामिता, दैनिक जीवन के कार्यभार का व्यक्ति पर प्रभाव और इनसे समूचे जीवन में परिवर्तन—इस संपूर्ण सत्य की अभिव्यक्ति तथा मनोरंजन का प्रतिनिधित्व इन दोनों कलाओं ने किया।

    पर हिंदी में एकांकी का विकास ऐतिहासिक दृष्टि से भी कहानी से बहुत बाद हुआ— अर्थात् प्रथम महायुद्ध के भी उपरांत, जिस समय भारतीय जीवन में एक अद्भुत् तनाव चुका था।

    राजनीतिक क्षेत्र में स्वतंत्रता-संग्राम की गति बहुत व्यापक और गहरी हो चुकी थी, अर्थात राष्ट्रीय संग्राम दर्शन बनकर जीवन में उतर चुका था। दूसरी और अँग्रेज़ों की दमन नीति उग्र से उग्रतर हो चली थी। शासक की अर्थ-नीति और शासन नीति में नए-नए दाँव-पेंच लागू हो चुके थे। मध्यकालीन सामंतीय व्यवस्था के उपरांत भारतीय पूँजीवादी व्यवस्था बड़ी तेज़ी से उभर रही थी। फलस्वरूप विशुद्ध भौतिक धरातल पर विचित्र द्वंद्वात्मक सत्य का जन्म होने लगा था। समूचा जीवन, अपने नैतिक, सामाजिक, आर्थिक तथा सौंदर्य, बोध के आयामों में बिल्कुल एक परिवर्तित परिस्थितियों से टकराने लगा था। वस्तुत उस टकराहट में पाश्चात्य जीवन-दर्शन और भारतीय दृष्टिकोण तथा सांस्कृतिक विचारधारा कार्य कर रही थी और इस प्रक्रिया में जो नया उन्मेष तत्कालीन समाज को मिल रहा था, उसका स्वर और स्तर उस स्वर और स्तर से अपेक्षाकृत अधिक सघन, उच्च और गहरा था जो हिंदी कहानियों के जन्म अथवा आविर्भाव के समय के समाज में व्याप्त था।

    इस सत्य का सबसे बड़ा प्रभाव आविर्भाव-काल हो से हिंदी एकांकी पर यह पड़ा कि इसका स्वरूप नितांत मौलिक और इसका स्वर नितांत यथार्थवादी रहा। जीवन का जैसा तनाव, जितना द्वंद्व इस माध्यम से मभिव्यक्त हुआ, वह अपने आपमें अपूर्व था, नितांत मौलिक। शिल्पविधि निस्संदेह पश्चिम से ग्रहण की गई लेकिन जिस साहित्यिक परंपरा, जिन सहज शक्तियों में हिंदी एकांकी की उपलब्धि हुई वे विशुद्ध रूप से अपनी हैं, स्वजातीय हैं, उसके सारे संस्कार अपने हैं, वे सारे स्वर अपने हैं।

    इस दृष्टि से हिंदी एकांकी के स्वरूप में अपनी मौलिकता और सहज विकास की छाप आदि से ही है। इस सत्य के आकलन के लिए हमें, हिंदी के सर्वप्रथम एकांकी 'एक घूँट' से पूर्व की नाट्य-स्थितियों को देखना होगा। अर्थात् इससे पहले भारतेंदु, प्रसाद आदि द्वारा लिखे गए संपूर्ण नाटक, रंगमंच की धारा का क्या स्वरुप था? हिंदी एकांकी के स्वरूप को पहचानने के लिए अपनी उस उपलब्धि को देखना होगा, जिसे हम किन्हीं अर्थों में हिंदी एकांकी की विरासत कह सकते हैं।

    भारतेंदु का नाम और उनकी सृजनशीलता के फलस्वरूप समूचा भारतेंदु-काल हिंदी नाटक के विकास का प्रथम चरण है। इस चरण में नाट्य-कला की परम व्यावहारिकता—अर्थात् रंगमंच—की दिशा में आगे चलते ही पारसी रंगमंच की तूती बोल उठती है। इस विरोधी स्थिति के सम्मुख नाटककार भारतेंदु ने जो निर्णय लिया, उसमें प्रतिक्रिया अधिक थी, दूरदर्शिता और व्यावहारिकता कम। भारतेंदु ने अपने नाटकों का सृजन संस्कृत-नाटकों की प्रणाली से किया और उनमें भारतीय नाट्य-शास्त्र की स्थापना पर ख़ूब बल भी दिया। इसका फल यह हुआ कि नाटकों का स्वर विशुद्ध साहित्यिक हो गया और उनके धरातल से स्पष्ट हो गया कि वे नाटक दर्शन की वस्तु रहकर केवल पठन-पाठन के सत्य बनकर रह गए। यह सत्य किसी-न-किसी रूप में समूचे भारतेंदु-काल के नाटकों पर लागू है। साहित्यिक नाट्य-धारा पठन-पाठन की नाट्य-धारा—इस तरह हिंदी नाटकों की ऐमी परंपरा स्थापित हुई कि उनके विकासक्रम में आगे की समूची धारा उसी दिशा में अबाध हो गई। भारतेंदु के बाद प्रेमघन, फिर मिश्र-बंधुओं के नाटक 'महाभारत' और 'नेत्रोन्मीलन' माखनलाल चतुर्वेदी का 'कृष्णार्जुन युद्ध' और मैथिलीशरण गुप्त का 'चंद्रहास' और इस विशुद्ध साहित्यिक नाट्य-धारा को चरम सीमा प्रसाद का नाट्य-साहित्य। यह समूची धारा जैसे रंगमंच में पनपती धारा थी—एक तरह से प्रतिक्रिया की धारा थी यह! क्योंकि दूसरी ओर विशुद्ध रंगमंच की भी धारा अबाध गति से चल रही थी—आग़ा हश्र, बेताब, जौहर, शैदा तथा कथावाचक राधेश्याम का व्यक्तित्व इस धारा में अनन्य उदाहरण थे। और इनको रंगमंच भी मिला था तो वही अति व्यावसायिक पारसी रंगमंच जिसकी रंगमंच की पद्धति नितांत अकलात्मक थी।

    इस तरह से हिंदी एकांकी के जन्म के समय हिंदी नाट्य-क्षेत्र में दो सत्य उपलब्ध थे :

    (अ) भारतेंदु, प्रसाद की विशुद्ध साहित्यिक नाट्य-धारा—ऐतिहासिक, पौराणिक संवेदनाओं और वर्ण विषयों की स्थापना।

    (आ) आग़ा हश्र, शैदा आदि के माध्यम से अनुचालित विशुद्ध व्यावसायिक पारसी रंगमंच का सत्य।

    ध्यान देने की बात है—कि दोनों ओर 'विशुद्ध' जुड़ा हुआ है। इस 'विशुद्ध' ने इतना भयानक व्यवधान नाटक और रंगमंच के बीच डाल दिया कि हम आज भी उस दिशा में दरिद्र हैं। पर हिंदी एकांकी अपने आविर्भाव के साथ ही एक ऐसे समन्वयात्मक सत्य को लिए आया कि रंगमंच और एकांकी रचना दोनों के सूत्र जैसे उसकी गाँठ में संस्कारतः बंधे थे। जैसे रंगमंच और एकांकी रचना दोनों एक दूसरे के अनिवार्य तत्त्व थे—शरीर और आत्मा की भाँति। भुवनेश्वर का 'कारवाँ' और डॉक्टर राम-कुमार वर्मा की 'रेशमी टाई’ इन दो एकांकी-सग्रहों के एक-एक एकांकी उक्त स्थापना के अनन्य उदाहरण हैं।

    भाव-पक्ष अथवा वर्ण्य विषयों की दृष्टि से इनके स्वरूप पर यथार्थ सामाजिकता और तत्कालीन जीवन के द्वंद्वात्मक उद्वेलनों और जीवनगत मूल्यों की अभिव्यक्ति के प्रति सच्चा आग्रह है। कलापक्ष पर आधुनिक नाट्य-शैली की सफल छाप है। 'इब्सन' और 'शॉ' की शिल्प-विधियों और रंगमंच की व्यावहारिकता का सत्य—ये दोनों बातें यहाँ उभर कर आई हैं। इस तरह हिंदी एकांकी के स्वरूप में आदि से ही यथार्थ जीवन का प्रतिनिधित्व रंगमंच की व्यावहारिकता और युग की कटु सामाजिकता के प्रति जागरूकता और उसकी निश्छल अभिव्यक्ति के लिए कलागत आग्रह—ये तत्त्व हिंदी एकांकी के स्वरूप के मूलाधार हैं।

    आगे चलकर इस स्वरूप के कई पक्ष हिंदी एकांकी-साहित्य में विकसित होते है। समस्त पक्षों को अध्ययन की दृष्टि दो सरणियों में बाँटा जा सकता है।

    (अ) ऐतिहासिकता एवं पौराणिकता के धरातल पर साहित्यिक एकांकी, पर विशुद्ध साहित्यिक नहीं—रंगमंच की व्यावहारिकता और उसके सत्य से निस्संग। इस सरणि में डॉक्टर रामकुमार वर्मा के समस्त ऐतिहासिक एकांकी हैं जैसे, 'पृथ्वीराज की आँखें', 'चारुमित्रा', 'रजत-रश्मि', ऋतुराज' और 'कौमुदी महोत्सव' आदि संग्रहों के एकांकी। हरिकृष्ण 'प्रेमी' के एकांकी, जिनकी सवेदनाएँ मध्यकालीन ऐतिहासिक कथाओं से ग्रहण की गई हैं, और इसी तरह सेठ गोविंददास, उदयशंकर भट्ट और लक्ष्मीनारायण मिश्र के भी नाम इसी क्रम में आते हैं।

    (आ) यथार्थ सामाजिकता के स्वर से परम अभिनेय एकांकी। इस सरणि में उदाहरण हैं भुवनेश्वर का 'कारवाँ', डॉ. रामकुमार वर्मा की 'रेशमी टाई', सेठ गोविंददास का 'नवरस', 'स्पर्धा', 'एकादशी', 'सप्तरश्मि' और 'चतुष्पथ', उदयशंकर भट्ट का 'समस्या का अंत', 'चार एकांकी', भगवतीचरण वर्मा के 'दो कलाकार', उपेंद्रनाथ 'अश्क' के 'देवताओं की छाया में'। इस सरणि में इसी खेमे के दो-तीन नाम—उग्र, सद्-गुरुशरण अवस्थी और गणेशप्रसाद द्विवेदी—नहीं छोड़े जा सकते।

    इन दोनों दिशाओं में हिंदी एकांकी को जो कलागत, शिल्पगत और रंगमंच-गत स्वरूप मिले हैं, वस्तुतः वे परम उल्लेखनीय हैं। उन्हीं उपलब्धियों से ही हिंदी एकांकी को आज एक आश्चर्यजनक मर्यादा और ख्याति मिली है।

    पहली दिशा में 'संकलन-त्रय' और 'संकलन-द्वय' की प्रतिष्ठा इसके स्वरूप की मूल धुरी है, जहाँ एकांकी का समूचा संविधान उससे प्रेरित होता है। डॉ. रामकुमार वर्मा की कला के अनुसार संकलन-त्रय एकांकी कला की मूल आत्मा है। जिस एकांकी में इस सत्य का निर्वाह नहीं, वह एकांकी होकर कुछ और है, ऐसी उनकी निश्चित धारणा है। इसके सफलतम उदाहरण में डॉ. रामकुमार का समूचा एकांकी साहित्य रखा जा सकता है। संकलन-त्रय की पूर्ण प्रतिष्ठा के ही फलस्वरूप उनकी एकांकी कला में एक आश्चर्यजनक कसाव और प्रभविष्णुता स्थापित हुई है, और उसमें नाटकीय परिस्थितियों की सुंदर से सुंदर अवतारणा हुई है। लेकिन व्यापक स्तर पर विशुद्ध रचना-विधान की दृष्टि में डॉ. वर्मा की यह अटल धारणा एकांकी कला में कोई प्रगति नहीं दे सकती। स्वभावतः उनकी कला एक रूढ़ि है जो एकांकी कला की गत्यात्मकता को सीमा और कठोर नियमों में बाँध देती है।

    इसके विपरीत सेठ गोविंदस ने संकलन-त्रय में से केवल संकलन-द्वय—(1) एक ही काल की घटना (2) एक ही कृत्य—को ही एकांकी की शिल्प विधि में आवश्यक माना है। इसमें उन्होंने देश-संकलन को बिल्कुल स्थान नहीं दिया है। आगे चलकर उन्होंने एकांकी-शिल्प में से काल-संकलन को भी अलग कर दिया है, तथा इसकी पूर्ति के लिए एकांकी रचना-विधान में 'उपक्रम' और 'उपसंहार' की प्रतिष्ठा की है। निस्संदेह इस नव विधान से एकांकी कला के स्वरूप को व्यापकता और गत्यात्मकता मिली है, पर इससे एकांकी की अपनी निश्चित कला में जो उसकी अपनी मर्यादा है, निर्बलता आती है।

    दूसरी दिशा में एकांकी-कला के स्वरूप को आश्चर्यजनक शक्ति और व्यापकता मिली है, जिसपर मौलिकता और अभिनय तत्त्व की सफल छाप है। यह कला हमारे जीवन को इतने समीप से, इतनी सच्चाई और सांकेतिक संपूर्णता से बाँधकर चलती है कि जीवन अपने शतदलों सहित जैसे खिल उठता है। इस विधान के स्वरूप में एकांकी का एकांत प्रभाव और वस्तु का ऐक्य ही अनिवार्य है, शेष देशकाल की एकता या विभिन्नता या तो एकांकी की संवेदना पर निर्भर करना है, अथवा एकांकीकार की प्रतिभा पर। सफल शिल्प-विधि की दृष्टि से परम शिल्पी एकांकीकार वही है जो जीवन के एक पक्ष, एक घटना, एक परिस्थिति को उनकी ही स्वाभाविकता से अपनी कला में बाँध ले, सँवार ले जैसा कि जीवन में नित्यप्रति संभाव्य है। इसके लिए संकलन-त्रय संकलन-द्वय की सीमा और मर्यादा का कोई बंधन नहीं है। सबकी अपेक्षा है, और अमान्य स्थितियों में सब अग्राह्य भी हैं—केवल परम आवश्यक है एकांकी में एकाग्रता और एकांत प्रभाव| इसकी प्राप्ति के लिए एकांकीकार जो भी तंत्र उसमें प्रस्तुत करता है, वस्तुत वही एकांकी की शिल्प-विधि है, और वही एकांकीकार की अपनी मौलिकता की छाप है।

    इस सूत्र के विकास-क्रम में हिंदी एकांकी-साहित्य का दूसरा चरण नई पीढ़ी के एकांकीकारों का आरंभ होता है। इम चरण में कुछ नाम प्रथम चरण के भी आते हैं, उपेंद्रनाथ 'अश्क' और जगदीशचंद्र माथुर। इस चरण में जितने नए नाम हिंदी एकांकी के साहित्य को मिले हैं, उनसे जो स्वरूप हिंदी एकांकी कला को मिलने जा रहा है, वह अभी परीक्षा और प्रतीक्षा का विषय है और जितनी उपलब्धि और उससे जितना स्वरूप हिंदी एकांकी को अब तक मिल चुका है, वह निश्चय ही देखा जा सकता है।

    इस नई पीढ़ी को जो चेतना, और मनोभाव मिले हैं, उनसे विकासक्रम में, द्वितीय महायुद्ध, उससे प्राप्त जीवन की चातुर्दिक प्रतिक्रियाएँ और प्रभाव, स्वतंत्र क्रांति, स्वतत्रंता-प्राति के चरण हैं। और उसके उपरांत की वे सभी स्थितियों भी अमिट हैं जिनका मानव-मूल्यों, जीवन-स्वर, राष्ट्रीय, अंतर्राष्ट्रीय नवचेतना पर पूर्ण प्रभाव पड़ा है।

    जनता की चेतना तथा जीवनगत मूल्यों पर राजनीति-अर्थनीति का आश्चर्यजनक प्रभाव पड़ा है। उसके सारे नैतिक, सामाजिक दृष्टिकोणों में ध्वस और विघटन प्रस्तुत हुआ है। उसकी रुचि तथा रंजन-वृत्ति पर देश-विदेश के चित्रपट, रेडियो का अतर्क्य प्रभाव पड़ा है।

    नई पीढ़ी का एकांकीकार प्राय सभी पूर्व-पश्चिम के देशों के नाटक—एकांकी साहित्य—के सीधे संपर्क में आया है। उसने चेखव, टाल्सटाय, सार्त्र, 'ओनील', 'स्ट्रिंडवर्ग', 'सरोयान', 'आर्थर मिलर', 'नोप्नेज ऑफ़ जापान', 'जे, एम. वेटो' 'जे एम. सिंज', तथा 'टेनसी विलियम' जैसे समय और शक्तिशाली नाटककारों को पढ़ा है। उसे एक नया आयाम मिला नाटक-शिल्प का, संभावना और क्षेत्र का, उपलब्धि और विकास का।

    इस प्रेरणा और प्रगति में जो उपलब्धि अपनी मौलिकता और निजत्व के आग्रह और अनुभूति से इस चरण ने हिंदी एकांकी-साहित्य को दी है, उसके उदाहरण में ये नाम और उनकी रचनाओं की कुछ बानगी इस प्रकार है- उपेंद्रनाथ 'अश्क’—'पर्दा उठाओ पर्दा गिराओ', 'चिलमन', 'भँवर'। जगदीशचंद्र माथुर—'कबूतर खाना', 'ओ मेरे सपने' और 'घोंसले’। धर्मवीर भारती—'नदी प्यासी थी', ‘सृष्टि का आख़िरी आदमी', 'नीली झील'। विष्णु प्रभाकर—'मीना कहाँ है', भारतभूषण अग्रवाल—'महाभारत की साँझ', 'और खाई बढ़ती गई।' सिद्धनाथ कुमार—'सृष्टि की साँझ', 'बादलों का शाप', लक्ष्मीनाराण लाल—'शरणागत', 'मैं पाना है', 'सुबह से पहले।'

    इसके अतिरिक्त नए नाम, स्वर ये भी हैं—हरिश्चंद्र सन्ना, कर्तारसिंह दुग्गल, मोहन राकेश, और अनंत कुमार पाषाण।

    इस चरण में हिंदी एकांकी को अब तक जो स्वरूप मिला है, उसमें कला और टेकनीक के स्तर पर आश्चर्यजनक सफल प्रयोगशीलता, विभिन्नता और उत्तरोत्तर अपनी कला को गतिशीलता देने का आग्रह सर्वत्र व्याप्त है। अभिनय और रंगमंच की चेतना इतनी तीव्रतर हो गई है कि एकांकी रचना और विधान का स्वरूप प्रथम चरण की अपेक्षा बहुत भिन्न लगने लगा है। निर्देश, कथोपकथन की सूक्ष्मता, प्रवेश-प्रस्थान पर अत्यधिक बल, नाटकीय परिस्थितियों का सूक्ष्म चयन और उनका पूर्ण वैज्ञानिक ढंग से निर्वाह—इस चरण के एकांकियों के स्वरूप की पहचान है।

    ध्वनि-एकांकी अथवा रेडियो-एकांकी इस चरण के एकांकी-स्वरूप की दूसरी बड़ी पहचान है। और इस माध्यम की कलागत स्वीकृति इसकी व्यापकता का एक उदाहरण भी है।

    भाव-पक्ष अथवा विषय-क्षेत्र में भी जो उपलब्धि, फलस्वरूप जो स्वरूप हिंदी एकांकी को मिला है वह कलागत-शिल्पगत उपलब्धि से कहीं अधिक महत्वपूर्ण और शुभ है। आज के व्यक्ति, समूचे मानव स्वभाव और कर्म-प्रेरणाओं के सूक्ष्म संकेत और उद्भावना से लेकर समस्त सामाजिक वैषम्य, संघर्ष और विघटन-परिवर्तन और नए मानव-मूल्यों तक एकांकीकार की संवेदना सफलता से पहुँच जाने में सफल है।

    हिंदी एकांकी का इतिहास अभी मुश्किल से तीन दशकों का है। इतनी कम अवधि में इस अभिनव माध्यम ने इतना शक्तिशाली स्वरूप पा लिया है—यह सत्य इसे एक निश्चित व्यक्तित्व देता है। और हमारे सामने अपने स्वरूप के ऐसे मंगलमय भविष्य की आशा बाँधता है कि जिसके आधार से हम एक दिन अपने भारतीय रंगमंच को एक उज्ज्वल दिशा दे सकेंगे।

    अभी तो, इसके स्वरूप में अपनी ऐसी मौलिकता और गहनता है कि जिसके सामने बंगला, मराठी, गुजराती आदि एकांकी साहित्य बिल्कुल और स्तर के लगने लगे हैं। हम बड़ी सफलता से अपने एकांकी-साहित्य को भारतीय एकांकी-साहित्य का प्रतिनिधि-स्वरूप कह सकते हैं, इसमें कोई संशय अथवा मोह नहीं, यह वस्तु-सत्य है और यह सत्य हिंदी एकांकी-साहित्य के अभिनव स्वरूप की प्रेरणा और उपलब्धि के आधार को लिए हुए है।

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