पेपरवेट

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गिरिराज किशोर

और अधिकगिरिराज किशोर

    भेड़ों के रेवड़ के पीछे गड़रिये को लाठी लिए चलते देखकर मृणाल बाबू को हँसी रही थी। गड़रिया उनको इकट्ठा करने के लिए मुँह से अजीब-अजीब बोलियाँ निकाल रहा था। कभी अपनी लाठी को ज़मीन पर दे मारता था, भेड़ें बेचारी डर के मारे एक-दूसरे से सट जाती थीं।

    जमादार (चपरासी) ने आकर बताया, 'हुज़ूर, साहब दफ़्तर गए हैं।' हालाँकि वे शिवनाथ बाबू से ही मिलने आए थे, लेकिन इस सूचना ने उन्हें क्षण-भर के लिए अव्यवस्थित कर दिया। तुरंत ही ध्यान गया, 'जमादार' उनके चेहरे के बदलते रंगों को बराबर देख रहा है। वे शिवनाथ बाबू के कमरे की तरफ़ तेज़ी से बढ़ गए। कमरे के बाहर 'लुकिंग-ग्लास' लगा हुआ था। एक नज़र उधर डालने पर उन्हें मालूम हुआ, कि वे ख़ामख़ाह परेशान थे कि उनके चेहरे पर घबराहट है। धीरे से पर्दा हटाकर पायदान पर पाँव रगड़े, और खखारते हुए-से अंदर चले गए।

    शिवनाथ बाबू फ़ाइलें देखने में व्यस्त थे। उनके काम में व्यवधान डालने के ख़याल से हाथ जोड़कर चुपचाप कुर्सी पर बैठ गए। बैठने के दो-चार क्षण बाद ही उन्हें ख़याल हुआ, आराम से बैठकर उठंगे बैठे हैं। इस तरह का बैठना घबराहट का द्योतक है। मृणाल बाबू ने पीठ कुर्सी के तकिये से लगा ली और पाँव फैला दिए। उनके पाँव ऑफ़िस-टेबल के नीचे रखे लकड़ी के खोखले पायदान से टकराए। चेहरा एकदम उतर गया और नज़रें शिवनाथ बाबू के चेहरे की ओर चली गर्इं। शिवनाथ बाबू पर पायदान से पाँव टकराने की उस आवाज़ का कोई असर नहीं हुआ था। वे बदस्तूर अपनी फ़ाइलें देख रहे थे। मृणाल बाबू उनकी कार्य-कुशलता को ग़ौर से देखने का अभिनय करने लगे, जैसे कुछ सीखने का प्रयत्न कर रहे हों।

    शिवनाथ बाबू फ़ाइल उठाते, लाल फीता खोलते, फिर 'फ़्लैग' लगे स्थान पर से उलटकर पढ़ने लगते थे। बीच-बीच में पीछे के पृष्ठ भी उलटने की आवश्यकता पड़ जाती थी। पढ़ते समय उनके होंठ भी व्यस्त नज़र आते थे। फिर या तो उस पर कोई नोट लिखकर या प्रश्नचिह्न बनाकर फ़ाइल नीचे डाल देते थे। बहुत ही कम ऐसी फ़ाइलें थीं जिन पर उन्होंने उसी रूप में हस्ताक्षर किए हों। इस क्रिया को देखते रहने के कारण मृणाल बाबू को ऊब आने लगी। अतः इधर-उधर ताक-झाँक करने लगे। चारों तरफ़ से बंद कमरा, जलता हुआ लैंप और लैंप के प्रकाश का फ़ाइलों पर पड़ता घेरा... किसी दार्शनिक के अंतस्तल-सा महसूस हुआ। बाक़ी कमरे में उस प्रकाश का आभास-मात्र था। बैठे-बैठे मृणाल बाबू को एक पुठ में दुखन महसूस होने लगी है, दूसरी पुठ बदल ली।

    शिवनाथ बाबू ने फ़ाइलों पर से जब गर्दन उठाई तो मृणाल बाबू सकपका-से गए। शायद उनका ख़याल था शिवनाथ बाबू गर्दन उठाने से पूर्व कोई तो आभास देंगे। ज़बरदस्ती उन्हें अपने होंठों पर मुस्कान लानी पड़ी, उनके सूखे होंठ बोसीदा रबड़ की तरह खिंच गए। शिवनाथ बाबू ने मूँछों की सघनता में छिपी स्वाभाविक मुस्कान के साथ पूछा, 'कहिए, विभाग का काम ठीक चल रहा है?'

    मृणाल बाबू वही सब बताने के लिए आए थे। दरअसल शिवनाथ बाबू के विदेश से लौटने के बाद से उन्होंने कई बार उनसे मिलने का प्रयत्न किया था, लेकिन अत्यधिक व्यस्तता के कारण समय नहीं दे पाए थे। विदेश जाते समय शिवनाथ बाबू उन्हें मंत्री पद की शपथ दिलवाकर गए थे। उस समय उनसे यह भी कहा था, 'मैं चाहता हूँ आप अपनी उसी तेज़ी और अक़्लमन्दी का यहाँ भी परिचय दें, आपकी अतिरिक्त तत्परता के कारण ही तो शांतिशरण को त्यागपत्र देना पड़ा था। मैं समझता हूँ...आप उन सब परिस्थितियों को भली प्रकार समझ सकेंगे।' फिर धीरे से मुस्कुराकर पुन: कहा, 'मैं इस बारे में सचेत हूँ...आप जैसे मेहनती और ईमानदार व्यक्ति कम ही हैं...' वे हवाई जहाज़ में बैठ गए थे। लगभग सभी लोग हवाई जहाज़ के उड़ने तक खड़े देखते रहे थे। शिवनाथ बाबू के चले जाने के कई दिन बाद तक उन्हें लगता रहा, पिता जैसे बच्चे को स्कूल में भरती कराकर चला गया है।

    मृणाल बाबू ने उनकी उस बात की गिरह बाँध ली और इस बात की पूरी कोशिश की थी कि शिवनाथ बाबू के लौटकर आने तक विभाग को पूरी तरह बदल डालें। हर फ़ाइल को वह स्वयं देखते थे। कोई भी फ़ाइल पंद्रह दिन से अधिक रुके, इस बात के लिए विभाग को सख़्त आदेश थे।

    शिवनाथ बाबू के विदेश से लौटने के बाद उन्होंने इस बात को महसूस किया, कैबिनेट की मीटिंग में उन्होंने सब मंत्रियों के काम की किसी-न-किसी रूप में सराहना की है। मृणाल बाबू के विभाग के बारे में उन्होंने एक शब्द नहीं कहा था। विभाग के काम में भी एक अजीब तरह का परिवर्तन रहा था। जो भी फ़ाइल विभाग से माँगी जाती थी, पता चलता था मुख्यमंत्री के पास है। सचिव को पूछते थे, वह भी मुख्यमंत्री के यहाँ गया हुआ होता था। मृणाल बाबू के मन में यह निश्चय हो गया था, सचिव की बदमाशी है। मुख्यमंत्री को बात करनी होगी, तो विभाग के मंत्री को बुलाकर बात करेंगे। वे यह भी सुन चुके थे कि वह व्यक्ति मुख्यमंत्री के मुँह लगा है।

    शिवनाथ बाबू ने गर्दन उठाकर कॉल-बेल बजाते हुए उनकी ओर मुख़ातिब होकर कहा 'आपने कुछ बताया नहीं... क्या बात थी?' घंटी सुनकर वही जमादार गया। उसने एक नज़र मृणाल पर भी डाली। शिवनाथ बाबू ने मृणाल बाबू की ओर इशारा करते हुए जमादार से कहा, 'ज़रा आपके सचिव... मिस्टर राय से टेलीफ़ोन मिलाओ... हम बात करेंगे।'

    उनके बैठे हुए, विभाग के सचिव को बुलाया जाना उन्हें अच्छा नहीं लगा। लेकिन चुप रहे। शिवनाथ बाबू ने अपनी तरफ़ आँखों का इशारा करके 'हूँ' करने पर मृणाल बाबू ने पूछा, 'मिस्टर राय से... कोई विभाग का काम है?' शिवनाथ बाबू कुछ इस तरह अपनी फ़ाइलें देखते रहे, जैसे उन्होंने सुना ही हो। क्षण-भर के लिए मृणाल बाबू का चेहरा खिसियाना-सा हो गया। कुछ देर के बाद फिर हिम्मत करके बोले, 'इधर मैंने अपने विभाग में... यानी विभाग को काफ़ी समझने की कोशिश की है... कई स्कीमें मेरे दिमाग़ में हैं...'

    उनका वाक्य समाप्त होने के बाद शिवनाथ बाबू ने बड़ी-सी 'हूँ' की। मृणाल बाबू समझ नहीं पाए यह 'हूँ' उनकी बात पर की गई है या फ़ाइल देखकर मुँह से निकल गई। फ़ाइल बाँधते हुए वे मुस्कुराए और बोले, 'अच्छा।'

    'अच्छा' सुनकर मृणाल बाबू ज़रा उत्साहित हो गए, कहने लगे, 'मिस्टर राय बिल्कुल सहयोग नहीं दे रहे। कोई भी फ़ाइल मेरे सामने नहीं आती। माँगने पर यही उत्तर मिलता है, मुख्यमंत्री के यहाँ गई हुई है। भला आप फ़ाइलें मँगाकर क्या करेंगे? आख़िर आपने ही तो मुझे मंत्री बनाया है... आपका विश्वासपात्र हूँ। लेकिन मिस्टर राय... आप तो जानते ही हैं, बड़े चलते हुए व्यक्ति... फिर रुककर सकुचाते हुए कहा, 'मिस्टर राय समझते हैं, मुझे यह सब आपसे कहते डर लगेगा... नया-नया आदमी हूँ...'

    शिवनाथ बाबू को पुनः फ़ाइलों में व्यस्त देखकर मृणाल बाबू को अपने प्रति ज़ियादती-सी होती महसूस हुई। जब जमादार ने आकर बताया कि राय साहब कोठी पर नहीं हैं। मंदिर गए हैं, शिवनाथ बाबू बिना कुछ कहे कुर्सी पर से उठ खड़े हुए। मृणाल बाबू की ओर हाथ जोड़कर बोले, 'अच्छा'...।'

    मृणाल बाबू को लगा कि उन्हें कोठी से धक्के देकर निकलवा दिया गया है। तेज़ी के साथ कमरे से बाहर निकल आए। बाहर निकलते ही उनकी नज़र जमादार पर गई। वह बड़े हाव-भाव के साथ उनके ड्राइवर को कुछ बता रहा था। उसके चेहरे पर कुछ इस प्रकार की हँसी थी, जैसे किसी की नक़ल उतारकर मज़ा ले रहा हो। उसका इस तरह करना मृणाल बाबू को अच्छा नहीं लगा। कार में बैठने पर ड्राइवर से पूछा, 'जमादार क्या कह रहा था?'

    ड्राइवर इस प्रश्न के लिए तैयार नहीं था। वह घबरा-सा गया और उसके मुँह से निकला, 'जी, कुछ नहीं।'

    'कुछ कैसे नहीं...' मृणाल बाबू ने ज़रा सख़्त आवाज़ से उसी का वाक्य दोहराया।

    ड्राइवर ने यह कहकर जान बचानी चाही, 'कुछ आपस की ही बातें थीं।' मृणाल बाबू को इस सबसे संतोष नहीं हुआ ज़रा खुलकर पूछा, 'हमारे बारे में कुछ कह रहा था?'

    ड्राइवर ने उनकी तरफ़ देखने के लिए ज़रा-सी गर्दन घुमाई, वे पिछली सीट पर बाएँ कोने में थे। सामने ऊपर का शीशा भी दूसरे कोण पर था। ड्राइवर को सामने की तरफ़ ही देखते हुए कहना पड़ा, 'हुज़ूर, और तो कुछ नहीं... बस यही पूछ रहा था, मुख्यमंत्री जी तुम्हारे साहब से क्यों नाराज़ हैं... अभी-अभी तो तुम्हारे साहब मंत्री बने हैं।'

    मृणाल बाबू को बड़े ज़ोर से ग़ुस्सा आया। उन्होंने कहना चाहा, शिवनाथ बाबू, मुझसे क्या नाराज़ होगा... मैं ही उससे नाराज़ हूँ...' उन्होने कहा नहीं। केवल आँखें बंद करके पीछे की ओर लुढ़क गए। आँखें बंद कर लेने पर भी उनके मन का आक्रोश कम नहीं हुआ, नाक के नथुने फूल गए और यह सोचने का प्रयत्न करने लगे, घर जाकर त्यागपत्र दे देंगे। मंत्री बनने से पूर्व शिवनाथ बाबू का जो उनके साथ व्यवहार था, अब एकदम उससे भिन्न है। उन्हें एकाएक आभास हुआ, वे आप-ही-आप कुछ बोल रहे हैं। सीधे बैठ गए और ड्राइवर की तरफ़ देखने लगे, उसने देख तो नहीं लिया। लेकिन जब उनकी नज़र सामने वाले शीशे पर पड़ी, तो शीशे का कोण बदला हुआ था। सब स्थितियों उन्हें ऐसी लगी, जैसे बंदी बना दिए गए हों।

    आज की परिस्थिति पहले से एकदम भिन्न हो गई थी। जब शिवनाथ बाबू उन्हें मंत्री-पद के लिए आमंत्रित करने गए थे, तो कितने मधुर, स्नेहशील नज़र रहे थे। मृणाल बाबू को उनका वह डायलाग शब्दशः याद हो आया, उस समय उनसे कहा गया था, 'मैं जानता हूँ आप स्पष्टवादी और ईमानदार हैं। 'पार्टी-सचेतक के होते हुए भी आपने मेरी सरकार का विरोध किया। शांतिशरण को आपके ही कारण त्यागपत्र देना पड़ गया..' यह कहते हुए वह साधारण-सा हँस दिए थे। फिर गंभीर होकर कहा था, 'यदि मैं चाहता तो आपको पार्टी और सदन से निष्कासित करा सकता था। लेकिन मैं जानता हूँ, अपने विधायकों में आप जैसी सूझ-बूझ वाला व्यक्ति कोई भी नहीं...' शपथ वाले दिन भी राज्यपाल से परिचय कराते समय उन्होंने उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की थी। शपथ वाले दिन राजभवन तक ले जाने के लिए मय-पायलेट के अपनी गाड़ी भेजी थी। मृणाल बाबू सोचने लगे, उस समय उनके चेहरे पर बालक जैसी सरलता और निस्पृहता थी, लेकिन आज का चेहरा...

    ड्राइवर ने इतनी ज़ोर से ब्रेक लगाया कि मृणाल बाबू को लगा, एक्सीडेंट हो गया है। कोई बकरी का बच्चा कार के नीचे से बच गया था। मृणाल बाबू को बकरी के बच्चे पर बड़ी दया आई।

    उनकी कार पोर्टिको में जाकर रुकी, बरांडे में बहुत-से लोग जमा थे। उनका मन हुआ, कार से उतरकर वापस लौट चला जाए। वे लोग पहले रोज़ भी मिल चुके थे। मृणाल बाबू ने उन्हें अगले दिन उत्तर देने का आश्वासन दिया था। उनका ख़याल था कि वे सरकार को उन लोगों की शर्त मानने के लिए रज़ामंद कर लेंगे। एक औद्योगिक बस्ती का मसला था। सरकार जिन झोपड़ियों को लेना चाहती थी, उनमें रहनेवाले मुआवज़े में फैक़्टरी की पक्की नौकरी और रहने के लिए औद्योगिक बस्ती में कम किराये पर घर माँगते थे। सरकार को इस बात पर आपत्ति थी। मात्र मुआवज़ा देकर पीछा छुड़ा लेना चाहती थी। यही मसला शांतिशरण के ज़माने में उठा था, आज भी उसी रूप में मौजूद था। इसी मामले पर बातचीत करने के लिए वे मुख्यमंत्री के पास गए भी थे। प्रतिनिधि-मंडल के चले जाने पर भी उन्होंने सचिव को फ़ोन किया था कि उस मामले की फ़ाइल लेकर चले आए। सचिव ने यह कहकर पीछा छुड़ा लिया था, फ़ाइल मुख्यमंत्री के पास है। मृणाल बाबू को उत्तर सुनकर इतने ज़ोर का ग़ुस्सा गया था कि सचिव को फ़ोन पर ही डाँटने लगे थे। कोई भी फ़ाइल बिना उनकी मर्ज़ी के मुख्यमंत्री के पास भेजी जाए। उनकी इस बात का कोई भी उत्तर देना सचिव ने उचित नहीं समझा था।

    लेकिन मुख्यमंत्री के व्यवहार से मृणाल बाबू काफ़ी त्रसित थे। औद्योगिक बस्ती के बारे में बात कर पाने से अपने आपको एक बड़ी अजीब स्थिति में फँसा महसूस कर रहे थे। उन्होंने यही निश्चय किया कि उन लोगों को मुख्यमंत्री के पास भेज देना उचित होगा। बिना शिवनाथ बाबू से सलाह किए किसी बात का आश्वासन देने का अर्थ यही था कि वे अपने को भी शांतिशरण वाली उलझन (कन्ट्रॉवर्सी) में डाल लें।

    मृणाल बाबू ने जब उन लोगों को मुख्यमंत्री से मिलने का सुझाव दिया तो उनमें से एक विरोधी पार्टी के विधायक और डेपुटेशन के नेता बिगड़ उठे, आप भी शांतिशरण जैसी ही बातें कर रहे हैं। आख़िर विभाग आपके पास है या मुख्यमंत्री के! मुख्यमंत्री कहते हैं, आप लोग शांतिशरण को तो बेईमान और कम-अक़्ल समझते थे। अब तो मैंने विधानसभा के सबसे ईमानदार और आप लोगों के विश्वासपात्र को उसी विभाग का मंत्री बना दिया। अब भी आप मेरे पास ही दौड़ते हैं।...' मृणाल बाबू ख़ामोश-से खड़े रह गए। उनको लगा दरवाज़ा खोलते हुए किवाड़ की चूल निकल गई है। मन हुआ, साफ़ कह दें, मैं तो नाम का मिनिस्टर हूँ... लेकिन सबके सामने अपने मुँह से यह स्वीकार करना उन्हें अपमानजनक-सा लगा। अतः यही उत्तर देना उचित समझा, 'अच्छा, आप निश्चिन्त रहें... अगर मैं कुछ भी कर सकूँगा तो ज़रूर करूँगा...' नमस्कार करके अंदर चले गए।

    मृणाल बाबू को ऐसा अनुभव हो रहा था कि उन्हें किसी ख़ासतौर से तैयार की गई स्थिति में फिट कर दिया गया है। एक बार फिर त्यागपत्र देने की बात दिमाग़ में आई। लेकिन...' यह लेकिन उन्हें पहाड़ की ऊँचाई जैसा लगा। वह उस संपूर्ण स्थिति की कल्पना कर गए जो त्यागपत्र देने से उत्पन्न हो सकती है। अगर शिवनाथ बाबू ने उनके लिए किसी भी स्थिति-विशेष का निर्माण किया है तो भी त्यागपत्र देना उन्हीं के पक्ष में होगा। लोग कहेंगे विधान-भवन में तो बड़ा शोर मचाता था...काम करने का वक़्त आया तो दुम कटाकर लॉडा शेर बन गया। इस बात का प्रचार इस रूप में भी किया जा सकता है...'त्यागपत्र माँगा गया है।'

    उन्होंने मेज़ पर रखे पेपरवेट को उठा लिया और ज़ोर से घुमाने लगे। अपनी उँगलियों के ज़रा-से 'ट्विस्ट' पर पेपरवेट का घूमते रहना देखकर वे समझ नहीं पाए कि इस क्रिया को क्या संज्ञा दी जाए।

    टेलीफ़ोन-एक्सटेंशन मधुमक्खी की तरह भिनभिनाने लगा। उन्हें अपने पी.ए. पर गुस्सा आया, क्यों नहीं उसने मना कर दिया। मुझे सूचित करने की क्या ज़रूरत थी? जब देखिए 'बजर' दबा देता है। लोग समझते है 'मिनिस्टर हूँ... मेरी सिफ़ारिश से जाने क्या से क्या हो सकता है।' उनका मन हुआ वे रिसीवर को उठाकर बिना सुने ही रख दें। लेकिन चपरासी ने आकर बताया, 'सरकार, पी.ए. साहब ने कहलवाया है, मुख्यमंत्री जी बात करना चाहते है...' रिसीवर उठाना मृणाल बाबू को मनों वज़नी वस्तु उठाने के समान लगा। उधर से शिवनाथ बाबू स्वयं बोल रहे थे। उन्होंने दो ही वाक्य कहे, 'ज़रा चले आइए, ज़रूरी बातें करनी हैं...' रिसीवर रख दिया। स्वर अपेक्षाकृत नरम था।

    मृणाल बाबू ने आक्रोश के साथ दोहराया, 'ज़रूरी काम है...'

    कमरे से बाहर आए। सामने पी.ए. वाले कमरे में ड्राइवर, चपरासी, शैडो (सुरक्षा-अधिकारी) सब जमा थे, क़हक़हे लगा-लगाकर बातें कर रहे थे। मृणाल बाबु ग़ुस्से से काँप उठे, सीधे पी.ए. के कमरे में पहुँचकर पी.ए. पर बिगड़ने लगे, 'आपको शर्म नहीं आती−इन लोगों के साथ बैठकर हँसी-ठट्ठा करते हैं। अपनी पोज़ीशन का ख़याल रखना चाहिए।' पी.ए. साहब पर डाँट पड़ती देख सब लोग दूसरे दरवाज़े से निकलकर अपनी-अपनी जगह पर पहुँच मुस्तैदी से खड़े हो गए। ड्राइवर कार पोंछने लगा, शैडो बेंच पर जा बैठा, चपरासी अंदर चला गया।

    कार चलाते हुए ड्राइवर को बराबर लग रहा था कि अब मृणाल बाबू की डाँट पड़ी। ड्राइवर के बराबर में बैठा शैडो भी थोड़ा आतंकित था। लेकिन मृणाल बाबू का मन शिवनाथ बाबू के कुछ देर पहले वाले व्यवहार को लेकर अत्यधिक त्रसित था। वे सोच रहे थे, अगर शिवनाथ बाबू इस ममय ठीक मूड में होगे तो ज़रूर इस बात को कहेंगे।

    मुख्यमंत्री की कोठी पर पहुँचकर वे बरांडे में ही ठिठक गए। पी.ए. तुरंत दौड़ा हुआ आया और बड़े सम्मान के साथ ड्राइंगरूम में ले गया। क्षण-भर को मृणाल बाबू ने इस आवभगत का और सुबह आधा घंटे तक लॉन में टहलने वाली स्थिति के साथ मिलान किया। लेकिन सामने ही दीवान पर शिवनाथ बाबू बाईं कोहनी गाव-तकिये से टिकाए तिरछे बैठे हुए थे। बायाँ घुटना पट लेटा हुआ था और दाहिना घुटना नब्बे डिग्री कोण पर खड़ा था। उन्होंने विस्तृत-सी मुस्कान के साथ कहा, 'आइए।' दाएँ हाथ से सोफ़े की तरफ़ इशारा कर दिया। मृणाल बाबू चुपचाप बैठ गए।

    'आपने अभी भोजन तो नहीं किया होगा?' शिवनाथ बाबू ने मुस्कुराते हुए स्नेहपूर्वक पूछा।

    'जी नहीं, लौटकर ही करूँगा।'

    'आज मेरे साथ ही भोजन कीजिए... जब से विदेश से लौटा हूँ, पल-भर की फ़ुरसत नहीं मिली। सुबह भी आपसे बात नहीं कर पाया। बाद में मुझे बहुत बुरा लगा। दरअसल एक फ़ाइल देखकर मेरा दिमाग़ इतना ख़राब हो गया कि... आप बुरा मानें। कभी-कभी मानसिक तनाव की स्थिति में बड़ी अजीब-अजीब हरकतें कर बैठता हूँ।' अंतिम वाक्य पर उन्होंने अधिक ज़ोर दिया और मुस्कुराए भी।

    मृणाल बाबू को उस समय उनके साथ भोजन करना उचित नहीं लगा। बहाना बना दिया, 'मैंने कुछ लोगों को घर पर आमंत्रित किया है...।'

    शिवनाथ बाबू ने और भी सरल होकर कहा, 'ठीक है, आपकी दावत हम पर ड्यू रही।' उस समय उनके चेहरे पर ठीक वैसा ही भाव गया था जैसा उस समय था, जब वे उन्हें मंत्री-पद के लिए आमंत्रित करने उनके फ़्लैट पर ही गए थे।

    'हाँ, शायद आप राय के बारे में कुछ कह रहे थे सुबह। मैं उसे ख़ूब जानता हूँ...' शिवनाथ बाबू बड़ी ज़ोर से हँस दिए।

    'आपने एक कहानी सुनी है—एक चालाक भेड़िया नदी के किनारे बैठा अपनी डींग मार रहा था—'मैंने ख़रबूज़े का पूरा खेत खा डाला। मगरमच्छ को यह बात निहायत बेईमानी की लगी। जब भेड़िया पानी पीने के लिए झुका तो मगरमच्छ ने चट भेड़िये का मुँह पकड़ लिया और बोला, 'निकाल ख़रबूज़े का खेत, अकेला खा गया?'

    भेड़िया ज़ोर से हँस दिया और बोला, निकल बे ख़रबूज़े के खेत! पीछे के रास्ते से। मगरमच्छ पीछे की तरफ़ लपका तो भेड़िया ग़ायब था।'

    शिवनाथ बाबू द्वारा सुनाई गई इस कहानी पर मृणाल बाबू को हँसी गई। लेकिन शिवनाथ बाबू गंभीर होकर बोले, 'आप नए-नए आदमी हैं, धीरे-धीरे समझने की कोशिश कीजिए... आप इन अफ़सरों के रास्ते नहीं जानते...'

    अपने लिए नए-नए विशेषण का प्रयोग उन्हें पसंद नहीं आया। दबी आवाज़ में बोले, 'बाबूजी, आख़िर मेरा नयापन कब तक बना रहेगा। आपके अफ़सर भी मुझे नौसिखिया ही समझते है।' कहकर मृणाल बाबू को लगा उन्होंने अपनी बिसात से ज़ियादा बात कह दो है। अतः मुस्कुराकर बात को हल्का करने का प्रयत्न किया।

    शिवनाथ बाबू के चेहरे पर सुबह वाली कठोरता फिर उद्भासित हो गई।

    'मृणाल बाबू, आपको मैं राजनीतिज्ञ मान बैठा था। लेकिन आप तो भावुक बालक निकले, मिठाई पाकर हँस देते हैं, ज़रा-सी चाट खाकर रोने लगते हैं। राजनीतिज्ञ लोहे के समानधर्मा होते हैं। 'लोहा जब तक ठंडा रहता है चोट करने की स्थिति में रहता है...।'

    शिवनाथ बाबू कुछ और भी कहते, परंतु मिस्टर राय के एकाएक अंदर चले आने के कारण ख़ामोश हो गए। मृणाल बाबू को अपने-आपको उस तनाव की स्थिति से वापस लाने में कुछ समय लगा लेकिन वे सोचने लगे, 'मंत्री होकर भी शिवनाथ बाबू से मिलने के लिए मुझे आज्ञा लेनी पड़ती है। मिस्टर राय सचिव होकर भी, अपने मंत्री के बैठे हुए, बे-हिचक चले आते हैं...।'

    शिवनाथ बाबू मिस्टर राय को डाँटते हुए बोले, 'मिस्टर राय, मैं आदेशों के पालन को अधिक महत्त्व देता। मेरे द्वारा नियुक्त किया गया सभा-सचिव भी मुख्यमंत्री है। जनता का प्रत्येक प्रतिनिधि सरकार का अभिन्न अंग है। जो शिकायतें मैंने सुनी हैं, भविष्य में उनको दोहराया जाना मुझे पसंद नहीं होगा। शासन के मामले में भी किसी तरह का हस्तक्षेप मेरे लिए असहनीय।

    अंतिम वाक्य कहते समय मुख्यमंत्री ने मृणाल बाबू की ओर देख लिया था। कुछ रुककर पुनः कहा, 'जनता के अधिकारों का दायित्व मुख्यमंत्री पर है—वह अपने अधिकारों को ही, मंत्रियों, सचिवों यानी पूरी सरकार से अंगों में आवश्यकतानुसार बाँटता है। लेकिन किसी की भी ज़रा-सी चूक की जवाबदेही मुख्यमंत्री से होती है...।'

    शिवनाथ बाबू बोलते-बोलते रुक गए। मृणाल बाबू और मिस्टर राय पर बारी-बारी से नज़र डाली। दोनों नज़रों में अंतर ज़रूर था, परंतु मृणाल बाबू को लगा जैसे मिस्टर राय पर पड़ने वाली डाँट में उनका भी बराबर का हिस्सा है। अंतर उतना ही था कि मिस्टर राय गर्दन झुकाए खड़े थे और मृणाल बाबू उनके बराबर वाले सोफ़े पर बैठे थे।

    शिवनाथ बाबू ने मिस्टर राय से उसी टोन मे पूछा, 'आप फ़ाइल लाए?'

    मिस्टर राय ने अपनी बग़ल से फ़ाइल निकालकर उनकी ओर सादर बढ़ा दी। हाथ में लेते हुए बिना उसकी ओर देखे मुख्यमंत्री ने कहा, 'अब आप जा सकते हैं, लेकिन मेरी बात का ध्यान रखिए।'

    मृणाल बाबू ने देखा, मिस्टर राय ड्राइंगरूम के दरवाज़े से निकलते हुए हल्का-सा मुस्कुराए है। उनके बाहर चले जाने पर शिवनाथ बाबू ने वही फ़ाइल मृणाल बाबू की ओर बढ़ा दी और कहा, 'कल आपको ही विधानसभा में उत्तर देना है।' उनके कथन में आज्ञा का स्वर भी था।

    मृणाल बाबू गर्दन नीची करके फ़ाइल को उलट-पुलटकर देखने लगे। उनको लग रहा था कि शिवनाथ बाबू उनके चेहरे पर होने वाली हर प्रतिक्रिया को नोट कर रहे हैं। लेकिन जब शिवनाथ बाबू बोले, 'वैसे तो घर जाकर भी इस फ़ाइल को देखा जा सकता है। पर आप मेरे सामने ही देख लें। मैं अभी बाहर जा रहा हूँ। कल सुबह सीधा विधानसभा पहुँचूँगा—आप भावुक और आदर्शवादी व्यक्ति हैं। कभी बाद में फ़ाइल देखकर आपको लगे, आपके आदर्श टूट रहे हैं— यह सब मैं पसंद नहीं करूँगा।'

    मृणाल बाबू को लगा कि दूसरे शब्दों में उनसे भी यह कहा जा रहा है—'मैं आदेशों के पालन को अधिक महत्त्व देता हूँ...।'

    शिवनाथ बाबू उठ गए, अंदर जाते हुए पूछा, 'आप समझ गए?'

    मृणाल बाबू को नमस्कार करने का अवसर भी नहीं मिल सका।

    मृणाल बाबू ने कार में बैठते हुए सोचा—''तनाव की स्थिति में शिवनाथ बाबू अजीब-अजीब हरकतें कर बैठते हैं...।'

    घर जाकर जब उन्होंने फ़ाइल खोली, वही औद्योगिक बस्ती वाला मसला था। शब्दों में थोड़े-से परिवर्तन के साथ वही उत्तर लिखा था जो शांतिशरण जी ने विधान-भवन में दिया था।

    मृणाल बाबू को लगा, विधानसभा का प्रत्येक सदस्य वही वाक्य दोहरा रहा है जो उन्होंने शांतिशरण के लिए कहा था, 'हड्डी निचोड़ने वाले कुत्ते हमें नहीं चाहिए।'

    शिवनाथ बाबू मुस्कुराते हुए कह रहे हैं, 'शांतिशरण तो कम-अक़्ल और बेईमान थे—अब तो विधानसभा का सबसे ईमानदार और आपका विश्वासपात्र मिनिस्टर भी वही बात कह रहा है...।'

    स्रोत :
    • पुस्तक : हिन्दी कहानी संग्रह (पृष्ठ 285)
    • संपादक : भीष्म साहनी
    • रचनाकार : गिरिराज किशोर
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी

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