दुखवा मैं कासे कहूँ मोरी सजनी

Dukhva main kase kahun mori sajani

चतुरसेन शास्त्री

चतुरसेन शास्त्री

दुखवा मैं कासे कहूँ मोरी सजनी

चतुरसेन शास्त्री

और अधिकचतुरसेन शास्त्री

    गर्मी के दिन थे। बादशाह ने उसी फाल्गुन में सलीमा से नई शादी की थी। सल्तनत के सब झंझटों से दूर रहकर नई दुलहिन के साथ प्रेम और आनन्द की कलोलें करने, वह सलीमा को लेकर कश्मीर के दौलतख़ाने में चले आए थे।

    रात दूध में नहा रही थी। दूर के पहाड़ों की चोटियाँ बर्फ़ से सफ़ेद होकर चाँदनी में बहार दिखा रही थीं। आरामबाग़ के महलों के नीचे पहाड़ी नदी बल खाकर बह रही थी।

    मोतीमहल के एक कमरे में शमादान जल रहा था, और उसकी खुली खिड़की के पास बैठी सलीमा रात का सौंदर्य निहार रही थी। खुले हुए बाल उसकी फ़िरोज़ी रंग की ओढ़नी पर खेल रहे थे। चिकन के काम से सजी और मोतियों से गुँथी हुई उस फ़िरोज़ी रंग की ओढ़नी पर, कसी हुई कमखाब की कुरती और पन्नों की कमरपेटी पर, अंगूर के बराबर बड़े मोतियों की माला झूम रही थी। सलीमा का रंग भी मोती के समान था। उसकी देह की गठन निराली थी। संगमर्मर के समान पैरों में ज़री के काम के जूते पड़े थे, जिन पर दो हीरे धक्-धक् चमक रहे थे।

    कमरे में एक कीमती ईरानी कालीन का फ़र्श बिछा था, जो पैर लगते ही हाथ भर धँस जाता था। सुगंधित मसालों से बने हुए शमादान जल रहे थे। कमरे में चार पूरे क़द के आईने लगे थे। संगमर्मर के आधारों पर सोने-चाँदी के फूलदानों में ताज़े फूलों के गुलदस्ते रक्खे थे। दीवारों और दरवाज़ों पर चतुराई से गुँथी हुई नागकेसर और चम्पे की मालाएँ झूल रही थीं, जिनकी सुगंध से कमरा महक रहा था। कमरे में अनगिनत बहुमूल्य कारीगरों की देश-विदेश की वस्तुएँ क़रीने से सजी हुई थीं।

    बादशाह दो दिन से शिकार को गए थे। आज इतनी रात हो गई, अभी तक नहीं आए। सलीमा चाँदनी में दूर तक आँखें बिछाए सवारों की गर्द देखती रही। आख़िर उससे रहा गया, वह खिड़की से उठकर, अनमनी-सी होकर मसनद पर बैठी। उम्र और चिंता की गर्मी जब उससे सहन हुई, तब उसने अपनी चिकन की ओढ़नी भी उतार फेंकी और आप ही आप झुँझलाकर बोली—’‘कुछ भी अच्छा नहीं लगता। अब क्या करूँ?’‘ इसके बाद उसने पास रक्खी बीन उठा ली। दो-चार उँगली चलाई, मगर स्वर मिला। उसने भुनभुनाकर कहा—’‘मर्दों की तरह यह भी मेरे वश में नहीं है।’‘ सलीमा ने उकताकर उसे रखकर दस्तक दी। एक बाँदी दस्तबस्ता हाज़िर हुई।

    बाँदी अत्यन्त सुंदरी और कमसिन थी। उसके सौंदर्य में एक गहरे विषाद की रेखा और नेत्रों में नैराश्य-स्याही थी। उसे पास बैठने का हुक्म देकर सलीमा ने कहा—’‘साक़ी, तुझे बीन अच्छी लगती है या बाँसुरी?’‘

    बाँदी ने नम्रता से कहा—’‘हुज़ूर जिसमें ख़ुश हों।’‘

    सलीमा ने कहा—‘‘पर तू किसमें ख़ुश है?’‘

    बाँदी ने कंपित स्वर में कहा—’‘सरकार बाँदियों की ख़ुशी ही क्या?’‘

    क्षण भर सलीमा ने बाँदी के मुँह की तरफ़ देखा—वैसा ही विषाद, निराशा और व्याकुलता का मिश्रण हो रहा था।

    सलीमा ने कहा—’‘मैं क्या तुझे बाँदी की नज़र से देखती हूँ?’‘

    ‘‘नहीं, हज़रत की तो लौंडी पर ख़ास मेहरबानी है।’‘

    ‘‘तब तू इतनी उदास, झिझकी हुई और एकांत में क्यों रहती है? जब से तू नौकर हुई है, ऐसा ही देखती हूँ! अपनी तकलीफ मुझसे तो कह प्यारी साक़ी।’‘

    इतना कहकर सलीमा ने उसके पास खिसक कर उसका हाथ पकड़ लिया।

    बाँदी काँप गई, पर बोली नहीं।

    सलीमा ने कहा—’‘क़समिया! तू अपना दर्द मुझ से कह! तू इतनी उदास क्यों रहती है?’‘

    बाँदी ने कंपित स्वर में कहा—’‘हुज़ूर क्यों इतनी उदास रहती हैं?’‘

    सलीमा ने कहा—’‘इधर जहाँपनाह कुछ कम आने लगे हैं। इससे तबीयत ज़रा उदास रहती है।’‘

    बाँदी—’‘सरकार, प्यारी चीज़ मिलने से इंसान को उदासी ही जाती है, अमीर और ग़रीब, सभी का दिल तो दिल ही है।’‘

    सलीमा हँसी। उसने कहा—’‘समझी, अब तू किसी को चाहती है। मुझे उसका नाम बता, उसके साथ तेरी शादी करा दूँगी।’‘

    साक़ी का सिर घूम गया। एकाएक उसने बेग़म की आँखों से आँख मिलाकर कहा—’‘मैं आपको चाहती हूँ।’‘

    सलीमा हँसते-हँसते लोट गई। उस मदमाती हँसी के वेग में उसने बाँदी का कंपन नहीं देखा। बाँदी ने वंशी लेकर कहा—’‘क्या सुनाऊँ?’‘

    बेग़म ने कहा—’‘ठहर, कमरा बहुत गर्म मालूम देता है। इसके तमाम दरवाज़े और खिड़कियाँ खोल दे। चिराग़ों को बुझा दे, चटख़ती चाँदनी का लुत्फ़ उठाने दे और फूल-मालाएँ मेरे पास रख दे।’‘

    बाँदी उठी। सलीमा बोली—’‘सुन, पहले एक गिलास शरबत दे, बहुत प्यासी हूँ।’‘

    बाँदी ने सोने के गिलास में ख़ुशबूदार शरबत बेग़म के सामने ला धरा। बेग़म ने कहा -’‘उफ़! यह तो बहुत गर्म है। क्या इसमें गुलाब नहीं दिया?’‘

    बाँदी ने नम्रता से कहा—’‘दिया तो है सरकार?’‘

    ‘‘अच्छा, इसमें थोड़ा-सा इस्तम्बोल और मिला।’‘

    साक़ी गिलास लेकर दूसरे कमरे में चली गई। इस्तम्बोल मिलाया और भी एक चीज़ मिलाई। फिर वह सुवासित मदिरा का पात्र बेग़म के सामने ला धरा।

    एक ही साँस में उसे पीकर बेग़म ने कहा—’‘अच्छा, अब सुना। तूने कहा कि मुझे प्यार करती है, सुना कोई प्यार का गाना सुना।’‘

    इतना कह और गिलास को गलीचे पर लुढ़काकर मदमाती मसनद पर ख़ुद लुढ़क गई, और रसभरे नेत्रों से साक़ी की ओर देखने लगी। साक़ी ने वंशी का सुर मिलाकर गाना शुरू किया—

    “दुखवा मैं कासे कहूँ मोरी सजनी...”

    बहुत देर तक साक़ी की वंशी और कंठ-ध्वनि कमरे में घूम-घूमकर रोती रही। धीरे-धीरे साक़ी ख़ुद रोने लगी। सलीमा मदिरा और यौवन के नशे में होकर झूमने लगी।

    गीत खतम करके साक़ी ने देखा, सलीमा बेसुध पड़ी है। शराब की तेज़ी से उसके गाल एकदम सुर्ख़ हो गए हैं और ताम्बूल-राग-रंजित होंठ रह-रहकर फड़क रहे हैं। साँस की सुगंध से कमरा महक रहा है। जैसे मंद पवन से कोमल पत्ती काँपने लगती है, उसी प्रकार सलीमा का वक्षस्थल धीरे-धीरे काँप रहा है। प्रस्वेद की बूँदें ललाट पर दीपक के उज्ज्वल प्रकाश में मोतियों की तरह चमक रही हैं।

    वंशी रखकर साक़ी क्षण भर बेग़म के पास आकर खड़ी हुई। उसका शरीर काँपा, आँखें जलने लगीं, कंठ सूख गया। वह घुटने के बल बैठकर बहुत धीरे-धीरे अपने आँचल से बेग़म के मुख का पसीना पोंछने लगी। इसके बाद उसने झुककर बेग़म का मुँह चूम लिया।

    इसके बाद ज्योंही उसने अचानक आँख उठाकर देखा, ख़ुद दीन-दुनियाँ के मालिक शाहजहाँ खड़े उसकी यह करतूत अचरज और क्रोध से देख रहे हैं।

    साक़ी को साँप डस गया। वह हतबुद्धि की तरह बादशाह का मुँह ताकने लगी। बादशाह ने कहा—’‘तू कौन है, और यह क्या कर रही थी?’‘

    साक़ी चुप खड़ी रही। बादशाह ने कहा- ‘‘जवाब दे!’‘

    साक़ी ने धीमे स्वर में कहा—’‘जहाँपनाह! कनीज़ अगर कुछ जवाब दे तो?’‘

    बादशाह सन्नाटे में गए। बाँदी की इतनी स्पर्धा!

    उन्होंने कहा—’‘मेरी बात का जवाब नहीं? अच्छा, तुझे नंगी करके कोड़े लगाए जाएँगे।’‘

    साक़ी ने कंपित स्वर में कहा—’‘मैं मर्द हूँ!’‘

    बादशाह की आँखों में सरसों फूल उठी, उन्होंने अग्निमय नेत्रों से सलीमा की ओर देखा। वह बेसुध पड़ी सो रही थी। उसी तरह उसका भरा यौवन खुला पड़ा था। उसके मुँह से निकला, ‘‘उफ़ फ़ाहिशा।’‘ और तत्काल उनका हाथ तलवार की मूठ पर गया। फिर नीचे को उन्होंने घूमकर कहा—’‘दोज़ख़ के कुत्ते! तेरी यह मजाल!’‘

    फिर कठोर स्वर से पुकारा—’‘मादूम!’‘

    क्षण भर में एक भयंकर रूप वाली तातारी औरत बादशाह के सामने अदब से खड़ी हुई। बादशाह ने हुक्म दिया—’‘इस मर्दूद को तहख़ाने में डाल दे, ताकि बिना खाए-पिए मर जाए।’‘

    मादूम ने अपने कर्कश हाथों में युवक का हाथ पकड़ा और ले चली। थोड़ी देर में दोनों लोहे के एक मज़बूत दरवाज़े के पास खड़े हुए। तातारी बाँदी ने चाबी निकालकर दरवाज़ा खोला और क़ैदी को भीतर ढकेल दिया। कोठरी की गच क़ैदी का बोझा ऊपर पड़ते ही काँपती हुई नीचे को धसकने लगी।

    प्रभात हुआ। सलीमा की बेहोशी दूर हुई। चौंककर उठ बैठी। बाल सँवारे, ओढ़नी ठीक की और चोली के बटन कसने को आईने के सामने जा खड़ी हुई। खिड़कियाँ बंद थीं। सलीमा ने पुकारा—’‘साक़ी! प्यारी साक़ी! बड़ी गर्मी है, ज़रा खिड़की तो खोल दे। निगोड़ी नींद ने तो आज ग़ज़ब ढा दिया। शराब कुछ तेज़ थी।’‘

    किसी ने सलीमा की बात सुनी। सलीमा ने ज़रा ज़ोर से पुकारा—’‘साक़ी!’‘

    जवाब पाकर सलीमा हैरान हुई। वह ख़ुद खिड़कियाँ खोलने लगी, मगर खिड़कियाँ बाहर से बंद थीं। सलीमा ने विस्मय से मन ही मन कहा—’‘क्या बात है? लौंडियाँ सब क्या हुईं?’‘

    वह द्वार की तरफ़ चली। देखा, एक तातारी बाँदी नंगी तलवार लिए पहरे पर मुस्तैद खड़ी है। बेग़म को देखते ही उसने सिर झुका लिया।

    सलीमा ने क्रोध से कहा—’‘तुम लोग यहाँ क्यों हो?’‘

    ‘‘बादशाह के हुक्म से।’‘

    ‘‘क्या बादशाह गए?’‘

    ‘‘जी, हाँ।’‘

    ‘‘मुझे इत्तला क्यों नहीं की?’‘

    ‘‘हुक्म नहीं था।’‘

    ‘‘बादशाह कहाँ हैं?’‘

    ‘‘ज़ीनतमहल के दौलतख़ाने पर।’‘

    सलीमा के मन में अभिमान हुआ। उसने कहा—’‘ठीक है, ख़ूबसूरती की हाट में जिनका कारोबार है, मुहब्बत को क्या समझेंगे? तो अब ज़ीनतमहल की क़िस्मत खुली?’‘

    तातारी स्त्री चुपचाप खड़ी रही। सलीमा फिर बोली—

    ‘‘मेरी साक़ी कहाँ है?’‘

    ‘‘क़ैद में।’‘

    ‘‘क्यों?’‘

    ‘‘जहाँपनाह का हुक्म था।’‘

    ‘‘उसका क़ुसूर क्या था?’‘

    ‘‘मैं अर्ज़ नहीं कर सकती।’‘

    ‘‘क़ैदखाने की चाबी मुझे दे, मैं अभी उसे छुड़ाती हूँ।’‘

    ‘‘आपको अपने कमरे से बाहर जाने का हुक्म नहीं है।’‘

    ‘‘तब क्या मैं भी क़ैद हूँ?’‘

    ‘‘जी हाँ।’‘

    सलीमा की आँखों में आँसू भर आए। वह लौटकर मसनद पर पड़ गई और फूट-फूटकर रोने लगी। कुछ ठहरकर उसने एक ख़त लिखा—’‘हुज़ूर! मेरा क़ुसूर माफ़ फ़रमावें। दिन भर की थकी होने से ऐसी बेसुध सो गई कि हुज़ूर के इस्तक़बाल में हाज़िर रह सकी। और मेरी उस प्यारी लौंडी की भी जाँबख़्शी की जाए। उसने हुज़ूर के दौलतख़ाने में लौट आने की इत्तला मुझे वाजबी तौर पर देकर बेशक भारी क़ुसूर किया है, मगर वह नई, कमसिन, ग़रीब और दुखिया है।

    कनीज़

    सलीमा।’‘

    चिट्ठी बादशाह के पास भेज दी गई। बादशाह की तबीयत बहुत नासाज़ थी। तमाम हिन्दुस्तान के बादशाह की औरत फ़ाहिशा निकले। बादशाह अपनी आँखों से परपुरुष को उसका मुँह चूमते देख चुके थे। वह ग़ुस्से से तलमला रहे थे और ग़म ग़लत करने को अंधाधुंध शराब पी रहे थे। ज़ीनतमहल मौक़ा देखकर सौतियाडाह का बुख़ार निकाल रही थी। तातारी बाँदी को देखकर बादशाह ने आगबबूला होकर कहा—’‘क्या लाई हो?’‘

    बाँदी ने दस्तबस्ता अर्ज़ की—’‘ख़ुदाबन्द! सलीमा बीबी की अर्ज़ी है।’‘

    बादशाह ने ग़ुस्से से होंठ चबाकर कहा—’‘उससे कह दे कि मर जाए।’‘

    इसके बाद ख़त में एक ठोकर मारकर उन्होंने उधर से मुँह फेर लिया। बाँदी लौट आई। बादशाह का जवाब सुनकर सलीमा धरती पर बैठ गई। उसने बाँदी को बाहर जाने का हुक्म दिया और दरवाज़ा बंद करके फूट-फूटकर रोई। घंटों बीत गए, दिन छिपने लगा, सलीमा ने कहा—’‘हाय! बादशाहों की बेग़म होना भी बद-नसीबी है! इन्तज़ारी करते-करते आँख फूट जाए, मिन्नतें करते-करते जबान घिस जाए, अदब करते-करते जिस्म के टुकड़े-टुकड़े हो जाएँ, फिर भी इतनी-सी बात पर कि मैं ज़रा सो गई, उनके आने पर जाग सकी, इतनी सज़ा? इतनी बेइज़्ज़ती?’‘

    ‘‘तब मैं बेग़म क्या हुई? ज़ीनत और बाँदियाँ सुनेंगी तो क्या कहेंगी? इस बेइज़्ज़ती के बाद मुँह दिखाने लायक़ कहाँ रही? अब तो मरना ही ठीक है। अफ़सोस, मैं किसी ग़रीब की औरत क्यों हुई!’‘

    धीरे-धीरे स्त्रीत्व का तेज़ उसकी आत्मा में उदय हुआ। गर्व और दृढ़ प्रतिज्ञा के चिह्न उसके नेत्रों में छा गए। वह साँपनी की तरह चपेट खाकर उठ खड़ी हुई। उसने एक और ख़त लिखा—

    ‘‘दुनिया के मालिक! आपकी बीवी और कनीज़ होने की वजह से आपके हुक्म को मानकर मरती हूँ, इतनी बेइज़्ज़ती पाकर एक मलिका का मरना ही मुनासिब है, मगर इतने बड़े बादशाह को औरतों को इस क़दर नाचीज़ तो समझना चाहिए कि अदना-सी बेवक़ूफ़ी की इतनी बड़ी सज़ा दी जाए। मेरा क़ुसूर तो इतना ही था कि मैं बेख़बर सो गई थी। ख़ैर, फिर एक बार हुज़ूर को देखने की ख़्वाहिश लेकर मरती हूँ। मैं उस पाक परवरदिगार के पास जाकर अर्ज़ करुँगी कि वह मेरे शौहर को सलामत रक्खें।

    सलीमा’‘

    ख़त को इत्र से सुवासित करके ताज़े फूलों के एक गुलदस्ते में इस तरह रख दिया, जिससे किसी की उस पर नज़र पड़ जाए। इसके बाद उसने जवाहर की पेटी से एक बहुमूल्य अँगूठी निकाली और कुछ देर तक आँख गड़ा-गड़ाकर उसे देखती रही। फिर उसे चाट गई।

    बादशाह शाम की हवाख़ोरी को नज़र-बाग़ में टहल रहे थे। दो-तीन खोजे घबराए हुए आए और चिट्ठी पेश करके अर्ज़ की—’‘हुज़ूर, ग़ज़ब हो गया। सलीमा बीबी ने ज़हर खा लिया और वह मर रही हैं।’‘

    क्षण भर में बादशाह ने ख़त पढ़ लिया। झपटे हुए महल में पहुँचे। प्यारी दुलहिन सलीमा ज़मीन पर पड़ी है। आँखें ललाट पर चढ़ गई हैं। रंग कोयले के समान हो गया है। बादशाह से रहा गया। उन्होंने घबराकर कहा—’‘हकीम, हकीम को बुलाओ!’‘ कई आदमी दौड़े।

    बादशाह का शब्द सुनकर सलीमा ने उनकी तरफ़ देखा, और धीमे स्वर में कहा—’‘ज़हे क़िस्मत।’‘

    बादशाह ने नज़दीक बैठकर कहा—’‘सलीमा, बादशाह की बेग़म होकर तुम्हें यही लाज़िम था?’‘

    सलीमा ने कष्ट से कहा—’‘हुज़ूर, मेरा क़ुसूर मामूली था।’‘

    बादशाह ने कड़े स्वर में कहा—’‘बदनसीब! शाही ज़नानख़ाने में मर्द को भेष बदलकर रखना मामूली क़ुसूर समझती है? कानों पर यक़ीन कभी करता, मगर आँखों देखी को झूठ मान लूँ?’‘

    जैसे हज़ारों बिच्छुओं के एक साथ डंक मारने से आदमी तड़पता है, उसी तरह तड़पकर सलीमा ने कहा—’‘क्या?’‘

    बादशाह डरकर पीछे हट गए। उन्होंने कहा—’‘सच कहो, इस वक़्त तुम ख़ुदा की राह पर हो, यह जवान कौन था?’‘

    सलीमा ने अचकचाकर पूछा, ‘‘कौन जवान?’‘

    बादशाह ने ग़ुस्से से कहा—’‘जिसे तुमने साक़ी बनाकर अपने पास रक्खा था?’‘

    सलीमा ने घबराकर कहा—’‘हैं! क्या वह मर्द है?’‘

    बादशाह—’‘तो क्या, तुम सचमुच यह बात नहीं जानती?’‘

    सलीमा के मुँह से निकला—’‘या ख़ुदा।’‘

    फिर उसके नेत्रों से आँसू बहने लगे। वह सब मामला समझ गई। कुछ देर बाद बोली—’‘ख़ाविंद! तब तो कुछ शिकायत ही नहीं, इस क़ुसूर की तो यही सज़ा मुनासिब थी। मेरी बदगुमानी माफ़ फ़रमाई जाए। मैं अल्लाह के नाम पर पड़ी कहती हूँ, मुझे इस बात का कुछ भी पता नहीं है।’‘

    बादशाह का गला भर आया। उन्होंने कहा—’‘तो प्यारी सलीमा, तुम बेक़ुसूर ही चलीं?’‘ बादशाह रोने लगे।

    सलीमा ने उनका हाथ पकड़कर अपनी छाती पर रखकर कहा—’‘मालिक मेरे! जिसकी उम्मीद थी, मरते वक़्त वह मज़ा मिल गया। कहा-सुना माफ़ हो, एक अर्ज़ लौंडी की मंज़ूर हो।’‘

    बादशाह ने कहा—’‘जल्दी कहो, सलीमा?’‘

    सलीमा ने साहस से कहा—’‘उस जवान को माफ़ कर देना।’‘

    इसके बाद सलीमा की आँखों से आँसू बह चले और थोड़ी ही देर में ठंडी हो गई।

    बादशाह ने घुटनों के बल बैठकर उसका ललाट चूमा और फिर बालक की तरह रोने लगा।

    ग़ज़ब के अँधेरे और सर्दी में युवक भूखा-प्यासा पड़ा था। एकाएक घोर चीत्कार करके किवाड़ खुले। प्रकाश के साथ ही एक गंभीर शब्द तहख़ाने में भर गया—’‘बदनसीब नौजवान, क्या होश-हवास में है?’‘

    युवक ने तीव्र स्वर से पूछा—’‘कौन?’‘

    जवाब मिला—’‘बादशाह।’‘

    युवक ने कुछ भी अदब किए बिना कहा—’‘यह जगह बादशाहों के लायक़ नहीं है—क्यों तशरीफ़ लाए हैं?’‘

    ‘‘तुम्हारी कैफ़ियत नहीं सुनी थी, उसे सुनने आया हूँ।’‘

    कुछ देर चुप रहकर युवक ने कहा—’‘सिर्फ़ सलीमा को झूठी बदनामी से बचाने के लिए कैफ़ियत देता हूँ, सुनिए सलीमा जब बच्ची थी, मैं उसके बाप का नौकर था। तभी से मैं उसे प्यार करता था। सलीमा भी प्यार करती थी; पर वह बचपन का प्यार था। उम्र होने पर सलीमा परदे में रहने लगी और फिर वह शाहंशाह की बेग़म हुई, मगर मैं उसे भूल सका। पाँच साल तक पागल की तरह भटकता रहा। अंत में भेष बदलकर बाँदी की नौकरी कर ली। सिर्फ़ उसे देखते रहने और ख़िदमत करके दिन गुज़ार देने का इरादा था। उस दिन उज्ज्वल चाँदनी, सुगंधित पुष्प-राशि, शराब की उत्तेजना और एकांत ने मुझे बेबस कर दिया। उसके बाद मैंने आँचल से उसके मुख का पसीना पोंछा और मुँह चूम लिया। मैं इतना ही ख़तावार हूँ। सलीमा इसकी बाबत कुछ भी नहीं जानती।’‘

    बादशाह कुछ देर चुपचाप खड़े रहे। उसके बाद वह दरवाज़े बंद किए बिना ही धीरे-धीरे चले गए।

    सलीमा की मृत्यु को दस दिन बीत गए। बादशाह सलीमा के कमरे में ही दिन-रात रहते हैं। सामने नदी के उस पार, पेड़ों के झुरमुट में सलीमा की सफ़ेद क़ब्र बनी है। जिस खिड़की के पास सलीमा बैठी उस दिन रात को बादशाह की प्रतीक्षा कर रही थी, उसी खिड़की में, उसी चौकी पर बैठे हुए बादशाह उसी तरह सलीमा की क़ब्र दिन-रात देखा करते हैं। किसी को पास आने का हुक्म नहीं। जब आधी रात हो जाती है, तो उस गंभीर रात्रि के सन्नाटे में एक मर्म-भेदिनी गीत-ध्वनि उठ खड़ी होती है। बादशाह साफ़-साफ़ सुनते हैं, कोई करुण-कोमल स्वर में गा रहा है-

    ‘‘दुखवा मैं कासे कहूँ मोरी सजनी!”

    स्रोत :
    • पुस्तक : हिंदी कहानियाँ (पृष्ठ 85)
    • संपादक : जैनेंद्र कुमार
    • रचनाकार : आचार्य चतुरसेन शास्त्री
    • प्रकाशन : लोकभारती प्रकाशन
    • संस्करण : 1977

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