एक सप्ताह

ek saptah

चन्द्रगुप्त विद्यालंकार

और अधिकचन्द्रगुप्त विद्यालंकार

    गुलमर्ग

    13 श्रावण

    प्यारे कमल,

    मुझे माफ़ करना, उस दिन शाम की चाय के समय तुम मेरा इंतिज़ार करते रहे होंगे, और मैं इधर खिसक आया। आज तुमसे 1100 मील की दूरी पर और तुम्हारे कलकत्ता महानगर से 9000 फ़ीट अधिक ऊँचाई पर बैठकर मैं तुम्हें यह पत्र लिख रहा हूँ। तुम जानते ही हो कि मैं किस तबीअत का आदमी हूँ। उफ़, वहाँ कितना बोझ था। काम, काम, हर वक़्त काम। मेरी तबीअत सहसा ऊब गई और तुम्हें तक सूचना दिए बिना मैं अपनी कार पर इतने सफ़र के लिए खिसक आया। उस दिन चाय के वक़्त मुझे मौजूद पाकर यद्यपि तुम मुझ पर काफ़ी खीझ तो लिए ही होंगे, फिर भी उस असुविधा के लिए मुझे माफ़ कर देना।

    हिमालय की यह विशाल घाटी बड़ी सुहावनी है। घने जंगल, निर्मल झरने, विस्तृत मैदान, चारों ओर बर्फ़ से ढके, पहाड़ों की ऊँची-ऊँची चोटियाँ और दूर पर दिखाई देने वाली वलर झील। इस स्थान से मैं सचमुच प्यार करता हूँ। यह एक सप्ताह बिलकुल निकम्मा रहकर काटूँगा। कुछ नहीं करूँगा। केवल तुम्हें ही पत्र लिखूँगा और तुम्हारे पत्रों को छोड़कर और कुछ भी नहीं पढूँगा।

    भाई कमल, मैं अकेला हूँ। तुमने अनेक बार मेरे इस अकेलेपन की आलोचना की है, मगर यहाँ आकर मैं अनुभव करता हूँ कि जैसे प्रकृति मेरी माँ है। मैं अकेला कहाँ हूँ, मैं तो अपनी माँ की गोद में हूँ।

    चिंता करना। मैं यहाँ एक सप्ताह से अधिक नहीं ठहरूँगा। 22 श्रावण की शाम को तुम मुझे अपनी चाय की टेबल पर ही पाओगे। बाहर एक कसा हुआ घोड़ा मेरा इंतिज़ार कर रहा है, अतः बाक़ी कल।

    तुम्हारा-

    स०

    (2)

    गुलमर्ग

    14 श्रावण...

    भाई कमल,

    सुबह 9 बजे बिस्तरे से उठा हूँ। अभी तक नींद की ख़ुमारी नहीं टूटी। कल बहुत दिनों के बाद घुड़सवारी की थी, अतः टाँगें कुछ थक गई-सी प्रतीत होती हैं। आज कहीं नहीं जाऊँगा। मेरे मकान में और कोई नहीं है। मैं अपने सोफ़े पर अकेला पड़ा हूँ। धीमी-धीमी वर्षा हो रही है। चारों तरफ़ सन्नाटा है। ओह, सामने की इस खिड़की से कितना अनंत सौंदर्य मुझे दिखाई दे रहा है।

    आज कुछ नहीं लिखूँगा। सोचा था कि आज एक चित्र बनाऊँगा, मगर कुछ नहीं करूँगा। घंटों तक इसी तरह निश्चेष्ट भाव से पड़े रहकर इस खिड़की की राह से प्रकृति का, अपनी माँ का अनूठा सौंदर्य देखूँगा।

    अच्छा, कल तक के लिए विदा।

    स्वेच्छाधीन-

    स०

    (3)

    गुलमर्ग

    15 श्रावण

    कमल,

    इस समय रात के 11 बजे है, और मेरी आँखों में नींद नहीं है। सब तरफ़ गहरा सन्नाटा है। कहीं से कोई आवाज़ नहीं रही है। मेरे कमरे में बिजली की बत्ती जल रही है। खिड़कियाँ बंद हैं। सरदी इतनी अधिक है कि मैं उन्हें खोलकर नहीं रख सका। सन्नाटा इतना गहरा है कि बिजली के प्रकाश से जगमगा रहे इस कमरे में बैठकर मुझे ऐसा अनुभव हो रहा है, जैसे इस संपूर्ण विश्व में केवल मैं-ही-मैं बच रहा हूँ और कोई भी नहीं है। कहीं कोई भी नहीं है। सिर्फ़ मैं ही हूँ, अकेला मैं।

    मगर भाई कमल, आज सहसा जाने क्यों मुझे अपना यह अकेलापन कुछ अनुभव-सा होने लगा है। ऐसा क्यों हुआ क्या सिर्फ़ इसलिए कि सब ओर सन्नाटा है और मेरी आँखों में नींद नहीं है? नहीं कमल, यह बात नहीं है। मेरे हृदय में आज सहसा एक नई-सी अनुभूति उठ खड़ी हुई है जो बिलकुल धुंधली और अस्पष्ट-सी है। मैं अनुभव करता हूँ कि मैंने आज जो कुछ देखा है उसमें विचित्रता ज़रा भी नहीं है। मैंने जो कुछ आज देखा है उसे यदि मैं यहाँ लिखूँगा तो या तो तुम मेरा मज़ाक उड़ाने लगोगे अथवा मेरे संबंध में बिलकुल भ्रांत-सी धारणा बना लोगे। मगर भाई, मैं कहता हूँ—मैं तुमसे अनुरोध करता हूँ कि तुम इन दोनों में से एक भी बात करना। मेरी इस चिट्ठी को पढ़ जाना, और अगर हो सके तो उसी वक़्त भुला देना। बस और कुछ नहीं।

    हाँ, तो सुनो। बात है तो कुछ भी नहीं, मगर फिर भी सुनो। आज दुपहर के वक़्त बादल ज़रा छँट गए थे और सूरज निकल आया था। जैसे विधाता ने इस हरी-भरी घाटी को धो-धोकर धूप में सुखाने के लिए बिछा दिया हो। दुपहर के भोजन के बाद अपनी इस छोटी-सी कोठी के खुले सहन में धीरे-धीरे चहल-क़दमी करने लगा। सहन के फाटक के सामने ही स्वच्छ जल का एक छोटा-सा झरना बह रहा है। उस ऊपर के अनघड़ लकड़ी का एक इतना सुंदर पुल है कि उसे देखते ही कलर-बॉक्स लेकर उसका चित्र बनाने की इच्छा होती है। मैं धीरे-धीरे एक बार इस पुल तक जाता था और उसके बाद कोठी के बरामदे तक वापस लौट आता था।

    एक बार के चक्कर में जब मैं पुल के निकट पहुँचा तो मैं चौंक पड़ा। मैंने देखा, वहाँ किसी भद्र कुल की एक नौजवान लड़की खड़ी थी, अकेली। उसका ध्यान मेरी ओर नहीं था। झरने के पानी की मधुर ध्वनि ने मेरे चलने की आवाज़ को अपने भीतर छिपा लिया था, इससे मेरे बहुत निकट पहुँच जाने पर भी वह यह जान सकी कि उसके निकट कोई अन्य व्यक्ति भी मौजूद है और मुझे तो तुम जानते ही हो। कितना भूला हुआ-सा चलता हूँ। मुझे तब तक उस लड़की की उपस्थिति का ज्ञान नहीं हुआ जब तक मैं उसके बिलकुल निकट पहुँच नहीं गया।

    मैं चौंका और उधर उसी समय उस लड़की की निगाह मुझ पर पड़ी। शायद बिलकुल ही अकस्मात। वह भी चौंक गई। क्षण-भर के लिए सहसा उसकी और मेरी आँखें आपस में मिल गईं।

    बस भाई कमल, बात इतनी ही है और कुछ भी नहीं। मैं उसी क्षण वापस लौट पड़ा था और जान पड़ता है वह लड़की भी वहाँ से चल दी थी मगर इस ज़रा-सी बात ने जाने क्यों मेरे दिल पर बहुत अजीब-सा प्रभाव डाला है। इस बात को हुए अब 6 घंटे बीत चुके हैं और इन 6 घंटों में चौंकी हुई हिरणी की-सी वे आँखें मिरे मानसिक नेत्रों के सामने बीसियों बार घूम गई हैं।

    तुम सोचते होगे इस सबमें कोई ख़ास बात ज़रूर है। और नहीं तो कम-से-कम वह लड़की कोई असाधारण सुंदरी तो अवश्य ही होगी, मगर वास्तविकता यह नहीं है। उस लड़की के चेहरे में असाधारणता ज़रा भी नहीं थी। लंबा क़द, मामूली चेहरा, गेहुँआ रंग। और भी कोई बात उसमें ऐसी नहीं थी जिसे असाधारण कहा जा सके। अपने नगर में हम लोग इस कन्या से अत्यधिक रूप-सौंदर्य वाली बीसियों युवतियों को रोज़ देखते हैं। मेरी परिचित कुमारियों में भी कितनी ही सौंदर्य की दृष्टि से उससे कहीं बढ़-चढ़कर हैं। यहाँ गुलमर्ग में भी उससे बहुत अधिक सुंदरियों को मैंने काफ़ी बड़ी संख्या में देखा है। फिर भी! कुछ समझ में नहीं आता कि इस 'फिर भी' का कारण क्या है।

    आज इतना ही।

    तुम्हारा

    स०

    (4)

    गुलमर्ग

    16 श्रावण

    प्रातः 8 बजे

    कमल,

    नींद से उठते ही सबसे पहले मेरी निगाह रात के पत्र पर गई है। रात मैं क्या ख़ुराफात-सी लिख गया। दिल में आता है वह पत्र फाड़ डालूँ।

    जी कुछ भारी-सा है। कुछ लिखने की भी इच्छा नहीं होती। और इस तरह निश्चेष्ट भाव से यहाँ चुपचाप पड़े रहना तो आज मुझे सह्य भी नहीं हो सकता। तुम जानते हो ऊपर की दो लाइनें लिखने में मैंने कितना समय लगाया है? पूरे 22 मिनट! इस समय दूसरा पत्र लिख सकना मेरे लिए असंभव है। चलो अब कहीं आवारागर्दी करने जाऊँगा!

    सांय 6 बजे।

    मेरा जी इस समय बहुत प्रसन्न है। मेरी टाँगें, मेरा संपूर्ण शरीर बिलकुल थकी हुई हालत में है। परंतु जी चाहता है कि मैं इस समय भी नाचूँ, कूदूँ और इधर-उधर दौड़ता फिरूँ। मेरे हृदय में इस समय उत्साह का अंधड़-सा चल रहा है, मुझे मालूम है कि उसकी प्रतिक्रिया भी ज़रूर होगी। अपने जी के इस व्यर्थ उत्साह को बहकाने का मुझे इससे बढ़कर और कोई उपाय नहीं मिला कि सुबह का पत्र पूरा करने बैठ जाऊँ।

    साँझ हो आई है। आज का सारा दिन मैंने सैर-सपाटे में काटा है। थोड़ी ही देर पहले घर वापस आया हूँ। तुम्हारी चिट्ठी बीच में छोड़कर मैं एक मज़बूत घोड़े पर सैर के लिए निकल गया था। यहाँ के सभी मार्ग मेरे जाने-पहचाने हैं, इससे कोई मार्गदर्शक भी मैंने अपने साथ नहीं लिया था। मेरे निवास स्थान से क़रीब 8 मील की दूरी पर एक बड़ा पहाड़ी झरना है। इस झरने को यहाँ 'निगली नाला' कहते हैं। मैं आज इसी निगली नाले तक गया था।

    ख़ूब टेढी-मेढ़ी राह है। कहीं पहाड़ों के चक्कर हैं, कहीं घास से मढ़े मैदान, कहीं ऊँचाई-निनाई, कहीं पेंचदार मोड़ और कहीं घने जंगल। रास्ता क्या है, ऊबड़-खाबड़-सी एक पगडंडी है। पर मैंने अपना घोड़ा ख़ूब निश्चिंती के साथ दौड़ाया। ऊपर असंख्य पक्षियों का मधुर कलरव था। राह के दोनों ओर फूल-पत्तियाँ थीं। हवा में सुगंध थी। आसमान में सूरज बादलों के साथ आँख-मिचौली खेल रहा था। कभी सरदी बढ़ जाती थी और कभी हल्की-हल्की धूप निकल आती थी। शीघ्र ही मैं निगली नाले पर पहुँचा। झरने के दोनों ओर घना जंगल है। बीच में बड़ी-बड़ी चट्टानें पड़ी हैं। एक-एक चट्टान सैकड़ों-हज़ारों टन की होगी। झरने का स्वच्छ जल इन भीमकाय चट्टानों से टकराकर शोर मचाता है, फिसलता है और फिर उछल-उछलकर इन्हें गीला करता है। झरने की शीतलता, झाग, सफ़ेदी और शोर—ये सब निरंतर बने रहते हैं। सदा ताज़े, सदैव उत्साहपूर्ण।

    घोड़े को घास चरने के लिए खुला छोड़कर मैं दो-तीन घंटों तक झरने की चट्टानों पर स्वच्छंदतापूर्वक कूदता-फांदता रहा। अपने कैमरे से इस झरने के मैंने अनेक फ़ोटो भी लिए। खाया, पीया और उसके बाद वापस लौट चला।

    वापसी में मैंने अपने घोड़े को सरपट नहीं दौड़ाया। राह के दृश्यों ने मेरा संपूर्ण ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर लिया था, अतः घोड़े पर मैंने किसी तरह का शासन नहीं किया। वह आज़ादी के साथ चाहे जिस चाल से चलता रहा। सहसा सामने की ओर से मुझे एक चीख़-सी सुनाई दी। मेरी तन्मयता भंग हो गई। मैंने देखा सामने के मैदान में एक घोड़ा बेतहाशा दौड़ा चला जा रहा है, और उस पर एक स्त्री सवार है। घोड़े की ज़ीन को लेटी हुई-सी दशा में कसकर पकड़े हुए वह नारी सहायता के लिए भरसक चिल्ला रही थी। उसी निगाह में मुझे यह भी दिखाई दिया कि पगडंडी पर तीन-चार अन्य घुड़सवार भी मौजूद हैं। सब-की-सब लड़कियाँ ही। वे सब असमर्थों का-सा भाव धारण किए अपने कश्मीरी कुलियों को वह घोड़ा पकड़ने का आदेश दे रही थीं।

    एक ही क्षण में मैंने अपना घोड़ा उसी ओर दौड़ा दिया और शीघ्र ही उस स्त्री-सवार के निकट जा पहुँचा। अपने घोड़े पर से कूदकर मैंने उस घोड़े की लगाम पकड़ ली।

    फिर वही आँखें!

    मैं सहसा घबरा-सा गया। मुझे यह भी नहीं सूझा कि मैं क्या कहकर उस कन्या को आश्वासन दूँ। मगर मेरी घबराहट की ओर उसका ध्यान नहीं गया। वह स्वयं ही बहुत अधिक संकटापन्न दशा में जो थी।

    पहले उसी ने मुझे धन्यवाद दिया। मालूम होता है उसने मुझे पहचाना नहीं। धन्यवाद देकर उसने शीघ्रता से कहा—बड़ा नटखट घोड़ा है! मैं पहले ही कह रही थी कि मैं इस पर सवार होऊँगी।

    उसकी आवाज़ में अभी तक भय की कँपकँपी थी। मैंने कहा—आपने बड़ी हिम्मत दिखाई है। घोड़े की इतनी तेज़ी हो जाने पर भी आप गिरीं नहीं।

    वह इस पर लजा-सी गई। उसने कहा—मैं घुड़सवारी तो क्या जानूँ। सुना था इधर के घोड़े बहुत सीधे होते हैं।

    इसी समय उसके साथ की अन्य लड़कियों और घोड़ेवाले कुली भी वहाँ पहुँचे। घोड़े की लगाम अभी तक मेरे हाथों में थी और लड़की भी अभी तक घोड़े की पीठ पर ही थी। एक कश्मीरी ने लगाम अपने हाथों में थाम ली और दूसरे ने ज़ीन को संभाला। वह लड़की नीचे उतर आई। उसके साथ की सब लड़कियों ने मुझे धन्यवाद दिया और मैंने कहा कि इसमें धन्यवाद की बात ही क्या है।

    उन्होंने मुझसे पूछा—आप किस जगह ठहरे हुए हैं?

    मैंने अपना पता बता दिया।

    मेरे निवास का पता सुनकर जैसे उस लड़की ने मुझे पहचान लिया। उसके

    मुँह से हठात निकला—ओहो! परंतु उसी क्षण अपने को पूर्णत संयत करके उसने बड़ी शांति के साथ कहा—मैं समझ गई।

    इसके बाद दो-चार मामूली-सी और बातें भी हुई और तब वे लोग निगली नाले की ओर बढ़ गए। जाते हुए वे कल प्रात: के लिए मुझे अपने यहाँ चाय के लिए निमंत्रित भी करते गए।

    उस नटखट घोड़े की रास अब एक कश्मीरी के हाथ में थी। वे सब घोड़े अब बहुत धीमी चाल से जा रहे थे और वह घोड़ा सबसे पीछे कर दिया गया था। मेरी नज़र अभी तक उसी ओर थी कि कुछ ही दूर जाकर उस लड़की ने पीछे की ओर घूमकर देखा।

    अचानक एक बार पुन: मेरी और उसकी नज़र मिल गई।

    ओह, फिर वही निष्पाप, लज्जाभरी स्वच्छ आँखें!

    भाई कमल, मुझे नहीं मालूम कि वे लड़कियाँ कौन हैं। सभी नवयुवतियाँ हैं। मेरा अनुमान है कि उनमें से अभी तक किसी का विवाह नहीं हुआ है। मैं उनमें से किसी का नाम भी नहीं जानता, मकान का पता देने के लिए केवल एक पुरुष का नाम ही उन्होंने मुझे बताया है। मैं यह नहीं जानता कि वे आपस में बहनें हैं, सहेलियाँ हैं, एक साथ पढ़नेवाली हैं या रिश्तेदार हैं। मुझे कुछ भी नहीं मालूम। परंतु एक बात मैंने अच्छी तरह देख ली। वह यह कि उस लड़की के गेहुँए चेहरे में असाधारणता ज़रा भी नहीं है। उसकी आँखों में, पलकों या भौहों में ऐसी कोई बात नहीं है जिसके संबंध में कवि लोग बड़ी-बड़ी उपमाएँ खोज-खोजकर दिया करते हैं। फिर भी उसकी निगाह में कुछ है। क्या है—यह मैं नहीं कह सकता; मगर कुछ है ज़रूर।

    बाहर अँधेरा हो गया है। सरदी भी अब अनुभव होने लगी है, अतः प्रणाम।

    अभिन्न

    स०

    (5)

    गुलमर्ग

    17 श्रावण

    प्यारे कमल,

    आज जाकर मुझे तुम्हारा पहला पत्र मिला है। तुम सच मानो गुलमर्ग के छोटे-से बाज़ार के साइनबोर्डों के अतिरिक्त यही एक पहली चीज़ है जिसे मैंने इन पाँच-छ दिनों में पढ़ा है।

    मेरा आज का दिन भी बड़े आनंद से गुज़रा है। सुबह-सुबह में उन लोगों के यहाँ चाय पीने गया था। उसके बाद हम लोग एक साथ खिलनमर्ग की सैर के लिए निकल गए। यहाँ घंटों तक उस खुले मैदान में बैठकर ताश खेला किए, सैर की, खेले-कूदे और फिर वापस लौट आए। सब लोग मेरे निवास स्थान पर आए। शाम की चाय यहाँ ही हुई और अभी-अभी मैं उन्हें उनके घर तक छोड़कर रहा हूँ।

    मुझे उनका परिचय भी मिल गया है। वह लड़की अपने भाई और एक चचेरी बहन के साथ; काफ़ी दिन हुए यहाँ आई थी। उसके पिता एक संपन्न व्यापारी हैं, उनका कारोबार ख़ूब चलता हुआ है। वह लड़की लाहौर के एक महिला कॉलेज़ में पढ़ती है और बाक़ी तीनों लड़कियाँ उसके क्लास की हैं, उसकी मित्र हैं और उसी के निमंत्रण पर यहाँ आई हैं। उसके भाई का स्वभाव भी बड़ा मधुर है। गुलमर्ग में उसकी दोस्ती की इतनी अधिकता है कि उनकी ओर से छुटकारा पा सकना ही उसके लिए कठिन हो जाता है। हम लोग आपस में ख़ूब हिलमिल गए हैं। मैंने उन लोगों के अनेक फ़ोटो भी लिए हैं।

    आज जल्दी ही सो जाने को जी चाहता है। तुम्हारा पत्र इस समय मेरी आँखों के सामने नहीं है। कुछ याद नहीं रहा है कि तुमने उसमें कोई बात पूछी भी थी या नहीं। चलो, जाने दो। यह तो मुझे मालूम ही है कि तुम कोई ख़ास काम की बात तो पूछ ही नहीं सकते।

    यह भी नामुमकिन नहीं कि मैं कुछ और ठहर जाऊँ।

    स्नेही

    स०

    (6)

    गुलमर्ग

    18 श्रावण

    कमल,

    साँझ डूबने को है। दिनभर से आसमान में बादल छाए हुए थे। इस समय मूसलाधार वर्षा हो रही है। मेरे कमरे की सब खिड़कियाँ बंद हैं। कमरे में बत्ती जल रही है। मेरे कानों में एक संगीत गूँज रहा है—बहुत पवित्र और बहुत ही मधुर। इस संगीत में शब्द नहीं केवल स्वर हैं। स्वर भी क्या केवल गूँज है। छत को टीन पर वर्षा पड़ने की जो आवाज़ हो रही है, वह इस गूँजमय संगीत का साज़ है और ठंडी, गीली हवा की धू-धू इस संगीत की तान का काम कर रही है।

    मैं अकेला हूँ। दिन-भर अकेला नहीं था, परंतु इस समय फिर मैं अकेला हूँ। वह अपने भाई और छोटी बहन को साथ लेकर यहाँ आई थी। 6 बजे के क़रीब उसके भाई चाय के एक निमंत्रण पर बाहर चले गए। वह और उसकी बहन यहीं ही रह गई।... फ़ोटोग्राफ़ धुलकर गए थो। उन फ़ोटोज़ की आलोचना-आत्मालोचना होती रहीं। और भी... तरह की बातें हुईं। शाम का अँधेरा जब चढ़ने लगा तो मैंने उससे अनुरोध किया कि वह कोई गाना सुनाए। बड़ी झिझक के बाद उसने एक गाना मुझे सुनाया। ओह, वह कितना मधुर गीत है। मैं किसी दूसरे लोक में जा पहुँचा। मुझे नहीं मालूम कि संगीत कब समाप्त हुआ। हाँ, उसके भाई साहब का आना मुझे ज़रूर याद है। देर हो गई थी, अतः वे लोग लौटने को हुए। मैंने उन लोगों को सहन के फाटक से ही विदा दे दी। उन्हें छोड़ने के लिए दूर तक केवल इसी लिए साथ नहीं गया, क्योंकि मुझे ज्ञात था कि उसके भाई साहब चुपचाप चलना पसंद नहीं करेंगे और इस समय मैं कुछ कहना चाहता था, बोलना चाहता था।

    उन्हें गए थोड़ी ही देर हुई थी कि ज़ोर की वर्षा शुरू हो गई। मैं तब से इसी कमरे में बैठा हूँ। संगीत कभी का थम गया, गानेवाली भी चली गई, मगर उसकी गूँज अभी तक बाक़ी है—उसी तरह जीवित रूप में बाक़ी है। संगीत की वह अनिर्वचनीय अमूर्त गूँज वर्षा की आवाज़ का प्राकृतिक साज़ पाकर मानो और भी अधिक भेदिनी बन गई है।

    कमल, तुम मेरे सुख-दुःख के साथी हो। अपनी सभी अनुभूतियाँ तुमसे कहकर मैं अपने चित्त का बोझ हल्का किया करता हूँ, मगर यह एक अनुभूति कुछ ऐसी है कि इसे मैं ठीक तौर से व्यक्त भी नहीं कर सकता। मेरे जी में आँधी-सी चल रही है, मगर यह आँधी बिलकुल शब्द-रहित है, जैसे नदी का वेगवान पानी अंदर-ही-अंदर से किनारे के कछारों को काट रहा हो।

    अपनी एक पुरानी धुंधली-सी अनुभूति मुझे इस समय साफ़ तौर से समझ में रही है। हम मनुष्यों के बाह्य-जीवन आपस में एक दूसरे पर इतने अधिक आश्रित हो गए हैं कि हम लोगों के लिए इस तरह का एक दिन भी काटना संभव नहीं रहा, जबकि एक मनुष्य का किसी भी दूसरे मनुष्य से किसी तरह का वास्ता पड़े। इस पर भी मैं सदैव अनुभव करता रहा हूँ कि हम लोग आपस में एक दूसरे से बहुत अधिक दूर हैं। हृदयों का यह पारस्परिक अपरिचितपन हमारे दैनिक व्यवहार में, हमारे सामान्य जीवन में कोई बाधा नहीं डालता। फिर भी हमारे जी को, हमारे अंतःकरण को और शायद हमारी अंतरात्मा को कभी यह चाह रहती है कि वह किसी दूसरे जी को, किसी दूसरे अंतःकरण को अपना ले। यही चीज़, अंतरात्मा की यही चाह प्रेम है, जिसे वासना का परिधान पहनाकर हम लोग बहुत शीघ्र मैला कर डालते हैं। आज इस संगीतमय, ठंडे शांत और सुंदरतम वातावरण में मैं यह अनुभव करने लगा हूँ कि मेरे अंतःकरण में भी इसी तरह की कोई बेचैनी सहसा उठ खड़ी हुई है।

    आज उससे मेरी ख़ूब बातें हुई। अधिकांश बातें बिलकुल बेमतलब की थी, मगर फिर भी वे बातें अत्यंत मधुर और दिल को सहलाने वाली थी।

    एक बात ऐसी भी हुई जिसने मेरे हृदय को वेग के साथ झनझना दिया। बातचीत में उसने ज़रा हैरानी के साथ मुझसे पूछा—आप अकेले ही रहते हैं?

    मैंने कहा—हाँ।

    उसने पूछा—हमेशा इसी तरह रहते हैं?

    मैंने कहा—प्रायः हमेशा ही।

    कुछ क्षण के बाद उसने मुझसे पूछा—सुबह आपको दूध पिलाने का काम किसके हाथों में है?

    मुझे उसका भोला-सा सवाल बहुत ही मधुर जान पड़ा। मैंने कहा—जो लोग मेरी ज़रूरत की और सब चीज़ों का इंतिज़ाम करते हैं, वे ही दूध का इंतिज़ाम करते हैं।

    उसने फिर पूछा—आप सुबह खाते क्या है?

    मैंने कहा—दूध, टोस्ट, मक्खन, शहद, ओवलटीन और थोड़े-से मेवे। यूँ ही बिलकुल निष्कलंक भाव से उसने ज़रा आग्रह के स्वर से कहा—अगर मैं आपके दूध का इंतिज़ाम करने वाली होती तो आपको पता लगता कि सुबह के कलेवे में कितना स्वाद आता है।

    मेरा संपूर्ण अंतःकरण झनझना उठा। अपने चेहरे पर हलकी-सी और फीकी मुस्कुराहट ले आने के अतिरिक्त मैं उसकी इस अत्यंत मधुर बात का कोई जवाब नहीं दे सका।

    मुझे मालूम है कि उसने जो कुछ कहा था, इसका कोई गहरा अभिप्राय कदापि नहीं था। संभवतः घर के लोगों को सुबह दूध पिलाने का इंतिज़ाम उसी के ज़िम्मे होगा; मगर फिर भी मेरे दिमाग़ ने उसकी इस बात को इतनी गहराई के साथ हृदय के पास पहुँचाया कि मेरा संपूर्ण अंतःकरण बहुत ही मीठे स्वरों में ध्वनित हो उठा।

    हाथ ठिठुर रहे हैं। मेरी यह चिट्ठी पढ़कर तुम कहीं ऊबने तो नहीं लगे? ठीक है न? या अभी कुछ और सुनने की इच्छा है?

    मगर नहीं, अब और नहीं।

    तुम्हारा—

    स०

    (7)

    गुलमर्ग

    18 श्रावण...

    भाई कमल,

    इस समय सुबह के 8 बजे हैं। मेरा सामान बँधकर तैयार पड़ा है। सहन में एक कसा हुआ घोड़ा और सामान के टट्ट तैयार खड़े हैं। मैं इसी वक़्त नीचे के लिए रवाना होने लगा हूँ। बस तुम्हें यह पत्र लिखकर मैं घोड़े पर सवार हो जाऊँगा। यह भी पूरी तरह मुमकिन है कि इस पत्र से पहले ही मैं स्वयं तुम्हारे पास पहुँच जाऊँ।

    कल मैंने इरादा किया था कि कम-से-कम पाँच दिन यहाँ और ठहरूँगा। उन लोगों से भी मैंने यही बात कही थी। आज दुपहर को मुझसे मिलने के लिए उन्हें यहाँ आना भी है, मगर आज सुबह नींद से बहुत जल्दी जागकर मैंने यही निश्चय किया कि मुझे यहाँ से चल ही देना चाहिए। इस आशय की एक चिट्ठी उनके नाम पर भी डाल रहा हूँ कि एक अप्रत्याशित कार्य के लिए मुझे इस तरह बिलकुल अचानक अपने नगर के लिए रवाना होना पड़ रहा है।

    तुम इस चिट्ठी को पाकर अथवा चौथे दिन मुझे ही अपने समीप देखकर हैरान होगे कि बात क्या हुई। कहने को तो मैं तुम्हें भी यही कह सकता हूँ कि अधिक दिन बाहर रहने से काम-काज में हर्ज होता, इसी से चले आना पड़ा; परंतु दरअस्ल बात ऐसी नहीं है। बात वास्तव में इतनी ही है कि अपनी शिक्षा और अपनी परिस्थितियों के संस्कारों से बाधित होकर ही मैं आज यहाँ से चल दिया हूँ।

    कुछ समझे? नहीं, मुझे यक़ीन है कि कमल का मोटा दिमाग़ मेरी इस महीन बात को ज़रा भी नहीं समझा होगा।

    देखो भाई कमल, बात यह है कि पश्चिम की शिक्षा ने, पश्चिम के रीति-रिवाज़ों ने हमें यह सिखाया है कि हम अपने दिल को, अपने अंतःकरण को और अपनेपन को बहुत महँगा बना लेना चाहिए। हम सबसे मिले-जुलें, सबसे मीठी-मीठी बातें करें, सबसे फ़ायदा उठाएँ, इच्छा हो और संभव हो, तो लोगों से सभी तरह के विनोद और आमोद भी प्राप्त करें; परंतु अपना अंतःकरण अपना हृदय अपने ही पास रखें क्योंकि वह हमारी चीज़ है और किसी की भी नहीं। अपने दिल को बिलकुल निस्संग बनाने की भी आवश्यकता नहीं है। वह तो आत्म-विनोद का सर्वश्रेष्ठ साधन है। तुम सबसे मिलो-जुलो, हँसकर, खुलकर, मीठी-मीठी बातें करो मगर किसी के बन मत जाओ, अपना सब कुछ किसी को अर्पित मत कर दो। व्यक्तित्व को भावुकता की ज़हरीली गैस से मूर्छित होने दो।

    मैंने यह अनुभव किया है कमल कि मेरे हृदय में भावुकता बाक़ी है, वह भी काफ़ी मात्रा में। मेरा हृदय मोह में पड़ गया है। पूरब के प्रशिक्षित मनुष्यों के समान वह चाहता है कि वह जिसकी ओर झुका है, उसी का बनकर रहे; मगर मेरे दिमाग़ की शिक्षा ने मेरे जी को यह चेतावनी दी है कि प्रेम का उद्देश्य सर्वस्व समर्पण की भावना नहीं, अपितु आत्मविनोद मात्र है। परंतु मुझे भय है कि इस ख़ास मामले में मैं अपने मस्तिष्क के आदेश का पालन शायद ही कर सकूँ। इससे मैंने निश्चय किया है कि मैं अपने को इस कठिन परीक्षा में डालूँ और यहाँ से चल दूँ। देखूँ, इस सबका परिणाम क्या होता है। देखूँ, गुलमर्ग को भुला सकता हूँ या नहीं। अब तो ही रहा हूँ। बे-फ़िक्र रहो। मैं नए युग की उपज हूँ।

    अभिन्न—

    स०

    स्रोत :
    • पुस्तक : गल्प-संसार-माला, भाग-1 (पृष्ठ 96)
    • संपादक : श्रीपत राय
    • रचनाकार : चन्द्रगुप्त विद्यालंकार
    • प्रकाशन : सरस्वती प्रकाशन, बनारस
    • संस्करण : 1953

    संबंधित विषय

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    जश्न-ए-रेख़्ता (2023) उर्दू भाषा का सबसे बड़ा उत्सव।

    पास यहाँ से प्राप्त कीजिए