मक्रील

makril

यशपाल

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मक्रील

यशपाल

और अधिकयशपाल

     

    गर्मी का मौसम था। ‘मक्रील’ की सुहावनी पहाड़ी। आब-ओ-हवा में छुट्टी के दिन बिताने के लिए आई संपूर्ण भद्र जनता खिंचकर मोटरों के अड्डे पर, जहाँ पंजाब से आने वाली सड़क की गाड़ियाँ ठहरती हैं—एकत्र हो रही थी। सूर्य पश्चिम की ओर देवदारों से छाई पहाड़ी की चोटी के पीछे सरक गया था। सूर्य का अवशिष्ट प्रकाश चोटी पर उगे देवदारों से ढकी आग की दीवार के समान जान पड़ता था। ऊपर आकाश में मोर-पूँछ के आकार में दूर-दूर तक सिंदूर फैल रहा था। उस गहरे अर्गवनी रंग के पर्दे पर ऊँची, काली चोटियाँ निश्चल, शांत और गंभीर खड़ी थीं। संध्या के झीने अँधेरे में पहाड़ियों के पार्श्व के वनों से पक्षियों का कलरव तुमुल परिमाण में उठ रहा था। वायु में चीड़ की तीखी गंध भर रही थी। सभी ओर उत्साह-उमंग और चहल-पहल थी। भद्र महिलाओं और पुरुषों के समूह राष्ट्र के मुकुट को उज्ज्वल करने वाले कवि के सम्मान के लिए उतावले हो रहे थे।

    यूरोप और अमरीका ने जिसकी प्रतिभा का लोहा मान लिया, जो देश के इतने अभिमान की संपत्ति है, वही कवि ‘मक्रील’ में कुछ दिन स्वास्थ्य सुधारने के लिए आ रहा है। मक्रील में जमी राष्ट्र-अभिमानी जनता पलकों के पाँवड़े डाल, उसकी अगवानी के लिए आतुर हो रही थी।

    पहाड़ियों की छाती पर खिंची धूसर लकीर-सी सड़क पर दूर धूल का एक बादल-सा दिखलाई दिया। जनता की उत्सुक नज़रें और उँगलियाँ उस ओर उठ गईं। क्षण भर में धूल के बादल को फाड़ती हुई काले रंग की एक गतिमान वस्तु दिखाई दी। वह एक मोटर थी। आनंद की हिलोर से जनता का समूह लहरा उठा। देखते-ही-देखते मोटर आ पहुँची। जनता की उन्मत्तता के कारण मोटर को दस क़दम पीछे ही रुक जाना पड़ा—'देश के सिरताज की जय!', 'सरस्वती के वरद पुत्र की जय!', 'राष्ट्र के मुकुट-मणि की जय!' के नारों से पहाड़ियाँ गूँज उठीं।

    मोटर फूलों से भर गई। बड़ी चहल-पहल के बाद जनता से घिरा हुआ, गजरों के बोझ से गर्दन झुकाए, शनै: शनैः क़दम रखता हुआ मक्रील का अतिथि मोटर के अड्डे से चला।

    उत्साह से बावली जनता विजयनाद करती हुई आगे-पीछे चल रही थी। जिन्होंने कवि का चेहरा देख पाया वे भाग्यशाली बिरले ही थे। 'धवलगिरि' होटल में दूसरी मंजिल पर कवि को टिकाने की व्यवस्था की गई थी। वहाँ उसे पहुँचा, बहुत देर तक उसके आराम में व्याघात कर, जनता अपने स्थान को लौट आई।

    क्वार की त्रयोदशी का चंद्रमा पार्वत्य प्रदेश के निर्मल आकाश में ऊँचा उठ, अपनी शीतल आभा से आकाश और पृथ्वी को स्तंभित किए था। उस दूध की बौछार से 'धवलगिरि' की हिमधवल दो-मंज़िली इमारत चाँदी की दीवार-सी चमक रही थी। होटल के आँगन की फुलवारी में ख़ूब चाँदनी थी, परंतु उत्तर-पूर्व के भाग में इमारत के बाज़ू की छाया पड़ने से अँधेरा था। बिजली के प्रकाश से चमकती खिड़कियों के शीशों और पर्दों के पीछे से आने वाली मर्मर-ध्वनि तथा नौकरों के चलने-फिरने की आवाज़ के अतिरिक्त सब शांत था।

    उस समय इस अँधेरे बाज़ू के नीचे के कमरे में रहने वाली एक युवती फुलवारी के अँधकारमय भाग में एक सरो के पेड़ के समीप खड़ी दूसरी मंज़िल की पुष्प-तोरणों से सजी उन उज्ज्वल खिड़कियों की ओर दृष्टि लगाए थी, जिनमें सम्मानित कवि को ठहराया गया था। वह युवती भी उस आवेगमय स्वागत में सम्मिलित थी। पुलकित हो उसने भी कवि पर फूल फेंके थे। जयनाद भी किया था। उस घमासान भीड़ में समीप पहुँच, एक आँख कवि को देख लेने का अवसर उसे न मिला था। इसी साध को मन में लिए उस खिड़की की ओर टकटकी लगाए खड़ी थी। काँच पर कवि के शरीर की छाया उसे जब-तब दिखाई पड़ जाती।

    स्फूर्तिप्रद भोजन के पश्चात कवि ने बरामदे में आ काले पहाड़ों के ऊपर चंद्रमा के मोहक प्रकाश को देखा। सामने सँकरी-धुँधली घाटी में बिजली की लपक की तरह फैली हुई मक्रील की धारा की ओर उसकी नज़र गई। नदी के प्रवाह की घरघराहट को सुन, वह सिहर उठा। कितने ही क्षण मुँह उठाए वह मुग्ध-भाव से खड़ा रहा। मक्रील नदी के उद्दाम प्रवाह को उस उज्ज्वल चाँदनी में देखने की इच्छा से कवि की आत्मा व्याकुल हो उठी। आवेश और उन्मेष का वह पुतला सौंदर्य के इस आह्वान की उपेक्षा न कर सका।

    सरो वृक्ष के समीप खड़ी युवती पुलकित भाव से देश-कीर्ति के उस उज्ज्वल नक्षत्र को प्यासी आँखों से देख रही थी। चाँद के धुँधले प्रकाश में इतनी दूर से उसने जो भी देख पाया, उसी से संतोष की साँस ली, उसने श्रद्धा से सिर नवा दिया। इसे ही अपना सौभाग्य समझ वह चलने को थी कि लंबा ओवरकोट पहने छड़ी हाथ में लिए, दाईं ओर के ज़ीने से कवि नीचे आता दिखाई पड़ा। पल भर में कवि फुलवारी में आ पहुँचा। फुलवारी में पहुँचने पर कवि को स्मरण हुआ, ख्यातनामा मक्रील नदी का मार्ग तो वह जानता ही नहीं। इस अज्ञान की अनुभूति से कवि ने दाएँ-बाएँ सहायता की आशा से देखा। समीप खड़ी एक युवती को देख, भद्रता से टोपी छूते हुए उसने पूछा, आप भी इसी होटल में ठहरी हैं!
    सम्मान से सिर झुकाकर युवती ने उत्तर दिया- जी हाँ!
    झिझकते हुए कवि ने पूछा- मक्रील नदी समीप ही किस ओर है, यह शायद आप जानती होंगी!
    उत्साह से क़दम बढ़ाते हुए युवती बोली- जी हाँ, यही सौ क़दम पर पुल है। और मार्ग दिखाने के लिए वह प्रस्तुत हो गई।
    युवती के खुले मुख पर चंद्रमा का प्रकाश पड़ रहा था। पतली भँवों के नीचे बड़ी-बड़ी आँखों में मक्रील की उज्ज्वलता झलक रही थी।
    कवि ने संकोच से कहा- न... न आपको व्यर्थ कष्ट होगा।
    गौरव से युवती बोली- कुछ भी नहीं—यही तो है, सामने!
    उजली चाँदनी रात में... संगमरमर की सुघड़, सुंदर, सजीव मूर्ति-सी युवती... साहसमयी, विश्वासमयी मार्ग दिखाने चली... सुंदरता के याचक कवि को। कवि की कविता वीणा के सूक्ष्म तार स्पंदित हो उठे... सुंदरता स्वयं अपना परिचय देने चली है... सृष्टि सौंदर्य के सरोवर की लहर उसे दूसरी लहर में मिलाने ले जा रही है—कवि ने सोचा!

    सौ क़दम पर मक्रील का पुल था। दो पहाड़ियों के तंग दर्रे में से उद्दाम वेग और घनघोर शब्द से बहते हुए जल से ऊपर तारों के रस्सों में झूलता हल्का-सा पुल लटक रहा था। वे दोनों पुल के ऊपर जा खड़े हुए। नीचे तीव्र वेग से लाखों-करोड़ों पिघले हुए चाँद बहते चले जा रहे थे, पार्श्व की चट्टानों से टकराकर वे फेनिल हो उठते। फेनराशि से दृष्टि न हटा, कवि ने कहा- सौंदर्य उन्मत्त हो उठा है। युवती को जान पड़ा, मानो प्रकृति मुखरित हो उठी है।
    कुछ क्षण पश्चात कवि बोला- आवेग में ही सौंदर्य का चरम विकास है। आवेग निकल जाने पर केवल कीचड़ रह जाता है।
    युवती तन्मयता से उन शब्दों को पी रही थी। कवि ने कहा- अपने जन्म-स्थान पर मक्रील न इतनी वेगवती होगी, न इतनी उद्दाम। शिशु की लटपट चाल से वह चलती होगी, समुद्र में पहुँच वह प्रौढ़ता की शिथिल गंभीरता धारण कर लेगी।
    अरी मक्रील! तेरा समय यही है। फूल न खिल जाने से पहले इतना सुंदर होता है और न तब जब उसकी पंखुड़ियाँ लटक जाएँ। उसका असली समय वही है, जब वह स्फुटोन्मुख हो। मधुमाखी उसी समय उस पर निछावर होने के लिए मतवाली हो उठती है! एक दीर्घ नि:श्वास छोड़ आँखें झुका, कवि चुप हो गया।

    मिनट पर मिनट गुज़रने लगे। सर्द पहाड़ी हवा के झोंके से कवि के वृद्ध शरीर को समय का ध्यान आया। उसने देखा, मक्रील की फेनिल श्वेतता युवती की सुघड़ता पर विराज रही है। एक क्षण के लिए कवि 'घोर शब्दमयी प्रवाहमयी' युवती को भूल, मूक युवती का सौंदर्य निहारने लगा। हवा के दूसरे झोंके से सिहरकर बोला, समय अधिक हो गया है, चलना चाहिए।
    लौटते समय मार्ग में कवि ने कहा- आज त्रयोदशी के दिन यह शोभा है। कल और भी अधिक प्रकाश होगा। यदि असुविधा न हो, तो क्या कल भी मार्ग दिखाने आओगी? और स्वयं ही संकोच के चाबुक की चोट खाकर वह हँस पड़ा।
    युवती ने दृढ़तापूर्वक उत्तर दिया- अवश्य।

    सर्द हवा से कवि का शरीर ठिठुर गया था। कमरे की सुखद उष्णता से उसकी जान में जान आई, भारी कपड़े उतारने के लिए वह परिधान की मेज़ के सामने गया। सिर से टोपी उतार उसने ज्यों ही नौकर के हाथ में दी, बिजली की तेज़ रौशनी से सामने आईने में दिखाई पड़ा मानो उसके सिर के बालों पर राज ने चूने से भरी कुची का एक पोत दे दिया हो और धूप में सुखाए फल के समान झुर्रियों से भरा चेहरा।

    नौकर को हाथ के संकेत से चले जाने को कह, वह दोनों हाथों से मुँह ढँक कुर्सी पर गिर-सा पड़ा। मुँदी हुई पलकों में से उसे दिखाई दिया—चाँदनी में संगमरमर की उज्ज्वल मूर्ति का सुघड़ चेहरा, जिस पर यौवन की पूर्णता छा रही थी, मक्रील का उन्माद भरा प्रवाह! कवि की आत्मा चीख़ उठी—यौवन! यौवन!!

    ग्लानि की राख के नीचे बुझती चिंगारियों को उमंग के पंखे से सजग कर, चतुर्दशी की चाँदनी में मक्रील का नृत्य देखने के लिए कवि तत्पर हुआ। घोषमयी मक्रील को कवि के यौवन से कुछ मतलब न था, और 'मूक मक्रील' ने पूजा के धूप-दीप के धूम्रावरण में कवि के नख़-शिख को देखा ही न था। इसलिए वह दिन के समय संसार की दृष्टि से बचकर अपने कमरे में ही पड़ा रहा। चाँदनी ख़ूब गहरी हो जाने पर मक्रील के पुल पर जाने के लिए वह शंकित हृदय से फुलवारी में आया। युवती प्रतीक्षा में खड़ी थी।

    कवि ने धड़कते हुए हृदय से उसकी ओर देखा—आज शाल के बदले वह शुतरी रंग का ओवरकोट पहने थी, परंतु उस गौर, सुघड़ नख़-शिख को पहचानने में भूल हो सकती थी!
    कवि ने गदगद स्वर में कहा- ओहो! आपने अपनी बात रख ली परंतु इस सर्दी में कुसमय! शायद उसके न रखने में ही अधिक बुद्धिमानी होती। व्यर्थ कष्ट क्यों कीजिएगा? ...आप विश्राम कीजिए।
    युवती ने सिर झुका उत्तर दिया- मेरा अहोभाग्य है, आपका सत्संग पा रही हूँ।
    कंटकित स्वर से कवि बोला- सो कुछ नहीं, सो कुछ नहीं।
    पुल के समीप पहुँच कवि ने कहा- आपकी कृपा है, आप मेरा साथ दे रही हैं।... संसार में साथी बड़ी चीज़ है। मक्रील की ओर संकेत कर, यह देखिए, इसका कोई साथी नहीं, इसलिए हाहाकार करती साथी की खोज में दौड़ती चली जा रही है।
    स्वयं अपने कथन की तीव्रता के अनुभव से संकुचित हो हँसने का असफल प्रयत्न कर, अप्रतिभ हो, वह प्रवाह की ओर दृष्टि गड़ाए खड़ा रहा। आँखें बिना ऊपर उठाए ही उसने धीरे-धीरे कहा- पृथ्वी की परिक्रमा कर आया हूँ... कल्पना में सुख की सृष्टि कर जब मैं गाता हूँ, संसार पुलकित हो उठता है। काल्पनिक वेदना के मेरे आर्तनाद को सुन संसार रोने लगता है। परंतु मेरे वैयक्तिक सुख-दु:ख से संसार का कोई संबंध नहीं। मैं अकेला हूँ। मेरे सुख को बाँटने वाला कहीं कोई नहीं, इसलिए वह विकास न पा, तीव्र दाह बन जाता है। मेरे दु:ख का दुर्दम वेग असह्य हो जब उछल पड़ता है, तब भी संसार उसे विनोद का ही साधन समझ बैठता है। मैं पिंजरे में बंद बुलबुल हूँ, या दु:ख से रोता हूँ, इसकी चिंता किसी को नहीं...
    काश, जीवन में मेरे सुख-दुःख का कोई अवलंब होता। मेरा कोई साथी होता! मैं अपने सुख-दु:ख का एक भाग उसे दे, उसकी अनुभूति का भाग ग्रहण कर सकता। मैं अपने इस निस्सार यश को दूर फेंक संसार का जीव बन जाता।

    कवि चुप हो गया। मिनट पर मिनट बीतने लगे। ठंडी हवा से जब कवि का बूढ़ा शरीर सिहरने लगा, दीर्घ नि:श्वास ले उसने कहा- अच्छा, चलें।
    द्रुत वेग से चली जाती जलराशि की ओर दृष्टि किए युवती कंपित स्वर में बोली- मुझे अपना साथी बना लीजिए।
    मक्रील के गंभीर गर्जन में विडंबना की हँसी का स्वर मिलाते हुए कवि बोला- तुम्हें? और चुप रह गया।
    शरीर काँप उठने के कारण पुल के रेलिंग का आश्रय ले, युवती ने लज्जा-विजड़ित स्वर में कहा- मैं यद्यपि तुच्छ हूँ...
    न-न-न, यह बात नहीं—कवि सहसा रुककर बोला, उलटी बात...हाँ, अब चलें।
    फुलवारी में पहुँच कवि ने कहा, कल... परंतु बात पूरी कहे बिना ही वह चला गया।

    * * *

    अपने कमरे में पहुँचकर सामने आईने की ओर दृष्टि न करने का वह जितना ही यत्न करने लगा, उतना ही स्पष्ट अपने मुख का प्रतिबिंब उसके सम्मुख आ उपस्थित होता। बड़ी बेचैनी में कवि का दिन बीता। उसने सुबह ही एक तौलिया आईने पर डाल दिया और दिनभर कहीं बाहर न निकला।
    दिनभर सोच और जाने क्या निश्चय कर संध्या समय कवि पुन: तैयार हो फुलवारी में गया। शुतरी रंग के काटे में संगमरमर की वह सुघड़ मूर्ति सामने खड़ी थी। कवि के हृदय की तमाम उलझन क्षण भर में लोप हो गई। कवि ने हँसकर कहा- इस सर्दी में...? देश-काल पात्र देखकर ही वचन का भी पालन किया जाता है। पूर्णिमा के प्रकाश में कवि ने देखा, उसकी बात के उत्तर में युवती के मुख पर संतोष और आत्मविश्वास की मुस्कराहट फिर गई। पुल पर पहुँच हँसते हुए कवि बोला- तो साथ देने की बात सचमुच ठीक थी?
    युवती ने उत्तर दिया- उसमें परिहास की तो कोई बात नहीं।
    कवि ने युवती की ओर देख, साहस कर पूछा- तो ज़रूर साथ दोगी?
    हाँ।—युवती ने हामी भरी, बिना सिर उठाए ही।
    सब अवस्था में, सदा?
    सिर झुकाकर युवती ने दृढ़ता से उत्तर दिया- हाँ।
    कवि अविश्वास से हँस पड़ा—तो आओ, उसने कहा—यहीं साथ दो मक्रील के गर्भ में?
    हाँ यहीं सही। युवती ने निर्भीक भाव से नेत्र उठाकर कहा।
    हँसी रोककर कवि ने कहा- अच्छा, तो तैयार हो जाओ—एक, दो, तीन। हँसकर कवि अपना हाथ युवती के कंधे पर रखना चाहता था। उसने देखा, पुल के रेलिंग के ऊपर से युवती का शरीर नीचे मक्रील के उद्दाम प्रवाह की ओर चला गया।
    भय से उसकी आँखों के सामने अँधेरा छा गया। हाथ फैलाकर उसे पकड़ने के विफल प्रयत्न में बड़ी कठिनता से वह अपने आपको संभाल सका।
    मक्रील के घोर गर्जन में एक दफ़े सुनाई दिया—'छप' और फिर केवल नदी का गंभीर गर्जन।
    कवि को ऐसा जान पड़ा, मानो मक्रील की लहरें निरंतर उसे 'आओ! आओ!' कहकर बुला रही हैं। वह सचेत ज्ञान-शून्य पुल का रेलिंग पकड़े खड़ा रहा। जब पीठ पीछे से चलकर चंद्रमा का प्रकाश उसके मुँह पर पड़ने लगा, उन्मत्त की भाँति लड़खड़ाता वह अपने कमरे की ओर चला।

    कितनी देर तक वह निश्चल आईने के सामने खड़ा रहा। फिर हाथ की लकड़ी को दोनों हाथों से थाम उसने पड़ापड़ आईने पर कितनी ही चोटें लगाईं और तब साँस चढ़ आने के कारण वह हाँफ़ता हुआ आईने के सामने ही कुर्सी पर धम से गिर पड़ा।

    * * *

    प्रात: हजामत के लिए गर्म पानी लाने वाले नौकर ने जब देखा—कवि आईने के सामने कुर्सी पर निश्चल बैठा है, परंतु आईना टुकड़े-टुकड़े हो गया और उसके बीच का भाग ग़ायब है। चौखट में फँसे आईने के लंबे-लंबे भाले के से टुकड़े मानो दाँत निकालकर कवि के निर्जीव शरीर को डरा रहे हैं।

    कवि का मुख काग़ज़ की भाँति पीला और शरीर काठ की भाँति जड़ था। उसकी आँखें अब खुली थीं, उनमें से जीवन नहीं, मृत्यु झाँक रही थी। बाद में मालूम हुआ, रात के पिछले पहर कवि के कमरे से अनेक बार 'आता हूँ, आता हूँ' की पुकार सुनाई दी थी।

    स्रोत :
    • पुस्तक : हिंदी कहानियाँ (पृष्ठ 161)
    • संपादक : जैनेंद्र कुमार
    • रचनाकार : यशपाल
    • प्रकाशन : लोकभारती प्रकाशन
    • संस्करण : 1977

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