कमबख़्त-उम्र

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प्रभात

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    झुके हुए बादलों के नीचे बड़े भाया (पिता के बड़े भाई) खेत जोत रहे थे। लीली बादी और खाड्या नाम के बैल कुड़ी (खेत जुताई के लिए हल से अलग एक उपकरण ) खींच रहे थे। कुड़ी की प्आस (कटर) में जब खेत की मिट्टी और खरपतवार का ढेर लग जाता तो कुड़ी खींचने में बैलों को जोर आने लगता। बड़े भाया उन्हें रोक लेते। कुड़ी को एक सिरे से उठाकर घुटनों से ऊपर पाँव पर धरते। कूड़े का ढेर लगी खेत में गड़ी प्आस ऊपर उठ जाती। अब भाया खैंरेटे से मिट्टी और खरपतवार हटाते। कुड़ी हल्की फूल हो जाती। बैलों की चाल में फुर्ती जाती। यह दृश्य मुझे इतना मनोरम लगता कि मैं सोचता था, ''मैं इतना बड़ा कब हो होऊँगा कि कुड़ी की प्आस से मिट्टी और खरतपवार हटा सकूँ।'' अब तो वे कुड़ी-बैल रहे, बड़े भाया ही, और मैं भी वह दस-ग्यारह बरस का किसान लड़का नहीं रहा। पर उस उम्र के क़िस्से मेरी यादों में आज भी महफ़ूज़ हैं।

    भाया (पिता) मुझे किसान लड़के के रूप में बड़े होते नहीं देखना चाहते थे। वह मुझे पढ़े-लिखे लड़के के रूप में देखना चाहते थे। यही वजह थी कि वह मुझे खेती-किसानी के कामों में हाथ नहीं लगाने देते थे। और यह दस-ग्यारह बरस की उम्र कमबख़्त ऐसी होती है कि इसमें हर काम को भाग-भाग कर करने की हूक मन में मचलती है। मेरी गाय चराने जाने की इच्छा होती थी, भाया नहीं जाने देते थे। इसका नुक़सान यह हुआ कि मैं गाँव के जंगल के डबरों में पानी में तैरती जोंक कभी नहीं देख पाया। वह जोंक जो हमारी भैंसों से चिपक कर उनका ख़ून पीती थी। कभी-कभी डबरों में से भैंस निकालकर लाने वाले चरवाहों की पिंडलियों में चिपक जाती थी और इंसान का ख़ून चूसने का लुत्फ़ उठाती थी। और तुलसीदास की पंक्ति ‘चलहिं जोंक जिमि वक्र गति’ के बिंब के लिए मुझे आज भी अनुमान का ही सहारा लेना पड़ता है। क्योंकि जोंक की वक्र गति के अवलोकन का सुख मुझे लेने दिया गया।

    यह उम्र कमबख़्त ऐसी भी है कि जिसमें बच्चे करते तो अच्छा हैं, पर हर चीज़ उल्टी पड़ जाती है। गाँव में मकान का काम चल रहा था। क्योंकि मकान के अभाव में बाबा शिवाले में सोते थे। बड़े काका गाँव की चौपालों पर सोते थे। काकियाँ, बुआएँ और बहनें पशुबाड़े में सोती थीं। इसलिए मकान का काम चल रहा था। मैंने सोचा भाया मुझे गाय चराने जाने नहीं देते। खेतों में जाता हूँ तो साँझ पड़े डाँटते हैं। चलो मकान के काम में ही हाथ बँटाओ। ‘बलम’ नाम का बेलदार ‘कान्हा’ नाम के मिस्त्री को बड़े-बड़े पत्थर सिर पर उठाकर पहुँचा रहा था। मैंने सोचा बलम की मदद हो जाएगी, चलो इस पत्थर को उठाते हैं। पत्थर इतना वज़नी था कि मैं दोनों हाथों से उसे उठा नहीं सकता था सो मैंने उसे पलटने का निश्चय किया। पलटने के लिए जैसे ही एक ओर से उठाया, मैंने उसके नीचे साँप को किलबिलाते देखा। मेरी रूह काँप गई। मैंने भाया के डर से किसी को नहीं बताया, पर ऐसी बात किसी से छिपती नहीं। भाया के प्रकोप को घर में सब जानते थे। काका-काकी ने सलाह दी, ''तू पाटोर में जाकर किताब उठाकर पढ़ने लग जा।'' मैंने ऐसा ही किया। पर भाया तो गए। इस डर से कि भाया के गर्म-जलते वाक्य मेरे दिल-दिमाग़ की चमड़ी उधेड़ दें, काका-काकी मुझे बचाने के लिए भाया के पीछे-पीछे ही गए। भाया के कुर्ते में चाबी पड़ी थी। जब तक काका-काकी आए भाया वह चाबी मुझे दे चुके थे और मुझ दस-गयारह बरस के बच्चे से कह रहे थे, ''यह ले इस घर की चाबी। इसे जैसा चलाना चाहे वैसा चला। मैं तो ये घर छोड़कर जा रहा हूँ। कभी ज़िंदगी में तेरे घर और इस गाँव में पैर नहीं दूँगा।''

    मैं एकदम जड़, कुंद, ज़ंग-खाया हो चुका था। काका-काकी मेरा हाथ पकड़ वहाँ से ले गए। भाया सचमुच गाँव छोड़कर चले गए। तीन-चार घंटे बाद गाँव का एक आदमी मुझे माफ़ी मँगवाने के लिए पड़ोस के गाँव में भाया के पास लेकर गया। भाया होटल पर चाय पी रहे थे। उनके चेहरे पर अभी भी रोष था। तब मैंने दुबारा ऐसी ग़लती नहीं होगी ऐसा कहा होगा जिसका मतलब शायद यही रहा होगा कि आज के बाद जीवन में ऐसा पत्थर कभी नहीं उठाऊँगा जिसके नीचे साँप निकले।

    भाया के इस विकट भावुक स्वभाव की यह मुझ पर पहली मार नहीं थी। जब मैं दूसरी में पढ़ता था, तब की इस घटना से उनके स्वभाव की इस प्रवृत्ति पर और प्रकाश पड़ेगा। एक बार मुझसे तख़त पर स्याही ढुल गई। मैंने सोचा अब क्या करूँ? मुझे और तो कुछ सूझा नहीं मैं जल्दी से स्याही को तख़त पर ही लीप कर वहाँ से हवा हो लिया। खाट में जाकर चद्दर ओढ़कर सो गया। भाया ने स्कूल जाने के समय में मुझे चद्दर ओढकर सोते हुए देखा तो उनके कान खड़े हो गए। बोले, ''क्या बात है?'' मेरा मुँह चद्दर से बाहर ही था और आँखें खुली हुई थीं। मैंने कहा, ''कुछ नहीं।''

    ''सो क्यों रहा है?''

    ''नींद रही है।''

    ''झूठ बोल रहा है?''

    ''नहीं।''

    फिर भाया की आँखों की फटकार से मैं एकदम सीधा होकर खाट पर तन कर बैठ गया। भाया को मेरी स्याही में सनी हथेलियाँ दिख गईं। वह बोले, ''प्रतिज्ञा कर।'' मैं शुरू हो गया, ''भारत मेरा देश है। समस्त भारतीय मेरे भाई...।'' डपटते हुए बोले, ''समस्त भारतीय नहीं, मैं कहता हूँ ऐसे बोल।'' मैंने कहा, ''बोलूँगा।'' एक लाइन भाया ने बोली फिर मैंने उसे दुहराया। और एक हाथ छाती पर और एक हाथ बाज़ू के बल सीधी दिशा में रखते हुए मैंने प्रतिज्ञा पूरी की जो इस प्रकार है :

    ''मैं प्रण करता हूँ कि...''

    ''मैं प्रण करता हूँ कि...''

    ''आज के बाद जीवन में कभी...''

    ''आज के बाद जीवन में कभी...''

    ''झूठ नहीं बोलूँगा...''

    ''झूठ नहीं बोलूँगा।''

    घर में हर कोई भाया के ग़ुस्से का शिकार होता था। एक बार हमारी किसी शैतानी पर बाबा ने मुझे और गोपाल (बड़े काका का लड़का जो मुझसे बस छह महीने बड़ा है।) को खूँटी से बाँधकर लटकाया हुआ था। हम दोनों बँधे-बँधे भी स्वतंत्रता सेनानियों की तरह मुस्कुरा रहे थे। तभी गाँव में आग की तरह फैलती हुई भाया के शहर से गाँव आने की ख़बर हमारे घर तक गई। किसी ने भाया को पोस्टकार्ड लिख दिया था कि तुम्हारा लड़का गाँव में बहुत दुख पा रहा है। उसे कोई रोटी नहीं देता। दिन भर दर-दर भूख से मारा-मारा फिरता है। कई बार तो हमने रोटी दी है। भाया उन दिनों पोस्टमैन थे। शहर की चिट्ठियाँ छाँटते समय जब उन्हें अपने नाम का पोस्टकार्ड मिला तो वह उसी क्षण पोस्ट-मास्टर से छुट्टी माँगकर दफ़्तरी वर्दी में ही गाँव की ओर आने वाली बस में बैठ गए। भाया के गाँव में पहुँचने की आग की लपट बाबा तक पहुँची तो बाबा ने फटाफट हमें खूँटियों से खोल दिया और बाड़े में खड़े-खड़े ऐसे अपनी सफ़ेद मूँछों पर हाथ फेरने लगे जैसे उन्होंने हमें बाँधा ही नहीं था। भाया ने बाबा से ऐसा झगड़ा किया कि हम खड़े-खड़े रोने लगे। बाद में समझ में आया कि यह झगड़ा वास्तव में बँटवारे को लेकर था। भाया अपने भाइयों से अलग होना चाहते थे। भाई भी यही चाहते थे। बाबा ही गाँधी जी की तरह अड़े थे कि बँटवारा हो, पर वह हुआ।

    भाया उसी क्षण मेरा हाथ पकड़कर ले गए। जिस तेज़ी से आग लगी थी, उसी तेज़ी से बुझी। रात तक मैं भाया के साथ शहर पहुँच गया। उस दिन का अपने गाँव से निकला हूँ, आज तक वापस नहीं लौट पाया हूँ।

    बीच-बीच में स्कूल की छुट्टी-छपाटियों में गाँव आना होता था। खेती-किसानी के कामों को करने की ललक शहर में रहकर भी मरी नहीं थी। गाँव आते ही बड़े भाया और बड़े काका के आस-पास मँडराता कि वे कोई काम करने के लिए बता दें। कह दें कि बैलों को पानी पिला लाओ या बछड़े को पकड़कर खूँटे से बाँध दो... आदि।

    वे नहीं बताते तो भी मैं और गोपाल मौक़ा देखकर काम माँग लेते। यह घटना तब की है, जब मैं आठवीं में पढ़ता था। एक बार खलिहान से तूड़ा (भूसा) गाड़े (बैलगाड़ी) में भर-भरकर खलिहान से घर उतारा जा रहा था। जाते समय गाड़ा भरा हुआ जाता था, आते समय ख़ाली। तो हमने बड़े भाया से कहा, ''भाया गाडे़ को खलिहान में हम ले जाएँगे।'' हमारे बहुत ज़िद करने पर बड़े भाया ने इजाज़त दे दी। मैं और गोपाल गाडे़ पर चढ़ गए और बैलों को हाँकने लगे। बैलों ने देख लिया कि गाड़े में बड़े भाया और काका में से कोई नहीं है। दो अनाड़ी लड़के हैं। वे दौड़-दोड़ कर चलने लगे। मस्ती करने लगे। गाड़ा उचकने लगा। मैं और गोपाल उछलने लगे। बैलों की रस्सी हमारे हाथों से छूट गई। हम गाड़े में टिंडे, टमाटरों की तरह बिखरने लगे। जो बैल दस मिनट में घर से खलिहान तक पहुँचते थे दो ही मिनट में पहुँच गए। गाड़े की घड़घड़ाहट सुनकर खलिहान में खड़े काका ने देखा कि ये क्या भूचाल रहा है! उन्होंने हमें गाड़े में उछलते देखा तो मामला समझ गए, और समझते ही भड़क गए और हमें गालियाँ देने लगे। कहने लगे कि रोको-रोको बैलों का जेवड़ा कर खींचो। पर हम तो ऐसी हालत में ही नहीं थे। हम तो ख़ुद ही को उछलने-बिखरने से नहीं रोक पा रहे थे। खलिहान में चारा ढोने के दो ढकोले रखे थे। ये ढकोले, ढकोला बनाने वाले ने पंद्रह दिन में बनाकर दिए थे। उन नए ढकोलों को तोड़ते-रौंदते हुए बैल गाड़े को लेकर उड़ रहे थे। बड़ी मुश्किल से काका ने बैलों को क़ाबू में किया। फिर हमें फटकार लगाई, ''किस बेवक़ूफ़ ने तुम्हें गाड़ा लेकर भेज दिया। नए ढकोलों का नाश कर दिया। चुपचाप घर जाकर किताब खोलकर बैठ जाओ नहीं तो जान से ख़त्म कर दूँगा।'' मैं और गोपाल कड़ी फटकार खाया चेहरा लिए घर की ओर चल पड़े।

    स्रोत :
    • रचनाकार : प्रभात
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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