जलते हुए मकान में कुछ लोग

jalte hue makan mein kuch log

राजकमल चौधरी

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जलते हुए मकान में कुछ लोग

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    इस बात में शक की कोई गुंजाइश नहीं। वह मकान वेश्यागृह ही था। मंदिर नहीं था। धर्मशाला भी नहीं। शमशाद ने कहा था—तुम्हें कोई तकलीफ़ नहीं होगी। सोने के लिए धुला हुआ बिस्तरा मिलेगा। सुबह वहीं नहा-धो लोगे, चाय पीकर चले आओगे। मैंने कहा था ठीक है। सेल्समैन को और क्या चाहिए! कहीं रात काट लेने की जगह कोई कमरा। कोई भी औरत। और अंत में नींद।

    औरत बुरी नहीं थी। मगर,एकदम टूटी हुई थी। बोली—फालतू पैसे हों तो देसी रम की एक बोतल मँगवाओ। सारा दिन इस औद्योगिक नगरी में चक्कर काटने के बाद मैंने पाँच हजार रुपयों का बिज़नेस कर लिया था। कमीशन के लगभग तीन सौ रुपए मेरे बनते थे। रम की बोतल मँगवाई जा सकती थी। रम की बड़ी बोतल और सामने के पंजाबी होटल से मुर्गे का शोरबा। औरत ख़ुश हो गई। मेरे गले में बाँहें डालकर मचलने लगी। कहने लगी—तुम दिलदार आदमी हो! ज़रा रात ढल जाने दो, तुम्हें ख़ुश कर दूँगी। मैं ठंडी औरत नहीं हूँ।

    औरतें इस मकान में और भी थीं। मगर शमशाद ने कहा था दूसरी के पास मत जाना। उसका नाम दीपू है, दीपू पंजाब की है। उसी के पास जाना। और मैं दीपू के पास गया था। मैंने कहा था—शमशाद ने तुम्हारे पास भेजा है। मैं न्युजिल्ट कंपनी का सेल्समैन हूँ। कल सुबह कलकत्ते चला जाऊँगा। रात भर रहना चाहता हूँ। मगर, पैसे मेरे पास ज़्यादा नहीं हैं।

    कौन शमशाद? कश्मीरी होटल वाला? वह खुद क्यों नहीं आया? ज़रूर परले मकान की कलूटी मेम के पास गया होगा। अब उसी के पास जाता है—दीपू ने एक लंबी उसाँस लेकर उत्तर दिया था... और मेरे द्वारा मिले हुए बीस रुपए मकान मालिक को देने चली गई थी। फिर लौटकर बोली थी, फालतू पैसे हों,तो देसी रम की बोतल मँगवाओ। कुल आठ रूपयों में जाएगी। शराब और औरत यहाँ सस्ते में मिलती है। देखो न, मैं बैठती तो रात-भर के पचास रुपए लोग ख़ुशी से दे जाते। मैं मेहनती औरत हूँ। क़ायदे से काम करना जानती हूँ। तुम ज़रा भी शर्म मत करो। समझ लो, अँधेरे में हर औरत हर मर्द की बीवी होती है। अँधेरे में शर्म मिट जाती है। रंग, धर्म, ज़ात-बिरादरी, मोह्ब्बत, ईमान, अँधेरे में सब कुछ मिट जाता है। सिर्फ़ कमर के नीचे बैठी हुई औरत याद रहती है।

    मगर, रात के बारह भी नहीं बजे होंगे कि पुलिस गई। मकान का मुख्य द्वार अंदर से बंद था। मालिक ने खिड़की से झाँककर देखा होगा, पुलिस ही है। वह दीपू के कमरे के पास आया। बोला—दीपू पुलिस गई है। ग्राहक के साथ भागो! वह दीपू जैसी दूसरी औरतों के कमरे के पास गया। ग्राहक के साथ भागना होगा। कहाँ? दीपू बोली—नीचे अंडरग्राउंड में। चलो, वहीं पिएँगे। और तबियत ख़ुश करेंगे। घबड़ाओ नहीं, पुलिस ज्यादा देर नहीं रुकेगी। दीपू नंगी थी और मैं भी लगभग प्राकृतिक अवस्था में ही था। उसने एक चादर लपेट ली और बोली—चलो ग्लास और बोतल उठा लो! जल्दी करो!

    चारों तरफ़ घना अंधकार है और नंगे फर्श पर बैठे हुए हम लोग रोशनी का इंतज़ार कर रहे हैं। रोशनी कब आएगी? दीपू अपने देह् से चादर उतारकर फ़र्श पर बिछाती है। दीवार टटोलकर बोतल और ग्लास किनारे रखती है। फिर पूछती है —और कौन-कौन आया है? चंद्रावती तुम भी आई हो? अँधेरे में कहीं कुछ नहीं दीखता है। अपना हाथ-पाँव तक नहीं। और इस अंधेरे में दीपू की आवाज चाँदी की सफेद तलवार की तरह चमकने लगती है—बोलते क्यों नहीं? यहाँ की आवाज़ ऊपर नहीं जाती है। ...और अब तो मालिक पुलिसवालों को रुपए दे चुका होगा। अब क्यों डरते हो? बोलते क्यों नहीं? ...और कौन है यहाँ?

    कौन? दीपू रानी? तू भी गई? कैसा गाहक है तेरे पास? बोतल लेकर आया है? भाई, एक औंस मुझे भी देना। यहाँ बड़ी सर्दी है। देगी तो? कोई दूसरी औरत अँधेरे की परतें तोड़ती है। मुझे लगता है अँधेरे में प्रेत-छायाएँ रेंग रही हैं। कमरे में ठहुलता हुआ कोई आदमी मेरी जाँघ पर पाँव रख देता है और डरकर उछल जाता है, मैंने समझा कोई जानवर है।

    जी हाँ! जानवर ही है! आप ख़ुद को क्या समझते हैं? आदमी? हुज़ूर यहाँ जानवर ही आते हैं। आदमी नहीं! आप कौन हैं? दीपू हँसने लगती है। तब कमरे में टहलता हुआ वह आदमी सिगरेट के लिए माचिस जलाता है। वह ओवरकोट डाले हुए है। सिर पर हैट नहीं है। पाँवों में जूते नहीं। बड़ी-बड़ी बनी मूँछें हैं। चेहरे पर फरिश्तों जैसा भाव उपकता है। मैं पूछता हूँ, आप कौन हैं?

    मैं यहाँ की एक फैक्ट्री में इंजीनियर हूँ। अकेला आदमी हूँ, वक़्त काटने के लिए यहाँ चला आया। क्या पता था, वक़्त इस तहखाने में कटेगा, वह दुबारा माचिस जलाता है और इस कमरे के दूसरे मुसाफ़िरों को देखने लगता है। छोटा-सा कमरा है। दीवारें नंगी हैं। फर्श सीलन से तर। अपनी ही बाँहों में सिर डाले हुए एक दुबली-पतली लड़की एक कोने में बैठी हुई है। हरी लुंगी और सफ़ेद कमीज़ पहुने हुए एक बूढ़ा आदमी बीच कमरे में खड़ा है, चुपचाप। चंद्रावती एक विद्यार्थी जैसे दीखते हुए कमसिन लड़के के गोद में सिर डाले लेटी हुई है। वह लड़का चंद्रावती का माथा सहला रहा है। माचिस की तीली बुझ जाती है। इंजीनियर कमरे में चक्कर काटता रहता है। उसके जूतों की भारी और सख़्त आवाज़ अँधेरे में गूँजती रहती है। कमरे के बीच में खड़ा बूढ़ा आदमी कहता है—मेरे रुपए भी चले गए। मेरी औरत भी उधर ही रह गई। मेरे पास शराब भी नहीं है। सिगरेट भी नहीं। पता नहीं, पुलिस कब तक ऊपर शोर मचाती रहेगी।

    ऊपर वाक़ई आग लगी हुई है। छत जैसे टूट जाएगी। पुलिस शायद कमरों की तलाशी ले रही है। शायद, ऊपर रुकी हुई औरतों को तमाचे लगा रही है। शायद, मकान मालिक को हंटर लगा रही है। कुछ पता नहीं चलता है। सिर्फ़ लगता है ऊपर कोई दौड़ रहा है और चीख-पुकार मची हुई है।

    विद्यार्थी दीखता हुआ कम उम्र लड़का बड़ी महीन आवाज में चीखता है, माचिस जलाओ... मेरे पेंट में कोई कीड़ा घुस गया है। माचिस जलाओ... मगर कोई माचिस नहीं जलाता। इंजीनियर चुपचाप टहलता रहता है। दीपू मेरे क़रीब खिसक आती है, दीवार पकड़कर बोतल और गिलास ढूँढ़ती है। जरा-सी ठोकर से ग्लास टूट जाता है। मैं फर्श टटोलता हुआ ग्लास के बड़े टुकड़े किनारे हटाने लगता हूँ। शीशे के टुकड़ों की आवाज़ में बड़ा ही कोमल संगीत है। दीपू बोतल खोलकर दो घूँट शराब गले में डालती है, फिर बोतल मुझे थमाकर खाँसने लगती है। पुरानी खाँसी। शायद दमा है। चंद्रावती कहती है, अकेले-अकेले पीने से यही होता है...

    दूँगी, बदजात तुम्हें भी दूँगी। इस तरह गालियाँ मत निकाल, दीपू चीखती है; फिर खाँसने लगती है। सर्दी में जमे हुए अपने पाँव मैं सीधा करने की कोशिश करता हूँ। दाएँ पाँव की उंगलियों में रबर की कोई चीज़ फँस जाती है। पाँव ऊपर खींचकर उसे उठाता हूँ। इस तहखाने में में भी रबर की यह चीज़ लाना लोग भूल नहीं सके। मैं मुस्कुराता हूँ। मुस्कुराने के बाद रम की बोतल गले में उतारने की कोशिश करता हूँ। पता नहीं, अब कितनी शराब बची है। चंद्रावती अंधेरे में लड़खड़ाती हुई आती है और हँसती हुई मेरी गोद में गिर जाती है। दीपू समझ गई है कि चंद्रावती ही है। कहती है—देखो चंद्रा शराब पिएगी तो इस बाबू को खुश करना पड़ेगा। यह् बाबू हमारी ही ज़ात का है। हम चमड़ा बेचते हैं, यह चमड़े से बना खेलकूद का सामान बेचता है...

    हाय रे! तुम तो एकदम नंगे हो, चंद्रावती खिलखिलाने लगती है। मैं ख़ुश होकर बोतल उसके हाथ में थमा देता हूँ। वह खुश होकर बोतल दीपू के हाथ में थमा देती है। बोतल खाली हो चुकी है और मेरा सिर चकराने लगा है। रबर की वह चीज अब तक मेरी उंगलियों में पड़ी है। मेरा सिर घूम रहा है। दुर्गंध से मेरी नाक फटी जा रही है। किस चीज की दुर्गध? लगता है आसपास कई चूहे मरे पड़े हों। चंद्रावती बहुत जरा-सी औरत बन गई है। मैं उसकी ब्लाउज़ के अंदर हाथ डालता हूँ। अंदर जैसे कुछ भी नहीं है। सिर्फ़ मांस का एक झूलता हुआ टुकड़ा। मगर उसकी जाँघों की पकड़ बेहुद मजबूत है। मैं नफ़रत से भरकर दूर खिसकना चाहता हूँ। लेकिन खिसक नहीं पाता। मेरी दोनों टाँगें उसकी जाँघों के बीच क़ैद हैं। बेहद मोटी टाँगें। भारी कमर। दीपू कहती है—सिर्फ़ मिलिटरी वाले इस चंद्री के पास आते हैं। हरामज़ादी, लोगों को तोड़कर रख देती है। क्यों मिस्टर सेल्समैन। क्या हाल है?

    मैं सिकुड़ जाता हूँ। चंद्रावती ताकत लगाती हैं, मैं सिकुड़ जाता हूँ। लगता है,मेरी जाँघों के बीच कोई मरा हुआ चूहा चिपक गया हो। शराब ने मुझे और भी सर्द बना दिया है। तभी, बीच कमरे में खड़ा बूढ़ा चीखने लगता है, साँप! मुझे साँप ने काट खाया है! रोशनी जलाओ; मुझे साँप ने काट लिया... रोशनी जलाओ...

    मगर, रोशनी नहीं होती है। इंजीनियर के जूतों की आवाज रुक जाती है, मगर माचिस नहीं जलती। चंद्रावती के साथ आया हुआ लड़का गरजता है, माचिस जलाओ! इंजीनियर साहब, माचिस जलाओ, मुझे साँप काट लेगा.... मैंने एक बार साँप को मार दिया था। साँप मुझसे बदला लेगा... मुझे बचाओ। मुझे बचा लो...

    मगर, इंजीनियर पर कोई असर नहीं होता। वह कहता है,मेरे पास दो सिगरेट हैं और माचिस की कुल दो तीली हैं, जब मुझे सिगरेट पीने की ख्वाहिश होगी तभी माचिस जलाऊँगा। अँधेरे में इंजीनियर की सिगरेट का सिरा चमकता है। उसकी घनी मूँछें चमकती हैं। वह एक किनारे दीवार के सहारे टिका खड़ा है। और वह बूढ़ा चीख़ रहा है। ...और वह लड़का चीख़ रहा है। और, चंद्रावती कहती है- बूढ़े को मरने दो। कब्र में नहीं गया, यहाँ ऐश करने चला आया। और,दीपू कहती है,रबर का साँप होगा। आठ नंबर कमरे वाली सुलताना पिछली पुलिस रेड में अपने साथ यहाँ रबर का साँप ले आई थी। हम लोग खूब डर गए थे। सुल्ताना का गाह्रक तो डर के मारे बेहोश हो गया था।

    रबर का साँप नहीं,सच्चा साँप है। मेरे पाँव से खून बह रहा है। जहर ऊपर चढ़ रहा है। सबको काट लेगा, बूढ़ा आदमी चीखता रहता है और फर्श पर गिरकर छटपटाने लगता है। दीपू हँसती है, साला छटपटा रहा है... अरे अब्बाजान, बूढ़े आदमी हो, मर गए तो क्या बिगड़ जाएगा....क्यों बे चंद्री, क्या करती है? जल्दी खलास क्यों नहीं करती है? बिचारे ने आठ की शराब मँगाई है, बीस रुपए कैश दिए हैं, मुर्गे का गोश्त ऊपर ही पड़ा रह गया... ज़रा बिचारे को मौज पानी लेने दो। दो-एक कसरत मैं भी करुँगी। जल्दी कर चंद्री, मैं अब गर्म होती जा रही हूँ।

    अब इंजीनियर माचिस जलाकर दूसरी सिगरेट सुलगाता है। बूढ़े के पाँव में ग्लास का टुकड़ा गढ़ गया है। बाकई खून बह रहा है। बूढ़ा फर्श पर पाँव पटक-पटक कर चीख रहा है, मैं कोयले का स्टॉकिस्ट हूँ। मर गया,तो लोग गोदाम तोड़कर सारा कोयला उठा ले जाएँगे... बेटा मेरा आवारा निकल गया है। घर-दरवाजे तक बेचकर रंडियों को दे देगा... मुझे बचाओ... बाहर जाने दो। मुझे इस तहख़ाने से निकालो...

    विद्यार्थी दीखते हुए लड़के ने माचिस की रोशनी में दीवार के सहारे चुपचाप और अकेली लड़की को देख लिया है। बहु खिसककर उसके पास जा रहा है। लड़की डरी हुई है और खामोश है। लड़का शायद चंद्रावती के अभाव को पूरा करना चाहता है। इंजीनियर माचिस बुझा देता है और सीने की सारी ताक़त लगाकर सिगरेट के काश खींचता रहता है। शराब की खाली बोतल दीपू की जाँघों के बीच दबी पड़ी है। लकड़ी के कुंदों की तरह मोटी-मोटी जाँघे। चंद्रावती ने मेरी गर्दन में अपनी बाँहें फँसा दी है और मुझे हिलाती हुई कह रही है—ऐ मिस्टर, थोडा होश तुम भी करो... अकेले मैं क्या करूँ? थोड़ी ताकत लगाओ।

    मगर मुझे लगता है कि मैं अब बेहोश हो जाऊँगा। यहु घुटन, यह ठंडी फ़र्श, इंजीनियर के सिगरेट का धुआँ, मरे हुए चूहों की दुर्गंध, बूढ़े आदमी की चीख़-पुकार, दीपू की जाँघों में अटकी हुई बोतल... मुझे लगता है कि अब मैं बेहोश हो जाऊँगा। अचानक बोतल दूर फेंककर दीपू चीखती है, तू हट जा चंद्रावती, तू अब रास्ता छोड़! मैं इस बाबू को बताती हूँ... चल, परे हट, साले को मैं कच्चा चबा जाऊँगी...

    ...और, रम की ख़ाली बोतल दीवार के सहारे बैठी उस लड़की के पास गिरती है। वह बड़ी पतली आवाज में चीखती है—मैं मर गई। मेरा सिर फ़ट गया... मैं मर गई।

    वह लड़का शिकारी कुत्ते की तरह उछल कर उसके पास पहुँच जाता है। इंजीनियर फिर टहलने लगा है। उसके जूतों की आवाज बड़ी भयावनी है। चंद्रावती फ़र्श पर गिरी हुई हाँफ़ रही है। दीपू मेरे ऊपर चढ़ी है और मुझे झकझोर रही है। मैं धीरे-धीरे सो जाता हूँ। शायद बेहोश हो जाता हूँ। शायद मर जाता हूँ। मर जाने के सिवा अब और कोई उपाय नहीं रह गया है।

    स्रोत :
    • रचनाकार : राजकमल चौधरी

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