प्यासी हूँ

pyasi hoon

उषादेवी मित्र

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प्यासी हूँ

उषादेवी मित्र

और अधिकउषादेवी मित्र

    कोई बारह बज चुके थे। दुनिया के पर्दे से स्वप्न की रानी झाँक रही थी—विजेता की भाँति, उसके नूपुर के मिलन-गीत से पृथ्वी मूर्छित-सी होती जाती थी।

    वकील केशव के उस बड़े मकान के सभी कमरों की बत्तियाँ बुझ चुकी थीं, केवल सहाना का कमरा तब भी बिजली-शिखा से उज्ज्वल हो रहा था। मख़मल के काउच पर कुत्ते के बच्चे को लिए वह बैठी थी। पलंग के सफ़ेद रेशम के बिस्तर को किसी ने छुआ तक नहीं था, गुलदस्तों के फूलों की मीठी सुगंध से कमरे की हवा व्याकुल हो रही थी, गुलाब जल से बसे पान के बीड़े अनादर से रकाबी पर ही सूख रहे थे, दीवाल पर के ऑयल-पेंटिंग चित्रों के नीचे की दीप-शिखाएँ उस गहरी रात में कुछ म्लान-सी हो रही थी, शायद नींद से उनकी आँखें भी अलसा रही हों, किंतु उसकी पलकों में नींद की एक हलकी-सी छाया भी थी। वह उस बच्चे को सुला रही थी, परम आदर के साथ कभी उसे आदर, प्यार, सोहाग से बेचैन कर देती तो कभी उसे हृदय से लगाती, मुँह चूमने लगती। वह भूल बैठी थी पति के अस्तित्व को जो कि कुछ ही दूर आराम कुर्सी पर अधलेटे हुए नारी हृदय की ममता की प्यास को, मातृत्व की वुभुक्षा को अपलक नेत्रों से देख रहा था। उसकी दृष्टि जीवंत विस्मय से विमूढ़ हो रही थी। मुक़दमे के काग़ज़ वैसे ही इधर-उधर पड़े थे, उस ओर ध्यान देने योग्य उस समय उसके मन की स्थिति नहीं थी।

    आज अचानक नहीं, परंतु कई दिनों से केशव शायद अपनी भूल कुछ-कुछ समझ रहा था। एक अनजान दर्द, एक अपरिचित प्रभाव से यह कभी बेचैन हो जाता, चेष्टा करने पर उसकी समझ में बात नहीं आती कि वह व्यथा, वह अभाव किस लिए और क्यों है? वह अनजान-सा बना रहता।

    पत्नी का दीर्घ श्वास, कुत्ते के प्रति उसकी वह लालायित दृष्टि केशव के अंतर के किसी गोपनीय अंश में आघात कर बैठी, जूही की झाड़ी आँखों के सामने से हट गई, मोती-जैसे फूल बिखर गए। गत-दिवस के वे रंगीले दृश्य चल-चित्र के समान सामने अड़ गए, जहाँ कि एक नारी रूप, रूप-गंध-पूर्ण अपने सुगठित यौवन की मदिरा भरे कलश को लेकर उसी के पैर तले बैठी वर्षों विनिद्र रजनी बिता दिया करती थी, नारी रूप-उपासक के पैरों में अपने श्रेष्ठ मातृत्व तक को न्योछावर करने में जिसने विचार तक नहीं किया था, पति की तुष्टि के लिए जिसके नयन, प्रत्येक रोम सदा ख़ुशी की वर्षा किया करते थे, नूतनत्व-विहीन संपूर्ण लुटी हुई नारी वह यही है। बाहरी जगत के तीव्र आकर्षण, करोड़ों कामों में पिसकर जिसे कि आज बासी माला की तरह दूर फेंक देना पड़ा है, वह दूसरी नहीं—यही है—यही, यही। जिसे कि आज इस विलासिता के अंदर तपस्विनी गौरी की तरह जागते ही रात बितानी पड़ रही है, कुत्तों और बिल्ली के बच्चों को लेकर माँ की प्यास—केशव जबरन ही हँस पड़ा। अपने आपको डाँटने लगा—यह सब वह क्या सोच रहा था? वह आश्चर्य में था कि ऐसे विचार उसके मन में उठे ही क्यों?

    उस हँसी से सहाना चौकी—अभी सोओगे? बत्ती बुझा दूँ?

    'नहीं, अभी काग़ज़ देखना है।'

    'क्या रात-भर काम ही करते रहोगे? दो बज रहे हैं।'

    'किंतु अभी तक तो तुम्हारे खेल को देख रहा था। बुढ़ापे में कुत्तों के पिल्लों से खेलते तुम्हें शर्म नहीं आती, लोग कहेंगे क्या?

    सहाना ने सहमी हुई आँखें उठाई—उसकी माँ मर गई है, बच्चा दिन-रात रोया करता है। आँसू छिपाने के लिए सहाना ने दूसरी ओर मुँह फेर लिया।

    'एक दिन मरना तो सबको है; फिर कुत्ते-बिल्ली के लिए यदि सभी आँसू बहा दोगी तो मेरे लिए बचेगा क्या?'

    'तुम फिर वही बातें करते हो।' उसने अभिमान से मुँह फेर लिया। बहुत दिनों के बाद पति के मुँह से उसी भूले-से परिहास को सुनकर वह विस्मित हो रही थी। गत प्रेम के दिनों का जीवन ही कितना था? बूँद भर ओस, जुगुनू की दीवट, फूल की पँखुड़ी की तरह छोटे, बहुत ही छोटे दिन, किंतु उन छोटे दिनों की वह प्रेम-स्मृति सहाना के निकट अमर और अविनाशी थी।

    'बहुत दिनों के बाद।' उसने धीरे से कहा।

    'मैं उन बातों को भूला नहीं हूँ सहाना। किंतु मैं कभी आश्चर्य करता हूँ, सोचता रहता हूँ कि जिस अंतर में कभी दिन-रात प्रेम-प्यार की पुकार उठा करती थी, आज चेष्टा करने पर भी क्यों नहीं उठती? शायद मेरा यौवन मर चुका हो।' केशव का स्वर दर्द से भरा हुआ था। सहाना हँसी, उस हँसी की जाति ही निराली थी।

    (दो)

    'पूजा के कमरे में आज से तुम मत जाना दुलहिन।' सहाना की सास नर्मदा ने कहा।

    फूल चुनते-चुनते वह रुकी—क्यों अम्माजी?

    'सबेरे हल्कू को दूध नहीं पिला रही थी?'

    'वह रो रहा था।'

    'साईस का लड़का रोए या मरे, अपने को क्या? बड़े घर में आई हो, ज़ात-पात का भी तो कुछ विचार किया करो। कहाँ वह जैसवारा और कहाँ हम ब्राह्मण! 'कुत्ते-बिल्ली दिन-भर लिए रहती हो, मेरे हज़ार सर पीटने पर भी मानती नहीं। दिन-पर-दिन तुम हठी होती जाती हो। ऐसा अनाचार मैं सह नहीं सकती हूँ।'

    उत्तर देने के लिए सहाना के कंठ में शब्दों की भीड़-सी लग गई। किंतु फिर भी उसका उत्तर संक्षिप्त ही हुआ—वह छह महीने का अबोध शिशु है अम्माजी! मरते वक़्त दुखिया बच्चा मुझे सौंप गई थी।

    'आज जैसवारा तो कल मेहतर के बच्चे को उठा लाना। मेरे रहते इस घर में तेरा अधिकार ही कौन-सा है? मेरे मत विरुद्ध यहाँ कोई काम नहीं हो सकता है। उसे अभी दूर कर दे।' गृहिणी झुँझला पड़ी।

    'नहीं।'

    'क्या नहीं?

    'नहीं।'

    नर्मदा के चिल्लाने से केशव भीतर गया—'क्या है?'

    'भैया, मुझे तू काशी पहुँचा दे।'

    'क्यों माँ?'

    'क्योंकि मैं नौकरानी बनकर नहीं रह सकती हूँ। तुम्हीं से पूछती हूँ—घर की मालकिन बहू है या मैं?'

    केशव को चुप रहते देखकर माता जल उठी—कहो, मैं तुमसे सुनना चाहती हूँ।—माता ने अपना प्रश्न दुहराया।

    'तुम्हारे रहते हुए तो दूसरी कोई मालकिन बन नहीं सकती। परंतु उसे भी तुम्हीं लाई हो और अधिकार भी दिया है।'

    केशव की पूरी बातें सुनने का धीरज उस समय गृहिणी में था नहीं। नर्मदा ने कहा—तो तुम्हारे राज में आज क्या चमार-भंगी के साथ बैठकर खाना पड़ेगा?

    'ऐसा करने को तुमसे किसने कहा?'

    'तुम्हारी पत्नी ने। सवेरे से दुखिया के लड़के को उठा लाई है—कहती है उसे रखूँगी।'

    'क्या यह सच है?'

    'हाँ! उसकी माँ मुझे सौंप गई है।'

    'किंतु वह जैसवारा का लड़का है। इस घर में उसकी जगह कैसे हो सकती है सहाना?'

    'जैसवार के घर में जन्म लेना क्या उसका अपराध है?'

    उत्तर दिया नर्मदा ने- 'ऊपर से लगी जवाब-सवाल करने! तेरी हिम्मत देख-देखकर मैं अवाक होती हूँ। दूसरी सास होती तो तुझ जैसी बाँझ का मुँह भी देखती।'

    व्यथा से उसका चेहरा पीला पड़ गया। अपने को सँभालकर सहाना ने कहा—मैं आप से नहीं, उनसे पूछती हूँ कि यदि आत्मा अमर है, ईश्वर का अंश है और सभी में उसी एक पावन आत्मा का प्रकाश है तो यह छुआछूत का प्रश्न उठा ही क्यों और कैसे?

    'लोकाचार है। समाज का नियम है। जब कि उसी समाज में हमें रहना है, तब उसके नियमों को मानना भी जरूरी बात है।'

    'मैं कब कहती हूँ कि तुम निराले समाज में चले जाओ। किंतु पुराने की महिमा में मुग्ध होकर उसके कीचड़ को संदूक़ में भरकर रखने में कोई पौरुष, कोई श्लाघा नहीं है। प्रकृति के नियम से नित नई वस्तु बनती और मिटती है। पुराने में जो मिली वस्तु है उसका सम्मान और रक्षा हम अवश्य ही करेंगे। परंतु बुरे को सदा त्यागने के साहस की कमी हममें कभी हो, यह प्रार्थना मैं ईश्वर से किया करती हूँ।'

    'तो तुम इस नियम को ख़राब कहती हो?

    'हज़ार बार। आदमी आदमी को घृणा करेगा, यह निरी पहेली ही नहीं अपराध भी है।'

    'मैं घृणा की बात नहीं कहता, केवल माँ के सम्मान के लिए तुम बच्चे को हटा दो सहाना!' वह डर रहा था क्योंकि स्वाधीन स्वभाव की पत्नी को वह भली-भाँति पहचानता था। 'नहीं' कुछ देर सोचने के बाद उसने कहा—नहीं, यह असंभव है, तुम्हारे और माँ के संतोष-सम्मान के लिए अपने प्राण न्योछावर कर सकती हूँ पर दूसरे के नहीं और उस वचन को तोड़ ही सकती हूँ जो कि उसकी मरन-सेज पर मैं दे चुकी हूँ।

    'सहाना, आज इस जीवन के अंत में तुम मुझसे क्या सुनना, क्या कहना चाहती हो?

    'कुछ भी नहीं।' उसने बालक को छाती से लगा लिया। जाते समय कहती गई—बच्चा भूखा है। इसे दूध पिलाकर फिर तुम्हारी बातें सुनूँगी।

    माता-पुत्र स्तंभित-से खड़े रह गए।

    (तीन)

    'सहाना, आल्मारी की चाभी देना, काग़ज़ निकालना है।' मंदिर के द्वार पर केशव ने पुकारा।

    कटोरे में चंदन पोंछकर शीला लौटी। एक-दूसरे की ओर देखने लगे। उन दृष्टियों में प्रश्न था—तुम कौन हो, कहाँ से आए?

    उसी दिन से सहाना का मंदिर में जाना तथा रसोई आदि में जाना—नर्मदा देवी ने बंद कर दिया था। ये बातें केशव जानता नहीं था, ऐसा नहीं। कदाचित अभ्यासवश फिर भी वह उस दिन मंदिर-द्वार पर खड़ा हो गया। उसे स्मरण हो पाया कि रात में इसी शीला की बात सहाना कह रही थी। वह नर्मदा की अनाथ ज्ञाती कन्या थी, अविवाहिता थी। नर्मदा ने उसे बुला लिया था!

    'चाभी तो मेरे पास नहीं है। मैं शीला हूँ। कल यहाँ आई हूँ।'

    इस तरुणी की संकोचहीन बातों से केशव-कम विस्मित हुआ। वह उन आयत नयनों के सामने संकुचित हो रहा था। बोला—'अच्छा तो मैं जाता हूँ।' किसी तरह इतना कहकर वह भागा।

    भोजन के आसन पर बैठकर केशव विरक्ति से यहाँ-वहाँ निहारने लगा। शीला थाली और कटोरों को रखकर पंखे से मक्खी भगाने लगी। रसोई ब्राह्मण बनाता था। किंतु भोजन के समय सहाना सामने बैठती थी दो-चार तरकारियाँ भी पति के लिए अपने हाथ से बनाया करती थी, परंतु हल्कू के आने के बाद से गृहिणी उसे दूर रखकर स्वयं उन कामों को कर लिया करती थी और आज उन्होंने शीला को अपना स्थान सौंप दिया था।

    'केशव, करेले कैसे बने हैं?' माता सामने आकर खड़ी हो गई।

    'अच्छे।'

    'शीला ने बनाए हैं। बड़ी काम की लड़की है और वैसी ही नम्र-शांत भी है। मैं जिस काम को कह देती हूँ उसे जी खोलकर करती है। आलू के बड़े भी उसी ने बनाए हैं, अच्छे बने हैं न?'

    'हाँ।

    'क्यों झूठ बोलते हैं! आपने उन्हें छुआ तक नहीं।'—शीला हँस पड़ी।

    अप्रस्तुत होने के साथ-ही-साथ शीला के सरल व्यवहार से केशव संतुष्ट भी हुआ।

    'शीला सच कह रही है भैया! तुमने तो आज कुछ नहीं खाया।'

    'ख़राब बना होगा।'

    'नहीं-नहीं, सब चीज़ें अच्छी बनी हैं। भूख नहीं है।'

    फिर भी आप झूठ कहते हैं। मैं कहती हूँ मौसी, भौजी को बुला लो, अभी ये भरपेट भोजन कर लेंगे।'

    इस तरुणी की मुँह पर सच कहने की शक्ति को देखकर केशव मन में उसकी प्रशंसा करने लगा।

    'ऐसा तो नहीं हो सकता शीला कि मेरे जीते-जी घर में भंगी बसोरों का निवास हो जाए। बहू घर की लक्ष्मी कहलाती है, वही यदि अनाचार करने लगे तो उस घर की भलाई कब तक हो सकती है! एक तो इस वंश का ही नाश होने बैठा है। एक बच्चा तक नहीं हुआ। वंश-रक्षा करना एक ज़रूरी बात है। किंतु कोई सुनता ही नहीं। मुझे तो ऐसा लगता है कि अपने हाथों अपना सर पीट लूँ।'

    एक अनजान के सामने इन बातों की अवतारणा से केशव चिढ़ रहा था, फिर भी उसने हँसकर कहा—'तो अपना सर पीटकर ही देख लो।'

    'क्या दाँत निकालते हो भैया, मेरा तो जी जला जाता है। उसी की बात सब कुछ हो गई और मेरी बात को कोई पूछता तक नहीं।'

    'ऐसा तो नहीं है माँ!'

    'फिर तू ब्याह क्यों नहीं करता?'

    विवाहित हूँ।'

    'इससे क्या हुआ। वंश-रक्षा के लिए लोग जाने कितने विवाह करते हैं। किंतु इधर तो उसने सौगंध रखा दी है; माँ की सौगंध को कौन मानता है।'

    'उसने मुझसे कभी कुछ नहीं कहा, यह विचार तुम्हारा ग़लत है। उसका मत छोटा नहीं है, माँ! वह तुम्हारे विरुद्ध कभी कुछ कहती नहीं।'

    'अरे, मैं सब कुछ जानती हूँ! आज वही तो तेरी सब-कुछ है। एक दिन वह था जब कि इस बुढ़िया के बिना तेरा दिन कटना मुश्किल था। तेरी आँखों के सामने वह तेरी ही माँ का अपमान करे? एक जैसवारे के लड़के को घर में रखे, दिन-भर गोद में लिए रहे और तू औरतों-जैसा देखता रहे। धिक्कार है ऐसी ज़िंदगी पर!'

    केशव आसन पर से उठ पड़ा।

    'तुमने ऐसा क्यों कहा मौसी, उन्होंने खाया तक नहीं।'

    'क्या मैं चुपचाप यह सब सह लूँ?'

    'किंतु तुमने मेरे सामने क्यों कहा? यही बात उन्हें बुरी लगी।'

    ''तुमसे सच कहती हूँ शीला, केशव ऐसा नहीं था। बहू ने उस पर जादू किया है।'

    इस बार ‘शीला अपनी हँसी रोक सकी। वह हँसते-हँसते लोटने लगी।

    'तू हँसती क्यों है? इसमें हँसने की कौन-सी बात है?'

    'तुम अंधेर करती हो मौसी, भला जादू भी कोई चीज़ है? फिर भौजी के लिए तो ऐसे विचार भी नहीं उठ सकते। उनकी बातचीत की रीति, उनकी शिक्षा ही निराले ढंग की है। वे हज़ारों में एक स्त्री हैं।'

    'तू भी ऐसा कहती है, शीला! मैं तुझे अपना समझे हुए थी। मेरा भाग्य ही ऐसा है।'

    शीला नर्मदा के गले से लिपट गई—नाराज़ हो गई मौसी?

    (चार)

    मल्लार रागिनी का आलाप लिए वर्षा तब पृथ्वी के सिरहाने उतर आई थी। घर-द्वार, तरु-पल्लवों में उसके पैरों की हरियाली छाप पड़ने लग गई थी। उस हरियाली ने बूढ़े बट के नीरस हृदय तक को सजीवता के साथ-ही-साथ रसपूर्ण भी कर दिया था। वर्षा की इस अलसाई हुई संध्या ने केशव के निद्रालु चित्त में नवीनता का मोहक मंत्र फूँक दिया। वह धीरे-धीरे सहाना के कमरे की ओर बढ़ा। बहुत दिनों के बाद द्वार को और पीठ किए वह आईने के सामने खड़ी बालों को सँवार रही थी। बालों के गुच्छे कमर पर लहरा रहे थे। साड़ी का आँचल ज़मीन पर लोट रहा था। उसके ओठों पर हल्की-सी मुस्कान थिरक रही थी—वही रूप-यौवन की मुस्कान।

    'सहाना!' उसकी पीठ पर हाथ रखकर प्यार से केशव ने पुकारा।

    'आप?' चंचल हरिणी की तरह वह लौटकर खड़ी हो गई।

    'तुम तो शीला हो! सहाना—मेरी सहाना को तुम लोगों ने कहाँ भगा दिया?'

    'मैंने!' किंतु दूसरे पल शीला सहमकर बोलीं—वे तो घर ही हैं, नीचे कुछ कर रही हैं।

    'फिर तुम उसके कमरे में उसी की तरह इस आईने के सामने क्यों खड़ी थी?'

    शीला के लिए यह एक अद्भुत प्रश्न तो था ही और जो कुछ था वह था अपमान और तिरस्कार। फिर भी उसकी शिक्षा ने उसे आपे से बाहर होने से रोका। कौन-सी भयानक स्थिति ने केशव जैसे गंभीर प्रकृति के मनुष्य को इस तरह विचलित कर दिया है?—इस बात को सोचकर शीला सिहर उठी। वह हट गई।

    केशव पत्नी के सामने जाकर खड़ा हो गया—एक दीर्घ श्वास की तरह—कहाँ थी तुम?

    सहाना जल्दी से हल्कू के उन नन्हे प्यारे हाथों को छोड़कर ज़रा हट आई। वह जानती थी कि उसी दुखी, असहाय शिशु को लेकर उसकी गृहस्थी में कैसा तूफ़ान उठा हुआ है।

    'तुम मेरे साथ-साथ रहा करो सहाना।'

    पति की उन व्याकुल बाँहों में अपने को सौंपकर वह उसका मुँह निहारने लगी। समुद्र-सा अथाह विस्मय उसके सामने था। बच्चा रोने लगा। इतनी देर के बाद केशव की दृष्टि हल्कू पर पड़ी—इसी के लिए आज तुम मुझे भूल रही हो? मेरी यह दशा हो रही है। सारे अनिष्ट की जड़ यही है। अच्छा ठहरो! केशव ने बालक को उठा लिया। शायद उसे फेंकना चाहता हो।

    उन्मादिनी की भाँति सहाना ने बालक को छीन लिया। अपनी छाती से उसे लगाकर हाँफने लगी।

    'उसे दे दो सहाना, वरना आज मुझे कठोर बर्ताव करना पड़ेगा।'

    'नहीं, नहीं, मेरे बच्चे का ख़ून मत करो। पहले मुझे मार डालो।' वह बच्चे को गोद में लेकर ज़मीन पर बैठ गई।

    केशव को ज़िद-सी हो गई—मैं उसे लेकर ही छोड़ूँगा। वह उसे छीनना चाहने लगा। सहसा उसकी आँखें सहाना की आँखों से मिल गई! सहाना की उस दृष्टि को वह सह सका—यह कैसी रिक्त, सर्वशात दृष्टि है? केशव सिहर उठा। उसके हाथ अपने-आप रुक गए। हृदय में प्रश्नों की झड़ी-सी लग गई—वह जो गतयौवना, रूपवती नारी मर्द के रूप की प्यास बुझाने के लिए आज सब कुछ खो बैठी है, उसके जीवन के लंबे दिन क्या यूँ ही दीर्घ श्वास की नाईं छोटे से पल में उड़ जाएँगे? अणु-परमाणु माता होने के लिए सृजे गए थे, उसे व्यर्थ करने का अधिकार दुनिया में किसी को भी था? शायद जीवन के आरंभ में वह पावन दीप जलाए संतान की प्रतीक्षा में बैठी थी। उसकी उस प्रतीक्षा को निष्फल किसने किया? पति के अभिमान से अंधा बनकर उसके शुद्ध सुंदर मातृत्व को छीन लेने वाला वह राक्षस कौन था? कठोर तपस्या शेष कर जीवन की संध्या-वेला में जो रमणी भिखारिन की तरह संतान की भीख माँग रही है, उसकी भिक्षा की झोली आज वह किस चीज़ से भरेगा?

    माता की उस मरुभूमि की-सी तृष्णा को वह किस तरह तृप्त करेगा? उसकी उस ज़रा-सी शांति, संतोष उस अभागे बच्चे को छीनकर क्या पतिपूजा का पुरस्कार वह इसी तरह देगा? केशव की चिंता में बाधा पड़ी। सहाना ने बच्चे को उसके पैर तले डाल दिया—लो, लेते जाओ, आज मैं इसे तुम्हीं की सौंपती हूँ। दोनों हाथों से सहाना ने अपना मुँह ढाँप लिया। केशव ने एक बार पत्नी की ओर और दूसरी बार बच्चे को देखा, फिर हल्कू को धीरे से उठाकर सहाना की गोद में डाल दिया।

    (पाँच)

    जिस दिन उस बालक का अंत हो गया उस दिन सहाना की आँखों में पानी की एक छोटी-सी बूँद तक नहीं थी। दिन एक-सा बहने लगा, सहाना का अंतर का परिवर्तन बाहरी जगत से छिपा ही रह गया, शायद जीवन-भर के लिए यह सब कामों में योग देती और पति से हँसकर बातें भी करती, केवल दिन में एक बार वह उस नन्हे बच्चे के चित्र को आँखों से लगा देती।

    जिस दिन उसकी वह चोरी पकड़ी गई, उस दिन केशव ने विरक्त होकर कहा—बुढ़ापे में क्या तुम पागल हो जाओगी? धूमकेतु यदि मरा भी तो निशानी छोड़ गया।

    'छि:! मरे हुए का ज़रा-सा सम्मान करना सीखो। उसकी भी आत्मा थी।' सहाना के कंठ में तिरस्कार था।

    'ऐसा! तो उस कमीने के लिए आँसू भी बहाना पड़ेगा?'

    'फिर इससे तुम छोटे हो जाओगे।'

    'और कुत्ते-बिल्ली के लिए किस दिन आँसू बहाना होगा सो भी कह दो।'

    सहाना ने उत्तर नहीं दिया। इन बातों का वह जवाब ही क्या देती?

    'अब जवाब क्यों नहीं देती?'

    'क्या इन बातों का उत्तर भी देना है? और मुझी को।'

    उन शब्दों में कौन-सी सम्मोहनी भरी थी सो तो केशव ही जाने, किंतु इसके बाद मारे लज्जा के उसकी आँखें झुक गईं। पिछली बातों के स्मरण से शायद उसके मन में अनुताप की छाया-सी पड़ी, किंतु दूसरे क्षण वह बलात ही अस्वीकार करने लगा—वह तो होनहार था।

    झूठ से समझौता करते-करते लोग अपने जीवन की जाने कितनी अनमोल वस्तुओं को खो बैठते हैं और शायद इसी से केशव फिर मिथ्या से समझौता करने लग गया।

    'तुम बैठी फ़ोटो देखती रहो। और मैं भूखा-प्यासा बैठा तुम्हारा मुँह निहारता रहूँ। यही कहना चाहती हो न?'

    'मैं तुमसे कुछ भी कहना नहीं चाहती। भोजन कर लो।'

    'धन्यवाद! इतनी देर के बाद याद तो आया।'

    वह कह सकती थी कि आजकल भोजन छूने का अधिकार उसे नहीं है। कह सकती थी अब उसके बदले शीला उन कामों को किया करती है। परंतु नहीं, उसने कहा कुछ नहीं। चुपके से बाहर निकल गई।

    'आइए'—शीला ने पुकारा।

    केशव के कानों में अमृत की वर्षा हो गई—कैसी दर्द भरी पुकार है—मन में कहा केशव ने।

    आसन के आगे मिठाई की रकाबी रखे बैठी थी शीला—उसी की प्रतीक्षा में। केशव का अंतर-बाहर आनंद, संतोष से भर उठा। सारे दिन परिश्रम के बाद घर में भी शांति नहीं मिलती थी। उस तरुणी की सेवा, सहानुभूति से केशव बिछुड़े हुए दिनों की उसी ख़ुशी के समुंदर में लहराने लगता था थोड़ी देर के लिए।

    गरम-गरम कचौड़ी रकाबी में डालकर शीला ने कहा—इनमें से एक भी बचे वरना दंड भुगतना पड़ेगा।

    केशव ने शीला की ओर देखा—उस तरुणी के सारे अंगों से ख़ुशी का झरना-सा झरता पाया।

    'कौन-सी सज़ा मिलेगी शीला?' कौतुक से केशव ने पूछा।

    'फिर इतनी ही कचौड़ियाँ और खानी पड़ेंगी।'

    'यदि खा सकूँ?'

    'तो इसी तरह रात-भर बैठे रहना पड़ेगा।'

    'तुम मेरे सामने रहोगी शीला?'

    'जाइए!' ये मीठे शब्द बहुत ही मीठे ढंग से कहे गए।

    केशव चौंक पड़ा और उसके बाद वह एकदम उठकर भागा चोर की तरह।

    आकुल विस्मय से शीला उसे निहारती ही रह गई।

    ****

    सहाना ने धीरे से पति के सिर पर हाथ फेरा, पूछा—इस समय तुम सोए क्यों? जी ख़राब तो नहीं है?

    'सहाना, तुम्हीं मेरी सहधर्मिणी हो और तुम ही रहोगी।' दोनों हाथों से सहाना का हाथ पकड़कर वह बार-बार कहने लगा।

    सहाना धीरे-धीरे उसके सिर पर हाथ फेरने लगी।

    'क्या वे पुराने दिन नहीं लौट सकते, सहाना?'

    सहाना का हृदय व्यथा से विकल हो पड़ा।

    'कहो सहाना, जवाब दो।'

    'तुम्हारे दर्द को मैं और बढ़ाना नहीं चाहती।'

    'समझा नहीं'—केशव ने कहा।

    'तुम ज़रा चुपचाप सो जाओ, जी ठीक हो जाएगा।'

    'नहीं, नहीं, मुझे कहने दो, सहाना—सहाना—।'

    'मैं जानती हूँ।'

    'तुम! तुम-जानती हो! क्या जानती हो?' विराट विस्मय से केशव की आँखें विस्फारित हो रही थी।

    'सब बातों को। किंतु तुम्हारे मुँह से सुनना नहीं चाहती।' वह हँसी।

    केशव का सिर अपने आप झुक गया।

    'कब से जानती हो?'—देर के बाद केशव ने पूछा।

    'बहुत दिनों से।'

    'तुमने मुझे सावधान क्यों किया? मुझे अपनी बातों से खींच क्यों लिया?'

    'जबरन भी? किंतु नहीं; मैं ऐसा नहीं कर सकती थी। वैसी भीख की झोली से मैं घृणा करती हूँ—आंतरिक घृणा। प्रेम-प्यार आदर की वस्तु ज़रूर है, परंतु माँगने की नहीं। उसके लिए दूसरे से झगड़ना, छि. छि!'

    सहाना घृणा से सिहर उठी।

    'तुम पत्थर की बनी हो सहाना।'

    'होगा भी।'—उदार स्वर से उसने कहा!

    'अपना अधिकार मैं इस अवहेलना से नहीं छोड़ सकता था।'

    'अवहेलना? नहीं, घृणा कह सकते हो। मैं कहती थीं, ये सब बातें तभी हठ सकती हैं जब कि अधिकार को कोई छोड़ देता!'

    'फिर यह क्या है?'

    'जो प्रेम एक बार किसी के द्वार पर लुट चुका था, वही प्रेम आज प्रतारक की तरह दूसरे के द्वार पर झाँकने लगे तो उसके लिए सिर की ज़रूरत नहीं है। अधिकार मन की चीज़ है। प्रेम के उसको छीन लेने की शक्ति विधाता को भी नहीं है, फिर हम तो आदमी ही ठहरे।' सहाना उठी—अब मैं जाती हूँ, काम पड़ा है।

    (छः)

    काम करते-करते शिशु-कंठ के मीठे गीत से अनमनी-सी सहाना द्वार पर आकर खड़ी हो गई।

    गीत गा-गाकर नन्हे-नन्हे बच्चे देश के लिए भीख माँग रहे थे। सहाना पलकहीन नेत्रों से उन्हें देखने लगी।

    'माताजी!' एक ने पुकारा

    'इन झोलियों में कुछ डाल दो माताजी!' दूसरा बोला।

    सहाना ने एक सुंदर शिशु को गले से लगा लिया, बोली—क्या कहा भैया, फिर कहना।

    'इन झोलियों में कुछ डाल दीजिए।'

    'नहीं नहीं, उसी तरह फिर पुकारो।'

    'माताजी!'

    'और छोटे शब्दों में।'

    'माँ'

    'फिर पुकारो!'

    'माँ-माँ!'

    वह कान लगाकर सुनने लगी माँ-माँ! एक स्वप्न-सा आँखों में छा गया—जैसे कि उसने अपने हृदय के ख़ून—उस प्यारे बच्चे को देश के काम में सौंप दिया हो। सहाना देखने लगी—उसके उस देश सेवा के श्रेष्ठ दान से, उस दृष्टांत से प्रत्येक माता ने अपनी गोदी ख़ाली कर दी। वह विस्मय के साथ देखने लगी—जल, वायु, आकाश शिशुओं से छा रहा है, तिल बराबर भी कहीं स्थान नहीं है। 'यह कैसा विराट रूप है!' वह कह उठी।

    'सहाना!'—पति की पुकार से वह स्वप्न-लोक से लौटी।

    उसने उत्तर दिया—हाँ।

    उस दृष्टि को केशव सह सका। वह किस उद्देश्य से किसके पास आया है?—उसकी चिंता विकल हो पड़ी—माँ से आज वह प्रेयसी को माँग रहा है? गृहिणी के नयनों में वह तरुणी की प्यास को देखना चाहता है? सेविका से वह सोहाग माँगता है? हाँ इतने दिनों के बाद। केशव समझ ही सका कि उसी के अनादर, अवहेलना से उसकी प्रेयसी मर चुकी थी—बहुत दिन पहले। और उसी नारी के भीतर अब जो कुछ था—यह था केवल माँ का गंभीर स्नेह और समुंदर-सा प्यार।

    कुछ विचारता हुआ केशव शीला के निकट आकर खड़ा हो गया।

    'आइए। भूख लगी है क्या?'—नदी के-से तरल स्वर से उसने पूछा।

    केशव मुग्ध विस्मय से उसे निहारने लगा। और दृष्टि के आगे शीला खिलखिला पड़ी।

    'मैं तुम्हीं को ढूँढ़ रहा था शीला।' केशव का स्वर मृदु था।

    नर्मदा ने पुकारा—भैया, ज़रा सुन जाना!

    रात में सहाना ने केशव के काग़ज़ों को हटाकर किसी प्रकार की भूमिका के बिना ही कहा—शादी के लिए और तैयारियाँ तो मैंने कर ली हैं, केवल गहने तुम बनवा देना।

    'किसकी शादी?'

    शीला की।

    'वर कहाँ मिला?' उसका कंठ काँप रहा था

    कुछ देर तक पति के मुँह की ओर देखकर सहाना ने उत्तर दिया—वह घर ही में है।

    'और मैंने उसे नहीं देखा?'

    'मैंने जब देखा है, तब तुम भी देख चुके हो!'

    'यानी?'

    'तुम हो!'

    'मैं, मैं!' वह पीछे हटा।

    'हाँ, तुम!'

    'यह दिल्लगी अच्छी नहीं लगती, सहाना।'

    'दिल्लगी नहीं, सच ही कहती हूँ। इसी पंद्रह तारीख़ को शादी होगी।'

    'असंभव है।'

    'ऐसा मत कहो—सभी तैयारियाँ हो चुकी हैं।'

    'ऐसा तुमने क्यों किया सहाना?'

    'क्योंकि इसकी ज़रूरत थी।'

    'फिर भी यह नहीं हो सकता है। इससे तो मेरी ही भलाई है और तुम्हारी। किसी के लिए कभी भी मैं तुम्हें दुःख नहीं दे सकता।'

    'तुम भूल रहे हो, तुम्हारे सुख के लिए मैं सब कुछ सह सकती हूँ, विशेषतः मेरे उस गत आनंद की स्मृति को दुःख की शिखा जला नहीं सकती है, तुम विश्वास रखो।'

    'किंतु मैं तुम्हीं से पूछता हूँ कि तुम जैसी स्त्री रहते हुए भी मैं विवाह करूँ ही क्यों?'

    'अपने मन से पूछो।' वह हँसती थी।

    'मैं तो कुछ सुनना चाहता हूँ और कुछ पूछना, किंतु यह विवाह हो नहीं सकता। सच कह रहा हूँ। वर के लिए सोचने की आवश्यकता नहीं है, उसी दिन वर तुम्हें मिल जाएगा।

    शीला ने पुकारा—भौजी, चाय तैयार है। केशव ने सिर नीचा कर लिया, आज वह उस ओर देख तक नहीं सकता था।

    (सात)

    उस धनी परिवार के नौकरों से लेकर मालिक तक उस दिन व्यस्त थे। बाहर से शहनाई मधुर स्वर से मिलन-गीत अलाप रही थी। गलियों में चादर बिछ रही थी। पानी के मटकों में गुलाब जल मिलाया जा रहा था। बड़ी-बड़ी कढ़ाइयों में शाक-भाजी बन रही थी। हलवाई मिठाई बना-बनाकर बूढ़े-पुरानों को चखा रहे थे। सहाना और केशव घूम-घूमकर सब व्यवस्था कर रहे थे। शीला की शादी थी, एक धनी वर के साथ। बच्चे आँगन में धूम मचा रहे थे।

    चहुँ ओर के उस आनंद के भीतर लहराती हुई नदी की भाँति शीला हँस-हँस अपनी सखी-सहेलियों से मिल रही थी—स्त्रियों के बीच में उसकी समालोचना हो रही थी। 'कैसी बेहया है! बहन, आजकल की लड़कियाँ ऐसी ही होती हैं। बूढ़ी हो जाती हैं तब कहीं दुल्हा मिलता है, इसलिए वे अपने आनंद को छिपा नहीं सकतीं।'

    शीला ने एक स्त्री को चिहूँटी ले ली।

    'दुल्हा को चिहूँटी ले जाकर, मुझे नहीं।' स्त्री ने कहा।

    'उन्हें तो रात में लूँगी।'

    'कैसी बेहया है तू शीला! तुझे लज्जा-हया कुछ भी नहीं।'

    स्त्री की भौहें चढ़ गईं जिसे देखकर शीला खिलखिलाकर हँसने लगी। चलते-चलते केशव लौटा। पल-भर के लिए उस ख़ुशी की दीवाली की ओर उसने देखा, फिर काम में डूब-सा गया। केवल सहाना उस हँसी को सुनकर सिहर उठी।

    संध्या समय बनाव-शृंगार शेष कर शीला दबे पाँवों उस द्वार के बाहर जाकर खड़ी हो गई जहाँ कि केशव द्वार की ओर पीठ किए चुपचाप खड़ा कुछ विचार रहा था। वह कुछ देर तक खड़ी उसे देखती रही, इसके बाद उसने वहीं से केशव को प्रणाम किया। केशव लौटा, उसने देखा एक छाया सामने से हट रही है।

    व्यथा के साथ केशव ने पुकारा—शीला! परंतु उत्तर मिला!

    'भ्रम था!' दीर्घ श्वास के साथ ये शब्द उसके कंठ से निकले।

    बड़ी धूम से बारात आई। कन्यादान के समय शीला को लोग ढूँढ़ने लगे। किंतु उसका पता कहीं भी था। घर, द्वार, हर एक संदूक़ देखी गई, शीला मिली।

    दो बूँद आँसू पोंछकर सहाना ने अख़बार में विज्ञापन दिया—शीला, तुम लौट आओ, इस घर में तुम्हारा निरादर होगा।

    स्रोत :
    • पुस्तक : गल्प-संसार-माला, भाग-1 (पृष्ठ 120)
    • संपादक : श्रीपत राय
    • रचनाकार : उषादेवी मित्रा
    • प्रकाशन : सरस्वती प्रकाशन, बनारस
    • संस्करण : 1953

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