बादलों के घेरे

badlon ke ghere

कृष्णा सोबती

कृष्णा सोबती

बादलों के घेरे

कृष्णा सोबती

और अधिककृष्णा सोबती

    भुवाली की इस छोटी-सी कॉटेज में लेटा-लेटा मैं सामने के पहाड़ देखता हूँ। पानी-भरे, सूखे-सूखे बादलों के घेरे देखता हूँ। बिना आँखों के झटक-झटक जाती धुंध के निष्फल प्रयास देखता हूँ और फिर लेटे-लेटे अपने तन का पतझार देखता हूँ। सामने पहाड़ के रूखे हरियाले में रामगढ़ जाती हुई पगडंडी मेरी बाँह पर उभरी लंबी नस की तरह चमकती है। पहाड़ी हवाएँ मेरी उखड़ी-उखड़ी साँस की तरह कभी तेज़, कभी हौले, इस खिड़की से टकराती हैं; पलंग पर बिछी चद्दर और ऊपर पड़े कंबल से लिपटी मेरी देह चूने की-सी कच्ची तह की तरह घुल-घुल जाती है। और बरसों के ताने-बाने से बुनी मेरे प्राणों की धड़कनें हर क्षण बंद हो जाने के डर में चूक जाती हैं।

    मैं लेटा रहता हूँ और सुबह हो जाती है। मैं लेटा रहता हूँ शाम हो जाती है। मैं लेटा रहता हूँ रात झुक जाती है। दरवाज़े और खिड़कियों पर पड़े परदे मेरी ही तरह दिन-रात, सुबह-शाम, अकेले मौन-भाव से लटकते रहते हैं। कोई इन्हें भरे-भरे हाथों से उठाकर कमरे की ओर बढ़ा नहीं आता। कोई इस देहरी पर अनायास मुसकराकर खड़ा नहीं हो जाता। रात, सुबह, शाम बारी-बारी से मेरी शय्या के पास घिर-घिर आते हैं और मैं अपनी इन फीकी आँखों से अँधेरे और उजाले को नहीं, लोहे के पलंग पर पड़े अपने-आपको देखता हूँ, अपने इस छूटते-छूटते तन को देखता हूँ। और देखकर रह जाता हूँ। आज इस तरह जाने के सिवाय कुछ भी मेरे वश में नहीं रह गया। सब अलग जा पड़ा है। अपने कंधों से जुड़ी अपनी बाँहों को देखता हूँ, मेरी बाँहों में लगी वे भरी-भरी बाँहें कहाँ हैं...कहाँ हैं वे सुगंध-भरे केश, जो मेरे वक्ष पर बिछ-बिछ जाते थे? कहाँ हैं वे रस-भरे अधर जो मेरे रस में भीग-भीग जाते थे? सब था, मेरे पास सब था। बस, मैं आज-सा नहीं था। जीने का संग था, सोने का संग था और उठने का संग था। मैं धुले-धुले सिरहाने पर सिर डालकर सोता रहता और कोई हौले से चमककर कहता—उठोगे नहीं...भोर हो गई।

    आँखें बंद किए-किए ही हाथ उस मोहभरी देह को घेर लेते और रात के बीते क्षणों को सूँघ लेने के लिए अपनी ओर झुकाकर कहते—इतनी जल्दी क्यों उठती हो...

    हल्की-सी हँसी और बाँहें खुल जातीं। आँखें खुल जातीं और गृहस्थी पर सुबह हो आती। फूलों की महक में नाश्ता लगता। धुले-ताज़े कपड़ों मे लिपटकर गृहस्थी की मालकिन अधिकार भरे संयम से सामने बैठे रात के सपने साकार कर देती। प्याले में दूध उँड़ेलती उन अँगुलियों को देखता। क्या मेरे बालों को सहला-सहलाकर सिहरा देने वाला स्पर्श इन्हीं की पकड़ में है? आँचल को थामे आगे की ओर उठा हुआ कपड़ा जैसे दोनों ओर की मिठास को सँभालने को सतर्क रहता। क्षण-भर को लगता, क्या गहरे में जो मेरा अपना है, यह उसके ऊपर का आवरण है या जो केवल मेरा है, वह इससे परे, इससे नीचे कहीं और है। एक शिथिल मगर बहती-बहती चाह विभोर कर जाती। मैं होता, मुझसे लगी एक और देह होती। उसमें मिठास होती, जो रात में लहरा-लहरा जाती।

    और एक रात भुवाली के इस क्षयग्रस्त अँधियारे में आती है। कंबल के नीचे पड़ा-पड़ा मैं दवा की शीशियाँ देखता हूँ और उन पर लिखे विज्ञापन देखता हूँ। घूँट भरकर अब इन्हें पीता हूँ, तो सोचता हूँ, तन के रस रीत जाने पर हाड़-मांस सब काठ हो जाते हैं, मिट्टी नहीं कहता हूँ, क्योंकि मिट्टी हो जाने से तो मिट्टी से फिर रस उभरता है, अभी तो मुझे मिट्टी होना है।

    कैसे सरसते दिन थे! तन-मन को सहलाते-बहलाते उस एक रात को मैं आज के इस शून्य में टटोलता हूँ। सर्दियों के एकांत मौन में एकाएक किसी का आदेश पाकर मैं कमरे की ओर बढ़ता हूँ। बल्ब के नीले प्रकाश में दो अधखुली थकी-थकी पलकें ज़रा-सी उठती हैं और बाँह के घेरे तले सोए शिशु को देखकर मेरे चेहरे पर ठहर जाती हैं। जैसे कहती हों—तुम्हारे आलिंगन को तुम्हारा ही तन देकर सजीव कर दिया है। मैं उठता हूँ, ठंडे मस्तक को अधरों से छूकर यह सोचते-सोचते उठता हैं कि जो प्यार तन में जगता है, तन से उपजता है, वही देह पाकर दुनिया में जी भी आता है।

    पर कहीं एक दूसरा प्यार भी होता है जो पहाड़ के सूखे बादलों की तरह उठ-उठ आता है और बिना बरसे ही भटक-भटककर रह जाता है। वर्षों बीते। एक बार गर्मी में पहाड़ गया था। बुआ के यहाँ पहली बार उन आँखों-सी आँखों को देखा था। धुपाती सुबह थी। नाश्ते की मेज़ से उठा, तो परिचय करवाते-करवाते जाने क्यों बुआ का स्वर ज़रा-सा अटका था...साँस लेकर कहा- “मिन्नी से मिलो, रवि, दो ही दिन यहाँ रुकेगी।”— बुआ के मुख से यह फीका परिचय अच्छा नहीं लगा। वह कुछ बोली नहीं, सिर हिलाकर अभिवादन का उत्तर दिया और ज़रा-सी हँस दी। उस दूर-दूर तक लगने वाले चेहरे से मैं अपने को लौटा नहीं सका। उस पतले, किंतु भरे-भरे मुख पर कसकर बाँधे घुँघराले बालों को देखकर मन में कुछ ऐसा-सा हो आया कि किसी के गहरे उलाहने की सज़ा अपने को दे डाली गई है।

    सब उठकर बाहर आए, तो बुआ के बच्चे उस दुबली देह पर पड़े आँचल को खींच स्नेहवश उन बाँहों से लिपट-लिपट गए—मन्नो जीजी। मन्नो जीजी... बुआ किसी काम से अंदर जा रही थी, खिलखिलाहट सुनकर लौट पड़ीं। बुआ का वह कठिन, बँधा और खिंचावट को छिपाने वाला चेहरा मैं आज भी भूला नहीं हूँ। कड़े हाथों से बच्चों को छुड़ाती, ठंडी निगाह से मन्नो को देखती हुई ढीले स्वर में बोली- “जाओ मन्नो, कहीं घूम आओ। तुम्हें उलझा-उलझाकर तो ये बच्चे तंग कर डालेंगे।”—माँ की घुड़की आँखों-ही-आँखों में समझकर बच्चे एक ओर हो गए। बुआ के ख़ाली हाथ जैसे झेंपकर नीचे लटक गए और मन्नो की बड़ी-बड़ी आँखों की घनी पलकें उठी, गिरी, बस एकटक बुआ की ओर देखती गई...

    बुआ इस संकोच से उबरी, तो मन्नो धीमी गति से फाटक से बाहर हो गई थी। कुछ समझ लेने के लिए आग्रह से बुआ से पूछा- “कहो तो बुआ, बात क्या है?

    बुआ अटकी, फिर झिझककर बोली- “बीमार है, रवि, दो वर्ष सैनेटोरियम में रहने के बाद अब सेठजी ने वहीं कॉटेज ले दी है। साथ घर का पुराना नौकर रहता है। कभी अकेले जी ऊब जाता है, तो चार-दिन को शहर चली जाती है।

    “नहीं, नहीं, बुआ।”—मैं धक्का खाकर जैसे विश्वास नहीं करना चाहता।

    “रवि, जब कभी चार-छ: महीने बाद लड़की को देखती हूँ, तो भूख-प्यास सब सूख जाती है।”

    मैं बुआ की इस सच्चाई को कुरेद लेने को कहता हूँ- “बुआ, बच्चों को एकदम अलग करना ठीक नहीं हुआ, पल-भर तो रुक जाती।”

    बुआ ने बहुत कड़ी निगाह से देखा, जैसे कहना चाहती हो—तुम यह सब नहीं समझोगे और अंदर चली गई। बच्चे अपने खेल में जुट गए थे। मैं खड़ा-खड़ा बार-बार सिगरेट के धुँए से अपने तन का भय और मन की जिज्ञासा उड़ाता रहा। उलझा-उलझा-सा मैं बाहर निकला और उतराई उतरकर झील के किनार-किनारे हो गया। सड़क के साथ-साथ इस ओर छाँह थी। उछल-उछल आती पानी की लहरें कभी धूप से रुपहली हो जाती थीं। देवी के मंदिर के आगे पहुँचा, तो रुका, जंगले पर हाथ टिकाए झील में नौकाओं की दौड़ को देखता रहा। बलिष्ठ हाथों में चप्पू थामे कुछ युवक तेज़ रफ़्तार से तालीताल की ओर जा रहे हैं, पीछे की कश्ती में अपने तन-मन से बेख़बर एक प्रौढ़ बैठे ऊँघ रहे हैं। उसके पीछे बोट-क्लब की किश्ती में विदेशी युवतियाँ...फिर और दो-चार पालवाली नौकाएँ...

    एकाएक किश्ती में नहीं, जैसे पानी की नीची सतह पर वही पीला चेहरा देखता हूँ, वही बड़ी-बड़ी आँखें, वही दुबली-पतली बाँहें, वही बुआ के घरवाली मन्नो। दो-चार बार मन ही मन नाम दोहराता हूँ, मन्नो, मन्नो, मन्नो...मैं ऊँचे किनारे पर खड़ा हूँ और पानी के साथ-साथ मन्नो वहीं चली जा रही है। खिंचे घुँघराले बाल, अनझपी पलकें...पर बुआ कहती थी बीमार है, मन्नो बीमार है।

    जंगले पर से हाथ उठाकर बुआ के घर की दिशा में देखता हूँ। चीना की चोटी अपने पहाड़ी संयम से सिर उठाए सदा की तरह सीधी खड़ी है। एक ढलती-सी पथरीली ढलान को उसने जैसे हाथ से थामे रखा है और मैं नीचे इस सड़क पर खड़े-खड़े सोचता हूँ कि सब-कुछ रोज़ जैसा है, केवल मन से उभर-उभर आती वे दो आँखें नई हैं और उन दो आँखों के पीछे की वही बीमारी...जिसे कोई छू नहीं सकता, कोई उबार नहीं सकता।

    घर पहुँचा, तो बुआ बच्चों को लेकर कहीं बाहर चली गई थी। कुछ देर ड्राइंग-रूम में बैठा-बैठा बुआ के सुघड़ हाथों द्वारा की गई सजावट देखता रहा। क़ीमती फूलदानों में पगाई गई पहाड़ी झाड़ियाँ सुंदर लगती थीं। कैबिनेट पर बड़ी फ्रेम में लगे सपरिवार चित्र के आगे खड़ा हुआ, तो बुआ के साथ खड़े फूफा की ओर देखकर सोचता रहा कि बुआ के लिए इस चेहरे पर कौन-सा आकर्षण है, जिससे बंधी-बंधी वह दिन-रात, वर्ष-मास अपने को निभाती चली आती है। पर नहीं, बुआ ही के घर में होकर यह सोचना मन के शील से परे है...

    झिझककर ड्राइंग-रूम से निकलता हूँ और अपने कमरे की सीढ़ियाँ चढ़ जाता हूँ। सिगरेट जलाकर झील के दक्खिनी किनारे पर खुलती खिड़की के बाहर देखने लगता हूँ। हरे पहाड़ों के छोटे-बड़े आकारों में टीन की लाल-लाल छतें और बीच-बीच में मटियाली पगडंडियाँ। बुआ खाने तक लौट आएगी और मन्नो भी तो...देर तक टन-टन के साथ नौकर ने खाने के लिए अनुरोध किया।

    “खाना लगेगा, साहिब?”

    “बुआ कब तक लौटेंगी?”

    “खाने को तो मना कर गई हैं।”

    कथन के रहस्य को मैं इन अर्थहीन-सी आँखों में पढ़ जाने के प्रयत्न में रहता हूँ।—“और जो मेहमान हैं?”

    नौकर तत्परता से झुककर- “आपके साथ नहीं, साहिब। वह अलग से ऊपर खाएँगी।”

    मैं एक लंबी साँस भरकर जले सिगरेट के टुकड़े को पैर के नीचे कुचल देता हूँ। शायद साथ खाने के डर से छुटकारा पाने पर या शायद साथ खा सकने की विवशता पर। इस दिन खाने की मेज़ पर अकेले खाना खाते-खाते क्या सोचता रहा था, आज तो याद नहीं। बस इतना याद है, काँटे-छुरी से उलझता बार-बार मैं बाहर की ओर देखता था।

    मीठा कौर मुँह में लेते ही घोड़े की टाप सुनाई दी, ठिठककर सुना- “सलाम साहिब।”

    धीमी मगर सधी आवाज़- “दो घंटे तक पहुँच सकोगे न?”

    “जी, हुज़ूर।”

    सीढ़ियों पर आहट हुई और अपने कमरे तक पहुँचकर ख़त्म हो गई। खाने के बर्तन उठ गए। मैं उठा नहीं। दोबारा कॉफ़ी पी लेने के बाद भी वहीं बैठा रहा। एकाएक मन में आया कि किसी छोटे-से परिचय से मन में इतनी दुविधा उपजा लेना कम छोटी दुर्बलता नहीं है। आख़िर किसी से मिल ही लिया हूँ तो उसके लिए ऐसा-सा क्यों हुआ जा रहा हूँ।

    घंटे-भर बाद मैं किसी की पैरों चली सीढ़ियों पर ऊपर चढ़ा जा रहा था। खुले द्वार पर परदा पड़ा था। हौले से थाप दी।

    “चले आइए।”

    परदा उठाकर देहरी पर पाँव रखा। हाथ में कश्मीरी शाल लिए मन्नो अटैची के पास खड़ी थी। देखकर चौंकी नहीं। सहज स्वर में कहा- “आइए” और सोफ़े पर फैले कपड़े उठाकर कहा- “बैठिए।”

    बैठते-बैठते सोचा, बुआ के घर-भर में सबसे अधिक सजा और साफ़ कमरा यही है। नया-नया फ़र्नीचर, क़ीमती परदे और इन सबमें हलके पीले कपड़ों में लिपटी मन्नो। अच्छा लगा।

    बात करने को कुछ भी पाकर बोला- “आप लंच तो...”

    “जी, ले चुकी हूँ।” और भरपूर निगाहों से मेरी ओर देखती रही।

    मैं जैसे कुछ कहलवा लेने को कहता हूँ- “बुआ तो कहीं बाहर गई हैं।”

    सिर हिलाकर मन्नो शाल की तह लगाती है और सूटकेस में रखते-रखते कहती है- “शाम में पहले ही नीचे उतर जाऊँगी। बुआ से कहिएगा, एक दिन को आई थी।”

    “बुआ तो आती ही होंगी।”

    इसका उत्तर शब्दों में आया, चेहरे पर। कहते-कहते एक बार रुका, फिर जाने कैसे आग्रह से कहा- “एक दिन और नहीं रुक सकेंगी?”

    वह कुछ बोली नहीं। बंद करते सूटकेस पर झुकी रही।

    फिर पल-भर बाद जैसे स्नेह-भरे हाथ से अपने बालों को छुआ और हँसकर कहा- “क्या करूँगी यहाँ रहकर? भुवाली के इतने बड़े गाँव के बाद यह छोटा-सा शहर मन को भाता नहीं।”

    वह छोटी-सी खिलखिलाहट, वह कड़वाहट से भरे का व्यंग्य, आज इतने वर्षों के बाद भी, मैं वैसे ही बिल्कुल वैसे ही सुन पाता हूँ। वही शब्द हैं, वही हँसी है और वही पीली-सी सूरत...

    हम संग-संग नीचे उतरे थे। मेरी बाँह पर मन्नो का कोट था। नौकर और माली ने झुककर सलाम किया और अतिथि से इनाम पाया। साईस ने घोड़े को थपथपाया।

    “हुज़ूर, चढ़ेंगी?”

    उड़ी-उड़ी नज़र उन आँखों की बाँह पर लटके कोट पर अटकी।

    “पैदल आऊँगी। थोड़ा आगे-आगे लिए चलो।”

    चाहा कि घोड़े पर चढ़ जाने के लिए अनुरोध करुँ। पर कह नहीं पाया।

    फाटक से बाहर होते-होते वह पल-भर को पीछे मुड़ी, जैसे छोड़ने के पहले घर को देखती हो। फिर एकाएक अपने को संभालकर नीचे उतर गई। राह में कोई भी कुछ बोला नहीं।

    टैक्सी खड़ी थी, सामान लगा। ड्राइवर ने उन कठिन क्षणों को मानो भाँपकर कहा- “कुछ देर है, साहिब?”

    मन्नो ने इस बार कहीं देखा नहीं। कोट लेने के लिए मेरी ओर हाथ बढ़ा दिया। वह कार में बैठी। कुली ने तत्परता से पीछे से कंबल निकाला और घुटनों पर डालते हुए कहा- “कुछ और, मेम साहिब?”

    घुँघराली छाँह ढीली-सी होकर सीट के साथ जा टिकी। घुटनों पर पतली-पतली-सी विवश बाँहें फैलाते हुए धीरे-से कहा- “नहीं, नहीं, कुछ और नहीं। धन्यवाद।”

    अधखुले काँच में अंदर झाँका। मुख पर थकान के चिह्न थे। बाँहों में मछली—मुखी कंगन थे। आँखों में क्या था, यह मैं पढ़ नहीं पाया। वह पीली, पतझड़ी दृष्टि उन हाथों पर जमी थी, जो कंबल पर एक-दूसरे से लगे मौन पड़े थे।

    कार स्टार्ट हुई। मैं पीछे हटा और कार चल दी। विदाई के लिए हाथ उठे अधर हिले। मोड़ तक पहुँचने तक पीछे के शीशे से सादगी से बँधा बालों का रिबन देखता रहा और देर तक वह दर्दीले धन्यवाद की गूँज सुनता रहा—नहीं, नहीं, कुछ और नहीं।

    वे पल अपनी कल्पना में आज भी लौटाता हूँ, तो जी को कुछ होने लगता है। उस कार को भगा ले जाने वाली सूखी सड़क से घूमकर मैं ताल के किनारे-किनारे चला जा रहा हूँ। अपने को समझाने-बुझाने पर भी वह चेहरा, वह बीमारी मन पर से नहीं उतरती। रुक-रुककर, थक-थककर जैसे मैं उस दिन घर की चढ़ाई चढ़ा था, उसे याद कर आज भी निढाल हो जाता हूँ। घर पहुँचा। बरामदे में से कुली फ़र्नीचर निकाल रहे थे। मन धक्का खाकर रह गया। तो उस मन्नो के कमरे की सजावट, सुख-सुविधा, सब किराए पर बुआ ने जुटाए थे। दोपहर में बुआ के प्रति जो कुछ जितना भी अच्छा लगा था, वह सब उल्टा हो गया।

    आगे बढ़ा, तो द्वार पर बुआ खड़ी थी। संदेह से मुझे देख और पास होकर फीके गले से कहा- “रवि, मुँह-हाथ धो डालो, सामान सब तैयार मिलेगा वहाँ, जल्दी लौटोगे न, चाय लगने को ही है।”

    चुपचाप बाथरूम में पहुँच गया। सामान सब था। मुँह-हाथ धोने से पहले गिलास में ढककर रखे गर्म पानी से गला साफ़ किया। ऐसा लगा किसी की घुटी-घुटी जकड़ में से बाहर निकल आया हूँ। कपड़े बदलकर चाय पर जा बैठा। बच्चे नहीं, केवल बुआ थी। बुआ ने चाय उँड़ेली और प्याला आगे कर दिया।

    “बुआ।”

    बुआ ने जैसे सुना नहीं।

    “बुआ, बुआ।”—पल-भर के लिए अपने को ही कुछ ऐसा-सा लगा कि किसी और को पुकारने के लिए बुआ को पुकार रहा हूँ। बुआ ने विवश हो आँखें ऊपर उठाईं। समझ गया कि बुआ चाहती हैं, कुछ कहूँ नहीं, पर मैं नहीं रुका।

    “बुआ, दो दिन की मेहमान तो एक ही दिन में चली गई।”

    बुआ चम्मच से अपनी चाय हिलाती रही। कुछ बोली नहीं। इस मौन से और भी निर्दयी हो आया।

    “कहती थी- “बुआ से कहना मैं एक ही दिन को आई थी।”

    इमके आगे बुआ जैसे कुछ और सुन नहीं सकी। गहरा लंबा श्वास लेकर आहत आँखों से मुझे देखा- “तुम कुछ और नहीं कहोगे, रवि”, और चाय का प्याला वही छोड़ कमरे से बाहर हो गई।

    उस रात दौरे से फूफा के लौटने की बात थी। नौकर से पूछा, तो पता लगा, दो दिन के बाद आने का तार चुका है। चाहा, एक बार बुआ के कमरे तक हो आऊँ, संकोचवश पाँव उठे नहीं। देर बाद सीढ़ियों में अपने को पाया, तो सामने मन्नो का ख़ाली कमरा था। आगे बढ़कर बिजली जलाई, सब ख़ाली था, परदे, फ़र्नीचर...न मन्नो...” एकाएक अँगीठी में लगी लकड़ियों को देख मन में आया, आज वह यहाँ रहती, तो रात देर गए इसके पास यहीं बैठती और मैं शायद इसी तरह जैसे अब यहाँ आया हूँ, उसके पास आता, उसके...

    यह सब क्या सोच रहा हूँ, क्यों सोच रहा हूँ...

    किसी अनदेखे भय से घबराकर नीचे उतर आया। खिड़की से बाहर देखा, अँधेरा था। सिरहाना खींचा, बिजली बुझाई और बिस्तर पर पड़े-पड़े भुवाली की वह छोटी-सी कॉटेज देखता रहा, जहाँ अब तक मन्नो पहुँच गई होगी।

    “रवि।”

    मैं चौंका नहीं, यह बुआ का स्वर था। बुआ अँधेरे में ही पास बैठी और हौले-हौले सिर हिलाती रही।

    “बुआ।”

    बुआ का हाथ पल-भर को थमा। फिर कुछ झुककर मेरे माथे तक गया। रुँधे स्वर से कहा- “रवि, तुम्हें नहीं, उस लड़की को दुलराती हूँ। अब यह हाथ उस तक नहीं पहुँचता...”

    मैं बुआ का नहीं, मन्नो का हाथ पकड़ लेता हूँ।

    बुआ देर तक कुछ बोली नहीं। फिर जैसे कुछ समझते हुए अपने को कड़ा कर बोली- “रवि, उसके लिए कुछ मत सोचो, उसे अब रहना नहीं है।”

    मैं बुआ के स्पर्श-तले सिहरकर कहता हूँ- “बुआ, मुझे ही कौन रहना है?”

    आज वर्षों बाद भुवाली में पड़े-पड़े मैं असंख्य बार सोचता हूँ कि उस रात मैं अपने लिए यह क्यों कह गया था? क्यों कह गया था वे अभिशाप के बोल, जो दिन-रात मेरे इस तन-मन पर से सच्चे उतरे जा रहे हैं। सुनकर बुआ को कैसा लगा, नहीं जानता। वह हाथ खींचकर उठ बैठी। रोशनी की और पूरी आँखों से मुझे देखकर अविश्वास और भर्त्सना से बोली- “पागल हो गए हो, रवि! उसके साथ अपनी बात जोड़ते हो। जिसके लिए अब कोई राह नहीं रह गई, कोई और राह नहीं रह गई।”

    फिर कुर्सी पर बैठते-बैठते कहा- “रवि, तुम तो उसे सुबह-शाम तक ही देख पाए हो। मैं वर्षों से उसे देखती आई हूँ और आज पत्थर-सी निष्ठुर हो गई हूँ। उसे अपना बच्चा ही करके मानती रही हूँ, यह नहीं कहूँगी। अपने बच्चों की तरह तो अपने बच्चों के सिवाय और किसे रखा जा सकता है। पर जो कुछ जितना भी था, वह प्यार, वह देखभाल सब व्यर्थ हो गए हैं। कभी छुट्टी के दिन उसकी बोर्डिंग से आने की राह तकती थी, अब उसके आने से पहले उसके जाने का क्षण मनाती हूँ। और डरकर बच्चों को लिए घर से बाहर निकल जाती हूँ।”

    बुआ के बोल कठिन हो आए।

    “रवि, जिसे बचपन के मोहवश कभी डराना नहीं चाहती थी, आज उसी से डरने लगी हूँ। उसकी बीमारी से डरने लगी हूँ।” फिर स्वर बदलकर कहा- “तुम्हारा ऐसा जीवट मुझमें नहीं कि कहूँ, डरती नहीं हूँ”—बुआ ने यह कहकर जैसे मुझे टटोला और मैं बिना हिले-डुले चुपचाप लेटा रहा।

    बुआ असमंजस में देर तक मुझे देखती रही। फिर जाने को उठी और रुक गई। इस बार स्वर में आग्रह नहीं, चेतावनी थी—“रवि, कुछ हाथ नहीं लगेगा। जिसके लिए सब राह रुकी हों, उसके लिए भटको नहीं।”

    पर उस दिन बुआ की बात मैं समझा नहीं, चाहने पर भी नहीं।

    अगली सुबह चाहा कि घूम-घूमकर दिन बिता दूँ। घोड़ा दौड़ाता लड़ियाकोटा पहुँचा और उन्हीं पैरों लौट आया। घर की ओर मुँह करते-करते जाने क्यों, मन को कुछ ऐसा लगा कि मुझे घर नहीं, कहीं और पहुँचना है। चढ़ाई के मोड़ पर कुछ देर खड़ा-खड़ा सोचता रहा और जब ढलती दुपहरी में तल्लीताल की उतराई उतरा, तो मन के आगे सब साफ़ था।

    मुझे भुवाली जाना था।

    बस से उतरा। अड्डे पर रामगढ़ के लाल-लाल सेबों के ढेर देखकर यह नहीं लगा कि यही भुवाली है। बस में सोचता आया था कि वहाँ घुटन होगी, पर चीड़ के ऊँचे-ऊँचे पेड़ों से लहराती हवाएँ बह-बह आती थीं। छाँह ऊपर उठती है, धूप नीचे उतरती है और भुवाली मन को अच्छी लगती है। तन को अच्छी लगती है। चौराहे से होकर पोस्ट ऑफ़िस पहुँचा। कॉटेज का पता लिया और छोटे-से पहाड़ी बाज़ार में होता हुआ ‘पाइन्स’ की ओर हो लिया। खुली-चौड़ी सड़क के मोड़ से अच्छी-सी पतली राह कॉटेज की ओर जाती थी। जंगले के नीचे देखा, अलग-अलग खड़े पहाड़ों के बीच की जगह पर एक खुली-चौड़ी घाटी बिछी थी। तिरछे सीधे, छोटे-छोटे खेत किसी के घुटने पर रखे कसीदे के कपड़े की तरह धरती पर फैले थे। दूर सामने दक्खिन की ओर पानी का ताल धूप में चाँदी के थाल की तरह चमकता था।

    इस पहली बार भुवाली आने के बाद मैं एक बार नहीं, कई बार यहाँ आया। लौट-लौटकर यहाँ आया, पर उस आने-जैसा आना तो फिर कभी नहीं आया। मैं चलता हूँ, और कुछ सोचता नहीं हूँ। यह सोचता कि मन्नो के पास जा रहा हूँ, यह सोचता हूँ कि मैं जा रहा हूँ। बस चला जा रहा हूँ। पेड़ के तने पर लिखा है, ‘पाइन्स’। लकड़ी का फाटक खोलता हूँ और गमलों की क़तारों के साथ-साथ बरामदे तक पहुँच जाता हूँ। कार्पेट पर हौले-हौले पाँव रखता हूँ कि कम आवाज़ हो। द्वार खटखटाता हूँ और झुकी कमर पर अनुभवी चेहरा इधर बढ़ा आता है। जान लेता हूँ कि यही पुराना नौकर है।

    “घर में हैं?”

    “बिटिया को पूछते हो, बेटा?”

    मैं सिर हिलाता हूँ।

    “बिटिया नीचे ताल को उतरी थीं, लौटती ही होंगी।”

    मैं बाहर खुले में बैठा-बैठा प्रतीक्षा करता हूँ। मन्नो अब रही है, आने वाली है, आती ही होगी।

    थककर फाटक की ओर पीठ कर लेता हूँ, जब यह सोचूँगा कि वह देर से आएगी, तो वह जल्दी आएगी।

    घोड़े की टाप सुन पड़ती है। अपने को रोक लेता हूँ और मुड़कर देखता नहीं।

    “बाबा!”—पुकार का-सा स्वर। लगा कि दो आँखें मेरी पीठ पर हैं। उठा। बढ़कर मन्नो की ओर देखा, आँखों में आश्चर्य था, उत्कंठा थी, उदासीनता थी। बस, मन्नो की ही आँखों की तरह वे दो आँखें मेरी ओर देखती चली गई थीं।

    “बाबा।”—बूढ़ा नौकर लपककर घोड़े के पास आया और लाड़ के-से स्वर में बोला- “उतरो बिटिया, बहुत देर कर दी।”—और हाथ आगे बढ़ा दिया।

    मन्नो सहारा लेकर नीचे उतरी।—“तनिक अम्मा को तो बुलाओ बाबा, मेरा जी अच्छा नहीं।”

    “सुख तो है, बिटिया।”

    चिंता का यह स्वर सुनकर बिटिया ज़रा-सा हँस दी, फिर रुककर लंबी साँस भरकर बोली- “अच्छी-भली हूँ, बाबा, बड़ी अम्मा से कहो, बिछौना लगा दें।”

    बाबा ने बिटिया के लिए कुर्सी खींच दी। फिर सहमकर पूछा- “बिटिया,

    लेटोगी?”

    “हाँ, बाबा।”

    इस बार मन्नो ने बाबा की ओर देखा नहीं, जैसे कोई अपराध बन आया हो, फिर मेरी ओर झुककर कहा- “क्या बहुत देर हुई?”

    “नहीं।” मैं सिर हिलाता हूँ, पर आँखें नहीं।

    इस बार झिझक से नहीं, अधिकार से पूछता हूँ- “क्या जी अच्छा नहीं?”

    मन्नो ने पल-भर को थकी-थकी पलकें मूँद ली और कुछ बोली नहीं।

    बूढ़ी दादी दौड़ी-दौड़ी शाल लिए आई और कंधों पर ओढ़कर जैसे अपने

    को ही दिलासा देने के लिए कहा- “मन्नो, ख्याली क्यों घबराने लगी। अभी सब ठीक हुआ जाता है। इनके लिए चाय भेजूँ।

    मन्नो एकदम कुछ कह नहीं पाई। फिर कुछ सोचकर बोली- “अम्मा, पूछ देखो। पिएँगे तो नहीं।”

    मैं कुछ ठीक-ठीक समझा नहीं। व्यस्त होकर कहा- “नहीं, नहीं, मुझे अभी कुछ भी पीना नहीं है।”

    मन्नो ने जैसे सुना, मुझे देखा ही।

    फिर जैसे अम्मा को मेरे परिचय की गंभीरता जताने के लिए पूछा- “चाची तो अच्छी हैं। अभी चाचा लौटे तो होंगे।”

    अम्मा झट समझ गई, मन्नो की चाची के यहाँ से आया हूँ। बोली- “बेटा, आने की ख़बर देते, तो मन्नो के लिए कुछ मँगवा लेती।”

    “बड़ी माँ, अंदर जाकर देखो न, मैं थकी हूँ, अब बैठूँगी नहीं।”

    मैं लज्जित-सा बैठा रहा। कुछ फल ही लिए आता।

    मन्नो कुछ देर मेरे चेहरे पर मेरा मन पढ़ती रही, फिर धीमे से ऐसी बोली, मानो मुझसे नहीं, अपने से कहती हो- “यहाँ कुछ लाना ही अच्छा है कुछ ले ही जाना...”

    मैं अपनी नासमझी पर पछताकर रह गया।

    मन्नो अंदर चली, तो साथ हो लिया। कंबल उठाकर बड़ी माँ ने बिटिया को लिटाया, बाल ढीले करते-करते माथे को छुआ और मेरे लिए कुर्सी पास खींचकर बाहर हो गई।

    “मन्नो...”

    मन्नो बोली नही। दुबली-सी बाँह तनिक-सी आगे की ओर...फिर एकाएक कुछ सोचकर पीछे खींच ली...आज जब स्वयं भी मन्नो-सा बन गया हूँ, सौ बार अपने को न्यौछावर कर उसी क्षण को लौटा लेना चाहता हूँ। मैं कुर्सी पर बैठा-बैठा क्यों उस बाँह को छू नहीं सकता था? क्या उस हाथ को सहला नहीं सकता था? उमड़ते मन को किसी ने जैसे जकड़कर वहीं, उस कुर्सी पर ठहरा लिया था।

    क्या था उस झिझक में? क्या था उस झिझकने वाले मन में? रहा होगा, यही भय रहा होगा, जो अब मुझसे मेरे प्रियजनों को दूर रखता है। उस रात जब जाने को उठा था, तो आँखों का मोह पीछे बाँधता था। मन का भय आगे खींचता था। और जब जल्दी-जल्दी चलकर डाक-बँगले में पहुँच गया, तो लगा कि मुक्त हो गया हूँ, क्षण-क्षण जकड़ते बंधन से मुक्त हो गया हूँ। उस अभागी रात में जो मुक्ति पाई थी, वह मुझे कितनी फली, चाहता हूँ आज एक बार मन्नो देखती तो!

    रात-भर ठीक से सो नहीं पाया। बार-बार नींद में लगता कि भुवाली में हूँ। भुवाली में सोया हूँ, वही ‘पाइन्स’ का बड़ी-बड़ी खिड़कियों वाला कमरा है। मन्नो के पलंग पर लेटा हूँ और पास पड़ी कुर्सी पर बैठी-बैठी मन्नो अपनी उन्हीं दो आँखों से मुझे निहारती है। मैं हाथ आगे करता हूँ और वह थोड़ा-सा हँसकर सिर हिला कहती है- “नहीं, इसे कंबल के नीचे कर लो। अब इसे कौन छुएगा?”

    “मन्नो!”

    मन्नो कुछ कहती नहीं, हँस भर देती है।

    रात-भर इन दुःस्वप्नों में भटकने के बाद जगा, तो बुआ दिख पड़ी। “कुछ हाथ नहीं लगेगा, रवि।”

    उस सुबह फिर मैं रुका नहीं, डाक-बँगले में, भुवाली में। बस के अड्डे पर पहुँचा, तो धूप में बुझी-बुझी भुवाली मुझे भयावनी लगी। एक बार जी को टटोला, “‘पाइन्स’...नहीं...नही...कुछ नहीं लौट जाओ।”

    घर पहुँचकर बुआ मिली। कड़ी चेतावनी वाला खिंचा-खिंचा चेहरा था।

    भरपूर मुझे देखकर जैसे साँस रोके पूछा- “कहाँ थे कल?”

    “रानीखेत तक गया था, बुआ।”

    “कह तो जाते।”

    मैं जाने किस उलझन में आया था। कहा- “कहने को, बुआ, था क्या?”

    दोपहर में फूफा मिले। कल लौटे थे और सदा की तरह गंभीर थे। खाना खाते उन्हें देखता रहा। एकाएक उन्हें प्लेट पर से आँखें उठाकर बुआ की ओर देखते हुए देखा, तो सचमुच में जान गया कि फूफा के भाई अवश्य ही मन्नो के पिता होंगे। दृष्टि में वही ठहराव था, वही अचंचलता थी।

    फूफा ने खाने पर से उठते-उठते उलझे-से स्वर में मुझसे पूछा- “रवि, बुआ तुम्हारी, लखनऊ तक जाना चाहती हैं, पहुँचा सकोगे?”

    “जी, सकूँगा।”

    मैं, बुआ और बच्चे नैनी से नीचे उतर रहे हैं। मैं पीछे की सीट पर बैठा-बैठा विदा हो जाने की आकस्मिकता को सिगरेट के धुएँ में भूल जाने का प्रयत्न करता हूँ। चौड़े मोड़ से बस नीचे की ओर मुड़ी। खिड़की से बाहर देखा, तो पहाड़ की हरियाली में वही कल वाली भुवाली की सफ़ेदी दिख रही थी।

    काठगोदाम से लखनऊ। एक रात बुआ की ससुराल रुककर बुआ से विदा लेने गया, तो बुआ ने पूछा- “लौट जाने की सोचते हो, रवि, कुछ दिन यहीं रुको।”

    “नहीं, बुआ।”

    बुआ इस “नहीं” को एकाएक स्वीकार नहीं कर सकी। पास बिठाकर कुछ देर देखती रही। फिर स्नेह से कहा- “कहाँ जाओगे...?”

    “बुआ, कुछ पता नहीं।”

    बुआ कुछ कहना चाहती थी, पर कह नहीं पा रही थी। कुछ रुकते-रुकते कहा- “रवि, तुम्हारे फूफा तो तुम्हारे वापस नैनी लौटने को कहते थे।”

    “नहीं, बुआ। अब तो दक्खिन जाऊँगा, पिताजी के पास।”

    बुआ को जैसे विश्वास हुआ। कुछ याद-सी करती बोली- “रवि, इस बार तुम्हें नैनी में अच्छा नहीं लगा।”

    “नहीं, नहीं, बुआ।”

    बुआ चाहती थी, मुझसे कुछ पूछे। मैं चाहता था, बुआ से कुछ कहूँ; पर किसी से भी शब्द जुड़े नहीं।

    स्टेशन पर जाने लगा, तो बुआ के पाँव छुए। बुआ बहुत बड़ी नहीं है मुझसे। पिताजी की सबसे छोटी मौसेरी बहन होती है, पर दिल में कुछ ऐसा-सा लगा कि बुआ का आशीर्वाद चाहता हूँ।

    बुआ हैरान हुई, फिर हँसकर बोली- “रवि, तुमने पाँव छुए हैं, तो आशीर्वाद ज़रुर दूँगी...बहुत सुंदर बहू पाओ।”

    मैं हँसा, लजाया। बुआ चुप-सी रह गई। जिस नटखट भाव से वह कुछ कह गई थी, उसे मानो अनदेखे संकोच ने घेर लिया।

    टिकट लिया, कुली के पास सामान छोड़ प्लेटफ़ार्म पर घूमने लगा। आमने-सामने कोई गाड़ी नहीं थी। लाइनों पर बिछे ख़ालीपन ने उलझे मन को एकाएक खोल दिया। जो कुछ भी सोच रहा था, सोचता चला गया। मन भुवाली पर अटका था, ‘पाइन्स’ पर, मन्नो पर। पिछला सब बीत गया लगा। बुआ का आशीर्वाद कल्पना में मुखर आया। घर होगा, घर की रानी होगी, मैं होऊँगा...

    बुआ का आशीर्वाद झूठ नहीं निकला। सच में ही मेरा घर बना। सुंदर घरनी आई, उसे मैं ही ब्याहकर लाया। पर उस दिन जहाँ का टिकट ले लिया था, वहाँ की गाड़ी मुझे खींचकर उस प्लेटफ़ार्म पर से ले जा नहीं सकी।

    गाड़ी लगी है। कुली सामान लगाता है और मैं बाहर खड़े-खड़े देखता हूँ—“मुसाफ़िर, कुली, सामान, बच्चे, बूढ़े...”

    “साहिब, गाड़ी छूटने में दस मिनट हैं।”

    मैं अपनी घड़ी देखता हूँ, और सिर हिला देता हूँ कि मैं जानता हूँ।

    कुली फिर एक बार अंदर जाकर असबाब ऊपर-नीचे करता है और साफ़ा

    ठीक करते हुए बाहर निकलकर कहता है- “हरी बत्ती हो गई है, साहिब।”

    बत्ती की ओर देखता हूँ और देखता चला जाता हूँ, वही क़द है, वहीं दुबली-पतली देह, वही धुला-धुला-सा चेहरा, वही...वही...

    आवेश से कहता हूँ- “कुली, सामान उतार लो।”

    “साहिब।”

    “जल्दी करो, जल्दी।”

    कुली फिर मेरे सामान के साथ है। टिकट वापस कर नया ले लिया। स्टेशन से फल के टोकरे बँधवाए, चाय पी और बरेली के लिए गाड़ी में जा बैठा। जहाँ मुझे जाना है, वहीं जाकर हटूँगा, जब मैं नहीं रुकता हूँ तो मुझे कौन रोकेगा? क्यों रोकेगा?

    **

    घर में आगे लॉन में बैठा सर्दियों की ढलती धूप में अलसा रहा हूँ। अंदर से माँ निकलीं और पास बैठते हुए कहा- “बेटा, इस बार छुट्टी में ही गए तो ठहर जाओ। बार-बार इंकार करना अच्छा नहीं लगता।”

    माँ की बात सुनकर मैं सयाने बेटे की तरह हँसता हूँ और मन ही मन सोचता हूँ कि माँ कितना ठीक कहती है। अपनी नौकरी पर रहता हूँ और अकेले आदमी के ख़र्च से कहीं अधिक कमाता हूँ, फिर क्यों इंकार करूँगा? माँ की आशा के विपरीत बड़ी आवाज़ में कहता हूँ- “माँ, जो तुम्हें रुचे, वही मुझे भाएगा।”

    “बेटा, लड़की देखना चाहोगे?”

    “हाँ, माँ।”

    लगा, माँ मन-ही-मन हँसी।

    खाने के बाद रात को घूमकर आया, तो कमरे में शांति थी, मन मे शांति थी। किसी को देखने के लिए कॉलेज के दिनों वाली उतावली जिज्ञासा मन में नहीं रह गई थी। लगा कि अकेले रहते-रहते किसी के संग की आशा नहीं कर रहा, उसे तो अपना अधिकार करके मान रहा हूँ।

    हाथ में किताब लेकर रात को लेटा, तो पढ़ते-पढ़ते ऊब गया। आँखों के अँधेरे में देखा, किसी पहाड़ पर चढ़ा जा रहा हूँ। दूर चीड़ के पेड़ों के झुंड-के-झुंड दिखते हैं, आसमान सब सुनसान है, अपनी पदचाप के सिवाय कोई आवाज़ नहीं। एकाएक आदमी का स्वर गूँजता है, इधर...उधर...और अँधेरे में हिलता एक हाथ आगे बढ़ा-बढ़ा आता है मेरे गले की ओर...निकट...और निकट...

    दुबली कलाई पतली अँगुलियाँ...मैं डरता हूँ...पीछे हटता हूँ और घबराकर आँखें खोल देता हूँ।

    उठा, खिड़की का परदा उठाकर बाहर झाँका। लॉन के दाहिने हरी घास पर पिताजी के कमरे की लाइट फैली थी। सँभला। लंबी साँस लेकर बालों को छुआ, तो माथा ठंडा लगा। भयावना सूनापन और अँधेरे में वह हाथ...वह हाथ...

    मन से जिसे भूल चुका हूँ, उसे आज ही याद क्यों आना था...क्यों याद आना था...क्यों दिख जाना था उस हाथ को, जो वर्षों गए ‘पाइन्स’ की उतराई से उतरते-उतरते मैंने अंतिम बार देखा था? छुआ था, नहीं कहूँगा, क्योंकि असंख्य बार सोच-सोचकर छू-भर लेने के लिए बाँह आगे करनी, छू लेना नहीं होता।

    महीना-भर नैनी में रहते हुए बार-बार भुवाली से लौटने के बाद जब अंतिम बार मैं मन्नो के पास से लौटा था, तो लौट-लौटकर उस लौटने को लौटना करना चाहता था। तीन बार नीचे उतरा था और तीन बार मुड़कर ऊपर गया था।

    मन्नो शाल में लिपटी आरामकुर्सी पर अधलेटी थी। पास खड़े होकर उसकी चुप्पी को जैसे उस पर से उतार देने को, उदास स्वर में कहा- “कल तो नैनी से नीचे उतर जाऊँगा।”

    मन्नो ने नीचे फैले शाल को सहज-सहज सहेजा। एक महीने पहले वाली दृष्टि मुख पर लौट आई। वही पराया-सा देखना, वही दूर-दूर-सा लगता चेहरा...

    मन्नो...चाहता हूँ, मन्नो से कुछ तो कहूँ, पर क्या कहूँ। यह कि जल्दी लौटूँगा।

    क्षण-क्षण अपने से कहता हूँ, आऊँगा, फिर आऊँगा, पर जिस निगाह से मन्नो मुझे देखती है, वह जैसे बिना बोल के यह कहे जा रही है कि अब तुम यहाँ नहीं आओगे।

    “मन्नो।”

    “रवि।”—और, और बस कठिन-सी होकर थोड़ा-सा हँसी और हाथ जोड़

    दिए।

    “नमस्कार।”

    इन जुड़े-जुड़े हाथों को देखता रहा। ज़रा-सा आगे बढ़ा कि विदा लूँ, विदा दूँ, पर जाने क्यों खड़ा-का-खड़ा रह गया।

    समझाने के-से स्वर में मन्नो बोली- “देरी होती है, रवि।”

    जी भरकर देखने वाली अपनी आँखों को झुकाकर मैं जल्दी-जल्दी नीचे उतर गया।

    मैं फिर लौटूँगा...फिर...पर क्या सदा के लिए चला जा रहा हूँ...

    मुड़कर पीछे देखा और खिंचकर ठिठक गया। मन्नो वहीं, उसी मुद्रा में बैठी थी।

    मानो वह जानती थी कि लौटूँगा। साथ पड़ी कुर्सी की ओर संकेत कर कहा, “बैठो, रवि।”—स्वर में व्यथा थी, संग छूटने की उदासी थी, मेरे आने पर आश्चर्य था।” आँखों-ही-आँखों में कुछ ऐसा देखा, जैसे पूछती हो- “कुछ कहना है?”

    मैं अपने को बच्चे की तरह छोटा करके कहता हूँ- “मन्नो, मन नहीं होता जाने को।”

    मन्नो कुछ देर देखती रही। मैं चाहता हूँ, मन्नो कुछ भी कहे, कहे तो...

    एक छोटी-सी साँस जैसे छोटी-से-छोटी घड़ी के लिए उसके गले में अटकी, फिर, फिर घने स्वर में कहा- “एक-न-एक बार तो तुम्हें चले ही जाना है, रवि...”

    मैं हाथों से घेरकर उस देह को नहीं, तो उस स्वर को छू लेना चाहता हूँ, चूम लेना चाहता हूँ। “मन्नो!” आगे बढ़ता हूँ, कुछ रोक लेने की, थाम लेने की मुद्रा में मन्नो दोनों हाथ आगे डाल देती है, बस।

    “मन्नो!” अपना अनुरोध उस तक पहुँचाना चाहता हूँ।

    “नहीं।” इस “नहीं” के आगे नहीं है, और कुछ नहीं।

    मन्नो दुबला-सा हाथ हिलाकर आँखों से मुझे विदा देती है और मैं विवश-सा, व्यर्थ-सा नीचे उतरता हूँ।

    आँखों पर धुंध-सी उमड़ आती है, सँभलता हूँ, सँभलता हूँ और एक बार फिर पीछे देखता हूँ।

    बिलकुल ऐसे लगता है कि किनारे पर खड़ा हूँ और किश्ती में बैठी मन्नो वहीं चली जा रही है...वह मुझे नहीं देखती, नहीं देखती, उसकी आँखों के आगे उसके अपने हाथों की रोक है, अपने हाथों की ओट है।

    हाथों पर टिका मन्नो का सिर नीचे झुका है, आँखें शायद बंद हैं, शायद गीली हैं। उस कड़े आहत अभिमान की बात सोचकर छटपटाता हूँ।

    क़दम उठाकर फाटक के पास पहुँचा, तो सिसकियाँ सुनकर रुक गया।

    मन ही मन दुहराकर कहा- “मन्नो!...मन्नो!...”

    इसी पुकार को पलटकर जैसे उत्तर आया- “ठहरो नहीं! रुको नहीं!”

    सच ही मैं ठहरा नहीं। उतरता चला गया और हर पग के साथ दूर होता चला गया, उस कॉटेज से, कॉटेज में रहने वाली मन्नो से, मन्नो की उन दो आँखों से...पर मन्नो की स्मृति से नहीं। मन्नो की याद मुझे आज भी आती है। आज भी वह याद आती है, वह दुपहरी, जब मन्नो और मैं उस बड़ी झील के किनारे से लगी पगडंडी पर घूमते रहे थे। मीठा-मीठा-सा दिन था। पहली बार उस पीले चेहरे की मिठास के सम्मुख मैं पानी-सा बह गया था। एकटक उन घुँघराले बालों को देखता रह गया था। और देखता गया था शाल में लिपटे उन कंधों को, जो पैरों की धीमी चाल से थककर भी झुकते नहीं थे।

    परिक्रमा का अंतिम मोड़ आया, तो बहुत बड़े घने वृक्ष के नीचे देवी के दो छोटे-छोटे मंदिर दिखे। टीन के कपाट बंद थे। कुछ अधिक सोचकर आगे बढ़ने को हुआ कि मन्नो को देखकर रुक गया। खड़ी-खड़ी कुछ देर सोचती रही। फिर जूते उतार नंगे पाँव किनारे के पत्थरों से नीचे उतर गई। बड़े-से पत्थर पर पाँव जमाया और झुककर डंठल से कमल तोड़ वापिस लौट आई। मैं तो कुछ सोच नहीं रहा था, बस, देखता चला जा रहा था। शाल सिर पर कर लिया था और उन बंद कपाटों के आगे वाली दहलीज़ पर फूल रखकर सिर नवा दिया।

    मंदिर के बंद कपाटों के आगे माथा टेक उठी, तो मानो मन्नो-सी नहीं लग रही थी। ऐसे दिखा कि यह झुकी छाया मन्नो नहीं, कोई व्यर्थ हो गई विवशता हो, जिसने भाग्य के इन बंद कपाटों के आगे माथा टेक दिया था। इस निर्मम अकेलेपन के लिए मन में ढेर-सा दर्द उठ आया। बहते-से स्वर में कहा- “दर्शन करने का मन हो, मन्नो, तो किसी से पुज़ारी का स्थान पूछूँ?”

    मन्नो ने कुछ कहने से पहले स्वर को सँभाला, फिर सिर हिलाकर कहा- “नहीं, रवि, ऐसा कुछ नहीं। मुझे कौन वरदान माँगने हैं। अपने लिए तो कपाट बंद हो गए हैं। बस, इतना ही चाहती हूँ, यह कपाट उनके लिए खुले रहें, जिनसे बिछुड़कर मैं अलग पड़ी हूँ।”

    मन्नो को छूने का भय, उसके रोग का भय, जो अब तक मुझे रोकता था, बाँधता था, अलग जा पड़ा। झील की ठंडी हवा में फहराते-से घुँघराले बालों पर झुककर बाँह से घेरते हुए कहा- “मन्नो!...”

    मन्नो चौंकी नहीं। कंधे पर पड़ा हाथ धीरे से अलग कर दिया और समूची आँखों से देखते हुए बोली- “रवि, जिसे तुम झेल नहीं सकते, उसके लिए हाथ बढ़ाओ!”

    आवाज़ में उलाहना था, व्यंग्य था, कटुता। बस, जो कहने को था, वही कहा गया था। इस कहने का उत्तर मैं उस दिन नहीं दे पाया। बार-बार मन्नो के पास जाने पर भी नहीं दे पाया और नहीं दे पाया विदा के उन क्षणों में, जब मन्नो को रोता छोड़, मैं अंतिम बार ‘पाइन्स’ की उतराई उतरता चला गया था। जिस दुर्बलता से कायर बनकर डरा था, वह आज अपने पर ही बीत गई है। आज अपने लिए, मन्नो के लिए उस कायरता को कोसता हूँ।

    **

    घर में चहल-पहल थी। माँ को सुंदर बहू मिली, मुझे भली संगिनी। भोलेपन से मुस्कराती मीरा को देखता हूँ, तो कहीं खो जाने को मन चाहता है। लेकिन अब खोऊँगा क्यों? अब तो बँध गया हूँ, बँधा ही रहूँगा। आस-पास नाते-रिश्ते हैं, मित्र-बंधु हैं। ब्याह वाले घर के ऊँचे क़हक़हे सुनकर ख़ुशी से मन उमड़-उमड़ जाता है। कैसा आयोजन है यह भी! एक दिन जो बात शुरू हो जाती है, उसे सम्पूर्णतया पूर्ण कर दिया जाता है। इतने समूचे मन से ब्याह के सिवाय और क्या होता है, जो सम्पन्न होकर एक टेक पर, एक विराम पर पहुँच जाता है। तन-मन, घर-द्वार, अंदर-बाहर सब एक ही प्यार में भीग जाते हैं। कल मीरा को लेकर समुद्र-किनारे चला जाऊँगा। महीना-भर रुककर वहाँ के लिए प्रस्थान करेंगे, जहाँ अब तक मैं बेघर-सा होकर रहता रहा हूँ।

    **

    उस अपार, असीम सागर के किनारे एक-दूसरे पर छा-छा जाते हम घंटों घूमते रहे। बीच-बीच में ठहरते और मोहवश एक-दूसरे में छिपे अपने-अपने प्यार को चूमते। सुबह-शाम, दिन-रात कहाँ छिपते, कहाँ डूबते, यह हम देख-देखकर भी नहीं देखते थे।

    इसके बाद, प्रहरों की तरह बीत गए वे दस वर्ष। संग-संग लगे बिछोह से दूर मग्न दिन-रात। मीरा और बच्चों से दूर इस कॉटेज में पड़ा-पड़ा आज भी पीछे लौटता हूँ, तो बहुत निकट से किसी साँस का स्वर सुनता हूँ।

    हम कितने सुखी हैं, कितने! चाहता हूँ, किसी की आँखों में देखकर इसका उत्तर दूँ। किसी को छूकर कुछ कहूँ, पर सुनने वाला कोई नहीं। बच्चों के लिए मीरा ने मेरा मोह छोटा कर लिया।

    गए महीने रानीखेत जाते मीरा बच्चों के संग घंटे-भर को यहाँ रुकी थी। बरामदे में लेटे-लेटे उन तीनों को ऊपर आते देखता रहा। फाटक पर पहुँचकर मीरा पल-भर को ठिठकी थी। फिर दोनों हाथों से बच्चों को घेरे के अंदर ले आई।

    “मुन्ना, रानी, प्रणाम करो, बेटा।”

    बच्चों के झिझक से बँधे हाथ मेरी ओर उठे।

    देखकर कंठ भर आया। मेरा भाग्य मुझसे दूर, मुझसे अलग जा पड़ा है। मेरे ही बच्चे आश्चर्य की दृष्टि से मुझे देख माँ की आज्ञा का पालन कर रहे हैं।

    मीरा जब तक रही, आँखें पोंछती रही। कुछ कहने को, कुछ पूछने को उसका स्वर बँधा नहीं। अपने सुंदर सुकुमार बच्चों को अपने ही डर के कारण पूरी तरह निरख नहीं पाया। केवल मीरा की ओर देखता रहा कि जो आज मुझे मिलने आई है, उसमें मेरी पत्नी कहाँ है, कहाँ है वह जो सचमुच में मेरी थी।

    भरी आँखों से मीरा की कलाई की घड़ी देखने को निठुराई से आहत हो मैं फटी-फटी, रूखी दृष्टि से फाटक की ओर देखने लगा कि मेरा ही परिवार कुछ क्षण में मुझे यहाँ अकेला छोड़, मुझसे दूर चला जाएगा। एक बार मन हुआ कि बच्चों को पकड़ने वाली उन दो बाँहों को अपनी ओर खींचकर कहूँ, “मैं तुम्हें नहीं जाने दूँगा। नहीं जाने दूँगा!”—पर बच्चों की छोटी-छोटी आँखों का अपरिचय उस आवेश को दूर तक काटता चला गया।

    चौंककर देखा, मीरा पास आकर झुकी और अधरों से मस्तक छूकर हौले से पीछे हट गई। उठ बैठा कि एक बार प्यार दूँ, एक बार प्यार लूँ...कि हाथों में मुँह छिपा रोते-रोते मीरा इन बाँहों से लगी।

    मीरा की आँखों से भीगी अपनी रोती आँखों को पोंछकर आस-पास देखा, तो टूटा बाँध सब कुछ बहा ले गया था। पास मीरा थी, बच्चे...।

    तकियों के सहारे सिर ऊँचा करके देखा, उतराई के तीसरे मोड़ पर तीनों चले जा रहे थे। मीरा मेरी ओर से पीठ मोड़े आगे की ओर झुकी थी, बच्चे एक-दूसरे की अँगुली पकड़े कभी माँ को देखते थे, कभी राह को।

    साँस रोके प्रतीक्षा करता रहा, पर किसी ने पीछे नहीं देखा, मीरा ने, मेरे बेटे ने...केवल छोटी रानी के बालों में गुँथा गुलाबी रिबन देर तक हिल-हिलकर मेरी आँखों से कहता रहा- “पापा, हम चले गए!”

    **

    सच ही सब चले गए हैं। इसलिए नहीं कि उन्हें जाना था, इसलिए कि मैं चला जा रहा हूँ। ऐसे ही एक दिन मन्नो के जाने को भाँपकर मैं उतराई में उतरता चला गया था। मेरी ही तरह अकेले में मन्नो रोई थी। अब जान पाया हूँ कि हाथों में मुँह छिपाकर वह रोना कितना अकेला था! पर इस बार जाकर बरसों मैंने मन्नो की सुधि नहीं ली। जब कभी नींद में देखता, वह दुबली देह, बड़ी-बड़ी आँखें और कंबल पर फैली पतली-पतली बाँहें, तो जागकर उद्वेग से मीरा की ओर बढ़ जाता।

    एक बार दौरे पर लखनऊ आया, तो बुआ मिली। देर तक इधर-उधर की बातें करने के बाद एकाएक स्वर बदलकर बोली- “रवि, मन्नो तो अब नहीं रही।”

    “नहीं, बुआ”—मैं पिता हो जाने के गाम्भीर्य को सँभालते कहता हूँ- “नहीं, बुआ...”

    बुआ जैसे मुझे कई वर्षों पहले के उस रवि को कहती है- “रात को सोई तो जगी नहीं। अम्मा छुट्टी पर थीं। सुबह-सुबह ख्याली अंदर आया, तो साँस चुक गई थी।

    मैं रुँधे गले से जैसे कुछ पूछने को कहता हूँ- “बुआ।”

    बुआ आँख पोंछती-पोंछती कुछ सोचती रही, फिर दर्द से बोली- “रवि, एक बार उसे पत्र तो लिखते।”

    मैं रूमाल से रुलाई सोखने लगा।

    “तुम्हारे नाम का एक पारसल छोड़ गई थी आलमारी में। खोला, तो जर्सी थी।”

    दूसरे दिन बुआ के पास फिर आया, तो जल्दी-जल्दी पाँव छूकर कहा- “अच्छा बुआ...”

    “रवि”—बुआ की वही कल वाली आवाज़ थी। मैंने सिर हिलाकर घोर विवशता के-से स्वर में कहा- “नहीं, बुआ, नहीं।”

    बुआ समझ गई, मैं कुछ भी जानना नहीं चाहता हूँ। पर जैसे मन ही मन मन्नो के लिए टूटकर बोली- “यही बार-बार सोचती हूँ कि जिसके प्यार को भी कोई छू सके, ऐसा दुर्भाग्य उसे क्यों मिला, क्यों मिला?”

    **

    लखनऊ से लौटकर मैं कई दिन मन से मन्नो को उतार नहीं पाया। यही देखता कि ‘पाइन्स’ में कुर्सी पर बैठी वह मेरे लिए जर्सी तैयार कर रही है, वही हाथ हैं, वही दृष्टि है...

    **

    और एक दिन सालभर घर में बीमार रहने के बाद मैं भुवाली पहुँच गया। वही चीड़ की ठंडी हवाएँ थीं, वही सुहानी धूप थी। वही भुवाली थी और वही मैं था। पर इस बार किसी को पता करने मुझे पोस्ट ऑफ़िस की ओर नहीं जाना था। ‘पाइन्स’ के सामने वाले पहाड़ पर किसी के अभिशाप से बनी कॉटेज में पहली बार सोया, तो भर-भर आते कंठ से रातभर एक ही नाम पुकारता रहा- “मन्नो...मन्नो!:..आज वह होती...होती तो...”

    हर रोज़ सुबह उठते बरामदे से ‘पाइन्स’ देखता हूँ और मन ही मन पुकारता हूँ, “मन्नो!...मन्नो!!...”

    जिस मीरा को मैंने वर्षों जाना है, वह अब पास-सी नहीं लगती, अपनी-सी नहीं लगती। उसे मैंने छू-छूकर छुआ था, चूम-चूमकर चूमा था, पर मन पर जब मोह और प्यार की उछलन आती है, तो मीरा नहीं, मन्नो की आँखें ही सगी दिखती हैं।

    खिड़की के सामने लेटे-लेटे, अकेलेपन से घबराकर जब मैं बाहर देखता हूँ, तो धुंधभरे बादलों के घेरों में घुँघराले बालों वाला वही चेहरा दिखता है, वही...

    आए दिन दवा के नए बदलते हुए रंग देखकर अब इतना तो जान गया हूँ कि इस छूटते-छूटते तन में मन को बहुत देर भटकना नहीं है। एक दिन खिड़की से बाहर देखते-ही-देखते इन्हीं बादलों में समा जाऊँगा...इन्हीं घेरों में...

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