घनआनँद जीवन मूल सुजान

ghananand jiwan mool sujan

घनानंद

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घनआनँद जीवन मूल सुजान

घनानंद

और अधिकघनानंद

    घनआनँद जीवन मूल सुजान की कौंधनि हूँ कहूँ दरसैं।

    सु जानिए धौं कित छाय रहे दृग चौतग प्रान तपै तरसैं।

    बिन पावस तौ इन थ्यावस हो सु क्यों करि ये अब सो परसैं।

    बदरा बरसै रितु में घिरि कै नित ही अँखियाँ उधरी बरसैं॥

    जीवन के मूल और आनंद के घन सुजान की कौंध के भी दर्शन कहीं नहीं होते। पता नहीं वे कहाँ छाए हुए हैं। इधर नेत्ररूपी चातक के प्राण पिपासा और विरह से संतप्त हैं और उनके लिए तरस रहे हैं। ये नेत्ररूपी चातक बिना वर्षा के किसी प्रकार धैर्य धारण करनेवाले नहीं हैं। अत: उस वर्षा को कैसे प्राप्त करें यह इनके सामने जटिल समस्या है। इन्होंने सोचा की बादल की वह सुखदायिनी घटा जाने कब आए, अत: उसका भ्रम बनाए रखने के लिए इन्होंने अपने नेत्रों से स्वयं वर्षा आरंभ कर दी है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : घनानंद-कवित्त (पृष्ठ 102)
    • संपादक : चंद्रशेखर मिश्र
    • रचनाकार : घनानंद
    • प्रकाशन : वाणी वितान प्रकाशन, वाराणसी-1
    • संस्करण : 1972

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