प्रोफ़ेसर राही : सौंदर्य-बोध के मूड में

professor rahi ha saundarya bodh ke mood mein

लक्ष्मीकांत वर्मा

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प्रोफ़ेसर राही : सौंदर्य-बोध के मूड में

लक्ष्मीकांत वर्मा

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    आप कहेंगे कि यह सौंदर्य-बोध कौन-सी बला है? और इसका हास्य-रस से क्या संबंध है, लेकिन यक़ीन मानिए सौंदर्य-बोध और हास्य-रस की मिलावट इस युग की देन है और इस मिलावट के युग में इसका एक विशेष रस है! सौंदर्य-बोध का मज़ाक एक नया अंदाज़ है जिसकी रग-रगी और दिल हिला देने वाली दास्तान में वह-वह लच्छे है कि बस तबीयत ही अश-अश करके रह जाती है और इन सबके नायक हैं हमारे दोस्त, जिनसे आप सब परिचित हैं और जिनका पूरा नाम तो मुझे मालूम नहीं, बस इतना ही जानता हूँ—प्रोफ़ेसर राही—जी हाँ—वही प्रोफ़ेसर राही।

    वैसे तो प्रोफ़ेसर राही मेरे दोस्त होते हैं, किंतु दोस्त के साथ-साथ वह एक सौंदर्यशास्त्र के वक्ता, राजनीति के कर्ता और साहित्यशास्त्र के धर्ता भी हैं। जब उनके ऊपर सौंदर्यशास्त्र का भूत सवार होता है तो वह डेढ़ रुपये की मिट्टी वाली महात्मा बुद्ध की मूर्ति के लिए दस रुपए की चौकी बनवाते हैं, मुफ़्त अपने किसी चित्रकार मित्र की स्टूडियो से उड़ाई हुई तसवीर में मोटा, चौड़ा और पुख्ता चौखटा लगवाते हैं, विशालकाय पठाररूपी आँगन में गुलाब का पेड़ लगवाते हैं और बढ़िया से बढ़िया गेबरडीन और सर्जके सूट में ठर्रे वाला बटन होल लगवाते हैं ताकि कोई गुलाब की कली उसमें फाँसी न जाए, वरन उस ठर्रे में बाँधी जाए, ताकि कभी भी किसी भी हालत में वह छान-पगहा तुड़ाकर भागने न पावे और अगर भागने की कोशिश करे भी तो महज़ छटपटाकर रह जाए। लेकिन मुसीबत यह है कि प्रोफ़ेसर राही गुलाब की कली नहीं फूल लगाते हैं—फूल भी इतना बड़ा कि वह छोटी-मोटी गोभी के बराबर होता है। गले के नीचे बाईं तरफ़ दिल के ऊपर वह दिन में कई बार उगाया जाता है। गुलाब भी उनके घर की पैदावार है, इसलिए उसमें किफ़ायत नही करते। कहीं भी जाते समय वह डाल समेत उसे उखाड़ते हैं और झाड़-झंझाड़ के साथ अपने बटन होल में खोंसकर इठलाते हुए रिक्शे पर सवार होकर कम-से-कम दिन में एक बार घर से ज़रूर निकलते हैं। जूड़े के फूल के समान उनका फूल भी ऐसा चमकता है कि रास्ते के लोगों की निगाह उन पर बरबस पड़ ही जाती है और इस प्रकार उनका सौंदर्य-बोध हर दिशा से सर्वसम्मति के साथ स्वीकृत का अनुमोदन पाता हुआ ‘गद्द-गद्द’ हो जाता है।

    आज सुबह-सुबह जब मैं उनके यहाँ पहुँचा तो वह एक दुर्घटना में उलझे हुए परेशान बैठे थे। प्रोफ़ेसर राही को इस तरह परेशान होते मैंने दो बार देखा था। एक तो जब उनके कुँआरेपन पर उनके मित्रों की बीवियाँ उनकी लिहाड़ी ले रही थीं और वह अपने साथी विवेक—जो केवल ऐसे ही मौक़ों पर उनको धोखा देकर भाग जाता है—के अरदब में घिरे मुहरे की भाँति पिटे-पिटे से बैठे हुए थे और वह महिलाएँ कह रही थीं—‘क्या किया आपने राही साहब!

    यह फूल का घंटाघर दिल के ऊपर लटकाने से कुछ नहीं होता—इससे थोड़े ही कोई आपको दिल दे बैठेगा। और कुछ नरमाहट से काम लीजिए—संगीत से शौक़ कीजिए। कुछ पत्र-वत्र लिखिए, शायद काम बन जाए, नहीं तो... नहीं तो...

    और राही साहब पसीने से तर-बतर, विचित्र भ्रू-भंगिमा से मुस्कुराते और कुछ बुदबुदाकर रह जाते, अपने कुँआरेपन पर झख मारते और छत की कड़ियाँ गिनने लगते। कभी-कभी तो घबराहट में चाय पिलाने लगते, या अगर उससे भी नहीं बच पाते तो पूछते—‘आपको कोई उपन्यास चाहिए... यह लीजिए... यह टेढ़े-मेढ़े रास्ते... पढ़िए... यह पत्रिका पढ़िए... हाँ, कहिए श्यामाजी का क्या हाल है... हटाइए भी... छोडिए इस कुँआरेपन की बात।’ लेकिन औरतें भला कब छोड़तीं और ख़ासकर शादीशुदा पुराँयठ क़िस्म की औरतें कुँआरों को ऐसे ही देखती हैं, जैसे भूखा बंगाली भात को देखता है या बिल्ली शिकार में चूहे को देखती है। उनके लाख कहने पर भी वह कहती जातीं—’अरे लाला क्या करोगे यह कमरा सजाके, यह बुद्ध मूर्ति, यह गुलाब की फ़सल, यह रंग-बिरंगा कमरा, यह सुरमई परदा—यह सब बेकार है। उमर बीती जा रही है लाला—अब भी ग़नीमत है! कुछ कर गुज़रो नहीं तो क्या फ़ायदा!’ 

    लेकिन राही साहब सब सुनते जाते और जब वे बीवियाँ चली जातीं तो ग़ालिब का दीवान उठाते और अपनी क़िस्मत को कोसते हुए बड़े दर्द-भरे लहज़े में गाते— 

    ये न थी हमारी क़िस्मत कि विसाल-ए-यार होता
    अगर और जीते रहते यही इंतिज़ार होता
    कोई मेरे दिल से पूछे तिरे तीर-ए-नीम-कश को
    ये ख़लिश कहाँ से होती जो ज़िगर के पार होता

    ग़ज़ल गूँजती और गूँजकर रह जाती। कमरे की ठंडी मूर्तियाँ सुनतीं और ज़्यादा ठंडी हो जातीं। मीनाक्षी से लेकर अपरना तक की पेंटिंग्स उन्हें दर्द-भरी निगाहों से देखतीं और फिर ख़ामोश हो जातीं। कोट में लगा हुआ गुलाब थोडा झुकता लेकिन फिर सँभल जाता—यह होता क्योंकि इसके सिवा कुछ भी और नहीं हो पाता। 

    लेकिन आज जिस दुर्घटना में वह शामिल थे, वह दूसरे प्रकार की थी। हुआ यह था कि उनके कोट का वह बटन होल, जिसमें वह गुलाब की झाड़ खोंसकर चलते थे, टूट गया था। 

    उनको बेहद परेशान देखकर मैंने प्रस्ताव किया कि चलिए दर्ज़ी के यहाँ दूसरा बटन होल लगवा लें।

    और अंततोगत्वा हम दोनों दर्ज़ी की दुकान पर गए। प्रोफ़ेसर राही ने रास्ते में बटन होल पर अच्छी-ख़ासी तक़रीर दे डाली। मैं भी सुनता रहा, मसलन यह कि सोलहवीं सदी के इंग्लैंड में कैसे बटन होल्स बनते थे। फिर सत्रहवीं सदी के अँग्रेज़ी साहित्य में यह बटन होल उस साहित्य में कैसे पहुँचा। फिर अठारहवीं सदी के पूर्वार्द्ध में में पेरिस में इन बटन होल्स में क्या-क्या लगाया जाता था। उत्तरार्द्ध में यह कैसे उनकी पोशाक के साथ विकसित होकर कैसे-कैसे डिकेडेंड तत्वों का प्रतीक बना—ग़रज़ कि साहब दर्द के मारे प्रोफ़ेसर राही ने उस दिन वह-वह करतब दिखाए कि दर्ज़ी की दुकान तक पहुँचते-पहुँचते मेरी तबीयत झक हो गई और फिर भी उनकी बटन होल गाथा पूरी नहीं हुई, ज्यों-की-त्यों चलती रही।

    दर्ज़ी भी समझिए कि जाना-पहचाना था। प्रोफ़ेसर राही की रुचि के बारे भी उसने अच्छा-ख़ासा अध्ययन कर रखा था, इसलिए पहुँचते ही उसने प्रोफ़ेसर साहब को आदाब अर्ज़ किया और बोला, ‘कहिए, कैसे तशरीफ़ ले आए? क्या बटन होल फिर टूट गया?’ प्रोफ़ेसर राही ने ज़रा व्यंग्य के लहजे में कहा, ‘जी हाँ, सुना था मुसलमान दर्ज़ियों में ज़हनियत ज़्यादा होती है। अगर वे रगेगुल से बुलबुलों के पर बाँध सकते हैं तो रँगे रेशम से उनको फूल बाँधना तो आता ही होगा। लेकिन आपने तो वह सुबूत पेश किया है कि बस रँगे रेशम से फूल क्या, काँटे भी नहीं बाँध सके।’

    एक साँस में इतना कह देने के बाद जब प्रोफ़ेसर राही ने बात ख़त्म की तो दर्ज़ी ने बात शुरू की। बोला, ‘अजी साहब लगते तो फूल ही हैं और कुछ फूल के लिए महज़ एक इशारे का सहारा चाहिए, यह तो लगता है आप इसमें पूरा पेड़ ही लगा देते हैं। अगर ऐसा नहीं होता तो इसके टूटने की कोई गुंजाइश ही नहीं हो सकती थी।’

    प्रोफ़ेसर राही अब तक काफ़ी गुस्सा पी चुके थे। झुँझला कर बोले, ‘आप बकवास मत करिए। मैं जैसा हूँ, उस प्रकार का बटन होल बनाइए। क्या आप समझते हैं कि मैं इसमें स्वीटपी का फूल लगाऊँगा, मुझे गुलाब पसंद है, मैं गुलाब लगाता हूँ, गुलाब।’ दर्ज़ी से न रहा गया, झुँझलाकर बोला, ‘गुलाब भी कई क़िस्म के होते हैं—आप कली लगाते हैं कि फूल?’

    अब तक मैं सिर्फ़ सुन रहा था, बोला, ‘बड़े मियाँ कलियाँ तो नसीब वाले चुनते हैं। यह फूल लगाते हैं, फूल!’

    ‘जी हाँ, इसीलिए मैंने पूछा हज़ूर, क्योंकि यह बटन होल दिल के पास की जगह होती है—गुजायश का ख़्याल रखना चाहिए’, दर्ज़ी ने कहा।

    जी में आया कह दूँ, मियाँ यह बड़ा फूल लगाते इसलिए हैं कि उससे इनके दिल के विस्तार का सही अंदाज़ देखने वाले को लग जाए। अभी तक तो यह वीरान ही है—शायद फूल के पैमाने से दिल का चमन बाग़-बाग़ हो जाए, लेकिन अभी तो कोई सूरत नज़र नहीं आती। लेकिन मैंने राहीजी के तेवर देखकर कहा नहीं। दर्ज़ी भी काम में लग गया। थोड़ी देर बाद बटन होल बनाकर उसने पेश किया। इस बार उसने रेशम की डोरी का ठर्रा बनाया था और बट-बटकर उसे इतना तगड़ा किया था कि वह गैबरडीन की कोट पर उगा हुआ रेशम का कोया लग रहा था। प्रोफ़ेसर राही ने उसमें अपनी मोटी रेड ब्ल्यू पेंसिल डालकर देखना चाहा और वह फिर टूट गया। उसका टूटना था कि प्रोफ़ेसर ने कोट को दर्ज़ी के ऊपर फेंक दिया और गुस्से से काँपते हुए बोले—‘तुममें कुछ भी एस्थिटिक सेंस नहीं है—ऐसे बटन होल बनता है! ज़रा-सा सहारा दिया कि चट्ट टूट गया!’, और यह कहते हुए वह उलटे क़दम घर की ओर वापस आ गए।

    दूसरे दिन लोगों ने देखा कि उनके गैबरडीन पर उगा हुआ रेशमी कोया अब एक कीड़े की शक्ल का बटन होल बन गया था और उसके बीच गुलाब का एक पूरा गाछ ठूँसा हुआ था। कुछ दिनों तक लोगों ने टोका लेकिन अब सब चुप हो गए हैं क्योंकि देखने में बेढंगा लगने पर भी अब सबको वही देखने की आदत हो गई है। प्रोफ़ेसर ने नए सौंदर्य-बोध को जन्म दे दिया है। इस घटना को भी आज तीन साल हो चुके हैं। पास-पड़ोस के लोग कहते हैं कि यह नौजवान अकसर गुलबकावली के नायक की तरह आधी रात गए अपनी गुलाबबाड़ी में यह गाते हुए पाया जाता है— 

    ‘‘ये न थी हमारी क़िस्मत कि विसाल-ए-यार होता
    अगर और जीते रहते यही इंतिज़ार होता।’’

    स्रोत :
    • पुस्तक : आधुनिक हिंदी हास्य-व्यंग्य (पृष्ठ 219)
    • संपादक : केशवचंद्र वर्मा
    • रचनाकार : लक्ष्मीकांत वर्मा
    • प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ
    • संस्करण : 1961

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