नदरि करे ता सिमरिआ जाइ

nadari kare ta simaria jai

गुरु नानक

गुरु नानक

नदरि करे ता सिमरिआ जाइ

गुरु नानक

और अधिकगुरु नानक

    नदरि करे ता सिमरिआ जाइ। आतमा द्रवै रहै लिव लाइ॥

    आतमा परमातमा एको करै। अंतर की दुबिधा अंतरि मरै॥

    गुर परसादी पाइआ जाइ। हरि सिउ चितु लागै फिरि कालु खाइ॥ रहाउ॥

    सचि सिमरिऐ होवै परगासु। ताते बिखिआ महि रहै उदासु॥

    सतिगुर की ऐसी वडिआई। पुत्र कलत्र विचै गति पाई॥

    ऐसी सेवकु सेवा करै। जिस की जीउ तिसु आगै धरै॥

    साहिब भावै सो परवाणु। सो सेवकु दरगह पावै माणु॥

    सतिगुर की मूरति हिरदै वसाए। जो इछै सोई फलु पाए॥

    साचा साहिबु किरपा करै। सो सेवकु जम ते कैसा डरै॥

    भनति नानकु करे वीचारु। साची बाणी सिउ धरे पिआरु॥

    ता को पावै मोख दुआरु। जपु तपु सभु इहु सबदु है सारु॥

    यदि (हरी) कृपा करे, तभी उसका स्मरण किया जा सकता है, (अन्यथा नही)। (प्रभु की कृपा-दृष्टि से ही) (साधक की) आत्मा द्रवीभूत हो जाती है और (हरी के) एक निष्ठ [ध्यान में लग जाती है। (वह साधक) (अपनी) आत्मा को] परमात्मा से (युक्त करके) एक कर देता है (और उसके) अंतःकरण का द्वैतभाव (उसके) अंतर्गत ही अंतर्गत ही समाप्त हो जाता है।

    गुरु की कृपा से ही (हरी) पाया जाता है। हरी से चित्त लग जाने पर फिर काल नहीं भक्षण करता।

    सत्यस्वरूप (परमात्मा) का स्मरण करने से (ब्रह्मज्ञान का) प्रकाश हो जाता है। इस कारण (ब्रह्मज्ञानी माया के) विष में भी उदासीन उपराम रहता है (तात्पर्य यह है कि सांसारिक कार्यों को करता हुआ भी ब्रह्मज्ञानी निर्लिप्त रहता है। सद्गुरु की ऐसी महत्ता है (कि उसकी शिक्षा पर चलने से शिष्य) पुत्र-कलत्र के बीच रहते हुए भी (गृहस्थी में रहते हुए) मुक्ति पा लेता है।

    सेवक (परब्रह्म की) ऐसी आराधना करे कि जिस (प्रभु का) जीव है, उसे सम्रर्पित कर दे (तात्पर्य यह कि अपना जीवन परमात्मा को आज्ञा में व्यतीत करे, जो उसे अच्छा लगे, उसे शिरोधार्थ करे)। (जो) प्रभु को अच्छा लगता है, वही प्रामाणिक है और बही सेवक (परमात्मा के) दरबार में सम्मान पाता है।

    जो सदगुरु को मूर्ति (मूर्त्ति का भाव सद्गुरु के गुण, आचरण और माहात्म्य से है) (अपने) हृदय में बसा लेता है; वह जो इच्छा करता है, वही फल पा लेता है। (जिसके) ऊपर सच्चा साहब कृपा करता है, सेवक यमराज से क्यों डरे?

    नानक सोच विचार कर प्रार्थना करता है कि यदि कोई (गुरु की) सच्ची वाणी से प्यार करे तो वही मोक्ष-द्वार प्राप्त करता है। शब्द (नाम-जप) ही (वास्तविक) जप-तप और सब कुछ है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : गुरु नानकदेव वाणी और विचार (पृष्ठ 228)
    • संपादक : रमेशचंद्र मिश्र
    • रचनाकार : गुरु नानक
    • प्रकाशन : संत साहित्य संस्थान
    • संस्करण : 2003

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