साधो, पाँड़े निपुन कसाई

sadho, panDe nipun kasai

कबीर

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साधो, पाँड़े निपुन कसाई

कबीर

और अधिककबीर

    साधो, पाँड़े निपुन कसाई।

    बकरि मारि भेड़ि को धाये, दिल में दरद आई।

    करि अस्नान तिलक दै बैठे, विधि सों देवि पुजाई।

    आतन मारि पलक में बिनसे, रुधिर की नदी बहाई।

    अति पुनीत ऊँचे कुल कहिये, सभा माहिं अधिकाई।

    इनसे दिच्छा सब कोई माँगे, हँसि आवे मोहिं भाई।

    पाप-कटन को कथा सुनावैं, करम करावैं नीचा।

    बूड़त दोए परस्पर दीखे, गहे बाँहि जम खींचा।

    गाय बधै सो तुरक कहावै, यह क्या इनसे छोटे।

    कहैं कबीर सुनो भाई साधो, कलि में बाम्हन खोटे॥

    साधु, ये पाँड़े बड़े कुशल क़साई हैं। बकरी का बलिदान करके भेड़ की ओर लपकते हैं। इनके दिल में दया नाममात्र की भी नहीं है। स्नान करके तिलक लगाकार बैठते हैं और बड़ी विधि से भगवान की पूजा करते हैं। ये अपनी आत्मा को क्षण-भर में मार देते हैं और ख़ून की नदियाँ बहा देते हैं। ये बड़े पवित्र हैं और कुलीन घराने से संबंध रखते हैं। सभा में इनका बड़ा मान है। सब लोग इनसे दीक्षा लेते हैं और मुझे यह देखकर बड़ी हँसी आती है। लोगों के पाप काटने के लिए ये कथा सुनाते हैं और उनसे नीच काम करवाते हैं। मैंने दोनों को एक साथ डूबते देखा है। जिसको इन्होंने सहारा दिया उसी को ले डूबे। जो गाय को मारे वह मुसलमान कहलाता है लेकिन क्या ये पाँड़े उन मुसलमानों से कुछ कम हैं। कबीर कहते हैं कि कलियुग में ब्राह्मण बहुत खोटे हो गए हैं।

    स्रोत :
    • पुस्तक : कबीर बानी (पृष्ठ 89)
    • संपादक : अली सरदार जाफ़री
    • प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन प्रा. लि.
    • संस्करण : 2010

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