ई मन बनिया बान न छोडै

i man baniya ban na chhoDai

अनुवाद : यादवेंद्र

पलटू

पलटू

ई मन बनिया बान न छोडै

पलटू

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    मन बनिया बान छोडै।

    पूरा बाट तरे खिसकावै, घटिया को टकटोरै।

    पसँगा माहै करि चतुराई, पूरा कबहुँ तौलै॥

    घर में वाके कुमति बनियाइन, सबहिन को झकझोरै।

    लड़िका वाका महा हरामी, इमरित में विष घोरै॥

    पांच तत्त का जामा पहिरे, ऐंठा गुइँठा डोलै।

    जनम-जनम का है अपराधी, कबहूँ साच बोलै॥

    जल में बनिया थल में बनिया, घट घट बनिया बोलै।

    पलटू के गुरु समरथ साईं, कपट गाँठि जो खोलै॥

    मन छल-कपट करने में बनिया है, यह अपनी ग़लत आदत नहीं छोड़ता है। बनिया तौलते समय सही बाट को नीचे खिसकाकर घटिया बाट टटोलकर उससे अपना माल बेचते समय कम तौलता है। वह पासंग में भी चालाकी करता है और सही नहीं तौलता। यही बात मन की है। वह अच्छे विचारों को छोड़कर सदैव राग-द्वेषपूर्ण गंदे विचारों में डूबा रहता है। इस मन-बनिया के हृदय में कुबुद्धि रूपी बनियाइन स्त्री है। वह सबको नाना वासनाओं में डालकर झकझोरती रहती है। उस कुबुद्धि-बनियाइन के लड़के काम, क्रोध, लोभ आदि बड़े हरामी हैं। ये सदैव आत्मज्ञान रूपी अमृत में विषय-वासना तथा राग-द्वेष रूपी विष घोलते हैं। यह पाँच जड़ तत्वों का जामा शरीर पहनकर अहंकार में ऐंठा-ऐंठा घूमता है। यह अनादिकाल से जन्म-जन्मांतर का विषय-भोगों का अपराधी है। यह कभी सही राय नहीं देता। चाहे जल में रहे और चाहे थल में रहे, मनुष्य जहाँ रहे, उसके हृदय में मन- बनिया हर क्षण बोलता रहता है। पलटू कहते हैं कि मेरे सद्गुरु मन-विजयी समर्थ स्वामी हैं। वे मन की कपट गांठ को परखा कर खोलते हैं।

    स्रोत :
    • पुस्तक : पलटू साहेब की बानी (पृष्ठ 437)
    • संपादक : अभिलाषा दास
    • रचनाकार : पलटू
    • प्रकाशन : कबीर आश्रम, कबीर नगर, इलाहाबाद
    • संस्करण : 2012

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